Monday, 13 February 2017

हॉस्टल में पढ़ना / बुख़ारी

हम ने कॉलेज में तालीम तो ज़रूर पाई और रफ़्ता रफ़्ता बी,ए भी पास कर लिया, लेकिन इस निस्फ़ सदी के दौरान जो कॉलेज में गुज़ारनी पड़ी, हॉस्टल में दाख़िल होने की इजाज़त हमें स़िर्फ एक ही दफ़ा मिली ।

ख़ुदा का यह फ़ज़ल हम पर कब और किस तरह हुआ, ये सवाल एक दासतान का मोहताज है ।

जब हमने इंटरेंस पास किया तो मक़ामी स्कूल के हेड-मास्टर साहब ख़ास तौर पर मुबारक-बाद देने के लिए आए । क़रीबी रिश्तेदारों ने दावतें दीं । मोहल्ले वालों में मिठाई बाँटी गई और हमारे घर वालों पर यक-लख़्त इस बात का इंक्शाफ़ हुआ कि वो लड़का जिसे आज तक अपनी कोताह-बीनी की वजह से एक बेकार और नालायक़ फ़रज़न्द समझ रहे थे। दरअस्ल ला-महदूद क़ाबलियतों का मालिक है, जिस की नश-व-नुमा पर बेशुमार आने वाली नस्लों की बहबूदी का इनहिसार है। चुनांचे हमारी आईन्दा ज़िंदगी के मुताल्लिक़ तरह तरह की तजवीज़ों पर ग़ौर किया जाने लगा।

थर्ड डिवीज़न में पास होने की वजह से युनिवर्सिटी ने हमको वज़ीफा देना मुनासिब न समझा। चूँकि हमारे ख़ानदान ने ख़ुदा के फज़ल से आज तक कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया इस लिए वज़ीफ़े का न मिलना भी ख़ुसूसन उन रिश्तेदारों के लिए जो रिश्ते के लिहाज़ से ख़ानदान के मज़ाफात में बसते थे, फख़्र-व-मुबाहात का बाइस बन गया और “मरकज़ी रिश्ते-दारों” ने तो इस को पास-ए-वज़ा और हिफज़-ए-मरातिब समझ कर मुमतहिनों की शराफत-व-नजाबत को बे-इंतेहा सराहा। बहर-हाल हमारे ख़ानदान में फ़ालतू रूपये की बहतात थी, इस लिए बेला-तकल्लुफ़ ये फैसला कर लिया गया कि न सिर्फ़ हमारी बल्कि मुल्क-व-क़ौम और शायद बनी-नौ-ए-इन्सान की बेहतरी के लिए ये ज़रूरी है कि ऐसे होनहार तालिब-ए-इल्म की तालीम जारी रखी जाए ।

इस बारे में हम से भी मश्वरा लिया गया। उम्र भर में इस से पहले हमारे किसी मामले में हम से राय तलब न की गई थी, लेकिन अब तो हालात बहुत मुख़्तलिफ़ थे। अब तो एक ग़ैर-जानिब-दार और ईमान-दार मुंसिफ़ यानी यूनीवर्सिटी हमारी बे-दार-मग़्ज़ी की तसदीक़ कर चुकी थी। अब भला हमें क्यूँ नज़र-अंदाज़ किया जा सकता था। हमारा मश्वरा ये था कि हमें फौरन विलायत भेज दिया जाए। हम ने मुख़्तलिफ़ लीडरों की तक़रीरों के हवाले से ये साबित किया कि हिंदुस्तान का तरीक़ा-ए-तालीम बहुत नाक़िस है। अख़बारात में से इश्तिहार दिखा-दिखा कर ये वाज़ह किया कि विलायत में कॉलेज की तालीम के साथ साथ फ़ुर्सत के औक़ात में बहुत थोड़ी-थोड़ी फ़ीस दे कर बयक-वक़्त जर्नलिज़्म,फ़ोटो ग्राफ़ी, तसनीफ़-व-तालीफ़, दनदान साज़ी, ऐनक साज़ी, एजेंटों का काम, गर्ज़ कि बे-शुमार मुफ़ीद और कम ख़र्च में बाला-नशीं पेशे सीखे जा सकते हैं और थोड़े अरसे के अंदर इंसान हर-फ़न मौला बन सकता है।

लेकिन हमारी तजवीज़ को फौरन रद्द कर दिया गया, क्योंकि विलायत भेजने के लिए हमारे शहर में कोई रिवायात मौजूद न थीं। हमारे गिर्द-व-नवाह में से किसी का लड़का अभी तक विलायत न गया था इस लिए हमारे शहर की पब्लिक वहाँ के हालात से क़तअन नावाक़िफ थी।

इस के बाद फिर हम से राय तलब न की गई और हमारे वालिद, हेड-मास्टर साहब, तहसील-दार साहब इन तीनों ने मिल कर ये फ़ैसला किया कि हमें लाहौर भेज दिया जाए ।

जब हमने यह ख़बर सुनी तो शुरू-शुरू में हमें सख़्त मायूसी हुई, लेकिन इधर उधर के लोगों से लाहौर के हालात सुने तो मालूम हुआ कि लंदन और लाहौर में चंदाँ फ़र्क़ नहीं। बाज़ वाक़िफ़-कार दोस्तो ने सिनेमा के हालात पर रौशनी डाली। बाज़ ने थिएटरों के मक़ासिद से आगाह किया। बाज़ ने ठंडी सड़क वग़ैरह के मशाग़िल को सुलझा कर समझाया। बाज़ ने शाहदरे और शाला-मार की अरमान अंगेज़ फ़ज़ा का नक़्शा खींचा चुनांचे जब लाहौर का जुग़राफ़िया पूरी तरह हमारे ज़हन नशीन हो गया तो साबित ये हुआ कि खुश-गवार मक़ाम है और आला दर्जे की तालीम हासिल करने के लिए बे-हद मौज़ूँ। इस पर हमने अपनी ज़िंदगी का प्रोग्राम वज़ा करना शुरू कर दिया। जिस में लिखने पढ़ने को जगह तो ज़रूर दी गई लेकिन एक मुनासिब हद तक, ताकि तबीयत पर कोई ना-जायज बोझ न पड़े और फ़ितरत अपना काम हुस्न-व- ख़ूबी के साथ कर सके।

लेकिन तहसील-दार साहब और हेड-मास्टर साहब की नेक-नियति यहीं तक महदूद न रही। अगर वो सिर्फ़ एक आम और मुजमल सा मश्वरा दे देते कि लड़के को लाहौर भेज दिया जाए तो बहुत ख़ूब था, लेकिन उनहोंने तो तफ़सीलात में दख़्ल देना शुरु कर दिया और हॉस्टल की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी का मुक़ाबला कर के हमारे वालिद पर ये साबित कर दिया कि घर पाकीज़गी और तहारत का एक काबा और हॉस्टल गुनाह-व-मासियत का एक दोज़ख है। एक तो थे वो चर्ब ज़बान, इस पर उन्होंने बे-शुमार ग़लत बयानियों से काम लिया चुनांचे घर वालों को यक़ीन सा हो गया कि कॉलेज का हॉस्टल जरायम पेशा अक़्वाम की एक बस्ती है और जो तलबा बाहर के शहरों से लाहौर जाते हैं अगर उनकी पूरी निगेह-दाश्त न की जाए तो वो अक्सर या तो शराब के नशे में चूर सड़क के किनारे किसी नाली में गिरे हुए पाए जाते हैं या किसी जुए ख़ाने में हज़ार-हा रुपये हार कर खुद-कुशी कर लेते हैं या फिर फ़र्स्ट-इयर का इम्तिहान पास करने से पहले दस बारह शादियाँ कर बैठते हैं ।

चुनांचे घर वालों को ये सोचने की आदत पड़ गई कि लड़के को कॉलेज में तो दाख़िल किया जाए लेकिन हॉंस्टल में न रखा जाए । कॉलेज ज़रूर, मगर हॉस्टल हरगिज़ नहीं । कॉलेज मुफ़ीद, मगर हॉस्टल मुज़िर । वो बहुत ठीक, मगर ये नामुमकिन। जब उन्होंने अपनी ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐन ही ये बना लिया कि कोई ऐसी तरकीब सोची जाए, जिस से लड़का हॉस्टल की ज़द से महफ़ूज़ रहे तो किसी ऐसी तरकीब का सूझ जाना क्या मुश्किल था। ज़रूरत ईजाद की माँ है। चुनांचे अज़-ह़द गौर-व-खौज़ के बाद लाहौर में हमारे एक मामूँ दरयाफ़्त किए गए और उनको हमारा सर-परस्त बना दिया गया। मेरे दिल में उनकी इज़्ज़त पैदा करने के लिए बहुत से शजरों की वरक़ गर्दानी से मुझ पर ये साबित किया गया कि वो वाक़ई मेरे मामूँ हैं। मुझे बताया गया कि जब मैं शीर-ख़्वार बच्चा था तो वो मुझ से बेइंतहा मुहब्बत किया करते थे, चुनांचे फैसला यह हुआ कि हम पढ़ें कॉलेज में और रहें मामूँ के घर ।

उस से तहसील-ए-इल्म का जो एक वलवला सा हमारे दिल में उठ रहा था, वो कुछ बैठ सा गया। हम ने सोचा यह मामूँ लोग अपनी सर-परस्ती के ज़ोम में वालदैन से भी ज़्यादा एहतियात बरतेंगें, जिस का नतीजा यह होगा कि हमारे दिमाग़ी और रूहानी क़वा को फ़लने फ़ूलने का मौक़ा न मिलेगा और तालीम का अस्ली मक़्सद फ़ौत हो जाएगा, चुनांचे वही हुआ जिस का हमें ख़ौफ़ था। हम रोज़-ब-रोज़ मुरझाते चले गए और हमारे दिमाग़ पर फफूँदी सी जमने लगी। सिनेमा जाने कि इजाज़त कभी कभार मिल जाती थी लेकिन इस शर्त पर कि बच्चों को भी साथ लेता जाऊँ। इस सोहबत में भला मैं सिनेमा से क्या अख़्ज़ कर सकता था। थिएटर के मामले में हमारी मालूमात इंद्र सभा से आगे बढ़ने न पाईं । तैरना हमें न आया क्युँकि हमारे मामूँ का एक मशहूर क़ौल है कि “डूबता वही है जो तैराक हो” जिसे तैरना न आता हो वो पानी में घुसता ही नहीं। घर पर आने जाने वाले दोस्तों का इन्तिख़ाब मामूँ के हाथ में था। कोट कितना लम्बा पहना जाए और बाल कितने लम्बे रखे जाएँ, इनके मुताल्लिक़ हिदायात बहुत कड़ी थीं। हफ़्ते में दो बार घर ख़त लिखना ज़रूरी था। सिगरेट ग़ुस्ल-ख़ाने में छुप कर पीते थे। गाने बजाने की सख़्त ममानियत थी।

ये सिपाहियाना ज़िंदगी हमें रास न आई । यूँ तो दोस्तों से मुलाक़ात भी हो जाती थी। सैर को भी चले जाते थे। हंस बोल भी लेते थे लेकिन वो जो ज़िंदगी में एक आज़ादी, एक फ़र्राख़ी, एक वाबस्तगी होनी चाहिए वो हमें नसीब न हुई। रफ़्ता रफ़्ता हमने अपने माहौल पर ग़ौर करना शुरू किया कि मामूँ जान अमूमन किस वक़्त घर में होते हैं, किस वक़्त बाहर जाते हैं, किस कमरे में से किस कमरे तक गाने की आवाज़ नहीं पहुँच सकती, किस दरवाज़े से कमरे के किस कोने में झांकना नामुमकिन है, घर का कौन सा दरवाज़ा रात के वक़्त बाहर से खोला जा सकता है, कौन सा मुलाज़िम मवाफ़िक़ है, कौन सा नमक हलाल है। जब तजरेबे और मुताले से इन बातों का अच्छी तरह अन्दाज़ा हो गया तो हमने इस ज़िंदगी में भी नशो-व-नुमा के लिए चंद गुंजाइशें पैदा कर लीं लेकिन फिर भी हम रोज़ देखते थे कि हॉस्टल में रहने वाले तलबा किस तरह अपने पाँव पर खड़े हो कर ज़िंदगी की शाहराह पर चल रहे हैं । हम उनकी ज़िंदगी पर रश्क करने लगे। अपनी ज़िंदगी को सुधारने की ख़्वाहिश हमारे दिल में रोज़-ब-रोज़ बढ़ती गई । हम ने दिल से कहा, वालदैन की नाफ़रमानी किसी मज़हब में जायज़ नहीं लेकिन उन की ख़िदमत में दरख़्वास्त करना, उन के सामने अपनी नाक़िस राय का इज़हार करना, उनको सही वाक़यात से आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है और दुनिया की कोई ताक़त मुझे अपने फर्ज़ की अदायगी से बाज़ नहीं रख सकती।

चुनांचे जब गर्मियों की तातीलात में, मैं वतन को वापस गया तो चंद मुख़्तसर मगर जामे और मुअस्सिर तक़रीरें अपने दिमाग़ में तैयार रखीं । घर वालों को हॉस्टल पर सब से बड़ा एतराज़ ये था कि वहाँ की आज़ादी नौ-जवानों के लिए अज़-हद मुज़िर होती है । इस ग़लत-फ़हमी को दूर करने के लिए हज़ार हा वाक़यात ऐसे तसनीफ़ किए जिन से हॉस्टल के क़वायद की सख़्ती उन पर अच्छी तरह रौशन हो जाए । सुपेरिटेंडेंट साहब के ज़ुल्म-व-त्शदुद् की चंद मिसालें रिक्क़्त अंगेज़ और हैबत ख़ेज़ पैराएमें सुनाईं । आँखें बंद कर के एक आह भरी और बेचारे अश्फ़ाक़ का वाक़या बयान किया कि एक दिन शाम के वक़्त बेचारा हॉस्टल को वापस आ रहा था। चलते चलते पाँव में मोच आ गई । दो मिनट देर से पहुँचा। सिर्फ़ दो मिनट। बस साहब उस पर सुपेरिटेंडेंट साहब ने फ़ौरन तार दे कर उस के वालिद को बुलवा लिया। पुलिस से तहक़ीक़ात करने को कहा और महीने भर के लिए उस का जेब ख़र्च बंद करवा दिया। तौबा है इलाही !

लेकिन ये वाक़या सुन कर घर के लोग सुपेरिटेंडेंट साहब के मुखालिफ़ हो गए । हॉस्टल की ख़ूबी उन पर वाज़ह न हुई। फिर एक दिन मौक़ा पा कर बेचारे महमूद का वाक़या बयान किया कि एक दफा शामत-ए-आमाल बेचारा सिनेमा देखने चला गया। क़ुसूर उस से यह हुआ कि एक रुपये वाले दर्जे में जाने के बजाय वो दो रूपये वाले दर्जे में चला गया। बस इतनी सी फ़ुज़ूल खर्ची पर उसे उम्र भर सिनेमा जाने की मोमाने-अत हो गई है ।

लेकिन इस से भी घर वाले मुतास्सिर न हुए । उन के रवैये से मुझे फ़ौरन एहसास हुआ कि एक रूपये और दो रुपये के बजाय आठ आने और एक रूपया कहना चाहिए था ।

इन्हीं नाकाम कोशिशों में तातीलात गुज़र गईं और हमने फिर मामूँ की चौखट पर आकर सजदा किया ।

अगली गर्मियों की छुट्टियों में जब हम फिर घर गए तो हम ने एक नया ढंग इख़्तियार किया । दो साल तालीम पाने के बाद हमारे ख़्यालात में पुख़्तगी सी आ गई थी ।

पिछ्ले साल हॉस्टल की हिमायत में जो दलायल हमने पेश की थीं वो अब हमें निहायत बोदी मालूम होने लगी थीं । अब के हमने इस मौज़ू पर एक लेक्चर दिया कि जो शख़्स हॉस्टल की ज़िंदगी से महरूम हो,उस की शख़्सियत नामुकम्मल रह जाती है । हॉस्टल से बाहर शख़्सियत पनपने नहीं पाती । चंद दिन तो हम इस पर फ़लसफ़याना गुफ़्तगू करते रहे और नफ़्सियात के नुक्ता-ए-नज़र से इस पर बहुत कुछ रौशनी डाली लेकिन हमें महसूस हुआ कि बग़ैर मिसालों के काम न चलेगा और जब मिसालें देने की नौबत आई तो ज़रा दिक़्क़त महसूस हुई । कॉलेज के जिन तलबा के मुताल्लिक़ मेरा ईमान था कि वो ज़बरदस्त शख़्सियतों के मालिक हैं, उनकी ज़िंदगी कुछ ऐसी न थी कि वालदैन के सामने बतौर नमूने के पेश की जा सके। हर वो शख़्स जिसे कॉलेज में तालीम हासिल करने का मौक़ा मिला है जानता है कि “वालदैनी अग़राज़” के लिए वाक़यात को एक नए और अछुते पैराए में बयान करने की ज़रूरत पेश आती है, लेकिन इस नए पैराए का सूझ जाना इलहाम और इत्तेफ़ाक़ पर मुनहसिर है । बाज़ रौशन ख़्याल बेटे वालदैन को अपने हैरत-अंगेज़ औसाफ़ का क़ायल नहीं कर सकते और बाज़ नालायक़ से नालायक़ तालिब-ए-इल्म वालदैन को कुछ इस तरह मुतमईन कर देते हैं कि हर हफ़्ते उन के नाम मनी-आर्डर पे मनी-आर्डर चला आता है।

बना-दाँ आँ चुनाँ रोज़ी रसांद

कि दाना अन्दराँ हैराँ बमांद

जब हम डेढ़ महीने तक शख़्सियत और ‘हॉस्टल की ज़िंदगी पर इस का इनहसार’ उन दोनों मज़मूनों पर वक़्तन-फ़ौक़्तन अपने ख़्यालात का इज़हार करते रहे, तो एक दिन वालिद ने पूछा :

“ तुम्हारा शख़्सियत से आख़िर मतलब क्या है ? ”

मैं तो ख़ुदा से यही चाहता था कि वो मुझे अर्ज़-व-मारूज़ का मौक़ा दें । मैं ने कहा “ देखिए ना ! मसलन एक तालिब-ए-इल्म है । वो कॉलेज में पढ़ता है। अब एक तो उसका दिमाग़ है । एक उसका जिस्म है । जिस्म की सेहत भी ज़रूरी है और दिमाग़ की सेहत तो जरूरी है ही, लेकिन इनके अलावा एक और बात भी होती है जिस से आदमी गोया पहचाना जाता है । मैं उसको शख़्सियत कहता हूँ। उसका तअल्लुक़ न जिस्म से होता है न दिमाग़ से । हो सकता है कि एक आदमी की जिस्मानी सेहत बिल्कुल ख़राब हो और उसका दिमाग़ भी बिल्कुल बेकार हो लेकिन फिर भी उसकी शख़्सियत .......न ख़ैर दिमाग़ तो बेकार नहीं होना चाहिए , वरना इंसान ख़ब्ती होता है । लेकिन फिर भी अगर हो भी, तो भी..... गोया शख़्सियत एक ऐसी चीज़ है..... ठहरिये, मैं अभी एक मिनट में आप को बताता हूँ । ”

एक मिनट के बजाय वालिद ने मुझे आधे घंटे की मोहलत दी जिस के दौरान वो ख़ामोशी के साथ मेरे जवाब का इंतिज़ार करते रहे । इस के बाद वहाँ से उठ कर चला आया ।

तीन चार दिन बाद मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ । मुझे शख़्सियत नहीं सीरत कहना चाहिए । शख़्सियत एक बेरंग सा लफ़्ज़ है । सीरत के लफ़्ज़ से नेकी टपकती है । चुनांचे मैंने सीरत को अपना तकिया-कलाम बना लिया लेकिन यह भी मुफ़ीद साबित न हुआ। वालिद कहने लगे: “ क्या सीरत से तुम्हारा मतलब चाल चलन है या कुछ और ? ”

मै ने कहा : “ चाल चलन ही कह लीजिए ”

“ तो गोया दिमाग़ी और जिस्मानी सेहत के अलावा चाल चलन भी अच्छा होना चाहिए ? ”

मैं ने कहा “ बस यही तो मेरा मतलब है । ”

“ और यह चाल-चलन हॉस्टल में रहने से बहुत अच्छा हो जाता है ? । ”

मैं ने निस्बतन नहीफ़ आवाज़ से कहा “ जी हाँ । ”

यानी हॉस्टल में रहने वाले तालिब-ए-इल्म नमाज़-रोज़े के ज़्यादा पाबंद होते हैं । मुल्क की ज़्यादा ख़िदमत करते हैं । सच ज़्यादा बोलते हैं । नेक ज़्यादा होते हैं । ”

मैं ने कहा : “ जी हाँ । ”

कहने लगे : “ वो क्यूँ ? ”

इस सवाल का जवाब एक बार प्रिंसिपल साहब ने तक़सीम-ए-इनआमात के जलसे में निहायत वज़ाहत के साथ बयान किया था । ऐ काश मैं ने उस वक़्त तवज्जो से सुना होता ।

इस के बाद फिर साल भर मैं मामूँ के घर में “ ज़िंदगी है तो ख़ज़ाँ के भी गुज़र जाएंगे दिन ” गाता रहा ।

हर साल मेरी दरख़्वास्त का यही हश्र होता रहा । लेकिन मैं ने हिम्मत न हारी । हर साल नाकामी का मुंह देखना पड़ता लेकिन अगले साल गर्मियों की छुट्टी में पहले से भी ज़्यादा शद-व-मद के साथ तबलीग़ का काम जारी रखता । हर दफ़ा नई-नई दलीलें पेश करता, नई-नई मिसालें काम में लाता । जब शख़्सियत और सीरत वाले मज़मून से काम न चला तो अगले साल हॉस्टल की ज़िंदगी के इनज़बात और बाक़ायदगी पर तब्सिरा किया । इस से अगले साल यह दलील पेश की कि हॉस्टल में रहने से प्रोफ़ेसरों के साथ मिलने जुलने के मौक़े ज़्यादा मिलते रहते हैं और इन “ बेरून-अज़-कॉलेज ” मुलाक़तों से इंसान पारस हो जाता है । इस से अगले साल ये मतलब यूँ अदा किया कि हॉस्टल की आब-व-हवा बड़ी अच्छी होती है, सफ़ाई का ख़ास तौर से ख़्याल रखा जाता है । मख्खियाँ और मच्छर मारने के लिए कई-कई अफ़्सर मुक़र्रर हैं । इस से अगले साल यूँ सुखन-पैरा हुआ कि जब बड़े-बड़े हुक्काम कॉलेज का मुआईना करने आते हैं तो हॉस्टल में रहने वाले तलबा से फ़रदन फ़रदन हाथ मिलाते हैं । इस से रुसूख़ बढ़ता है, लेकिन जूँ जूँ ज़माना गुज़रता गया मेरी तक़रीरों में जोश बढ़ता गया लेकिन माक़ूलियत कम होती गई । शुरू शुरू में हॉस्टल के मसले पर वालिद मुझ से बाक़ायदा बहस किया करते थे । कुछ अरसे बाद उन्होंने यक-लफ़ज़ी इनकार का रवैया इख़्तियार किया । फिर एक आध साल मुझे हंस के टालते रहे और आख़िर में यह नौबत आन पहुँची कि वो हॉस्टल का नाम सुनते ही एक तन्ज़-आमेज़ क़हक़हे के साथ मुझे तशरीफ ले जाने का हुक्म दे दिया करते थे ।

उन के इस सुलूक से आप यह अंदाज़ा न लगाइए कि उन की शफ़्क़त कुछ कम हो गई थी । हरगिज़ नहीं । हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है कि बाज़ ना-गवार हादसात की वजह से घर में मेरा इक़तदार कुछ कम हो गया था ।

इत्तेफ़ाक़ यह हुआ कि मैं ने जब पहली मर्तबा बी,ए का इम्तिहान दिया तो फ़ेल हो गया । अगले साल एक मर्तबा फिर यही वाक़या पेश आया । इस के बाद भी जब तीन चार दफ़ा यही क़िस्सा हुआ तो घर वालों ने मेरी उमंगों में दिल्चस्पी लेनी छोड़ दी । बी,ए में पै दर पै फ़ेल होने की वजह से मेरी गुफ़्तगू में एक सोज़ तो ज़रूर आ गया था लेकिन कलाम में वो पहले जैसी शौकत और मेरी राय की वो पहले जैसी वक़अत अब न रही थी।

मैं ज़मान-ए-तालिब-इलमी के उस दौर का हाल ज़रा तफ़सील से बयान करना चाहता हूँ क्यूँकि इस से एक तो आप मेरी ज़िंदगी के नशीब-व-फ़राज़ से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो जाएंगे और इस के अलावा इस से यूनीवर्सिटी की बाज़ बे-क़ायदगीयों का राज़ भी आप पर आशकार हो जाएगा । मैं पहले साल बी,ए में क्यूँ फ़ेल हुआ, इस का समझना बहुत आसान है । बात ये हुई कि जब हम ने एफ़,ए का इम्तिहान दिया तो चूँकि हमने काम ख़ूब दिल लगा कर किया था इस लिए इस में “कुछ” पास ही हो गए । बहर-हाल फ़ेल न हुए । यूनीवर्सिटी ने यूँ तो हमारा ज़िक्र बड़े अच्छे अलफ़ाज़ में किया लेकिन रियाज़ी के मुताल्लिक़ ये इरशाद हुआ कि सिर्फ़ इस मज़मून का इम्तिहान एक आध दफ़ा फिर दे डालो । (ऐसे इम्तिहान को इस्तलाहन कम्पार्टमेंट का इम्तिहान कहा जाता है । शायद इसलिए कि बग़ैर रज़ा-मंदी अपने हमराही मुसाफ़िरों के अगर कोई इस में सफ़र कर रहे हों मगर नक़ल नवेसी की सख़्त मुमानियत है । )

अब जब हम बी,ए में दाख़िल होने लगे तो हमने यह सोचा कि बी,ए में रियाज़ी लेंगे । इस तरह से कम्पार्टमेंट के इम्तिहान के लिए फ़ालतू काम न करना पड़े गा । लेकिन हमें सब लोगों ने यही मश्वरा दिया कि तुम रियाज़ी मत लो । जब हम ने इस की वजह पूछी तो किसी ने हमें कोई माक़ूल जवाब न दिया लेकिन जब प्रिंसिपल साहब ने भी यही मश्वरा दिया तो हम रज़ा-मंद हो गए, चुनांचे बी,ए में हमारे मज़ामीन अंग्रेज़ी, तारीख़ और फ़ारसी क़रार पाए । साथ साथ हम रियाज़ी के इम्तिहान की भी तैयारी करते रहे । गोया हम तीन की बजाए चार मज़मून पढ़ रहे थे । इस तरह से जो सूरत-ए-हालात पैदा हुई उसका अंदाज़ा वही लोग लगा सकते थे जिन्हें यूनीवर्सिटी के इम्तिहानात का काफ़ी तजर्बा है । हमारी क़ुव्वत-ए-मुताला मुंतशिर हो गई और ख़्यालात में परागंदगी पैदा हुई । अगर मुझे चार की बजाए सिर्फ़ तीन मज़ामीन पढ़ने होते तो जो वक़्त मैं फ़िलहाल चौथे मज़मून को दे रहा था वो बांट कर मैं उन तीन मज़ामीन को देता, आप यक़ीन मानिए इस से बड़ा फर्क़ पड़ जाता और फर्ज़ किया अगर मैं वो वक़्त तीनों को बांट कर न देता बल्कि सब का सब उन तीनों में से किसी एक मज़मून के लिए वक़्फ कर देता तो कम-अज़-कम उस मज़मून में ज़रूर पास हो जाता, लेकिन मौजूदा हालात में तो वही होना लाज़िम था जो हुआ, यानी ये कि मैं किसी मज़मून पर कमाहक़्हू तवज्जो न कर सका । कम्पार्टमेंट के इम्तिहान में तो पास हो गया, लेकिन बी,ए में एक तो अंग्रेज़ी में फ़ेल हुआ । वो तो होना ही था, क्यूँकि अंग्रेज़ी हमारी मादरी ज़बान नहीं । इसके अलावा तारीख और फ़ारसी में भी फ़ेल हो गया । अब आप सोचिए ना कि जो वक़्त मुझे कम्पार्टमेंट के इम्तिहान पर सर्फ़ करना पड़ा वो अगर मैं वहाँ सर्फ़ न करता बल्कि उसकी बजाए ........ मगर ख़ैर यह बात मैं पहले अर्ज़ कर चुका हूँ ।

फ़ारसी में किसी ऐसे शख़्स का फ़ेल होना जो एक इल्म दोस्त ख़ानदान से तअल्लुक़ रखता हो लोगों के लिए अज़-हद हैरत का मोजिब हुआ और सच पूछिये तो हमें भी इस पर सख़्त नदामत हुई, लेकिन ख़ैर अगले साल ये नदामत धुल गई और हम फ़ारसी में पास हो गए । इस से अगले साल तारीख़ में पास हो गए और उस से अगले साल अंग्रेज़ी में ।

अब क़ायदे की रो से हमें बी,ए का सर्टिफिकेट मिल जाना चाहिए था, लेकिन यूनीवर्सिटी की इस तिफ़लाना ज़िद का क्या इलाज कि तीनों मज़मूनों में बयक-वक़्त पास होना ज़रूरी है । बाज़ तबाए ऐसे हैं कि जब तक यकसूई न हो, मुताला नहीं कर सकतीं । क्या ज़रूरी है कि उन के दिमाग़ को ज़बरदस्ती एक खिचड़ी सा बना दिया जाए । हम ने हर साल सिर्फ़ एक मज़मून पर अपनी तमाम तर तवज्जो दी और इस में वो कामियाबी हासिल की कि बायद-व-शायद । बाक़ी दो मज़मून हमने नहीं देखे लेकिन हम ने यह तो साबित कर दिया कि जिस मज़मून में चाहें पास हो सकते हैं ।

अब तक दो मज़मूनों में फ़ेल होते रहे थे, लेकिन इस के बाद हमने तहय्या कर लिया कि जहाँ तक हो सकेगा अपने मुताले को वसी करेंगे। यूनीवर्सिटी के बे-हूदा और बे-माना क़वायद को हम अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ नहीं बना सकते तो अपनी तबीयत पर ही कुछ ज़ोर डालें लेकिन जितना ग़ौर किया इसी नतीजे पर पहुँचे कि तीन मज़मूनों में बयक-वक़्त पास होना फ़िलहाल मुश्किल है । पहले दो में पास होने की कोशिश करनी चाहिए । चुनांचे हम पहले साल अंग्रेज़ी और फ़ारसी में पास हो गए और दूसरे साल फ़ारसी और तारीख़ में ।

जिन जिन मज़ामीन में हम जैसे जैसे फ़ेल हुए वो इस नक़्शे से ज़ाहिर हैं :

1- अंग्रेज़ी- तारीख़- फ़ारसी

2- अंग्रेज़ी- तारीख़

3- अंग्रेज़ी- फ़ारसी

4- तारीख़- फ़ारसी

गोया जिन जिन तरीक़ों से हम दो-दो मज़ामीन में फ़ेल हो सकते थे वो हम ने पूरे कर दिए । इस के बाद हमारे लिए दो मज़ामीन में फ़ेल होना नामुमकिन हो गया और एक एक मज़मून में फ़ेल होने की बारी आई । चुनांचे अब हमने मन्द्र्जह ज़ैल नक़्शे के मुताबिक़ फ़ेल होना शुरू कर दिया:

5- तारीख़ में फ़ेल

6- अंग्रेज़ी में फ़ेल

इतनी दफ़ा इम्तिहान दे चुकने के बाद जब हम ने अपने नतीजों को यूँ अपने सामने रख कर ग़ौर किया तो साबित हुआ कि ग़म की रात ख़त्म होने वाली है । हम ने देखा कि अब हमारे फ़ेल होने का सिर्फ़ एक ही तरीक़ा बाक़ी रह गया है वो ये कि फ़ारसी में फ़ेल हो जाएँ लेकिन इस के बाद तो पास होना लाज़िम है । हर चंद कि यह सानहा अज़-हद जानकाह होगा। लेकिन इस में ये मसलेहत तो ज़रूर मुजमर है कि इस से हमें एक क़िस्म का टीका लग जाएगा । बस यही एक कसर बाक़ी रह गई है । इस साल फ़ारसी में फ़ेल होंगे और फ़िर अगले साल क़तई पास जाएँगे । चुनांचे सातवीं दफा इम्तिहान देने के बाद हम बे-ताबी से फ़ेल होने का इन्तज़ार करने लगे । ये इन्तज़ार दरअस्ल फ़ेल होने का न था बल्कि इस बात का इन्तज़ार था कि इस फ़ेल होने के बाद अगले साल हमेशा के लिए बी,ए हो जाएँगे ।

हर साल इम्तिहान के बाद घर आता तो वालदैन को नतीजे के लिए पहले ही से तैयार कर देता । रफ़्ता रफ़्ता नहीं बल्कि यक-लख़्त और फ़ौरन । रफ़्ता रफ़्ता तैयार करने से ख़्वाह-मख़्वाह वक़्त ज़ाया होता है और परेशानी मुफ़्त में तूल खींचती है । हमारा क़ायदा ये था कि जाते ही कह दिया करते थे कि इस साल तो कम-अज़-कम पास नहीं हो सकते । वालदैन को अक्सर यक़ीन न आता । ऐसे मौक़ों पर तबीयत को बड़ी उलझन होती है । मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मैं परचों में क्या लिख कर आया हूँ । अच्छी तरह जानता हूँ कि मुमतहिन लोग अक्सर नशे की हालत में परचे न देखें तो मेरा पास होना कतअन नामुमकिन है । चाहता हूँ कि मेरे तमाम बही ख्वाहों को भी इस बात का यक़ीन हो जाए ताकि वक़्त पर उन्हें सदमा न हो । लेकिन बही-ख़्वाह हैं कि मेरी तमाम तशरीहात को महज़ कसर-ए-नफ़सी समझते हैं । आख़री सालों में वालिद को फ़ौरन यक़ीन आ जाया करता था क्यूँकि तजर्बे से उन पर साबित हो चुका था कि मेरा अंदाज़ा ग़लत नहीं होता लेकिन इधर उधर के लोग “ अजी नहीं साहब ”, “ अजी क्या कह रहे हो ” ?, “ अजी ये भी कोई बात है ? ” ऐसे फ़िकरों से नाक में दम कर देते। बहर-हाल अब के फिर घर पहुँचते ही हम ने हसब-ए-दस्तूर अपने फ़ेल होने की पेशन-गोई कर दी। दिल को ये तसल्ली थी कि बस ये आख़री दफ़ा है। अगले साल ऐसी पेशन-गोई करने की कोई ज़रूरत न होगी ।

साथ ही ख़्याल आया कि वो हॉस्टल का क़िस्सा फिर शुरू करना चाहिए । अब तो कॉलेज में सिर्फ़ एक ही साल बाक़ी रह गया है । अब भी हॉस्टल में रहना नसीब न हुआ तो उम्र भर गोया आज़ादी से महरूम रहे । घर से निकले तो मामूँ के दड़बे में और जब मामूँ के दड़बे से निकले तो शायद अपना एक दड़बा बनाना पड़ेगा । आज़ादी का एक साल । सिर्फ़ एक साल । और ये आख़री मौक़ा है ।

आख़री दरख़्वास्त करने से पहले मैं ने तमाम ज़रूरी मसालहा बड़ी एहतियात से जमा किया । जिन प्रोफ़ेसरों से मुझे अब हम-उम्री का फ़ख़्र हासिल था उन के सामने नेहायत बे-तकल्लुफ़ी से अपनी आरज़ुओं का इज़हार किया और उन से वालिद को ख़तूत लिखवाए कि अगले साल लड़के को ज़रूर आप हॉस्टल में भेज दें । बाज़ कामयाब तलबा के वालदैन से भी इसी मज़मून की अर्ज़दाश्तें भेजवाईं । ख़ुद एदाद-व-शुमार से साबित किया कि यूनीवर्सिटी से जितने लड़के पास होते हैं उन में से अक्सर हॉस्टल में रहते हैं और यूनीवर्सिटी का कोई वज़ीफ़ा या तमग़ा या इनाम तो कभी हॉसटल से बाहर गया ही नहीं । मैं हैरान हूँ कि यह दलील मुझे इस से पेश्तर कभी क्यूँ न सूझी थी, क्यूँकि यह बहुत ही कारगर साबित हुई । वालिद का इनकार नरम होते होते ग़ौर-व-ख़ौज में तबदील हो गया । लेकिन फिर भी उनके दिल से शक रफ़ा न हुआ । कहने लगे “ मेरी समझ में नहीं आता कि जिस लड़के को पढ़ने का शौक हो वो हॉस्टल के बजाए घर पर क्यूँ नहीं पढ़ सकता । ”

मैं ने जवाब दिया “ हॉस्टल में एक इल्मी फ़ज़ा होती है जो अरस्तू और अफ़लातून के घर के सिवा और किसी घर में दस्तियाब नहीं हो सकती । हॉस्टल में जिसे देखो बहर-ए-उलूम में ग़ोता-ज़न नज़र आता है, बावजूद इस के हर हॉस्टल में दो-दो सौ तीन-तीन सौ लड़के रहते हैं । फिर भी वो ख़ामोशी तारी रहती है कि क़ब्रिस्तान मालूम होता है ।

वजह यह कि हर एक अपने अपने काम में लगा रहता है । शाम के वक़्त हॉस्टल के सहन में जा-बजा तलबा इल्मी मोबाहिसों में मशग़ूल नज़र आते हैं । अलस्सबाह हर एक तालिब-ए-इल्म किताब हाथ में लिए हॉस्टल के चमन में टहलता नज़र आता है । खाने के कमरे में, कॉमन रूम में, ग़ुस्ल ख़ानों में, बरामदों में, हर जगह लोग फ़लसफ़े और रियाज़ी और तारीख़ की बातें करते हैं । जिन को अदब-ए-अंग्रेज़ी का शौक है वो दिन रात आपस में शेक्सपियर की तरह गुफ़्तगू करने की मश्क़ करते हैं । रियाज़ी के तलबा अपने हर एक ख़्याल को अलजेब्रा में अदा करने की आदत डाल लेते हैं । फ़ारसी के तलबा रुबाइयों में तबादला-ए-ख़्याल करते हैं । तारीख़ के दिलदादा........” वालिद ने इजाज़त दे दी ।

अब हमें यह इन्तज़ार कि कब फ़ेल हों और कब अगले साल के लिए अर्ज़ी भेजें । इस दौरान हमने उन तमाम दोस्तों से ख़त-व-किताबत की जिन के मुताल्लिक़ यक़ीन था कि अगले साल फिर उन की रफ़ाक़त नसीब होगी और उन्हें यह मज़दा सुनाया कि आईंदा साल हमेशा के लिए कॉलेज की तारीख़ में यादगार रहेगा, क्यूँकि हम तालीमी ज़िंदगी का एक वसी तजर्बा अपने साथ लिए हॉस्टल में आ रहे हैं जिस से हम तलबा की नई पौद को मुफ़्त मुस्तफ़ीद फ़रमाएँगें । अपने ज़हन में हमने हॉस्टल में अपनी हैसियत एक मादर-ए-महरबान की सी सोच ली, जिस के इर्द-गिर्द तजर्बा-कार तलबा मुर्ग़ी के बच्चों की तरह भागते फिरेंगें । सुपेरिटेंडेंट साहब को जो किसी ज़माने में हमारे हम-जमात रह चुके थे लिख भेजा कि जब हम हॉस्टल में आएँगे तो फ़लाँ फ़लाँ मराआत की तवक़्क़ो आप से रखेंगे और फ़लाँ फ़लाँ क़वायद से अपने आप को मुस्तश्ना समझेंगें। इत्तलाअन अर्ज़ है ।

और यह सब कुछ कर चुकने के बाद हमारी बदनसीबी देखिए कि जब नतीजा निकला तो हम पास हो गए ।

हम पे तो जो ज़ुल्म हुआ सो हुआ, यूनीवर्सिटी वालों की हिमाक़त मुलाहज़ा फ़रमाए कि हमें पास करके अपनी आमदनी का एक मुस्तक़िल ज़रिया हाथ से गंवा बैठे।

हुए मर के हम जो रुस्वा / मुशताक़ अहमद यूसुफ़ी


अब तो मामूल सा बन गया है कि कहीं ताज़ियत या तज्हीज़-व-तकफ़ीन में शरीक होना पड़े तो मिर्ज़ा को ज़रूर साथ ले लेता हूँ।ऐसे मौक़ों पर हर शख़्स इज़्हार-ए-हम-दर्दी के तौर पर कुछ न कुछ ज़रूर कहता है।क़तअ-ए-तारीख़-ए-वफ़ात ही सही।मगर मुझे न जाने क्यूँ चुप लग जाती है,जिस से बाअज़ औक़ात न सिर्फ़ पसमांदिगान को बल्कि ख़ुद मुझे भी बड़ा दुख होता है।लेकिन मिर्ज़ा ने चुप होना सीखा ही नहीं।बल्कि यूँ कहना चाहिए कि सही बात को ग़लत मौक़े पर बे-दग़दगा कहने की जो खुदा दाद सलाहियत उन्हे वदीअय्त हुई है वह कुछ ऐसी तक़्रीबों में गुल खिलाती है।वह घूप अंधेरे में सर-ए-रहगुज़र चराग़ नहीं जलाते,फुलझड़ी छोड़ते हैं,जिस से बस उनका अपना चेहरा रात के सियाह फ़्रेम में जगमग-जगमग करने लगता है।और फुल-झड़ी का लफ्ज़ तो यूँही मरव्वत में क़लम से निकल गया वर्ना होता ये है कि

जिस जगह बैठ गए आग लगा कर उठे

इसके बा-वस्फ़ वह ख़ुदा के उन हाज़िर-व-नाज़िर बंदों में से हैं जो मोहल्ले की हर छोटी बड़ी तक़रीब में,शादी हो या ग़मी,मौजूद होते हैं।बिल्खुसूस दावतों में सबसे पहले पहुंचते और सबके बअद उठते हैं।इस अंदाज़-ए-नशिस्त-व-बर्ख़ास्त में एक खुला फ़ायदा ये देखा कि वह बारी-बारी सबकी ग़ीबत कर डालते हैं।उनकी कोई नहीं कर पाता है।

चुनांचे इस सनीचर की शाम को भी मेवा शाह क़ब्रिस्तान में मेरे साथ थे।सूरज इस शहर-ए-ख़मोशां को जिसे हज़ारों बंदगान-ए-ख़ुदा ने मर-मर के बसाया था,लाल अंगारा सी आँख से देखता–देखता अंग्रेज़ो के इक़बाल की तरह गूरूब हो रहा था।सामने बेरी के दरख़्त के नीचे एक ढांचा क़ब्र-बदर पड़ा था।चारों तरफ मौत की अमल-दारी थी और सारा क़ब्रिस्तान ऐसा उदास और उजाड़ था जैसे किसी बड़े शहर का बाज़ार इतवार को।सभी रंजीदा थे।(बक़ौल-मिर्ज़ा,दफ़न के वक़्त मैय्यत के सिवा सब रंजीदा होते हैं।) मगर मिर्ज़ा सबसे अलग थलग एक पुराने कुत्बे पर नज़रें गाड़े मुस्कुरा रहे थे।चंद लम्हों बाद मेरे पास आए और मेरी पसलियों में अपनी कोहनी से आंकस लगाते हुए उस कुत्बे तक ले गए,जिस पर मिन्जुम्ला तारीख़-ए-पैदाइश-व-पेन्शन,मुअल्लिद-व-मस्कन,वल्दियत-व-ओहदा(एज़ाज़ी मजिस्ट्रेट दर्जा-ए-सोम) आसूद-ए-लहद की तमाम डिग्रियाँ मअ-डिवीज़न और यूनीवर्सिटी के नाम कुंदा थीं और आख़िर में,निहायत जली हुरूफ़ में,मुंह फेरकर जाने वाले को बज़रिय-ए-क़तआ बशारत दी गई थी कि अल्लाह ने चाहा तो बहुत जल्द उसका भी यही हश्र होने वाला है।

मैं ने मिर्ज़ा से कहा“ये लौह-ए-मज़ार है या मुलाज़िमत की दर्ख़वास्त? भला डिग्रियाँ,ओहदा और वल्दियत वग़ैरा लिखने का क्या तुक था?”

उन्होंने हस्ब-ए-आदत बस एक लफ़्ज़ पकड़ लिया।कहने लगे “ठीक कहते हो।जिस तरह आज-कल किसी की उम्र या तनख़्वाह दर्याफ़्त करना बुरी बात समझी जाती है,इसी तरह,बिल्कुल इसी तरह बीस साल बाद किसी की वल्दियत पूछना बद-अख़लाक़ी समझी जाए गी!”

अब मुझे मिर्ज़ा की चूंचाल तबीयत से ख़तरा महसूस होने लगा।लिहाज़ा उन्हे वल्दियत के मुसतक़्बिल पर मुस्कुराता छोंड़ कर मैं आठ दस क़ब्र दूर एक टुक्ड़ी में शामिल हो गया,जहाँ एक साहब जन्नत मकानी के हालात-ए-ज़िंदगी मज़े ले-ले कर बयान कर रहे थे।वह कह रहे थे कि ख़ुदा ग़रीक़-ए-रहमत करे,मरहूम ने इत्नी लम्बी उमर पाई कि उनके क़रीबी अअज़्ज़ा दस पंद्रह साल से उनकी इंशोरेंस पालीसी की उम्मीद में जी रहे थे।उन उम्मीदवारों में बेश्तर को मरहूम ख़ुद अपने हाथ से मिट्टी दे चुके थे।बक़िया को यक़ीन हो गया था कि मरहूम ने आब-ए-हयात न सिर्फ़ चखा है बल्कि डुगडुगा के पी चुके हैं।रावी ने तो यहाँ तक बयान किया कि अज़-बस कि मरहूम शुरू से रख रखाव के हद दर्जा क़ाएल थे,लिहाज़ा आख़िर तक इस सेहत-बख़्श अक़ीदे पर क़ायम रहे कि छोटो को तअज़ीमन पहले मरना चाहिए।अल्बत्ता इधर चंद बर्सों से उनको फ़लक-ए-कज-रफ़्तार से ये शिकायत हो चला थी कि अफ़्सोस अब कोई दुश्मन ऐसा बाक़ी नहीं रहा,जिसे वह मरने की बद-दुआ दे सकें।

उन से कटकर मैं एक दूसरी टोली में जा मिला।यहाँ मरहूम के एक शनासा और मेरे पड़ोसी उनके गिल्र्ड़ लड़के को सब्र-ए-जमील की तल्क़ीन और गोल मोल अल्फ़ाज़ में नाएम-उल-बदल की दुआ देते हुए फ़र्मा रहे थे कि बर्ख़ुर्दार! ये मरहूम के मरने के दिन नहीं थे।हालाँकि पाँच मिनट पहले यही साहब,जी हाँ,यही साहब मुझ से कह रहे थे कि मरहूम ने पाँच साल क़ब्ल दोनों बीवियों को अपने तीसरे सेहरे की बहारें दिखाई थी और ये उनके मरने के नहीं,डूब मरने के दिन थे।मुझे अच्छी तरह याद है कि उन्होंने उंग्लियों पर हिसाब लगा कर काना फूसी के अंदाज़ में ये तक बताया कि तीसरी बीवी की उमर मरहूम की पेंशन के बराबर है।मगर है बिल्कुल सीधी और बे-ज़बान।उस अल्लाह की बंदी ने कभी पलट कर नहीं पूछा था कि तुम्हारे मुंह के दाँत नहीं हैं।मगर मरहूम इस ख़ुश फहमी में मुब्तिला थे कि उन्होंने महज़ अपनी दुआवों के ज़ोर से मौसूफ़ा का चाल चलन क़ाबू में रक्खा है।अल्बत्ता बियाहता बीवी से उनकी कभी नहीं बनी।भरी जवानी में भी मियाँ बीवी 62 के हिंद-से की तरह एक दूसरे से मुंह फेरे रहे और जब तक जिए,एक दूसरे के अअसाब पर सवार रहे।मम्दूहा ने मश्हूर कर रखा था कि(ख़ुदा उनकी रूह को न शरमाए)मरहूम शुरू से ही ऐसे ज़ालिम थे कि वलीमे का खाना भी मुझ नई नवेली दुल्हन से पकवाया।

मैं ने गुफ़्तुगू का रुख़ मोड़ने के ख़ातिर गुंजान क़ब्रिस्तान की तरफ़ इशारह करते हुए कहा कि देखते ही देखते चप्पा-चप्पा आबाद हो गया।मिर्ज़ा हस्ब-ए-मामूल फिर बीच में कूद पड़े।कहने लगे,देखना लेना,वह दिन ज़्यादा दूर नहीं जब कराची में मुर्दे को खड़ा गाड़ना पड़े गा और नाईलून के रेडीमेड कफ़न में ऊपर ज़िप(zip)लगे गी ताकि मुंह देखने दिखाने में आसानी रहे।

मेरी तबीअत इन बातों से ऊबने लगी तो एक दूसरे ग़ौल में चला गया,जहाँ दो नौजवान सितारे के ग़िलाफ़ जौसी पतलूने चढ़ाए चहक रहे थे।पहले “पहले टेड्डी बॉय” की पीली क़मीज़ पर लड़कियों की ऐसी वाहियात तस्वीरें बनी हई थीं कि नज़र पड़ते ही सिक़्क़ा आदमी लाहौल पढ़ने लगते थे और हमने देखा कि हर सिक़्क़ा आदमी बार-बार लाहौल पढ़ रहा था।दूसरे नौजवान को मरहूम की बे-वक़्त मौत से वाक़ई दिली सदमा पहुँचा था,क्यूँकि उसका सारा “वीक-एन्ड” चौपट हो गया था।

चोनचों और चोहलों का ये सिलसिला शायद कुछ देर और जारी रहता कि इतने में एक साहब ने हिम्मत करके मरहूम के हक़ में पहला कल्मा-ए-ख़ैर कहा और मेरी जान में जान आई।उन्होंने सही फ़र्माया “यूँ आंख बंद होने के बाद लोग कीड़े निकालने लगें,ये और बात है,मगर ख़ुदा उनकी क़ब्र को अम्बरी करे,मरहूम बिला शुबा साफ दिल,नेक नियत इंसान थे और नेक नाम भी।ये बड़ी बात है।”

“नेक नामी क्या कलाम है।मरहूम अगर यूँ ही मुंह हाथ धोने बैठ जाते तो सब यही समझते कि वज़ू कर रहे.......” जुम्ला ख़त्म होने से पहले मद्दाह की चमक्ती चंद या यका-यक एक धंसी हुई क़ब्र में ग़ुरूब हो गई।

इस मक़ाम पर एक तीसरे साहब ने(जिन से मैं वाक़िफ़ नहीं)“रूए-सुख़न किसी तरफ हो तो रू-सियाह”वाले लहजे में नेक नियती और साफ़ दिली का तजज़िया करते हुए फ़र्माया कि बाअज़ लोग अपनी पैदाइशी बुज़्दिली के सबब तमाम उम्र गुनाहों से बचते रहते हैं।इसके बरअक्स बाअज़ो के दिल-व-दिमाग़ वाक़ई आईने की तरह साफ़ होते हैं------यानी नेक-ख़याल आते हैं और गुज़र जाते हैं।

शामत-ए-आमाल कि मेरे मुंह से निकल गया“नियत का हाल सिर्फ़ ख़ुदा पर रोशन है मगर अपनी जगह यही क्या कम है कि मरहूम सबके दुख-सुख में शरीक और अदना से अदना पड़ोसी से भी झुक कर मिलते थे।”

अरे साहब!ये सुनते ही वह साहब तो लाल भभूका हो गए।बोले“हज़्रत! मुझे ख़ुदाई का दावा तो नहीं।ता-हम इतना ज़रूर जानता हूँ कि अक्सर बूढ़े ख़ुर्रांट अपने पड़ोसियों से महज़ इस ख़याल से झुक कर मिलते है कि अगर वह ख़फा हो गए तो कंधा कौन दे गा।”

ख़ुश-क़िस्मती से एक खुदा तरस ने मेरी हिमायत की।मेरा मतलब है मरहूम की हिमायत की।उन्होंने कहा कि मरहूम ने,माशा-अल्लाह,इत्नी लम्बी उम्र पाई।मगर सूरत पर ज़रा नहीं बरसती थी।चुनांचे सिवाए कंपटियों के और बाल सुफ़ेद नहीं हुए।चाहते तो ख़िज़ाब का कभी झूटो भी ख़याल नहीं आया।

वह साहब सच मुच फट पड़े “आप को ख़बर भी है? मरहूम का सारा सर पहले निकाह के बाद ही सुफ़ेद गाला हो गया था।मगर कंपटियों को वह क़स्दन सफ़ेद रहने देते थे ताकि किसी को शुबा न गुज़्रे कि ख़िज़ाब लगाते हैं।सिल्वर गिरे क़ल्में! ये तो उनके मैक-अप में एक नेचुरल टच था!”

“अरे साहब!इसी मस्लेहत से उन्होने अपना एक मस्नूई दाँत भी तोड़ रक्खा था”एक दूसरे ब्द्गों ने ताबूत में आख़िरी कील ठोंकी।

“कुछ भी सही वह उन खूसटों से हज़ार दर्जे बेहतर थे जो अपने पोपले मुंह और सुफ़ेद बालों की दाद छोटों से यूँ तलब करते हैं,गोया ये उनकी ज़ाती जद-व-जहद का सम्रा है।”मिर्ज़ा ने बिगड़ी बात बनाई।

उनसे पीछा छुड़ा कर कच्ची पक्की क़ब्रें फांदता मैं मुंशी सनाउल्लाह के पास जा पहुँचा,जो एक कुत्बे से टेक लगाए बैरी के हरे-हरे पत्ते कचर-कचर चबा रहे थे और इस अम्र पर बार-बार अपनी हैरानी का इज़्हार फ़र्मा रहे थे कि अभी पर्सों तक तो मरहूम बातें कर रहे थे।गोया उनके अपने आदाब-ए-जानकी की रू से मरहूम को मरने से तीन चार साल पहले चुप होना चाहिए था।

भला मिर्ज़ा ऐसा मौक़ा कहाँ ख़ाली जाने देते थे।मुझे मुख़ातिब करके कहने लगे,याद रखो! याद रखो कि मर्द की आँख और औरत की ज़बान का दम सबसे आख़िर में निकलता है।

यूँ तो मिर्ज़ा के बयान के मुताबिक़ मरहूम की बेवाएँ भी एक दूसरे के छाती पर दोहत्तड़ मार-मार कर बैन कर रही थीं,लेकिन मरहूम के बड़े नवासे ने जो पांच साल से बे-रोज़गार था,चीख़-चीख़ कर अपना गला बिठा लिया था।मुंशी जी बेरी के पत्तों का रस चूस-चूस कर जितना उसे समझाते पुचकारते, उतना ही वह मरहूम की पेंशन को याद करके धाड़े मार-मार कर रोता।उसे अगर एक तरफ़ हज़्रत इज़राईल से गिला था कि उन्होंने तीस तारीख़ तक इंतज़ार क्यूँ न किया तो दूसरी तरफ़ ख़ुद मरहूम से भी सख़्त शिक्वा था

क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और?

इधर मुंशी जी का सारा ज़ोर इस फ़लसफ़े पर था कि बरख़ुर्दार!ये सब नज़र का धोका है।दर हक़ीक़त ज़िंदगी और मौत में कोई फ़र्क़ नहीं।कम-अज़-कम एशिया में।नीज़ मरहूम बड़े नसीबा-वर निकले कि दुनिया के बखेड़ों से इतनी जल्दी आज़ाद हो गए।मगर तुम हो कि ना-हक़ अपनी जवान जान को हल्कान किए जा रहे हो।यूनानी मिस्ल है कि

वही मरता है जो महबूब-ए-ख़ुदा होता है

हाज़्रीन अभी दिल ही दिल में हसद से जले जा रहे थे कि हाय,मरहूम की आई हमें क्यूँ न आ गई कि दम भर को बादल के एक फ़ाल्सई टुक्ड़े ने सूरज को ढक लिया और हल्की-हल्की फ़ौवार पड़ने लगी।मुंशी जी ने यकबारगी बैरी के पत्तों का फूंक निगलते हुए उसको मरहूम के बहीश्ती होने का ग़ैबी शगुन क़रार दिया।लेकिन मिर्ज़ा ने भरे मजमा में सर हिला-हिलाकर उस पेश गोई से इख़्तिलाफ़ किया।मैं ने अलग ले जाकर वजह पूछी तो इरशाद हुआ:

“मरने के लिए सनीचर का दिन बहुत मन्हूस होता है।”

लेकिन सबसे ज़्यादा पतला हाल मरहूम के एक दोस्त का था,जिनके आंसू किसी तरह थमने का नाम नहीं लेते थे कि उन्हें मरहूम से दैरीना रब्त-व-रफ़ाक़त का दावा था।इसलिए रूहानी यक-जहती के सुबूत में अक्सर इस वाक़ए का ज़िक्र करते कि बग़्दादी क़ाएदा ख़त्म होने से एक दिन पहले हम दोनों ने एक साथ सिग्रेट पीना सीखा था।चुनांचे उस वक़्त से भी साहिब-ए-मौसूफ़ के बैन से साफ़ टपकता था कि मरहूम किसी सोचे समझे मन्सूबे के तहत दाग़ बल्कि दग़ा दे गए और बग़ैर कहे-सुने पीछा छुड़ा के चुप चपाते जन्नत-उल-फ़िर्दौस को रवाना हो गए............................अकेले ही अकेले!

बाद में मिर्ज़ा ने सराहतन बताया कि बाहमी इख़्लास-व-यगांनगत का ये आलम था कि मरहूम ने अपनी मौत से तीन माह पेश्तर मौसूफ़ से दस हज़ार रूपये सिक्क-ए-राइज-उल-वक़्त बतौर-ए-क़र्ज़े-ए-हस्ना लिए और वह तो कहिए,बड़ी ख़ैरियत हुई कि इसी रक़्म से तीसरी बीवी का महर-ए-मुअज्जल बेबाक़ कर गए वर्ना क़यामत में अपने सास ससुर को क्या मुंह दिखाते।

(2)

आप ने अक्सर देखा होगा कि गुन्जान मुहल्लों में मुख़्तलिफ़ बल्कि मुतज़ाद तक़रीबे एक दूसरे में बड़ी ख़ूबी से ज़म हो जाती हैं।गोया दोनों वक़्त मिल रहे हों।चुनांचे अक्सर हज़्रात दावत-ए-वलीमा में हाथ धोते वक़्त चेहल्लुम की बिर्यानी की डकार लेते,या सोयम में शबीना फ़तूहात की लज़ीज़ दास्तान सुनाते पक्ड़े जाते हैं।लज़्ज़त-ए-हमसायगी का नक़्शा भी अक्सर देखने को में आया है कि एक क्वाटर में हनीमून मनाया जा रहा है तो रत-जग्गा दीवार के उस तरफ हो रहा है।और यूँ भी होता है कि दाएँ तरफ वाले घर में आधी रात को क़व्वाल बिल्लियाँ लड़ा रहे हैं,तो हाल बाएँ तरफ वाले घर में आ रहा है।आमदनी हम-साए की बढ़ती है तो इस ख़ुशी में ना-जाएज़ ख़र्च हमारे घर का बढ़ता है और ये सानिहा भी बारहा गुज़रा कि मछली तरह-दार पड़ोसन ने पकाई और

मुद्दतों अपने बदन से तेरी ख़ुश्बू आई

इस तक़रीबी घप्ले का सही अंदाज़ा मुझे दूसरे दिन हुआ जब एक शादी की तक़रीब में तमाम वक़्त मरहूम की वफ़ात-ए-हस्रत आयात के तज़्किरे होते रहे।एक बुज़ुर्ग ने,कि सूरत से ख़ुद पाबा रुकाब मालूम होते थे,तश्वीश-नाक लहजे में पूछा,आख़िर हुआ क्या?जवाब में मरहूम के एक हम-जमाअत ने इशारों किनायों में बताया कि मरहूम जवानी में इश्तिहारी अम्राज़ का शिकार हो गए।अधेड़ उम्र में जिन्सी तवन्नुस में मुब्तिला रहे।लेकिन आख़िरी अय्याम में तक़्वा हो गया था।

“फिर भी आख़िर हुआ क्या?”पा बा-ए-रुकाब मर्द बुज़ुर्ग ने अपना सवाल दोहराया।

“भले चंगे थे अचानक एक हिच्की आई और जाँ-बहक़ हो गए” दूसरे बुज़ुर्ग ने अंगौछे से एक फ़र्ज़ी आँसू पोंछते हुए जवाब दिया।

“सुना है चालिस बरस से मर्ज़-उल-मौत में मुब्तिला थे” एक साहब ने सूखे से मुंह से कहा।

“क्या मतलब?”

“चालिस बरस से खांसी में मुब्तिला थे और आख़िर इसी में इंतेक़ाल फ़रमाया।”

“साहब!जन्नती थे कि किसी अजनबी मर्ज़ में नहीं मरे।वर्ना अब तो मेडिकल साइंस की तरक़्क़ी का ये हाल है कि रोज़ एक नया मर्ज़ एजाद होता है।”

“आप ने गांधी गॉर्डन में इस बूहरी-सेठ को कार में चहल क़दमी करते नहीं देखा जो कहता है कि मैं सारी उम्र दमें पर इतनी लागत लगा चुका हूँ कि अब अगर किसी और मर्ज़ में मरना पड़ा तो ख़ुदा की क़सम,ख़ुद-कशी कर लूँ गा।”मिर्ज़ा चुटकुलों पर उतर आए।

“वल्लाह!मौत तो ऐसी हो!(सिस्की)मरहूम के होंटो पर आलम-ए-सुक्रात में भी मुस्कुराहट खेल रही थी।”

“अपने क़र्ज़ ख़्वाहों का ख़याल आ रहा हो गा” मिर्ज़ा मेरे कान में फुसफुसाए।

“गुनहगारों का मुंह मरते वक़्त सुवर जैसा हो जाता है,मगर चश्म-ए-बद-दूर।मरहूम का चेहरा गुलाब की तरह खिला हुआ था।”

“साहब!सलेटी रंग का गुलाब हमने आज तक नहीं देखा” मिर्ज़ा की ठंडी-ठंडी नाक मेरे कान को छूने लगी और उनके मुंह से कुछ ऐसी आवाज़ें निकलने लगीं जैसे कोई बच्चा चम्कीले फ़र्नीचर पर गीली उंग्ली रगड़ रहा हो।

असली अल्फ़ाज़ तो ज़ेहन से महू हो गए,लेकिन इतना अब भी याद है कि अंगौछे वाले बुज़ुर्ग ने एक फ़लसफ़्याना तक़्रीर कर डाली,जिसका मफ़्हूम कुछ ऐसा ही था कि जीने का क्या है।जीने को तो जानवर भी जी लेते हैं,लेकिन जिसने मरना नहीं सीखा,वह जीना क्या जाने।एक मुतबस्सुम ख़ुद-सुपुर्दगी,एक बे-ताब आमादगी के साथ मरने के लिए एक उम्र का रियाज़ दर्कार है।ये बड़े ज़र्फ और बड़े हौसले का काम है,बंदा नवाज़!

फिर उन्होंने बे-मौत मरने के खांन्दानी नुस्ख़े और हंस्ते खेलते अपनी रूह क़ब्ज़ कराने के पैंत्रे कुछ ऐसे उस्तादाना तेवर से बयान किए कि हमें अताई मरने वालों से हमेशा-हमेशा के लिए नफ़रत हो गई।

ख़ातम-ए-कलाम इस पर हुआ कि मरहूम ने किसी रूहानी ज़रिए से सुन-गुन पाली थी कि मैं सनीचर को मर जाऊँगा।

“हर मरने वाले के मुतअल्लिक़ यही कहा जाता है” बा-तस्वीर क़मीज़ वाला टेड्डी बॉय बोला।

“कि वह सनीचर को मर जाएगा?” मिर्ज़ा ने उस बद-लगाम का मुंह बंद किया।

अंगौछे वाले बुज़ुर्ग ने शै-ए-मज़्कूर से पहले अपने नरी के जूते की गर्द झाड़ी,फिर पेशानी से पसीना पोंछते हुए मरहूम के इरफ़ान-ए-मर्ग की शहादत दी कि जन्नत-मकानी ने विसाल से ठीक चालिस दिन पहले मुझ से फ़रमाया था कि इंसान फ़ानी है!

इंसान के मुतअल्लिक़ ये ताज़ा ख़बर सुनकर मिर्ज़ा मुझे तख़्लिए में ले गए।दरअसल तख़लिए का लफ़्ज़ उन्होंने इस्तेमाल किया था,वर्ना जिस जगह वह मुझे धकेलते हुए ले गए,वह ज़नाने और मर्दाने के सरहद पर एक चबूत्रा था,जहाँ एक मीरासन घूँघट निकाले ढोलक पर गालियाँ गा रही थी।वहाँ उन्होंने इस शग़्फ की जानिब इशारा करते हुए जो मरहूम को अपनी मौत से था,मुझे आगाह किया कि ये ड्रामा तो जन्नत मकानी तो अक्सर खेला करते थे।आधी-आधी रातों को अपनी होने वाली बैवाओं को जगा-जगा कर धम्कियाँ देते कि मैं अचानक अपना साया तुम्हारे सर से उठा लूँ गा।चश्मे ज़ोन में मांग उजाड़ दूँ गा।अपने बे तकल्लुफ़ दोस्तों से भी कहा करते कि वल्लाह! अगर ख़ुद-कशी जुर्म न होती तो कभी का अपने गले में फंदा डाल लेता।कभी यूँ भी होता कि अपने आप को मुर्दा तसव्वुर करके डकारने लगते और चश्म-ए-तसव्वुर से मंझली के सोंटा से हाथ देख कर कहते: ब-ख़ुदा! मैं तुम्हारा रंडापा नहीं देख सकता।मरने वाले की एक-एक ख़ूबी बयान करके ख़ुश्क सिस्कियाँ भरते और सिस्कियों के दर्मियान सिग्रेट की कश लगाते और जब इस अमल से अपने ऊपर रिक़्क़त तारी कर लेते तो रूमाल से बार-बार आंख के बजाए अपनी डबडबाई हुई नाक पोंछते जाते कपकपाते हुए हाथ से तीनों बे-वाओं की मांग में यके बाद-ए-दीगरे ढेरों अफ़्शाँ भरते।इस से फ़ारिग़ होकर हर एक को कोहनियों तक महीन-महीन,फंसी-फंसी चूड़ोयाँ पहनाते (ब्याहता चार चूड़ियाँ कम पहनाते थे)।

हालाँकि इस से पहले भी मिर्ज़ा को कई मरतबा टोक चुका था कि ख़ाक़ानि-ए-हिन्द उस्ताद ज़ौक़ हर क़सीदे के बाद मुंह भर-भर के कुल्लियाँ किया करते थे।तुम पर हर कलमे,हर फ़िक़्रे के बाद वाजिब हैं।लेकिन इस उक़्त मरहूम के बारे में ये ऊल-जुलूल बांते और ऐसे व अश्गाफ़ लेहजे में सुनकर मेरी तबीयत कुछ ज़्यादा ही मुनग़्ग़ज़ हो गई।मैं ने दूसरों पर ढाल कर मिर्ज़ा को सुनाई:

“ ये कैसे मुसल्मान हैं मिर्ज़ा! दुआ-ए-मग़्फ़िरत नहीं करते,न करें।मगर ऐसी बातें क्यूँ बनाते हैं ये लोग? ”

“ख़लक-ए-ख़ुदा की ज़बान किस ने पक्ड़ी है।लोगों का मुंह तो चेहल्लुम के निवाले ही से बंद होता है।”

(3)

मुझे चेहल्लुम में भी शिर्कत का इत्तफ़ाक़ हुआ।लेकिन सिवाए एक नेक-तीनत मोलवी साहब के जो पलाव के लिए चावलों की लम्बाई और गिलावट को ठेठ जन्नती होने की निशानी क़रार दे रहे थे,बक़्या,हज़्रात की गुल अफ़्शानि-ए-गुफ़्तार का वही अंदाज़ा था।वही जग-जुगे थे,वही चेहचेहे!

एक बुज़ुर्गवार जो नान क़ोरमे के हर आतिशीं लुक़्मे के बाद आधा-आधा गिलास पानी पीकर क़ब्ल अज़-वक़्त सैर बल्कि सैराब हो गए थे,मुंह लाल करके बोले कि मरहूम की औलाद निहायत ना-ख़ल्फ़ निक्ली।मरहूम-व-मग़्गफ़ूर शद-व-मद से वसिय्यत फ़रमा गए थे कि मेरी मिट्टी बग़्दाद ले जाई जाए लेकिन ना-फ़र्मान औलाद ने उनकी आख़िरी ख़्वाहिश का ज़रा पास न किया।

इस पर एक मुंह फट पड़ोसी बोल उट्ठे“साहब!ये मरहूम की सरासर ज़्यादती थी कि उन्होंने ख़ुद तो तादम-ए-मर्ग मियूनिस्पल हुदूद से क़दम बाहर नहीं निकाला।हद ये है कि पास्पोर्ट तक नहीं बनवाया और...........”

एक वकील साहब ने क़ानूनी मौश्गाफ़ी की“बैन-उल-अक़वामी क़ानून के ब-मुअज्जिब पास्पोर्ट के शर्त सिर्फ़ ज़िंदों के लिए है।मुर्दे पास्पोर्ट के बग़ैर भी जहाँ चाहें जा सकते हैं।”

“ले जाए जा सक्ते हैं” मिर्ज़ा फिर लुक़्मा दे गए।

“मैं कह रहा था कि यूँ तो हर मरने वाले के दिल में ये ख़्वाहिश सुलग्ती रहती है कि मेरा कांसी कि मुजस्समा (जिसे क़द-ए-आदम बनाने के लिए बसा औक़ात अपनी तरफ़ से पूरे एक फ़िट का इज़ाफ़ा करना पड़ता है)म्यूनिस्पल पॉर्क के बीचों बीच उस्तादह किया जाए और-----”

“और जुम्ला नाज़नीनान-ए-शहर चार महीने दस दिन तक मेरे लाशे को गोद में लिए,बाल बिखराए बैठी रहीं” मिर्ज़ा ने दूसरा मिस्रा लगाया।

‘‘मगर साहब!वसिय्यतों की भी एक हद होती है।हमारे छूटपन का क़िस्सा है।पीपल वाली हवेली के पास एक झोंपड़ी में सन39ई. तक एक अफ़ीमी रहता था। हमारे मोहतात अंदाज़े के मुताबिक़ उम्र 66 साल से किसी तरह कम न होगी,इसलिए कि ख़ुद कहता था कि पैंसठ साल से तो अफ़ीम खा रहा हूँ।चौबीस घंटे अंटा ग़फ़ील रहता था।ज़रा नशा टूटता तो मग़मूम हो जाता।ग़म ये था कि दुनिया से बे-औलादा जा रहा हूँ।अल्लाह ने कोई औलाद-ए-देरीना न दी जो उसकी बान की चार पाई की जाएज़ वारिस बन सके! उसके मुतअल्लिक़ मोहल्ले में मशहूर था कि पहली जंग-ए-अज़ीम के बाद नही नहाया है।उसको इतना तो हमने भी कहते सुना कि ख़ुदा ने पानी सिर्फ़ पीने के लिए बनाया था मगर इंसान बड़ा ज़ालिम है

राहते और भी हैं ग़ुस्ल की राहत के सिवा

हाँ तो साहब!जब उसका दम आख़िर होने लगा तो मुहल्ले की मस्जिद के इमाम का हाथ अपने डूबते दिल पर रख कर ये क़ौल-व-क़रार किया कि मेरी मैयत को ग़ुस्ल न दिया जाए।बस पोले-पोले हाथों से तयम्मुम करा के कफ़्ना दिया जाए वर्ना हश्र में दामन गीर हूँगा।”

वकील साहब ने ताईद करते हुए फ़र्माया“अक्सर मरने वाले अपने करने के काम पस्मांदगान को सौंप कर ठंडे-ठंडे सिधार जाते हैं।पिछली गर्मियों में दीवानी अदालतें बंद होने से चंद यौम क़ब्ल एक मक़ामी शायर का इन्तिक़ाल हुआ।वाक़या है कि उनके जीते जी किसी फ़िल्मी रिसाले ने भी उनकी उरीयाँ नज़्मों को शर्मिंद-ए-तबाअत न किया।लेकिन आप को हैरत होगी कि मरहूम अपने ईसाल-ए-सवाब की ये राह समझा गए कि बाद-ए-मूर्दन मेरा कलाम हिनाई काग़ज़ पर छपवा कर साल के साल मेरी बर्सी पर फ़क़ीरों और मुरीदों को बुला हदिया तक़्सीम किया जाए।”

पड़ोसी की हिम्मत और बढ़ी“अब मरहूम ही को देखिए।जिंदगी में ही एक क़तअ-ए-अराज़ी अपने क़ब्र के लिए ब़ड़े अरमानों से रजिस्ट्री करा लिया था गो कि बेचारे उसका क़ब्ज़ा पूरे बारह साल बाद ले पाए।नसीहतों और वसीअतों का यह आलम था कि मौत से दस साल पेश्तर अपने नवासों के एक फ़ेहरिस्त हवाले कर दी थी,जिसमें नाम ब-नाम लिखा था कि फ़लाँ वल्द फ़लाँ को मेरा मुंह न दिखाया जाए।(जिन हज़्रात से ज़्यादा आज़ुर्दा ख़ातिर थे,उनके नाम के आगे वल्दियत नहीं लिखी थी।)तीसरी शादी के बाद उन्हें इसका तवील ज़मीमा मुरत्तब करना पड़ा,जिसमें तमाम जो उन पड़ोसियों के नाम शामिल थे।”

“हमने तो यहाँ तक सुना है कि मरहूम न सिर्फ अपने जनाज़े में शुर्का की तअदाद मुतअय्यन कर गए बल्कि आज के चेहल्लुम का‘मेनू’भी ख़ुद ही तय फ़र्मा गए थे।”वकील ने ख़ाके में शोख़ रंग भरा।

इस नाज़ुक मरहले पर ख़शख़शी दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग ने पलाव से सैर हो कर अपने शिकम पर हाथ फेरा और‘मेनू’की ताईद-व-तौसीफ़ में एक मुस्ल्स्ल डकार दाग़ी,जिसके इख़्तिताम पर इस मासूम हस्रत का इज़हार फ़र्माया कि आज मरहूम ज़िन्दा होते तो ये इंतिज़ामात देख कर कित्ने ख़ुश होते!

अब पड़ोसी ने तैग़-ए-ज़बान को बे-नियाम किया“मरहूम सदा से सू-ए-हज़्म के मरीज़ थे।ग़िज़ा तो ग़िज़ा,बे-चारे पेट में बात तक नहीं ठहरती थी।चटपटी चीज़ों को तरस्ते ही मरे।मेरे घर में से बता रहीं थीं कि एक दफ़ा मलेरिया में सर-साम हो गया और लगे बहकने।बार-बार अपना सर मंझली के रानों पर पटख़्ते और सुहाग की क़सम दिला कर ये वसिय्यत करते थे कि हर जुमेरात को मेरी फ़ातिहा,चाट और कंवारी बकरी के सिरी पर दिलवाई जाए।”

मिर्ज़ा फड़क ही तो गए।होंट पर ज़बान फेरते हुए बोले “साहब! वसिय्यतों की कोई हद नहीं।हमारे मोहल्ले में डेढ़ पौने दो साल पहले एक स्कूल मास्टर का इंतक़ाल हुआ,जिन्हें ईद बक़्र-ईद पर भी सालिम-व-साबुत पाजामा पहने नहीं देखा।मगर मरने से पहले वह भी अपने लड़के को हिदायत कर गए कि

पुल बना,चाह बना,मस्जिद-व-तालाब बना!

लेकिन हुज़ूर अब्बा की आख़िरी वसिय्यत के मुताबिक़ फ़ैज़ के अस्बाब बनाने में लड़के की मुफ़्लिसी के इलावा मुल्क का क़ानून भी मुज़ाहिम हुआ।”

“यानी क्या?” वकील साहब के कान खड़े हुए।

“यानी ये कि आज का पुल बनाने की इजाज़त सिर्फ़ पी.डब्लू.डी. को है।और बिल-फ़र्ज़-ए-मोहाल कराची में चार फ़िट गहरा कुआँ खोद भी लिया तो पुलिस उसका खारी कीचड़ पीने वालों का चालान इक़्दाम-ए-ख़ुद-कशी में कर देगी।यूँ भी फ़टीचर से फ़टीचर क़स्बे में आज कल कुएँ सिर्फ़ ऐसे वैसे मौक़ों पर डूब मरने के लिए काम आते हैं।रहे तालाब,तो हुज़ूर! ले दे के उनका ये मस्रफ़ रह गया है कि दिन भर उनमें गाँव की भैंसें नहाएँ और सुब्ह जैसी आई थीं, इस से कहीं ज़्यादा गंदी होकर चराग़ जले बाड़े में पहुंचे।”

ख़ुदा-ख़ुदा करके ये मुकालमा ख़त्म हुआ तो पटाख़ों का सिलसिला शुरू हो गया:

“मरहूम ने कुछ छोड़ा भी?”

“बच्चे छोड़े हैं!”

“मगर दूसरा मकान भी तो है”

“उसके किराये को अपने मिर्ज़ा की सालाना मरम्म्त सफ़ेदी के लिए वक़्फ कर गए हैं।”

“पड़ोसियों का कहना है कि ब्याहता बीवी के लिए एक अंगूठी भी छोड़ी है।अगर उसका नगीना असली होता तो किसी तरह बीस हज़ार से कम की नहीं थी।”

“तो क्या नगीना झूटा है?”

“जी नहीं।असली इमी-टेशन है!”

“और वह पचास हज़ार की इंशोरेंस पॉलीसी क्या हुई?”

“वह पहले ही मझली के महर में लिख चुके थे”

“उसके बारे में यार लोंगों ने लतीफ़ा घड़ रक्खा है कि मंझली बेवह कहती है कि सर-ताज के बग़ैर जिंदगी अजीरन है।अगर कोई उनको दोबारा ज़िंदा कर दे तो मैं ब-ख़ुशी दस हज़ार लौटाने पर तैयार हूँ।”

“हमने ख़ॉनगी ज़राए से सुना है कि अल्ला उन्हें करवट-करवट जन्नत नसीब करे,मरहूम मंझ्ली पर ऐसे लहलूट थे कि अब भी रात-बिरात, ख़्वाबों में आ आकर डराते हैं।”

“मरहूम अगर ऐसा करते हैं तो बिल्कुल ठीक करते हैं।अभी तो उनका कफ़न भी मैला नहीं हुआ होगा।मगर सुनने में आया है कि मंझ्ली ने रंगे चुने दुपट्टे ओढ़ना शुरू कर दिया है।”

“अगर मंझ्ली ऐसा करती है तो बिल्कुल ठीक करती है।आप ने सुना होगा कि एक ज़माने में लखनऊ के निच्ले तब्क़े में ये रिवाज था कि चालिस्वीं पर न सिर्फ़ अन्वा-व-अक़्साम के पुर तकल्लुफ़ खानों का एहतमाम किया जाता,बल्कि बेवा भी सोला-सिंगार करके बैठती थी ताकि मरहूम की तर्सी हुई रूह कमाहक़्क़हू,मतमित्ता हो सके।”मिर्ज़ा ने ‘हे’और‘ऐन’सही मख़्रज से अदा करते हुए मरे पर आख़्री दुर्रा लगाया।

वापसी पर रास्ते में मैं ने मिर्ज़ा को आड़े हाथों लिया“जुमा को तुमने वाईज़ नही सुना?मोल्वी साहब ने कहा था कि मरे हुओं का ज़िक्र करो तो अच्छाई के साथ।मौत को न भूलो कि एक न एक दिन सब को आनी है।”

सड़क पार करते-करते एक दम बीच में अकड़ कर खड़े हो गए।फ़र्माया“अगर कोई मोल्वी ये ज़िम्मा ले ले कि मरने के बाद मेरे नाम के साथ रहमतुल्लाह लिखा जाएगा तो आज ही------- इसी वक़्त,इसी जगह मरने के लिए तैयार हूँ।तुम्हारी जान की क़सम!”

आख़िरी फ़िकरा मिर्ज़ा ने एक बे-सब्री कार के बम्पर पर तक़्रीबन उक्ड़ूँ बैठ कर जाते हुए अदा किया।

(जूलाई 1961ई.)

हवेली / मुशताक़ अहमद यूसुफ़ी

वह आदमी है मगर देखने की ताब नहीं

यादश ब-ख़ैर !मैं ने 1945 में जब क़िबला को पहले पहल देखा तो उनका हुलिया ऐसा हो गया था जैसा अब मेरा है।लेकिन ज़िक्र हमारे यार-ए-तरह-दार बशारत अली फ़ारूक़ी के ख़ुसर का है,लिहाज़ा तआरुफ़ कुछ उन्हीं की ज़बान से अच्छा मालूम होगा हम ने बारहा सुना,आप भी सुनिए।

“ वह हमेशा से मेरे कुछ न कुछ लगते थे ।जिस ज़माने में मेरे ख़ुसर नहीं बने थे तो फूपा हुआ करते थे ।और फूपा बनने से पहले मैं उन्हें चचा हुज़ूर कहा करता था ।इससे पहले यक़ीनन वह और भी कुछ लगते होंगे,मगर उस वक़्त मैं ने बोलना शुरू नहीं किया था ।हमारे हाँ मुरादाबाद और कानपुर में रिश्ते नाते उबली हुई सेवय्यों की तरह उलझे और पेच दर पेच गुथे होते हैं।ऐसा जलाली ऐसा मग़लूब-उल-ग़ज़ब आदमी ज़िंदगी में नहीं देखा।बारे उनका इंतक़ाल हुआ तो मेरी उम्र आधी इधर,आधी उधर,चालीस के लगभग तो होगी।लेकिन साहब! जैसी दहशत उनकी आंखें देख कर छुट्पन में होती थी,वैसी हि न सिर्फ़ उनके आख़िरी दम तक रही,बल्कि मेरे आख़िरी दम तक भी रहेगी।बड़ी-बड़ी आंखें अपने सॉकेट से निकली पड़ती थीं।लाल सुर्ख़।ऐसी वैसी? बिल्कुल ख़ून-ए-कबूतर! लगता था बड़ी-बड़ी पुतलीयों के गिर्द लाल डोरों से अभी ख़ून के फ़व्वारे छूटने लगेंगे और मेरा मुंह ख़ूनम ख़ून हो जाएगा।हर वक़्त गुस्से में भरे रहते थे।जाने क्यूँ।गाली उनका तकया-ए-कलाम थी।और जो रंग तक़रीर का था वही तहरीर का।रख हाथ निकलता है धुआं मग़्ज़-ए-क़लम से।ज़ाहिर है कुछ ऐसे लोगो से भी पाला पड़ता था जिन्हें ब-वजूह गाली नहीं दे सकते थे।ऐसे मौक़ों पर ज़बान से तो कुछ न कहते,लेकिन चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन लाते कि क़द-ए-आदम गाली नज़र आते। किस की शामत आई थी कि उनकी किसी भी राय से इख़्तिलाफ़ करता।इख़्तिलाफ़ तो दर-किनार,अगर कोई शख़्स महज़ डर के मारे उनकी राय से इत्तिफ़ाक़ कर लेता तो फ़ौरन अपनी राय तब्दील करके उल्टे उस के सर हो जाते।

अरे साहब! बात और गुफ़तुगू तो बाद की बात है। बआज़ औक़ात महज़ सलाम से मुश्तइल हो जाते थे!आप कुछ भी कहें,कैसी ही सच्ची और सामने की बात कहें,वह उसकी तरदीद ज़रूर करेंगें।किसी की राय से इत्तिफ़ाक़ करने में सुब्की समझ्ते थे।उनका हर जुमला‘ नहीं ’से शुरू होता था।एक दिन कानपुर में कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी।मेरे मुंह से निकल गया कि“ आज बड़ी सर्दी है, बोले ”नहीं।“कल इस से ज़्यादा पड़ेगी।”

“वह चचा से फूपा बने और फूपा से ख़ुसर-उल-ख़द्र। लेकिन मुझे आख़िर वक़्त तक निगाह उठाकर बात करने की जसारत न हुई।निकाह के वक़्त वो क़ाजी के पहलू में बैठे थे। क़ाज़ी ने मुझ से पूछा,क़ुबूल है? उनके सामने मुंह से हाँ कहने की जुर्रत न हुई।बस अपनी ठोड़ी से दो मोअद्दबाना ठोंगें मार दीं जिन्हें क़ाज़ी और क़िबला ने रिश्ता-ए-मुनाकिहत के लिए नाकाफ़ी समझा।क़िबला कड़क कर बोले,लौन्डे! बोलता क्यूँ नहीं ?, डांट से मैं नर्वस हो गया। अभी क़ाज़ी का सवाल भी पूरा नहीं हुआ था कि मैं ने जी हां! क़ुबूल है कह दिया। आवाज़ यक-लख़्त इतने ज़ोर से निकली कि मैं ख़ुद चौंक पड़ा। क़ाज़ी उछल कर सेहरे में घुस गया। हाज़रीन खिल-खिला के हंसने लगे। अब क़िबला इस पर भिन्ना रहे हैं कि इतने ज़ोर की‘ हाँ ’ से कि बेटी वालों की हैटी होती है।बस तमाम उम्र उनका यही हाल रहा। और तमाम उम्र मैं कर्ब-ए-क़राबत दारी-व-क़ुर्बत-ए-क़हरी दोनों में मुब्तला रहा।

“ हालाँकि इकलौती बेटी,बल्कि इक्लौती औलाद थी।और बीवी को शादी के बड़े अरमान थे,लेकिन क़िबला ने माइयों के दिन ऐन उस वक़्त जब मेरा रंग निखारने के लिए उबटन मिलाया जा रहा था,कहला भेजा कि दूल्हा मेरी मौजूदगी में अपना मुंह सेहरे से बाहर नहीं निकालेगा।दो सौ क़दम पहले सवारी से उतर जाएगा और पैदल चल कर अक़्द-गाह तक आएगा।अक़्द-गाह उन्होंने इस तरह कहा कि जैसे अपने फैज़ साहब क़त्ल-गाह का ज़िक्र करते हैं।और सच तो यह है कि क़िबला की दहशत दिल में ऐसी बैठ गई थी कि मुझे तो अरूसी छपर-खट भी फांसी घाट लग रहा था। उन्होंने यह शर्त भी लगाई कि बराती पुलाव ज़र्दा ठूसने के बाद यह हरगिज़ नहीं कहेंगे कि गोश्त कम डाला और शक्कर ड्योढ़ी नहीं पड़ी। ख़ूब समझ लो, मेरी हवेली के सामने बैंड-बाजा हरगिज़ नहीं बजेगा।और तुम्हें रंडी नचवानी है तो Over my dead body अपने कोठे पर नचवाओ।

किसी ज़माने में राजपूतों और अरबों में लड़की की पैदाईश नहूसत और क़हर-ए-इलाही की निशानी तसव्वुर की जाती थी।उनकी ग़ैरत यह कैसे गवारा कर सकती थी कि उन के घर बरात चढ़े।दामाद के ख़ौफ़ से वह नो-ज़ाईदा लड़की को ज़िन्दा गाड़ आते थे।क़िबला इस वैहशियाना रस्म के ख़िलाफ़ थे।वह दामाद को जिंदा गाड़ देने के हक़ में थे।

“ चेहरे, चाल और तेवर से कोतवाल-ए-शहर लगते थे। कौन कह सकता था कि बांस मंडी में उनकी इमारती लकड़ी की एक मामूली सी दुकान है।निकलता हुआ क़द।चलते तो क़द,सीना और आंखें,तीनों बयक-वक़्त निकाल कर चलते थे।अरे साहब !क्या पूछते हैं। अव्वल तो उन के चेहरे की तरफ़ देखने की हिम्मत नहीं होती थी,और कभी जी कड़ा कर के देख भी लिया तो बस लाल भभूका आंखें ही आंखें नज़र आती थीं।निगह-ए-गरम से इक आग टपकती है असद। रंग गंदुमी , आप जैसा,जिसे आप उस गंदुम जैसा बताते हैं जिसे खाते ही हज़रत आदम, ब-यक बीवी व दो गोश जन्नत से निकाल दिए गए।जब देखो झल्लाते तिनतिनाते रहते।मिज़ाज,ज़बान और हाथ किसी पर क़ाबू न था।दायमी तैश से लर्ज़ा बरअंदाम रहने के सबब ईंट,पत्थर,लाठी,गोली,गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था।गुछी-गुछी मूंछें जिन्हें गाली देने से पहले और बाद मे ताव देते।आख़िरी ज़माने मे भवों को भी बल देने लगे।गठा हुआ कसरती बदन मलमल के कुर्ते से झलकता था।चुनी हुई आस्तीन और उस से भी महीन चुनी हुई दो पल्ली टोपी।गर्मियों में ख़स का इत्र लगाते।केकरी की सिलाई का चूड़ी-दार पाजामा।चूड़ियों की ये कसरत कि पाजामा नज़र नहीं आता था।धोबी अलगनी पर नहीं सुखाता था।अलाहदा बांस पर दस्ताने की तरह चढ़ा देता था।आप रात के दो बजे भी दरवाज़ा खटखटा कर बुलाएँ तो चूड़ी-दार ही मे बरआमद होंगे।

“वल्लाह !मैं तो यह तसव्वुर करने की भी जुर्रत नहीं कर सकता कि दाई ने उन्हें चूड़ी-दार के बग़ैर देखा होगा। भरी-भरी पिंड्लियों पर ख़ूब खब्ता था। हाथ के बुने रेश्मी इज़ार-बंद में चाबियोँ का गुच्छा छनछनाता रहता।जो ताले बरसों पहले बेकार हो गए थे उन की चाबियाँ भी उस गुच्छे में महफ़ूज़ थीं।हद ये कि उस ताले की भी चाबी थी जो पाँच साल पहले चोरी हो गया था। मोहल्ले में उस चोर का बरसों चर्चा रहा,इसलिए कि चोर सिर्फ़ ताला,पहरा देने वाला कुत्ता और उनका शजरा-ए-नस्ब चुरा कर ले गया था। फ़रमाते थे कि इतनी ज़लील चोरी कोई अज़ीज़ रिश्तेदार ही कर सकता है।आख़िरी ज़माने में यह इज़ार-बंदी गुच्छा बहुत वज़नी हो गया था और मौक़ा बे मौक़ा फ़िल्मी गीत के बाज़ू-बंद की तरह खुल खुल जाता।कभी झुक कर गरम जोशी से मुसाफ़ा करते तो दूसरे हाथ से इज़ार-बंद थामते। मई जून में टेम्प्रेचर 110 हो जाता और मुंह पर लू के थप्पड़ से पड़ने लगते तो पाजामें से एयर-कंडिशिनिंग कर लेते।मतलब ये कि चूड़ियों को घुट्नों घुट्नों पानी में भिगो कर,सर पर अंगौछा डाले,तर्बूज़ खाते।ख़स-ख़ाना-व-बर्फाब कहाँ से लाते। उस के मोहताज भी न थे।कितनी ही गर्मी पड़े,दुकान बंद नहीं करते थे।कहते थे,मियाँ! ये तो बिज़नेस,पेट का धंधा है।जब चमड़े की झोंपड़ी (पेट) में आग लग रही हो तो क्या गर्मी क्या सर्दी।लेकिन ऐसे में कोई शामत का मारा गाहक आ निकले तो बुरा भला कहके भगा देते थे।इस के बावजूद वह खिंचा-खिंचा दोबारा उन्ही के पास आता था।इसलिए कि जैसी उम्दा लकड़ी वो बेचते थे,वैसी सारे कानपुर में कहीं नहीं मिलती थी।फ़रमाते थे, दाग़ी लकड़ी बंदे ने आज तक नहीं बेची।लकड़ी और दाग़-दार? दाग़ तो दो ही चीज़ो पर सजता है दिल और जवानी।

हमने कुत्ता पाला / कन्हैया लाल कपूर

“आप ख़्वाह मख़्वाह कुत्तों से डरते हैं।हर कुत्ता बावला नहीं होता।जैसे हर इंसान पागल नहीं होता।और फिर ये तो “अल सेशन” है।बहुत ज़हीन और वफ़ादार।”कैप्टन हमीद ने हमारी ढारस बंधाते हुए कहा।कैप्टन हमीद को कुत्ते पालने का शौक़ है।शौक़ नहीं जुनून है।कुत्तों को वो इतनी मोहब्बत से पालते हैं जो वालदैन को अपने इकलौते बच्चे से होती है।में इस मुआमले में उनकी ज़िद वाक़े हुआ हूँ।कुत्ते को देख कर चाहे वो कितना शरीफ़ और बे-ज़रर क्यूँ न हो मुझे उस से ख़ुदा वास्ते का बैर हो जाता है।मेरा बस चले तो तमाम कुत्तों को एक लंबी चौड़ी हवालात में बंद कर दूँ कैप्टन हमीद मेरी इस कमज़ोरी से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं।इसीलिए वो बार-बार मुझे अपना नज़रिया बदलने के लिए कह रहे थे।देखिए “टाइगर” (ये उनके कुत्ते का नाम है)दो चार दिन में आप से मानूस हो जाएगा। और फिर आप महसूस करेंगे कि जब तक वो चाय की मेज़ पर मौजूद न हों आप चाय नहीं पी सकते।खाने के वक़्त बराबर वो आप के साथ मिलकर खाना खाएगा और आप को एहसास होगा जैसे आप किसी बहुत प्यारे मेहमान की ख़ातिर व तवाज़ो कर रहे हैं।सैर पर आप के साथ जाएगा और।”“लेकिन कैप्टन साहब मैं तो कुत्तों की सूरत तक से बेज़ार हू। मैं......”

“अरे भई नहीं।महीना भर की तो बात है।मैं मद्रास से वापिस आते ही उसे अपने हाँ ले जाऊंगा।”

“माफ़ कीजिए मैं आप का कुत्ता.....”

“आप तो बच्चों की तरह ज़िद करते हैं।ज़रा रख कर तो देखिए इसे जब आप वापिस करेंगे तो आप की आँखों में आँसू होंगे।”

कैप्टन हमीद “टाइगर” को मेरे हाँ छोड़ गए,जैसा कि उन्होंने फ़रमाया था।टाइगर बहुत जल्द मुझ से बे-तकल्लुफ़ हो गया और इसी बे-तकल्लुफ़ी की वजह से मुझे तरह-तरह की परिशानियाँ उठाना पड़ें।ये शायद तीसरे चौथे दिन की बात है कि मैं नया सूट पहनकर एक पार्टी में शिरकत करने के लिए जा रहा था जूँ ही डेवढ़ी में से कि जहाँ टाइगर बंधा हुआ था गुज़रा यक-लख़्त वो उछल कर टांगों पर खड़ा हो गया और मुझ से यूँ बग़लगीर हुआ जैसे बरसों के बाद मुलाक़ात हुई थी।लगा अपनी लंबी-लंबी ज़बान मेरे कोट और पैंट पर फेरने।चुनांचे जितनी राल उसके मुंह में थी,वो सब उसने मेरे लिबास की नज़्र कर दी।उसके पंजे मिट्टी से अटे हुए थे।इसलिए सूट पर जगह-जगह बदनुमा धब्बे लग गए।अपनी दानिस्त में वो मोहब्बत और बे-तकल्लुफ़ी का इज़हार कर रहा था और इधर हम दिल ही दिल में पेच-व-ताब खा रहे थे कि कम-बख़्त ने बढ़िया सूट का सत्यानास कर दिया।सूट तबदील किया और पिछले दरवाज़े से बाहर गए पार्टी से वापिस आए तो बिलकुल भूल गए कि डेवढ़ी में टाइगर बंधा हुआ था।उसके क़रीब से जो गुज़रे तो उसने उछलकर हमारा ख़ैर-मुक़दम किया और इतनी गर्मजोशी से कि पहले ख़ैर-मक़दम को मात कर दिया।हम गिरते-गिरते बचे जब वो हमारा मुँह चाटने की बार-बार कामियाब कोशिश कर रहा था।हमने हाथ से मना करने की सई की।उसने हमारा हाथ अपने मज़बूत दाँतों की गिरफ़्त में ले लिया।गो ख़ुदा का शुक्र है कि काटा नहीं,अब जितना उसे समझाते हैं कि टाइगर साहब मुरव्वत की हद हो गई।अब जाने भी दीजिए।उतना ही वो मुश्ताक़ होता जाता है।बारे जब उसकी तसल्ली हुई कि बे-तकल्लुफ़ी का हक़ अदा हो गया तो उसने अंदर आने की इजाज़त दे दी।

बैठक में आए और एक किताब पढ़ने के लिए निकाली।अभी दस बारह सफ़े पढ़े थे कि कमरे में ज़लज़ला सा आ गया।टाइगर पट्टा तुड़वा कर जो कमरे में दाख़िल हुआ तो उसने मेज़ पर रखे हुए ख़ूबसूरत फूलदान को नीचे पटक दिया तिपाई पर रखी हुई तसावीर को सूघने के बाद फ़ैसला किया कि कुछ अच्छी नहीं इसलिए उन्हें नीचे गिरा दिया।किताब हमारे हाथों में से छीन ली।उसे दाँतों में दबाकर इधर-उधर टहलने लगा।दो एक मिनट के बाद किताब फ़र्श पर रखकर रेडियो की तरफ़ मुतवज्जे हुआ।शायद पक्के गाने की ताब न लाकर बे-तहाशा भौंकने लगा।रेडियो सीट पर हमला करना चाहता था कि उसे ललकारा।चुनांचे तमाम हरकात बंद करके वो आराम से सोफे पर दराज़ हो गया।नौकर से दूसरा पट्टा लाने को कहा और बड़ी मुश्किल से उसे पहनाया।अब उसे डेवढ़ी की तरफ़ घसीटते थे और वो मिस्र था कि बैठक ही में क़याम करेगा।

दूसरे दिन हमारे हम-साए की बच्ची जो हमारी बच्ची की सहेली थी एक गुड़िया उठाए हमारी डेवढ़ी से गुज़र रही थी कि टाइगर की नज़र उस पर पड़ी,शेर की तरह जो वो दहाड़ा तो गुड़िया बच्ची के हाथ से गिर पड़ी और वो ख़ुद बे-होश होकर ज़मीन पर आ रही है।भाग कर बच्ची को उठाया।उसे होश में लाने के लिए काफ़ी जतन किए।मगर ख़ौफ़ का उसके दिल-व-दिमाग़ पर इतना असर हुआ कि उसे होश न आया।डाक्टर को बुलवाया गया।पूरे एक घंटे के बाद उसने आँखें खोलीं उसे उसके घर पहुँचाया गया।जहाँ उसे तीन दिन बुख़ार रहा।हमसाए से अलग शर्मिंदा हुए कोफ़्त अलग उठाना पड़ी।

इस से अगले दिन डाकिया छिट्टी देने आया।टाइगर उसकी तरफ़ बिजली की तरह लपका।पिछली टांगों पर खड़ा होकर उसकी गर्दन नापना चाहता था कि हमने दौड़ कर बच-बचाव किया और वो अपने ख़तरनाक इरादे से बाज़ आया।दो एक दिन बाद पोस्ट मास्टर साहब का ख़त मिला।उन्होंने लिखा था कि चूँकि हमने एक निहायत ख़ौफ़नाक क़िस्म का कुत्ता पाल रखा है इसलिए डाकिया हमारी डाकघर पर पहुँचाने से माज़ूर है हम डाकख़ाने से अपनी डाक मंगवाने का इंतिज़ाम करलें।

चंद दिन आराम से गुज़रे।एक दिन सुबह के वक़्त टाइगर को सैर कराने के लिए जा रहे थे।कि उसकी निगाह एक पालतू हिरन पर पड़ी जो अपने मालिक के साथ जा रहा था।टाइगर आपे से बाहर हो गया और हिरन की तरफ़ सरपट भागा बहुतेरा उसे पुकारा “टाइगर इधर आओ। टाइगर कम हियर”मगर उसने एक न सुनी।हिरन को नीचे गिरा दिया और उसकी अंतड़ियाँ फाड़ना चाहता था कि हिरन के मालिक और हमने बड़ी मुश्किल से हिरन को उसके पंजे से निजात दिला दी।इसके बाद हम दोनों में मुंदरजा ज़ैल गुफ़्तुगू हुई।

“ये कुत्ता आप का है?”

“जी नहीं।”

“तो फिर किस का है?”

“कैप्टन हमीद का।”

“तो आप गोया इसे चुरा कर लाए हैं।”

“जी नहीं।वो ख़ुद उसे मेरे हाँ छोड़ गए थे।”

“बड़ा बे-हूदा कुत्ता है।”

“जी नहीं।अल सेशीन नस्ल का है।देखिए न इसके कान खड़े रहते हैं।”

“कान खड़े रहने से क्या होता है।कुछ तमीज़ भी तो होनी चाहिए?”

“तमीज़ की बात और है वैसे तो काफ़ी ज़हीन है।”

“इसे ज़हीन कौन बे-वक़ूफ़ कहेगा।जी चाहता है गोली मार दूँ।”

हम अपना सा मुँह लेकर रह गए।वो बड़बड़ाते हुए चले गए।उस दिन हमने फ़ैसला किया कि आइंदा टाइगर को सैर पर नहीं ले जाएंगे।लेकिन टाइगर कब मानने वाला था सुब्ह छः बजे ही वो उछल-उछल और भौंक-भौंक कर हमें नींद से बेदार कर देता,कभी चादर को खींचता कभी हमारा कान दाँतों में दबाता।कभी मुँह चाटने लगता जैसे कि कह रहा हों उठिए कि अब तो लज़्ज़त-ए-बाद-ए-सहर हो गई।चुनांचे इसे अपने साथ ले जाना ही पड़ता सैर के दौरान में भी यही ख़दशा लगा रहता कि अगर उसने किसी जानवर या आदमी पर हमला कर दिया तो ख़्वाह मख़्वाह निदामत उठानी पड़ेगी—एक अजीब बात जो इसमें देखी ये थी कि सारी रात ना ख़ुद सोता और न हमें सोने देता।मुश्किल से आँख लगती कि वो ज़ोर-ज़ोर से बे-तहाशा भौंकने लगता।उठकर देखते कि वो दूर सड़क पर खड़े हुए किसी कुत्ते को देख कर भौंक रहा है,उसे डांट डपट कर चुप कराते और सोने की कोशिश करते।मगर जल्द ही उसकी फ़लक शिगाफ़ भौं-भौं बेदार कर देती।अब वो इसलिए भौंक रहा है कि हवा ज़रा तेज़ क्यूँ चल रही है या चाँद बादलों की ओट में क्यूँ छुप गया है। ये हमारा हम-साया उठकर पानी क्यूँ पी रहा है—और फिर उसकी ख़ातिर तवाज़ो और उस पर सर्फ़ किया गया रुपया,सुब्ह उसे एक सैर दूध का नाशता कराओ।दोपहर के वक़्त एक सैर गोश्त का लंच।शाम को दस बारह रोटियों और सालन का डिनर हर वक़्त ये डर रहता कि अगर वो कमज़ोर हो गया तो कैप्टन हमीद सारी उम्र माफ़ नहीं करेंगे।कभी-कभी हम ये सोचने लगते कि अगर कैप्टन हमीद कुत्ते के बजाए भेड़िया या चीता पालते तो कितना अच्छा रहता।कम-अज़-कम वो एक अजूबा तो होता।और फिर अगर किसी को काट खाता तो अफ़सोस न होता कि उसने कोई ऐसी हरकत की है जिसकी उस से तवक़्क़ो न थी।रहा टाइगर के कान खड़े रहने का मुआमला तो कान तो ख़रगोश के भी खड़े रहते हैं।कैप्टन साहब ने ख़रगोश क्यूँ न पाला।सारी रात भौंक-भौंक कर वो हमारी नींद तो ख़राब न करता।

टाइगर हमारे हाँ एक महीना रहा।ये महीना पहाड़ की तरह कटने में ही नहीं आता था।हर रोज़ सुबह उठकर हम हिसाब लगाते कि अब कितने दिन बाक़ी रह गए।ख़ुदा-ख़ुदा कर के कैप्टन हमीद मद्रास से लौटे।हमने जब टाइगर उनके सपुर्द किया।तो वाक़ई हमारी आँखों में आँसू थे।लेकिन ये आँसू ख़ुशी के थे!

हम भी साहिब-ए-जाइदाद हो गए / शफ़ीक़ा फ़रहत

क़र्ज़ की मय तो नहीं अलबत्ता चाय ज़रूर पीते थे(क्यूँ कि ग़ालिब से अज़ली और अबदी रिश्ता है।!)और जानते थे कि एक दिन ये फ़ाक़ा मस्ती,जिसमें से अब मस्ती भी ग़ायब होती जा रही है,ज़रूर रंग लाएगी।!

तो साहब वो रंग लाई और ऐसा चोखा कि हमारी ऐनक ज़दा आँखें भी चकाचोनद हो गईं।!वाक़िया किसी साल के किसी महीने की किसी तारीख़ का है कि हमारी एक दोस्त ने शैतान-ए-आज़म का रोल अदा किया।यानी हमें वरग़ला कर अपने घर ले गईं।अभी तसव्वुराती इतमिनान का रिवायती सांस भी नहीं लिया था कि इत्तिला मिली हमारे कबूतर ख़ाने का,जिसे उर्फ़-ए-ख़ास में दौलत ख़ाना (अगरचे दौलत सिरे से मफ़क़ूद है) कहा जाता है,ताला तोड़ दिया गया है।

घर पहुंचते-पहुंचते पूरी एक क़ौम ताज़ियत करने और पसमांदगान को सब्र की तलक़ीन करने जमा हो गई।इन सब को हमने इतमिनान दिलाया कि अव्वल तो हमारे ताला अज़ल से ही से टूटा हुआ था।ये हमारे हाथ की सफ़ाई थी जिस से इसका भ्रम क़ायम था।यानी उसे हम इस फ़नकाराना ख़ूबी से चिपका देते थे कि वो बंद मालूम होने लगता था! इसलिए इस वारदात को “ताला तोड़ने” का नाम नहीं दिया जा सकता।

और दूसरे ये कि दिन को इस तरह लुटने से रात को चोरी का ख़दशा न रहा।!!

और फिर घर की ये हालत कि जब-जब कोई आता हमें निहायत ही फ़लसफ़ियाना और राहिबाना अंदाज़ में पोज़ बना कर कहना पड़ता।

“आज ही घर में बोरिया न हुआ!”

ले दे के जूते के पुराने डिब्बे से मुशाबेह एक रेडियो था जिसमें हर वो स्टेशन लग जाता जिसे आप ना लगाना चाहते हों।!और जिस में बयैक-वक़्त आधे पौन दर्जन स्टेशन सुने जा सकते थे।रेडियो सीलोन के व्यपार विभाग से फ़िल्म“प्रेम की बुलबुल”की कहानी,आकाशवाणी के पंच रंगी प्रोग्राम विविध भारती से फ़िल्मी गाने,रेडियो पाकिस्तान से अरबी फ़ारसी में ख़बरें,बंबई से ड्रामा,मद्रास से तमील में आ।और जालंधर से बल्ले-बल्ले।और जब ये नुक़्ता-ए-उरूज पर होते तो ऐसा मालूम होता किसी मैदान-ए-जंग से बमबारी का आँखों देखा और कानों सुनाया जा रहा हो।

और एक घड़ी थी जो मुम्किन है किसी ज़माने में घड़ी रही हो।लेकिन अब उसमें इस क़िस्म के कोई जरासीम नहीं पाए जाते थे।

तो साहब जब मनक़ूला और ग़ैर-मनक़ूला जाइदाद की ज़ुबूँहाली का ये आलम हो तो चोरी का क्या ग़म!ग़म था तो सिर्फ़ इस बात का कि ग़रीब ने घर की एक-एक चीज़ उलटने पलटने में कितनी मेहनत की और उसे वापसी के लिए बस का किराया तक न मिल सका।!भला वो अपने दिल में क्या सोचता होगा।इस से ज़्यादा बे-इज़्ज़ती की बात और क्या हो सकती है---?कहीं कुल कलाँ को वो उल्टा हमें ही मनी आर्डर न भेज दे! या अखिल भारतीय चोर सभा बना कर हम जैसे लोगों की फ़लाह-व-बहबूद के ज़राए न सोचने लगे।

ख़ैर जो हुआ सो हुआ। मगर अब ऐसे आड़े वक़्तों के लिए कि जब घर की इज़्ज़त पर बन जाए हमें कुछ न कुछ बचाए रखना चाहिए।हमारी आमदनी और ख़र्च का हिसाब कुछ ऐसा तरक़्क़ी पसंदाना था कि हज़ार एकाउंटेंट रक्खे जाने और सैकड़ों कमीशन बिठाए जाते तब भी उनकी एक दूसरे से दोस्ती न होती।इसलिए हिसाब किताब करना या बजट बनाना ऐसा ही था जैसे यू.एन.ओ.में कश्मीर का मसला उठाना। इस झंझट में पड़ने के बजाए हमने अपने VETO पावर से काम लेते हुए न आओ,न आगा न पीछा झट सौ रुपये उठा के ऐसी जगह रखवा दिए जहाँ वो हमारे लिए भी अजनबी बन गए।!

चार,पाँच रोज़ बख़ैर ख़ूबी गुज़र गए और हमें अपने सौ रूपों की जुदाई का क़तई एहसास न हुआ।बल्कि हम ख़ासा फ़ख़्र महसूस कर रहे थे कि हम भी साहिब-ए-जाइदाद हो गए! अगर दिन में एक ख़ास तनाव और चाल में राऊनत पैदा हो गई--- और रावी तो यहाँ तक कहता है कि लब-व-लहजे में भी इन्क़िलाब आ गया--!हम जो पहले हर वक़्त अपने जैसे फक्कड़ लोगों के साथ गप्पें हाँका करते थे और वो क़हक़हे लगाते थे जो गज़ों और मीलों तक सुने जा सकते थे।अब सिर्फ़ ज़ेर-ए-लब तबस्सुम (कि जिस में तबस्सुम कम और मितानत ज़्यादा होती है) से काम चलाया करते। और इस फक्कड़ क़ौम के साथ बैठना और गप्पें हाँकना तो अब अहद-ए-पारीना की दास्तान बन चुका था।गो इस तबदीली का हम पर ये असर हुआ कि कई दिनों तक गर्दन,ज़बान,जबड़े,होंट और पेट में शिद्दत का दर्द होता रहा।तबीयत गिरी-गिरी रही।किसी काम में दिल न लगता था क्या करते मजबूर थे कि साहिब-ए-जाइदाद तबक़े का शेवा यही है!

छट्टे रोज़ नागहानी तौर पर बाज़ार से गुज़र हुआ। एक हसीन साड़ी दुकान में लहरा रही थी।हमने पहले उसे देखा फिर अपनी ढाई जगह से सिली साड़ी को।और एक आशिक़ाना सी आह भर के आगे बढ़ गए।क्यूँकि सौ रुपये बचाने के लिए लाज़िमी था कि हम ढाई नहीं बल्कि सवा तीन और साढे़ चार जगह से फटी साड़ी पहने घूमें।!!

दो क़दम चलने के बाद साल भर पुरानी चप्पल भी टा-टा---बाय-बाय कहने लगी।फिर दिल पर सौ का नोट कि जो पत्थर से भी भारी था रखा और चप्पल में पिन अटका ली---!

रफ़्ता-रफ़्ता हम बिखरे सूखे बाल,सूनी आँखें,फीके होंट और रूखा वीरान चेहरा लिए कॉलेज पहुंचने लगे।अवाम और ख़वास ने सोचा कि शायद हमारे किसी अज़ीज़ का इंतिक़ाल हो गया है।इसलिए हम अपने सोगवार हैं।या शायद हमने फिर एक नया इश्क़ शुरू कर दिया है और जो शद-व-मद के लिहाज़ से पिछले तमाम रिकार्ड तोड़ देगा।इसलिए एक तरफ़ तो ताज़ियती जलसे का इंतिज़ाम होने लगा तो दूसरी तरफ़ बड़े राज़दाराना अंदाज़ में मशवरे दिए जाने लगे।और तब हमने एलान किया कि इस सोगवारी में न किसी मौत का हाथ है न रोमान का--- सब माया का जाल और हमारी चाल है।यानी हमने मुबल्लिग़ सौ रुपये बचाए हैं।नतीजे के तौर पर हम इस क़ाबिल नहीं रहे कि लिप-स्टिक पॉवडर काजल क्रीम तेल की LUXURIES को बर्दाश्त कर सकें।अगर आप लोगों को ये ख़ौफ़ है कि आप की तबा-ए-नाज़ुक हमारी इस वीरान सूरत को बर्दाश्त न कर सकेगी और ऐन मुम्किन है कि इसी सदमे से एक आध का हार्ट फ़ेल हो जाए तो बखु़शी (या बह रंज)हमारे सोला न सही आठ सिंघार का इंतिज़ाम कर दीजिए हमें क़तई एतराज़ न होगा!!

ख़ैर साहब सूरत पर डालिए ख़ाक,कि ये ख़ाक से बनी है और ख़ाक में मिलेगी।और सीरत पर नज़र डालिए कि ये न किसी से बनी है न किसी में मिलेगी।!मगर वा-ए-तक़दीर कि ये सीरत भी सौ रुपये यानी दस हज़ार नए पैसों की चमकती दीवार में।ज़िंदा चुनी जा रही है और किसी माई के लाल (अफ़सोस कि लाली यानी बेटी को काबिल-ए-इल्तिफ़ात ही नहीं समझा गया।!)में हिम्मत नहीं कि इसे खींच के निकाल सके!

हाँ वो क़िस्सा-ए-हातिमताई यूँ है कि हसब-ए-मामूल चंद ऐसी लड़कियों ने जिनके चेहरे ग़रीब-व-इफ़्लास की धूल से अटे रहते हैं।जिनकी आँखें हसरत-व-मायूसी के बोझ से झुकी रहती हैं।जो अपने आप को इस दर्जा मुजरिम समझती हैं कि न कभी हंसती हैं,न मुस्कुराती हैं, न उछलती कूदती हैं।बल्कि हमेशा झुकी-झुकी रहती हैं और उनका बस चले तो शायद ज़मीन में ज़िंदा दफ़न हो जाएँ---तो ऐसी ही दो लड़कियों ने दाख़िले की फ़ीस के लिए रुपये मांगे।क्यूँकि उन्होंने सुन रक्खा था कि हातिम की क़ब्र पर लात मारने वाली (धीरे से ही सही।!) हस्ती मौजूद है।

लेकिन हुज़ूर!वो ज़माने तो हवा हो गए---सौ रुपये ने उस हातिम की टांगें यूँ कस के पकड़ रक्खी थीं कि हल्की सी जुंबिश भी मुम्किन न थी।हाथ भी जकड़े हुए थे।पता नहीं कैसे सौ रूपों की ये दीवार इतनी ऊंची न हो पाई थी कि आँखों को ढक लेती।तो आप की ये हातिम ताई सौ रुपये की इस झिलमिलाती दीवार की आड़ में खड़ी बेबसी से अन झुके हुए सरों झुकी हुई आँखों और गढ़े हुए क़दमों को देखती रही।

ज़ाहिर है जाइदाद यूँ लुटाई नहीं जाती---!!

महीने के पंद्रह दिन गुज़र गए।पिक्चर हमने देखी नहीं।कैंटीन में चाय पीनी (अपने पैसे से) छोड़ दी।लोगों के घर आना जाना बंद कर दिया कि बस और टैक्सी पर पैसे न उठें।लेकिन पैसे हैं कि जो उठते हैं तो बस उठते ही चले जाते हैं।बड़े और छोटे ग़ुलाम अली की तानों की तरह और अब तो तान इस नुक़्ते पर पहुंच गई है कि चाय की पत्ती रुख़्सती की तैय्यारी कर रही है तो शक्क्र अलविदाई गीत गा रही है।और आटा दाल चावल तेल थी वो ज़ोर-व-शोर से कूच के नक़्क़ारे बजा रहे हैं कि हमारे होश-व-हवास तो ख़ैर गुम हो ही रहे हैं मगर वो सौ का नोट उसी माडर्न मजनूँ की तरह जान बचाता फिर रहा है जिसके पीछे लैला बेगम के डैडी अपनी कश्मीरी छड़ी लिए फिर रहे हों---!

मगर जनाब ये जान और आन की फ़्री स्टाइल कुश्ती है।और आप जानते ही हैं कि जीत उसी की होती है जिसे रैफ़री जीताना चाहे सो आपका ये रैफ़री हालात की नज़ाकत को देखते हुए“आन”के हक़ में है(कि इस तरकीब से“जान” भी महफ़ूज़ रहेगी!)तो चाहे जान चली जाए(ज़रा देर के लिए फ़र्ज़ कर ही लीजिए)मगर सौ रुपये ख़र्च न किए जाएँगे।और जान को बचाना भी उन सौ रूपों की हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी है इसलिए हम पंद्रह दिन तक रोज़ चाय नाश्ता और खाना बारी बारी से दोस्तों के यहाँ खाते रहेंगे।और हालात साज़गार हुए तो कपड़े भी दूसरों ही के इस्तेमाल किए जाएँगे।बल्कि कोशिश तो ये होगी कि किसी तरह मकान का किराया,बिजली का बिल वग़ैरा भी चंदा कर के अदा कर दिया जाए कि सौ रुपये जमा करने और साहब-ए-जाइदाद कहलाने का यही वहदहू लाशरीक नुस्ख़ा है।!!

हज़रत-ए-आलू / शफ़ीक़ा फ़रहत

सादगी हा-ए-तमन्ना यानी

फिर वो आलू-ए-बे-रंग याद आया

और क्यूँ न आए।आलू तो सबज़ियों और ज़रदियों का ग़ालिब और इक़बाल है।खेत से लेकर Cold Storage तक,और ठेले से लेकर खाने की मेज़ तक।या उस तेहरी अन वन झलंगा चारपाई तक जो बैयक वक़्त आप के ड्राइंगरूम डाइनिंग रुम और बेडरूम के ख़ुशगवार और ना-ख़ुशगवार फ़राएज़ अंजाम देती है,जिधर नज़र डालिए।बस वो ही वो है।

नक़्श फ़रयादी है उसकी शोख़ि-ए-तहरीर का

आलूई है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का

बस आलू ही एक हक़ीक़त है।बाक़ी सब धोका—एक उसी को बक़ा है।बाक़ी सब फ़ानी—

और सब सबज़ियाँ तो बिजली एक कुंद गई आँखों के आगे के मिस्दाक़ अपनी एक डेढ़ झलक दिखला के रुपोश हो जाती हैं।मगर मियाँ आलू हैं कि साल के बारहों महीने उसी जमाल-व-जलाल के साथ जलवा आरा होते हैं।

ख़िज़ाँ क्या फ़सल-ए-गुल कहते हैं किस को

वही हम हैं।आलू है और मातम-ए-माल तरका

और साहब बारह किया अगर साल में पंद्रह और अठारह महीने भी होते तब भी “अहल-ए-जहानी इसी शान से डटे रहते कि

दिन हुआ फिर आलू-ए-रक़्संदा का दर खुला

इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुतकदे का दर खुला

जाने किस फ़रिश्ते ने धांदली करके कुछ ऐसे फ़ौलादी अनासिर-ए-हिज्र से आलू को तख़लीक़ किया कि बरसता पानी।कड़कते जाड़े और झुलसती धूप भी उसका बाल बाका नहीं कर सकते।और जाने किस ब्रांड का आब-ए-हयात पिया है कि हम जनों के मुक़ाबले में उम्र-ए-ख़िज़्र हासिल हो गई है।और हर दम।“मौत है उस पर दाम”वाला मंज़र पेश करता रहता है।

आलू न हुआ हज़रत-ए-इक़बाल का मर्द-ए-कामिल,बच्चों के रिसालों का टारज़न और हिंदोस्तानी(सिफ़ारती तअल्लुक़ात की ख़ुशगवारी के बिना पर पाकिस्तानी भी—)फिल्मों का हीरो हो गया—और सच्च तो ये है कि ये फ़िल्मी हीरो की तरह कारसाज़ भी है और कार-आफ़रीं भी— और मुश्किल कुशा भी— बिगड़ी को बनाने वाला— डूबते को बचाने वाला— बे-कस का सहारा— बे-बस का किनारा—!

जब बे-मौसम की बारिश और मौसम के ओलों की तरह मेहमान आप को ईसाल-ए-सवाब का मौक़ा अता करते हुए अज़ाब बनकर नाज़िल हो जाएं— और फ़रार के सारे रास्ते मस्दूद और बाज़ार की सारी दुकानें बंद हो जाएँ— और आप के लिए अपनी पसमांदा इज़्ज़त और मेहमानों के लिए अपनी बाक़ी मांदा जान बचानी मुश्किल हो जाए।

उस वक़्त यही आलू अपनी बे-रंगी से आप के दस्तर-ख़्वान पर रंग और मेहमानों के दिल में तरंग भर देगा।तब आप को एहसास होगा कि आलू के मुक़ाबले में आप की अपनी हैसियत-व-शख़्सियत किस दर्जा हक़ीर है।और फिर आलू से अपने सिफ़ारती तअल्लुक़ात ख़ुशगवार बनाने की ख़ातिर उस पर लगाए गए तमाम इल्ज़ामात न सिर्फ़ वापस लेलेंगे बल्कि एक प्रेस नोट जारी करेंगे।कि

जुज़ आलू और कोई न आया बरु-ए-कार

और एक प्रेस कान्फ़्रेंस बुलाके आलू चिप्स,आलू टिकिया,आलू छोला खिलाते और खाते हुए ये फ़ैसला सादिर करेंगे।कि

आलू से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया

और ये कि

हवस को है निशात-ए-कार क्या-क्या

न हो आलू तो जीने का मज़ा क्या

वैसे आफ़ दी प्रेस हक़ीक़त ये कि मैंने आज तक किसी को।सिवाए आलू फ़रोशों के आलू से दिलचस्पी लेते नहीं देखा—!मगर ख़ैर—ये आप का इश्क़ है।और इश्क़ बे-ज़ोर नहीं—लिहाज़ा अगर आप का ये इश्क़ उसी फ़िल्मी और क़लमी रफ़्तार से बढ़ता रहा तो मुम्किन है किसी दिन आप बड़ी मस्जिद के मुल्ला जी के पास नंगे पैर या बाथरूम स्लीपर सटकाए,दौड़े चले जाएँ।और उनकी शुमालन जुनुबन और शरक़न ग़ुरबन लहराती हुई बुर्राक़ दाढ़ी की क़सम दे के पूछें।कि—

सताइश गर है ज़ाहिद इस क़दर तो जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का

तो क्या इस बाग़ उर्फ़-ए-जन्नत में आलू की क्यारियाँ और बोरीयाँ भी हैं या नहीं—?वर्ना हम मुफ़्त में क्यूँ पारसाई के इतने पापड़ बेलें—!

वैसे आलूयात के सही और असल मराकिज़ होटल और हॉस्टल हुआ करते हैं—ये चाहे खिलन मर्ग और सून बर्ग में हों या कन्याकुमारी में—,मेघालय में हों या गुजरात में।माहिर-ए-आलूवियात अपनी आलू शनासी के ऐसे-ऐसे नमूने पेश करेंगे कि हर खाने वाला ब-रक़्त-व-दिक़्क़त ये शेर पढ़ता हुआ डाइनिंग हॉल से निकलेगा।

हाल में फिर आलू ने एक शोर उठाया ज़ालिम

आह जो बर्तन उठाया सो उसमें आलू निकला

इन मक़ामात आह-व-फ़ुग़ां में बशर्त इस्तवारी हर दिन व हर रात का मीनू आलू ही होता है—!यानी आलू पराठा।आलू पुलाव।आलू चलाव।आलू गोभी।आलू मटर।आलू टमाटर।आलू बैगन।आलू सीम।आलू गोश्त।आलू मछली।आलू मुर्ग़।या फिर आलू-आलू।मसलन आलू दम।आलू बे-दम।आलू रायता।आलू हलवा।आलू खीर।वग़ैरा।वग़ैरा।वग़ैरा।वग़ैरा

और इन जनाब नन्हे मुन्ने।गोल सुडौल आलूओं का क्या कहना जो हरी धनिया की चटनी के हरे-हरे तालाब में बड़े इतमिनान से डुबकूँ डुबकूँ कर रहे हों—!

उनकी अब तक की कारगुज़ारियों से ये अंदाज़ा बख़ूबी हो गया होगा कि आप दल बदलने में अपना सानी नहीं रखते।और बहरूपिया तो ऐसा है कि मैदान-ए-सियासत के पहुंचे हुए बुज़ुर्गों की बुजु़र्गी ख़तरे में पड़ जाए—!

यूँ भी उस बे-गूण में पेशा-वर नेताओं के सारे गुण मौजूद हैं।ऊपर से खद्दर धारी अंदर से कारोबारी।वही मिस्कीनी। वही ख़ाकसारी।और उन्हीं की तरह हर मुआमले में दख़ल और हर जगह पहुंच रखते हैं।

पर भाई साहब तहसील कचहरी के फाटक के बाहर ख़्वांचा में भी बड़ी कसरत से पाए जाते हैं।और बड़ी फ़र्राख़ दिली से मुफ़लिस नादार पर देसी गवाहों की शिकम परी के फ़राएज़ अंजाम देते हैं।और अशोका होटल की झिलमिल-झिलमिल मेज़ों पर गज़ग बन के—

तो भाई जान—ये ख़्वांचा नशीं आलू—इश्तिराकी आलू हैं—और पूरी भंडार में पूरी के साथ मुफ़्त में मिलने वाले जमहूरी आलू—और अशोका की मेज़ पर जलवा अफ़रोज़ शाही आलू—आलू चाहे शाही हो या इश्तिराकी एक किर्क्राहट उसकी अदा-ए-ख़ास है।जिसके लिए उसमें हर ख़ास-व-आम गले-गले डूब जाता है—!

ये तो हुज़ूर—सारे के सारे वो आलू हैं।जिन्हें हम आप(और आलू फ़रोश भी)मैदानी और पहाड़ी कहते हैं।

और जिस तरह किसी ज़माने में ख़रबूज़े को देख-देखकर ख़रबूज़ा रंग पकड़ा करता था—उसी तरह आज उन मैदानी और पहाड़ी आलूओं की हमागीर आलूवियत को देखकर कुछ शहरी आलू भी न सिर्फ़ पैदा होने लगे हैं—बल्कि रंग भी पकड़ते जाते हैं।और ढंग भी—!

शहरी आलू—चाहे मैदानी और पहाड़ी आलू की तरह गोल मटोल न हों।मगर लुढ़कते उन्हीं की तरह हैं—इधर भी—उधर भी—थाली के अंदर भी—और थाली के बाहर भी—!

जिस तरह तिलिस्म-ए-होश-रुबा की परियोँ और देवों की जान किसी तोते।किसी मैना में बंद होती थी।उसी तरह आज के बाज़ीगरों की जानें भी इन्हीं आलुओं में अटकी रहती हैं।फिर वो उन्हें मोहब्बत-ए-पाश और मोहब्बत-ए-बाश नज़रों से देखता है।फिर इशारे कनाए होते हैं।नज़्र-ए-नियाज़ होती है— और ये ब-ज़ाहिर बेनियाज़ी का सबूत देते हैं।मगर दिल ही दिल में अपने ग़ैर अहम वजूद की अहमियत के एहसास से ख़ुश होते हैं।और बात के बात बिगड़ते अकड़ते रहते हैं।आख़िर कार मुनासिब तौर से किसी गोभी,किसी टमाटर किसी मटर के साथ मिलकर हंडिया पकाते हैं।और दस्तर-ख़्वान सजाते हैं।वैसे ये कुछ भी नहीं।मगर गोभी टमाटर मटर के साथ सब कुछ हैं।और गोभी टमाटर मटर भी इस राज़ से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि आलू के बगै़र बहुत कुछ बनना मुश्किल है।इसीलिए तो

शुमार-ए-आलू मर्ग़ूब-ए-बुत मुश्किल पसंद आया

लिहाज़ा दोनों तरफ़ का जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार शौक़ देखा जाए—!

आलुओं की ये क़िस्म बड़ी अक़लमंद—ख़ुदशनास और जहाँ दीदा है—इसीलीए भाव बढ़े हैं—और रावी उनकी क़िस्मत में तहसीन-ए-बहुरूफ़,सुनहरी-व-रुपहली लिखता है—!

निगाह आलू शनास इनके अलावा भी क़िस्म-क़िस्म के आलू देख लेती है।आलू की तरह गोल मटोल।आलू ही की तरह मरनज-व-मरनजाँ और मिस्कीं।ये औरों से बे-तअल्लुक़।अपने से बे-ख़बर।न किसी का हिसाब चुकाना न किसी को हिसाब देना।न दोस्ती न दुश्मनी।न लॉग न लगाओ।चेहरे पर ऐसी मलकूती हिमाक़त(जिसे मोहज़्ज़ब ज़बान में हिमाक़त भी कहा जाता है—!)जैसे अभी-अभी किसी मुल्क की बादशाहत का ताज-ए-मुरस्सा आप के सर-ए-मुबारक पर रखा जाने वाला हो! सियासत के Super Bazaar में उनकी क़ीमत एक सूत की एंटी से ज़्यादा नहीं लगती।कि उनके हाथ में नफ़ा नुक़्सान का तराज़ू नहीं—!लिहाज़ा उन्हें महज़ आलू के बजाए अबला आलू कहना ज़्यादा मुनासिब होगा—!

शहरी आलुओं में,समाजी आलू को भी बड़ी अहमीयत हासिल है।उनके बगै़र अंदरून-ए-शहर व बैरून-ए-शहर की कोई तक़रीब मुकम्मल नहीं।वो चाहे इंडो बर्मी मुशायरा हो या मुज़ाकिरा—इकनॉमिक कान्फ़्रेंस हो या मुर्ग़ी कान्फ़्रेंस—क़ुतब-ए-शुमाली के ईटसटकी बर्फ़ से बनाई तस्वीरों की नुमाइश हो या कांगू का क़ौमी नाच..चीनी मौसीक़ी की महफ़िल हो या कहीं अदीबों की नशिस्त।या ताज-उल-मसाजिद से टूल वाली मस्जिद तक किसी का भी,“माबैन असर-व-मग़रिब”वाला प्रोग्राम हो।आप आलू की तरह न सिर्फ़ वहाँ मौजूद होंगे बल्कि दाद।बे-दाद। इंतिज़ाम।इंतिशार हर एक का पूरा पूरा हक़ अदा करेंगे—!

और मोअज़्ज़िज़ीन-ए-शहर में से चाहे जिसका इंतिक़ाल पर मलाल हुआ हो। वहाँ भी आप अपने चमकीले सजीले आँसूओं समेत नज़र आएंगे।और तजहीज़-व-तकफ़ीन के सारे इंतिज़ामात अपने हाथ में ले लेंगे।और यूँ जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार शौक़ के साथ ज़िंदा और मुर्दा दोनों की आक़िबत और आफ़ियत तबाह करेंगे गोया मरहूम के अस्ल वारिस आप ही हैं—!

यूँ इन्हें किसी बुलावे की हाजत नहीं।मगर दस्त-ए-ग़ैब से वो हर जगह के दावत नामे हासिल कर लेते हैं।हर शहर में उनकी बोहतात है।और शायद टके सैर भी महंगे हों।बला सुरमा-ए-मुफ़्त नज़र की तरह चशम-ए-ख़रीदार पर ही एहसान होगा।मगर ये हैं बड़े काम की चीज़।

हाल की ख़ाली कुर्सियाँ उनके वजूद से ब-आसानी छुप जाती हैं।और वो ऑल इंडिया कान्फ़्रेंसैं।जिनमें सामईन की तादाद मुक़र्ररीन और मुंतज़मीन की मजमूई तादाद से एक नफ़र भी ज़्यादा न हो—और वो ऑल इंडिया के बजाए ऑल मोहल्ला भी न मालूम होती हों—वहाँ ईन्हीं के दम से (दस्तर ख़्वानी आलुओं की तरह) रौनक लाई जाती है—!और कहीं-कहीं तो फ़तह-व-शिकस्त के फ़ैसले भी इन्हीं की ज़ात बे-बरकात से होते हैं लिहाज़ा यही कहना पड़ता है।

आप बे-बहरा है जो मोतक़िद-ए-आलू नहीं

सुइज़ बैंक में खाता हमारा / मुजतबा हुसैन

हज़रात! मैं किसी मजबूरी और दबाव के बगै़र और पूरे होश-व-हवास के साथ ये एलान करना चाहता हूँ कि स्विट्ज़रलैण्ड के एक बैंक में मेरा एकाउंट मौजूद है। आप इस बात को नहीं मानते तो न मानिए। मेरी बीवी भी पहले इस बात को नहीं मानती थी। अब न सिर्फ़ इस बात को मान रही है बल्कि मुझे भी मानने लगी है। आप यक़ीनन ये सोच रहे होंगे कि जब सारे लोग अपने खातों को पोशीदा रखने के सौ-सौ जतन कर रहे हैं तो ऐसे में मुझे अपने आप ही अपने खाते की मौजूदगी का एलान करने की ज़रूरत क्यूँ पेश आ रही है। एक दिन मैं दफ़्तर से बेहद थका मांदा घर पहुंचा तो बीवी ने कहा “आप जो इतना थक जाते हैं तो इस का मतलब ये है कि आप दफ़्तर में काम भी करते हैं।”

मैं ने कहा “भला ये भी कोई पूछने की बात है। आदमी काम करने से ही तो थकता है। यही वजह है कि आज तक मैं ने किसी सियास्तदान और मौलवी को थका मांदा नहीं पाया।”

बोली “आदमी मेहनत करता है तो फिर उसे इसका सिला भी मिलता है। तुम जो इतनी मेहनत करते हो तो तुम्हें क्या मिल रहा है?”

ज़ाहिर है कि इस मुश्किल सवाल का आसान जवाब जब मुलक के माहिरीन-ए-माशियात के पास भी नहीं है तो मैं क्या ख़ाक जवाब देता। सो मैं ख़ामोश हो गया। मैं ने सोचा कि तीस बरस की रिफ़ाक़त में, मैं ने अपनी बीवी को रोज़ की ख़ुशियाँ उसी रोज़ देने के सिवाए और क्या किया है।उसकी झोली में एक-एक दिन और एक-एक पल को जोड़ कर जमा किया हुआ तीस बरसों के अर्से पर फैला हुआ माज़ी तो है लेकिन आने वाले कल का कोई ऐसा लम्हा नहीं है जिसे आम ज़बान में ख़ुश आइंद मुस्तक़बिल कहते हैं। मैं ने सोचा आज उसे थोड़ा सा मुस्तक़बिल भी दे देते हैं। लिहाज़ा मैं ने कहा ये तुम क्या मेहनत और सिला के पीछे हैरान हो रही हो। आज मैं तुम्हें एक ख़ुश-ख़बरी सुनाना चाहता हूँ कि स्विट्ज़रलैण्ड के एक बैंक में मेरा अकाउंट मौजूद है। ये सुनते ही मेरी बीवी का मुँह हैरत से खुला का खुला रह गया। बड़ी देर बाद जब वो बंद हुआ तो उसने अचानक घर के दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद करनी शुरू करदीं।

मैं ने कहा “ये क्या कर रही हो?”

बोली “स्विट्ज़रलैण्ड के बैंक के खाते की बात कोई यूँ खुल्लम खुल्ला करता है।अगर ब-फ़रज़-ए-मुहाल स्विट्ज़रलैण्ड के किसी बैंक में तुम्हारा खाता है भी तो तुम्हें इसका एलान करने की क्या ज़रूरत है। अगर मुझे इस खाते का सुराग़ लगाना हो तो मैं किसी खु़फ़ीया एजेंसी के ज़रीए इसका पता लगा सकती हूँ या फिर एक दिन मुल्क के किसी अख़बार मैं ख़ुद ब-ख़ुद उसकी ख़बर छप जाएगी। मगर पहले ये बताओ क्या सचमुच स्विट्ज़रलैण्ड के बैंक में तुम्हारा खाता मौजूद है?”

मैं ने कहा “सच बताओ! आज तक मैं ने तुम से कभी झूट कहा है?”

बोली “सो तो है मगर ये खाता तुमने खोला कब?”

मैं ने कहा “चार साल पहले जब मैं यूरोप गया था?”

मेरे इस जवाब ने मेरी बीवी को और भी हैरत में डाल दिया क्यूँकि उसे पता था कि जब मैं यूरोप के लिए रवाना हुआ था तो मेरी जेब में सिर्फ़ बीस डालर थे। अगरचे हुकूमत ने मुझे इजाज़त दी थी कि अगर में बैरूनी ज़र-ए-मुबादला हासिल करना चाहूं तो पाँच सौ डालर तक ख़रीद सकता हूँ। लेकिन बैरूनी करंसी ख़रीदने के लिए पहले मुझे हिंदूस्तानी करंसी की ज़रूरत थी। बैरूनी करंसी तो मुझे मिल रही थी लेकिन असल सवाल हिंदोस्तानी करंसी का था। ये तो आप जानते हैं कि हिंदोस्तान में रहकर हिंदोस्तानी करंसी को हासिल करना कितना मुश्किल काम है। इतने में मेरी बीवी दुनिया का नक़्शा उठा कर ले आई और बोली “ज़रा दिखाओ तो सही। ये ममुवा स्विट्ज़रलैण्ड है कहाँ? और इस में हमारा अकाउंट कहाँ रखा हुआ है?”

मैं ने दुनिया के नक़्शे में उसे स्विट्ज़रलैण्ड को दिखाने की कोशिश शुरू कर दी। लेकिन कम्बख़्त स्विट्ज़रलैण्ड इतना छोटा निकला कि उस पर जब-जब उंगली रखता तो पूरे का पूरा स्विट्ज़रलैण्ड ग़ायब हो जाता था। बिल-आख़िर क़लम की नोक से स्विट्ज़रलैण्ड के हुदूद-ए-अर्बा उस पर वाज़ेह किए तो बोली “ये तो इतना छोटा है कि इस में किसी बैंक की इमारत शायद ही समा सके। हमारे बैंक अकाउंट के समाने का नंबर तो बाद में आएगा।”

मैं ने कहा “तुम ठीक कहती हो। मुझे याद है कि मैं अपने दोस्त के साथ जुनूबी फ़्रांस के रास्ते से ब-ज़रिये मोटर स्विट्ज़रलैण्ड में दाख़िल हुआ था। उस मुलक का इतना ज़िक्र सुना था सोचा कि ज़रा उस मुलक के अंदर पहुँच कर उसका दीदार कर लेते हैं। मेरा दोस्त मोटर तेज़ चलाता है। थोड़ी देर बाद सड़क पर कुछ सिपाहियों ने हमें रोक लिया और पूछा “कहाँ का इरादा है?”

अर्ज़ किया “इक ज़रा स्विट्ज़रलैण्ड तक जाने का इरादा है।”

सिपाहियों ने कहा “क़िबला! आप जहाँ जाना चाहते हैं वहाँ से वापिस जा रहे हैं।”

चार-व-नाचार हमें फिर स्विट्ज़रलैण्ड में वापिस होना पड़ा और मोटर की रफ़्तार धीमी करनी पड़ी कि कहीं हम तेज़ रफ़्तारी में किसी और मुल्क में न निकल जाएं। बीवी ने कहा “मगर तुम तो स्विट्ज़रलैण्ड सैर सपाटे के लिए गए थे। वहाँ के क़ुदरती मनाज़िर को देखने गए थे।ये अकाउंट खोलने वाला मुआमला कब ज़हूर में आया?”

मैं ने कहा “बेगम! कान खोल कर सुन लो।ये पहाड़ और क़ुदरती मनाज़िर सब बहाने बनाने की बातें हैं।आज तक कोई स्विट्ज़रलैण्ड में सिर्फ़ पहाड़ देखने के लिए नहीं गया।पहाड़ की आड़ में वो कुछ और करने जाता है।स्विट्ज़रलैण्ड के पहाड़ इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनके दामन में स्विट्ज़रलैण्ड के वो मशहूर-व-मारूफ़ बैंक हैं जिनमें अपना पैसा जमा कराओ तो पैसा जमा करने वाले की बीवी तक को मालूम नहीं होता कि उसमें उसके शौहर का पैसा जमा है।एक साहब कह रहे थे कि बाअज़ सूरतों में तो ख़ुद बैंक के इंतिज़ामिया को भी पता नहीं होता कि उसके बैंक में किसका कितना पैसा जमा है।इन बैंकों को वहाँ से हटा लो तो स्विट्ज़रलैण्ड के क़ुदरती मनाज़िर और उन पहाड़ों की सारी ख़ूबसूरती धरी की धरी रह जाए।सच तो ये है कि जिसने पहलगाम और गुलमर्ग और पीर पंजाल में हिमालिया के पहाड़ देखे हैं उसे स्विट्ज़रलैण्ड के पहाड़ क्या पसंद आएंगे।रही बर्फ़ की बात तो उसे तो हम हर रोज़ रेफ्रीजरेटर में देखते हैं। अब बताओ स्विट्ज़रलैण्ड में क्या रह जाता है। हाँ किसी ज़माने में यहाँ की घड़ियाँ बहुत मशहूर थीं। अब जापान ने उनकी ऐसी तैसी कर दी है।किसी ने सच कहा है कि घड़ी साज़ी के मुआमले में हर मुल्क का एक वक़्त होता है। स्विट्ज़रलैण्ड की घड़ी अब टल चुकी है।अब उसके बैंकों में पैसा जमा करने वालों पर घड़ी आई है।इसलिए याद रक्खो कि जो कोई स्विट्ज़रलैण्ड जाएगा वहाँ अपना पैसा जमा कराके आएगा।बीवी ने कहा “तो इसका मतलब ये हुआ कि तुम स्विट्ज़रलैण्ड सिर्फ़ अपना खाता खोलवाने गए थे?”

मैं ने कहा“और क्या पहाड़ देखने थोड़ी गया था।”

बोली“जब खाता खोलवाना ही था तो हिंदोस्तान के किसी बैंक में रक़म जमा कराते।”

मैं ने कहा “क्या तुम नहीं जानतीं कि हमारे बैंकों की क्या हालत है। आए दिन तो डाके पड़ते रहते हैं। लोग बैंकों के खुलने का इतना इंतिज़ार नहीं करते जितना कि डाकू इन बैंकों के बंद होने का इंतिज़ार करते हैं। फिर स्विट्ज़रलैण्ड में बैंक का खाता खोलने का लुत्फ़ ही कुछ और है।”

और यूँ मैं ने एक ख़ुश आइंद मुस्तक़बिल के कुछ लम्हे अपनी बीवी को सौंप दिए। इस बात को होते तीन महीने बीत गए।न तो उसने मुझ से अकाउंट नंबर पूछा,न अकाउंट का खु़फ़ीया नाम और न ही ये पूछा कि उस अकाउंट में कितनी रक़म जमा है।ये ज़रूर है कि पिछले तीन महीनों से वो बहुत ख़ुश है।उसकी ज़िंदगी में एक ऐसा ख़ुशगवार एतिमाद पैदा हो चुका है जिसकी नज़ीर पिछले तीस बरसों में मुझे कभी नज़र न आई।अलबत्ता ये ज़रूर है कि इस एतराफ़ के बाद मैं अपने आप में एतिमाद की कमी महसूस कर रहा हूँ।

हज़रात! ये तो आप बख़ूबी जानते हैं कि बैंकों से मेरा कितना तअल्लुक़ हो सकता है। एक महफ़िल में एक मशहूर-व-मारूफ़ अदीब से एक मशहूर-व-मारूफ़ बैंकर का तआरुफ़ कराया गया तो बैंकर ने अदीब से कहा “आप से मिलकर बड़ी ख़ुशी हुई लेकिन मेरी बदक़िस्मती ये है कि मैं ने आज तक आप की कोई किताब नहीं पढ़ी।”

इस पर अदीब ने कहा “मुझे भी आप से मिलकर बड़ी ख़ुशी हुई लेकिन मेरी बदक़िस्मती ये है कि आज तक मैं किसी बैंक में दाख़िल नहीं हुआ।”

मैं इतना बड़ा अदीब तो ख़ैर नहीं हूँ कि कभी किसी बैंक में क़दम ही न रख पाऊँ। मैं बैंक ज़रूर जाता हूँ।बैंक में मेरा खाता भी मौजूद है। मेरी तनख़्वाह चूँकि चैक से मिलती है।इसीलिए बैंक में खाता खोलना ज़रूरी था।ये और बात है कि मेरा खाता, मेरा और मेरी बीवी का,ज्वाइंट अकाउंट है।इस ज्वाइंट अकाउंट की ख़ुसूसीयत ये है कि उसमें रक़म जमा करने की ज़िम्मेदारी तो मेरी होती है मगर उसमें से रक़म निकालने का ख़ुशगवार फ़रीज़ा मेरी बीवी को अंजाम देना पड़ता है।अंदुरून-ए-मुल्क अपनी तो ये माली हालत है कि कोई आफ़त का मारा मुझ से बीस पच्चीस रुपये भी उधार मांगता है तो मैं उसका बेहद शुक्रिया अदा करता हूँ।उसे रक़म तो नहीं देता अलबत्ता शुक्रिया इस बात का अदा करता हूँ कि वो मुझे इस काबिल तो समझता है कि मुझ से बीस पच्चीस रुपये उधार मांगे जा सकें।

इस सूरत-ए-हाल के बावजूद स्विट्ज़रलैण्ड के बैंक में मेरा खाता मौजूद है और इस मुआमले को आप के सामने रखने की वजह सिर्फ़ इतनी है कि पिछले तीन महीनों से मैं अजीब-व-ग़रीब कैफ़ीयत से गुज़र रहा हूँ। जैसा कि आप जानते हैं कि मैं ने पूरी राज़दारी और ईमानदारी के साथ अपने खाता की इत्तिला अपनी बीवी को दी थी। मुझे यक़ीन था कि वो ख़ानदान के इस राज़ को अपने सीने में छुपाए रक्खेगी। मगर रफ़्ता-रफ़्ता मुझे एहसास होने लगा कि इस राज़ की रोशनी मेरे घर के अतराफ़ धीरे-धीरे फैलने लगी है। एक महीने पहले की बात है। मैं मोहल्ले की एक दुकान से मोज़े ख़रीदने गया था। मुझे मोज़ों की एक जोड़ी पसंद आई लेकिन दुकानदार ने क़ीमत जो बताई वो हिंदोस्तान में मेरे मौजूदा बैंक बैलंस की बिसात से बाहर थी।

दुकानदार ने मुझे आँख मारकर कहा “साहब! आप ये मोज़े लीजिए।बीस पच्चीस रुपय के फ़र्क़ पर न जाइए।बाक़ी पैसे बाद में दीजिए जब स्विट्ज़रलैण्ड से आपका पैसा आ जाएगा।”थोड़ी देर के लिए मैं चौंक सा गया लेकिन सोचा कि इन दिनों चूँकि स्विट्ज़रलैण्ड के बैंकों का बहुत चर्चा है इसलिए दुकानदार ने मज़ाक़ में ये बात कही होगी।फिर मैं ने महसूस किया कि मोहल्ले के वो लोग जो मुझ से मुँह छुपाते थे या मुझ से कतराते थे न सिर्फ़ अपना मुँह दिखाने लगे हैं।बल्कि ज़रूरत से ज़्यादा सलाम भी करने लगे हैं। पड़ोसियों के बारे में आप जानते हैं कि ये सिर्फ़ आप की ख़ुशियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।और अगर आप की ज़िंदगी में दुख न हों तो उन्हें पैदा करने की कोशिश भी करते हैं। ये पड़ोसी अब मुझे अजीब-व-गरीब नज़रों से देखते हैं।मेरे एक पड़ोसी कपड़े का कारोबार करते हैं लेकिन कारोबार करने का ढंग कुछ ऐसा है जैसे सारे मुल्क को नंगा कर के छोड़ेंगे। पैसे की वो रेल पेल है कि न जाने इतना पैसा कहाँ रखते हैं।बीस बरसों के पड़ोसी हैं लेकिन उनसे तअल्लुक़ात पिछले दो महीनों में ही क़ायम हुए।उनकी बीवी इन दिनों मेरी बीवी की सब से अच्छी और चहेती सहेली बनी हुई है।दो तीन मर्तबा मुझे भी अपने घर बुला चुके हैं। जब भी बुलाते हैं मेरे साथ वो सुलूक करते हैं जो अहल-ए-ग़र्ज़ बे-ईमान वज़ीरों के साथ रवा रखते हैं।पिछले हफ़्ता मेरी बीवी ने बताया कि मेरी पड़ोसी की बीवी उस से ये जानना चाहती है कि स्विट्ज़रलैण्ड के बैंक में खाता खोलने का क्या तरीक़ा है?

मैं ने कहा “उन्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरा खाता स्विट्ज़रलैण्ड के बैंक में मौजूद है?”

बीवी ने कहा “तुम भी कैसी बातें करते हो। उन्हें कैसे पता चल सकता है कि स्विट्ज़रलैण्ड के बैंक में तुम्हारा खाता है। तुम चूँकि पढ़े लिखे आदमी हो इसीलिए तुम से खाता खोलने का तरीक़ॉ जानना चाहते होंगे। बताने में क्या हर्ज है, आख़िर को पड़ोसी हैं।”

मैं ने कहा “पड़ोसी तो बीस बरस से हैं।लेकिन पड़ोसियों का सा सुलूक सिर्फ़ पिछले दो महीनों से क्यूँ कर रहे हैं?” फिर भी मैं ने खाता खोलने का तरीक़ा उन्हें बता दिया।यहाँ तक तो ख़ैर ठीक था।परसों एक अजीब-व-ग़रीब वाक़िया पेश आया। मैं सुबह ड्राइंगरूम में बैठा दाढ़ी बना रहा था कि एक भिकारी हसब-ए-मामूल मेरे घर पर आवाज़ लगाने लगा।दूसरे भिकारी ने, जो मेरे पड़ोसी के घर पर खड़ा था,मेरे घर के सामने खड़े हुए भिकारी से कहा“मियाँ! उस घर पर आवाज़ लगा कर क्यूँ अपना वक़्त ज़ाए करते हो।उसका तो सारा पैसा स्विट्ज़रलैण्ड में है।नाहक़ क्यूँ उन्हें तंग करते हो।पानी अब मेरे सर से ऊंचा हो चुका था।मैं ने फ़ौरन अपनी बीवी को तलब किया और कहा“तुम्हें याद होगा कि तीन महीने पहले मैं ने तुम्हें इस राज़ से वाक़िफ़ कराया था कि स्विट्ज़रलैण्ड के एक बैंक में मेरा अकाउंट मौजूद है।”

बीवी ने कहा “याद रखने की बात करते हो। मैं तो दिन के चौबीसों घंटे इस बात को याद रखती हूँ। तुम्हें अब अचानक उस अकाउंट की क्यूँ याद आ गई। तुम ने पहली बार अपने अकाउंट का जो एतिराफ़ किया था क्या वो ग़लत था?”

मैं ने कहा “ग़लत नहीं था मगर मेरा एतिराफ़ अधूरा था।मैं ने तुम्हें अपने खाते का नंबर, खाते का खु़फ़ीया नाम और खाते में जमा रक़म के बारे में कुछ भी नहीं बताया था।”

बीवी ने कहा“मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि तुम्हारे खाते का नंबर‘‘चार सौ बीस’’है,खाता का खु़फ़ीया नाम‘‘गोभी का फूल’’है और उस खाते में स्विट्ज़रलैण्ड के सिर्फ़ दस मार्क जमा हैं।”

मैं ने हैरत से पूछा! “तुम्हें किसने बताया?”

बोली “मैं ने इस सिलसिले में एक खु़फ़ीया एजेंसी की ख़िदमात हासिल की थीं।“फ़ियर-सैक्स” नाम है इसका।स्विट्ज़रलैण्ड के खातों का सुराग़ इसी तरह लगाया जाता है।” मैं ने कहा “बात दर-अस्ल ये थी कि स्विट्ज़रलैण्ड में जब देखने को कुछ भी नहीं मिला और वहाँ से वापिस चलते वक़्त मेरी जेब में दस सुइस मार्क बच रहे तो मैं ने सोचा क्यूँ न इस रक़म को स्विट्ज़रलैण्ड के किसी बैंक में जमा क़रा दूँ।हिंदोस्तान में ये सहूलत है कि किसी तारीख़ी मुक़ाम को देखने जाते हैं तो उस मुक़ाम पर अपना नाम भी लिख कर आ सकते हैं ताकि न सिर्फ़ सनद रहे बल्कि अपनी निशानी भी मौजूद रहे। स्विट्ज़रलैण्ड में मुझे ये सहूलत भी मयस्सर नहीं थी। लिहाज़ा मैं ने यादगार के तौर पर अपना अकाउंट खोल दिया।ये कोई अहमियत की बात नहीं है और तुम्हें भी उसे एहमीयत नहीं देना चाहिए।अब तो मैं इस अकाउंट को बंद कराने की सोच रहा हूँ।”

बीवी ने कहा “ख़बरदार! जो इस अकाउंट को बंद किया तो। आज से उसे भी ज्वाइंट अकाउंट ही समझो। इन दिनों समाज में इज़्ज़त उसी की है जिसका स्विट्ज़रलैण्ड के बैंकों में अकाउंट हो। चार बरस पहले जब तुम स्विट्ज़रलैण्ड गए थे तो हिंदोस्तान में स्विट्ज़रलैण्ड का इतना क्रेज़ नहीं था।तुमने तो जज़बाती होकर ग़फ़लत में उस अकाउंट को खोला था।मुझे क्या पता था कि कभी तुम्हारी ग़फ़लत से फ़ायदा भी पहुंच सकता है। तुम यक़ीन करो स्विट्ज़रलैण्ड के बैंक में जमा किए हुए तुम्हारे दस मार्क हिंदोस्तान में दस करोड़ के बराबर हैं। देखते नहीं समाज में तुम्हारी कितनी इज़्ज़त हो रही है। कितनी दावतें खा चुके हो। दुकानदार उधार तक देने लगे हैं। जो लोग बराबरी के साथ मिलते थे वो अब झुक झुक कर मिलने लगे हैं।और तो और मुहल्ले के लेडीज़ कलब की चेयरपर्सन के तौर पर आज मेरा बिला मुक़ाबला इंतिख़ाब होने वाला है।ये सब किसकी बदौलत है। ज़रा सोचो तो।मुल्क के सारे शुरफा अब अपने अकाउंट स्विट्ज़रलैण्ड के बैंकों में खोलने लगे हैं और तुम अपना खाता बंद करने चले हो।ख़ुदा का शुक्र अदा करो कि इक इत्तिफ़ाक़ी ग़लती से तुम्हारा शुमार भी शोरफा में होने लगा है वर्ना ज़िंदगी भर यूँ ही जूतियाँ चटख़ाते फिरते।ये मेरी गुज़ारिश नहीं हुक्म है कि ये अकाउंट अब बंद नहीं होगा।”

ये कहकर मेरी बीवी लेडीज़ कलब की चेयरपर्सन के इंतिख़ाब में हिस्सा लेने के लिए चली गई और मैं दुनिया के नक़्शे में फिर से स्विट्ज़रलैण्ड को तलाश करने लगा।

***

सिनेमा का इश्क़ / पतरस बुख़ारी

" सिनेमा का इश्क़ " उन्वान तो अजब हवस ख़ेज़ है । लेकिन अफ़सोस कि इस मज़मून से आप की तमाम तवक़्क़ोआत मजरूह होंगी क्यूँ कि मुझे तो इस मज़मून में कुछ दिल के दाग़ दिखाने मक़सूद हैं ।

इस से आप ये ना समझिए कि मुझे फिल्मों से दिलचस्पी नहीं या सिनेमा की मौसीक़ी और तारीकी में जो रोमान-अंगेज़ी है, मैं उस का क़ायल नहीं । मैं तो सिनेमा के मामले में अवायल उम्र ही से बुज़ुर्गों का मौरिद-ए-इताब रह चुका हूँ, लेकिन आज-कल हमारे दोस्त मिर्ज़ा साहब की मेहरबानियों के तुफ़ैल सिनेमा गोया मेरी दुखती रग बन कर रह गया है । जहां इस का नाम सुन पाता हूँ, बाज़ दर्द-अंगेज़ वाक़यात की याद ताज़ा हो जाती है जिस से रफ़्ता रफ़्ता मेरी फ़ितरत ही कज-बीं बन गई है ।

अव्वल तो ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम कभी सिनेमा वक़्त पर नहीं पहुंच सके । इस में मेरी सुस्ती को ज़रा दख़्ल नहीं ये सब क़सूर हमारे दोस्त मिर्ज़ा साहब का है जो कहने को तो हमारे दोस्त हैं लेकिन ख़ुदा शाहिद है कि उन की दोस्ती से जो नुक़्सान हमें पहुंचे हैं किसी दुश्मन के क़बज़ा-ए-क़ुदरत से भी बाहर होंगे।

जब सिनेमा जाने का इरादा हो, हफ़्ता भर पहले से उन्हें कह रखता हूँ कि क्यूँ भई मिर्ज़ा अगली जुमेरात सिनेमा चलोगे ना ! मेरी मुराद ये होती है कि वो पहले से तैयार रहें और अपनी तमाम मस्रूफ़ियतें कुछ इस ढब से तर्तीब दे लें कि जुमेरात के दिन उन के काम में कोई हर्ज वाक़े ना हो लेकिन वो जवाब में अजब क़द्र ना-शनासी से फ़रमाते हैं :

" अरे भई चलेंगे क्यूँ नहीं ? क्या हम इंसान नहीं ? हमें तफ़रीह की ज़रूरत नहीं होती ? और फिर कभी हम ने तुम से आज तक ऐसी बे-मुरव्वती भी बरती है कि तुम ने चलने को कहा हो और हम ने तुम्हारा साथ न दिया हो ? "

उन की तक़रीर सुन कर मैं खिसयाना सा हो जाता हूँ । कुछ देर चुप रहता हूँ और फिर दबी ज़बान से कहता हूँ :

" भई अब के हो सका तो वक़्त पर पहुंचेंगे । ठीक है ना ! "

मेरी ये बात आम तौर पर टाल दी जाती है क्यों कि इस से उन का ज़मीर कुछ थोड़ा सा बेदार हो जाता है । ख़ैर मैं भी बहुत ज़ोर नहीं देता । सिर्फ़ उन को बात समझाने के लिए इतना कह देता हूँ :

" क्यों भई सिनेमा आज कल छः बजे शुरू होता है ना ? "

मिर्ज़ा साहिब अजब मासूमियत के अंदाज़ में जवाब देते हैं :

" भई हमें ये मालूम नहीं । "

" मेरा ख़्याल है छः ही बजे शुरू होता है ।"

" अब तुम्हारे ख़्याल की तो कोई सनद नहीं ।"

" नहीं मुझे यक़ीन है । छः बजे शुरू होता है । "

" तुम्हें यक़ीन है तो मेरा दिमाग़ क्यूँ मुफ़्त में चाट रहे हो ? "

इस के बाद आप ही कहिए मैं क्या बोलूँ ?

ख़ैर जनाब जुमेरात के दिन चार बजे ही उन के मकान को रवाना हो जाता हूँ । इस ख़्याल से कि जल्दी-जल्दी उन्हें तैयार करा के वक़्त पर पहुंच जाएँ । दौलत-ख़ाने पर पहुँचता हूँ तो आदम न आदम-जा़द । मर्दाने के सब कमरों में घूम जाता हूँ । हर खिड़की में से झाँकता हूँ , हर शिगाफ़ में से आवाज़ें देता हूँ लेकिन कहीं से रसीद नहीं मिलती । आखिर तंग आकर उन के कमरे में बैठ जाता हूँ । वहां दस-पंद्रह मिनट सीटियां बजाता रहता हूँ । दस-पंद्रह मिनट पैंसिल से ब्लॉटिंग पेपर पर तस्वीरें बनाता रहता हूँ । फिर सिगरेट सुलगा लेता हूँ और बाहर डेवढ़ी में निकल कर इधर उधर झांकता हूँ । वहां बदस्तूर हू का आलम देख कर कमरे में वापस आ जाता हूँ और अख़बार पढ़ना शुरू कर देता हूँ । हर कॉलम के बाद मिर्ज़ा साहब को एक आवाज़ दे लेता हूँ । इस उम्मीद पर कि शायद साथ के कमरे में या ऐन ऊपर के कमरे में तशरीफ़ ले आए हों । सो रहे थे तो मुमकिन है जाग उठे हों या नहा रहे थे तो शायद ग़ुस्ल-ख़ाने से बाहर निकल आए होँ लेकिन मेरी आवाज़ मकान की वुसअतों में से गूंज कर वापस आ जाती है । आख़िर-कार साढे़ पाँच बजे के क़रीब ज़नाने से तशरीफ़ लाते हैं । मैं अपने खौलते हुए ख़ून को क़ाबू में ला कर मतानत और अख़्लाक़ को बड़ी मुश्किल से मद्द-ए-नज़र रख कर पूछता हूँ :

" क्यूँ हज़रत ! आप अंदर ही थे ? "

" हाँ मैं अंदर ही था ।"

" मेरी आवाज़ आप ने नहीं सुनी ? "

" अच्छा ये तुम थे ? मैं समझा कोई और है ?"

आँखें बंद कर के सर को पीछे डाल लेता हूँ और दाँत पीस कर ग़ुस्से को पी जाता हूँ और फिर काँपते हुए होंटों से पूछता हूँ :

" तो अच्छा अब चलेंगे या नहीं ? "

" वो कहाँ ? "

" अरे बंदा-ए-ख़ुदा आज सिनेमा नहीं जाना ? "

" हाँ सिनेमा । सिनेमा (ये कह कर वो कुर्सी पर बैठ जाते हैं) ठीक है । सिनेमा, मैं भी सोच रहा था कि कोई ना कोई बात ज़रूर ऐसी है जो मुझे याद नहीं आ रही है । अच्छा हुआ तुम ने याद दिला दिया वर्ना मुझे रात भर उलझन रहती । "

" तो चलो फिर अब चलें । "

" हाँ वो तो चलेंगे ही । मैं सोच रहा था आज ज़रा कपड़े बदल लेते । ख़ुदा जाने धोबी कमबख़्त कपड़े भी लाया है या नहीं। यार इन धोबियों का तो कोई इंतज़ाम करो ।"

अगर क़त्ल-ए-इंसानी एक संगीन जुर्म न होता तो ऐसे मौक़े पर मुझ से ज़रूर सरज़द हो जाता लेकिन क्या करूं अपनी जवानी पर रहम खाता हूँ । बेबस होता हूँ सिर्फ़ यही कह सकता हूँ कि

" मिर्ज़ा ! भई लिल्लाह मुझ पर रहम करो । मैं सिनेमा चलने को आया हूँ धोबियों का इंतज़ाम करने नहीं आया । यार बड़े बदतमीज़ हो पौने छः बज चुके हैं और तुम जूं के तूं बैठे हो । "

मिर्ज़ा साहब अजब मुरब्बियाना तबस्सुम के साथ कुर्सी पर से उठते हैं गोया ये ज़ाहिर करना चाहते हैं कि अच्छा भई तुम्हारी तिफ़लाना ख़्वाहिशात आख़िर हम पूरी कर ही दें । चुनांचे फिर ये कह कर अन्दर तशरीफ़ ले जाते हैं कि अच्छा कपड़े पहन आऊं ।

मिर्ज़ा साहब के कपड़े पहनने का अमल इस क़दर तवील है कि अगर मेरा इख़्तियार होता तो क़ानून की रौ से उन्हें कभी कपड़े उतारने ही न देता । आध घंटे के बाद वो कपड़े पहने हुए तशरीफ़ लाते हैं । एक पान मुँह में दूसरा हाथ में, मैं भी उठ खड़ा होता हूँ । दरवाज़े तक पहुंच कर मुड़ के जो देखता हूँ तो मिर्ज़ा साहब ग़ायब । फिर अन्दर आ जाता हूँ मिर्ज़ा साहब किसी कोने में खड़े कुछ कुरेद रहे होते हैं ।

" अरे भई चलो । "

" चल तो रहा हूँ यार । आख़िर इतनी भी क्या आफ़त है ?"

" और ये तुम क्या कर रहे हो ? "

" पान के लिए ज़रा तंबाकू ले रहा था । "

तमाम रास्ते मिर्ज़ा साहब चहल-क़दमी फ़रमाते जाते हैं । मैं हर दो तीन लम्हे के बाद अपने आप को उन से चार पांच क़दम आगे पाता हूँ । कुछ देर ठहर जाता हूँ । वो साथ आ मिलते हैं तो फिर चलना शुरू कर देता हूँ । फिर आगे निकल जाता हूँ । फिर ठहर जाता हूँ । ग़र्ज़ कि गो चलता दुगनी तिगुनी रफ़्तार से हूँ लेकिन पहुँचता उन के साथ ही हूँ ।

टिकट लेकर अंदर दाख़िल होते हैं तो अंधेरा घुप। बहुतेरा आँखें झपकता हूँ, कुछ सुझाई नहीं देता । उधर से कोई आवाज़ देता है । " ये दरवाज़ा बंद कर दो जी !" या अलल्लाह अब जाऊं कहाँ ? रस्ता, कुर्सी, दीवार, आदमी कुछ भी तो नज़र नहीं आता। एक क़दम बढ़ाता हूँ तो सर उन बाल्टियों से जा टकराता है जो आग बुझाने के लिए दीवार पर लटकी रहती हैं । थोड़ी देर के बाद तारीकी में कुछ धुँदले से नक़्श दिखाई देने लगते हैं । जहां ज़रा तारीक तर सा धब्बा दिखाई दे जाये । वहां समझता हूँ ख़ाली कुर्सी होगी । ख़मीदा पुश्त हो कर उस का रुख़ करता हूँ उस के पावँ को फाँद, उस के टखनों को ठुकरा, ख़वातीन के घुट्नों से दामन बचा कर आख़िर कार किसी की गोद में जा कर बैठता हूँ । वहां से निकाल दिया जाता हूँ और लोगों के धक्कों की मदद से किसी ख़ाली कुर्सी तक जा पहुँचता हूँ । मिर्ज़ा साहब से कहता हूँ " मैं न बकता था कि जल्दी चलो । ख़्वाह-मख़्वा में हम को रुसवा कर वाया ना ! गधा कहीं का !" इस शगुफ़्ता बयानी के बाद मालूम होता है कि साथ की कुर्सी पर जो हज़रत बैठे हैं और जिन को मुख़ातब कर रहा हूँ वो मिर्ज़ा नहीं कोई और बुज़ुर्ग हैं ।

अब तमाशे की तरफ़ मुतवज्जे होंता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ कि फ़िल्म कौन सी है ? उस की कहानी क्या है ? और कहाँ तक पहुंच चुकी है ? और समझ में सिर्फ़ इस क़द्र आता है कि एक मर्द और एक औरत जो पर्दे पर बग़ल-गीर नज़र आते हैं, एक दूसरे को चाहते होंगे । इस इंतज़ार में रहता हूँ कि कुछ लिखा हुआ सामने आए, तो मुआमला खुले कि इतने में सामने की कुर्सी पर बैठे हुए हज़रत एक वसी-व-फ़र्राख़ अंगड़ाई लेते हैं जिस के दौरान में कम अज़ कम दो तीन सौ फ़ीट फ़िल्म गुज़र जाती है । जब अंगड़ाई को लपेट लेते हैं तो फिर सर खुजाना शुरू कर देते हैं और इस अमल के बाद हाथ को सर से नहीं हटाते बल्कि बाज़ू को वैसे ही ख़मीदा रखे रहते हैं । मैं मजबूरन सर को नीचा करके चाय-दानी के इस दस्ते के बीच में से अपनी नज़र के लिए रास्ता निकाल लेता हूँ और अपने बैठने के अंदाज़ से बिलकुल ऐसा मालूम होता हूँ जैसे टिकट ख़रीदे बगै़र अंदर घुस आया हूँ और चोरों की तरह बैठा हुआ हूँ । थोड़ी देर के बाद उन्हें कुर्सी की नशिस्त पर कोई मच्छर या पिस्सू महसूस होता है । चुनांचे वो दाएं से ज़रा ऊंचे हो कर बाएं तरफ़ को झुक जाते हैं । मैं मुसीबत का मारा दूसरी तरफ़ झुक जाता हूँ । एक दो लम्हे के बाद वही मच्छर दूसरी तरफ़ हिजरत कर जाता है । चुनांचे हम दोनों फिर से पैंतरा बदल लेते हैं । ग़र्ज़कि ये दिल लगी यूं ही जारी रहती है । वो दाएं तो मैं बाएं और वो बाएं तो मैं दाएं । उन को क्या मालूम कि अंधेरे में क्या खेल खेला जा रहा है । दिल यही चाहता है कि अगले दर्जे का टिकट लेकर उन के आगे जा बैठूँ और कहूँ कि ले बेटा ! देखूँ तो अब तू कैसे फ़िल्म देखता है ।

पीछे से मिर्ज़ा साहब की आवाज़ आती है "यार तुम से निचला नहीं बैठा जाता । अब जो हमें साथ लाए हो तो फ़िल्म तो देखने दो ।"

इस के बाद ग़ुस्से में आकर आँखें बंद कर लेता हूँ और क़तल-ए-अम्द, ख़ुदकुशी, ज़हर-ख़ुरानी वग़ैरा मुआमलात पर ग़ौर करने लगता हूँ । दिल में, मैं कहता हूँ कि ऐसी की तैसी इस फ़िल्म की । सौ-सौ क़स्में खाता हूँ कि फिर कभी न आऊँगा और अगर आया भी तो इस कम्बख़्त मिर्ज़ा से ज़िक्र तक न करूँगा । पाँच छः घंटे पहले से आ जाऊँगा । ऊपर के दर्जे में सब से अगली क़तार में बैठूंगा । तमाम वक़्त अपनी नशिस्त पर उछलता रहूँगा ! बहुत बड़े तिर्रे वाली पगड़ी पहन कर आऊँगा । अपने ओवर-कोट को दो छड़ियों पर फैला कर लटका दूंगा ! बहरहाल मिर्ज़ा के पास तक नहीं फटकूँगा !

लेकिन इस कम्बख़्त दिल को क्या करूं ? अगले हफ़्ते फिर किसी अच्छे फ़िल्म का इश्तिहार देख पाता हूँ तो सब से पहले मिर्ज़ा के हाँ जाता हूँ और गुफ़्तुगु फिर वहीं से शुरू होती है कि क्यूँ भई मिर्ज़ा ! “ अगली जुमेरात सिनेमा चलोगे ना ? ”