Monday, 13 February 2017

जंत्री नए साल की / इब्न-ए-इंशा

आमद बहार की है जो बुलबुल है नग़मा-संज। यानी बुलबुल बोलता था या बोलती थी तो लोग जान लेते थे कि बहार आई है। हम नए साल की आमद की फ़ाल जंतरियों से लेते हैं। अभी साल का आग़ाज़ दूर होता है कि बड़ी-बड़ी मशहूर आलिम,मुफ़ीद आलिम जंतरियाँ दूकानों पर आन मौजूद होती हैं। बआज़ लोग जंतरी नहीं खरीदते। ख़ुदा जाने साल कैसे गुज़ारते हैं। अपनी क़िस्मत का हाल अपने ख़्वाबों की ताबीर, अपना सितारा (चांद सूरज वग़ैरा भी) कैसे मालूम करते हैं। सच्च यह है कि जंतरी अपनी ज़ात से एक क़ामूस होती है। एक जंतरी ख़रीद लो और दुनिया भर की किताबों से बे-नियाज़ हो जाओ। फ़हरिस्त-ए-तातीलात इस में नमाज़-ए-ईद और नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ने की तराकीब,जानवरों की बोलियाँ, दाइमी कैलेंडर मोहब्बत के तावीज़,अंबिया-ए-कराम की उम्रें, औलिया-ए-कराम की करामतें,लक्ड़ी की पैमाइश के तरीक़े, कौन सा दिन किस काम के लिए मौज़ूं है। फ़हरिस्त-ए-उर्स हाय बुज़ुरगान-ए-दीन, साबुन साज़ी के गुर, शेख़ सअदी के अक़्वाल, चीनी के बर्तन तोड़ने और शीशे के बर्तन जोड़ने के नुस्खे़, अअज़ा फड़कने के नताएज,कुर्रा-ए-अर्ज़ की आबादी, तारीख़-ए-वफ़ात निकालने के तरीक़े,ये महज़ चंद मज़ामीन का हाल है। कूज़े में दरिया बंद होता है और दरिया में कूज़ा। यूँ तो सभी जनतरियाँ मुफ़ीद मज़ामीन की पोट होती हैं, जो ज़िर्रा जिस जगह है,वहीं आफ़ताब है। लेकिन रौशन ज़मीर जंतरी (जीबी) को ख़ास शोहरत हासिल है। इस वक़्त हमारे सामने उसी का ताज़ा तरीन ऐडीशन है। एक बाब में है। “कौन सा दिन कौन से काम के लिए मौज़ूं है।”

हफ़्ता: सफ़र करने, बच्चों को स्कूल में दाख़िल कराने के लिए

इतवार: शादी करने, अफ़िसरों से मुलाक़ात करने लिए

बुध: नया लिबास पहनने, ग़ुस्ल सेहत के लिए

जुमेरात: हजामत बनाने,दावत-ए-अहबाब के लिए

जुमा: ग़ुस्ल और शादी वग़ैरा करने के लिए

हमने देखा है कि लोग अंधा-धुंद जिस दिन जो काम चाहें शुरू करदेते हैं। यह जंतरी सबके पास हो तो ज़िंदगी में इंज़िबात आ जाए। हफ़्ते का दिन आया और सभी लोग सूटकेस उठा कर सफ़र पर निकल गए। जो ना जा सके वह बच्चों को स्कूल में दाख़िल कराने पहुंच गए। इस से ग़र्ज़ नहीं कि स्कूल खुले हैं या किसी के बच्चे हैं भी कि नहीं। जिधर देखो भीड़ लगी है। इतवार को हर घर के सामने छोलदारियाँ तनी हैं और ढोलक बज रही है। लोग सहरे बांधने के बाद जंतरी हाथ में लिए अफ़िसरों से मुलाक़ात करने चले जा रहे हैं। बुध को सभी हमामों में पहुंच गए। और जुमेरात को लोगों ने हजामत बनवाई, और दोस्तों के पीछे-पीछे फिर रहे हैं कि हमारे हाँ आकर दावत खा जाइयो। जुमा को निकाह-ए-सानी का नंबर है। जो लोग इस मंज़िल से गुज़र चुके हैं वो दिन भर नल के नीचे बैठ कर नहाएं कि सितारों का हुक्म यही है।

हम जो ख़्वाब देखते हैं वह बिल-उमूम आम क़िस्म के होते हैं और सुबह तक याद भी नहीं रहते।जंतरी से मालूम हुआ कि ख़्वाबों में भी बड़े तनव्वो की गुंजाइश है। ख़्वाब में फांसी पाने का मतलब है बुलंद रुतबा हासिल होना। अफ़सोस कि हमने ख़्वाब तो क्या असल ज़िंदगी में भी कभी फांसी न पाई। बलंद मर्तबा न मिल सकने की असल वजह अब मालूम हुई। मन न कर्दम शूमाहज़्र बकीनद। इसी तरह घोड़ा देखने का मतलब है। दौलत हासिल करना। क़यास कहता है कि मतलब विक्टोरिया के घोड़े से नहीं। रेस के घड़े से है। ख़च्चर देखने से मुराद है सफ़र पेश आना। जो लोग हवाई जहाज़ से सफ़र करते हैं उनको हवाई जहाज़ देखना चाहिए। बिल्ली का पंजा मारना बीमारी के आने की अलामत है। साँप का गोश्त खाना। दुश्मन का माल हासिल होने की। ख़्वाब में कान में चियूंटी घुस आए तो समझिए मौत क़रीब है। (ख़्वाब के अलावा घुस आते तो चंदा हर्ज नहीं, सरसों का तेल डालिए निकल आएगी) अपने सर को गधे का सर देखने का मतलब है। अक़ल का जाते रहना। यह ताबीर हम ख़ुद भी सोच सकते थे। कोई आदमी अपने सर को गधे का सर (ख़्वाब में भी) देखेगा, इसके मुतअल्लिक़ और क्या कहा जा सकता है? ख़्वाब में मूर्दे से मुसाफ़ा करने की ताबीर। दराज़ि –ए-उम्र,ख़ुदा जाने यहाँ उम्र-ए-फ़ानी से मुराद है या उम्र-ए-जाविदानी से।

एक बाब इस में जिस्म के अआज़ा के फड़कने और उनके अवाक़िब के बारे में भी है। आँख फड़कना तो एक आम बात है। रुख़सार, शाना-ए-रास्त, गोश चप अंगुश्त-ए-चहारुम, ज़बान,गला, गला,गर्दन ब-जानिब चप, ठोढ़ी, बग़ल रास्त वग़ैरा, उन पच्चासी अआज़ा में से हैं। जिन के फड़कने पर नज़र रखनी चाहिए। इन में से बआज़ के नताएज ऐसे हैं कि हम नक़्ल कर दें तो फ़ह्हाशी की ज़द में आ जाएं। एक दो उमूर अलबत्ता फ़ाज़िल मुरत्तबीन नज़र-अंदाज कर गए। निगह-ए-इंतिख़ाब की पसली फड़क उठना उस्तादों के कलाम में आया है। ईसका नतीजा नहीं दिया गया। हमारी रग-ए-हमीय्यत भी कभी-कभी फड़क उठती है। इसके अवाक़िब की तरफ़ भी यह जंतरी रहनुमाई नहीं करती। यह नक़ाईस रफ़ा होने चाहिएं।

यह मालूमात तो शायद कहीं और भी मिल जाएं लेकिन इस जंतरी का मग़्ज़ मोहब्बत के अमलियात और तावीज़ात हैं जो हुक्मी तासीर रखते हैं। क़ैस मियाँ की नज़र से ऐसी कोई जंतरी गुज़री होती तो जंगलों में मारे-मारे न फिरते। एक नुस्ख़ा हाज़िर है।

“मोहब्बत के मारे को चाहिए कि 12 मार्च को ब-वक़्त एक घड़ी बाद तुलू-ए-आफ़ताब मशरिक़ की तरफ़ मुँह कर के नक़्श-ए-ज़ैल को नाम मतलूब ब-मअ वालिदा-ए-मतलूब उल्लू के ख़ून से लिखकर अपने दाहिने बाज़ू पर बांधे और मतलूब को 20 मार्च ब-वक़्त एक घड़ी 25 पल पर बाद तलू-ए-आफ़्ताब अपना साया दे। मतलूब फ़ौरन मुश्ताक़ हो जाएगा।

91, 11 मीम व मीम 10 ऐन 11 ऐन 11

नाम मतलूब मआ वालिदा मतलूब,अपना नाम मआ नाम वालिदा

यहाँ बआज़ बातें जी में आती हैं। अगर मतलूब या महबूब बात नहीं करता तो उसकी वालिदा और दीगर रिश्तेदारों के नाम कैसे मालूम किए जाएं? फिर उल्लू कैसे पकड़ा जाए और 20 मार्च को ब-वक़्त-ए-सुबह ऐन एक घड़ी 45 पल बाद तुलू-ए-आफ़्ताब मतलूब को कैसे मजबूर किया जाए कि तालिब के साए में आए। इन बातों का इस जंतरी में कोई ज़िक्र नहीं। हाँ जंतरी की पब्लिशर ने जंतर-मंतर मुकम्मल नामी जो किताब ब-क़ीमत छः रुपये शाया की है। उसमें उनकी तफ़सील मिलेगी।

जो लोग हमारी तरह तन-आसान हैं। मोहब्बत में इतना कष्ट नहीं उठा सकते उनके लिए मुरत्तिब-ए-जंतरी ने कुछ आसान तर अमल भी देते हैं। जिनकी बदौलत महबूब क़दमों पर तो आकर ख़ैर नहीं गिरता लेकिन माईल ज़रूर हो जाता है। इन में से एक तआवीज़ है जिसे हर रोज़ काग़ज़ के चालीस टुकड़ों पर लिख कर और नीचे तालिब-व-मतलूब के नाम दर्ज करके आटे की गोलियों में लपेट कर दरिया में डालना चाहिए और चालिस दिन तक यही करना चाहिए। हम ने हिसाब लगाया है। अज़राह-ए-किफ़ायत आधे तोले की गोली भी बनाई जाए तो एक पाव रोज़ाना यानी दस सेर आटे में महबूब को राज़ी किया जा सकता है। जो हज़रत इस में भी ख़िस्त करें और अपनी मोहब्बत को बिल्कुल पाक रखना चाहें। वह एक और अमल की तरफ़ रुजू कर सकते हैं। वह ये कि “जब भी महबूब सामने आए, आहिस्ता से दिल में बिस्मिल्ला-हु-समद,दस बार पढ़ें और आख़िर में महबूब की तरफ़ मुँह करके फूँक मारें। इस तरह कि मुँह की हवा उसके कपड़ों को छू सके। पंद्रह बीस मर्तबा ऐसा करने से उसके दिल में क़रार वाक़ई मोहब्बत पैदा हो जाएगी।”

ये अमल ब-ज़ाहिर तो आसान मालूम होता है। लेकिन अमलन ऐसा आसान भी नहीं। अव़्वल तो महबूब को इतनी देर सामने खड़ा रहने पर मजबूर करना कि आप दस बार अमल पढ़ कर फूंकें मार सकें और वह भागे नहीं। अपनी जगह एक मसला है। फिर आप जो फूंकें मारेंगे। उसकी बिनाई पर महबूब क्या राय क़ायम करेगा। इसके मुतअल्लिक़ हम कुछ नहीं कह सकते। ज़्यादा शौक़ीन मिज़ाज इन दोनों से क़ता-ए-नज़र करके “मोहब्बत का सुरमा” इस्तेमाल कर सकते हैं। जिसका बनाना थोड़ी मेहनत तो ज़रूर लेगा लेकिन इसका जादू भी आलमगीर है। यानी सिर्फ़ महबूब ही पुरकारी असर नहीं करता बल्कि लिखने वाले ने लिखा है कि यह सुरमा डाल कर “जिस की तरफ़ भी सुबह सवेरे देखे वही मोहब्बत में मुब्तला हो जाएगा।”

यह सुरमा बनाने के लिए हाजतमंद को 19 फरवरी का इंतिज़ार करना पड़ेगा। उस रोज़ वह ब-वक़्त तुलू-ए-आफ़्ताब पुरानी दातुन को जलाकर उसकी राख में चमगादड़ का ख़ून मिलाए और इस से ये नक़्श ब-वक़्त सुबह एक घड़ी 15 पल बाद तुलू-ए-आफ़्ताब लिखे और इसपर सूरा-ए-फ़लक़ ग्यारह सौ बार पढ़े। फिर नये चिराग़ में रौगन-ए-कुंजद (तिल का तेल) डाल कर जलाए और उसकी सियाही आँखों में डाले, हस्ब-ए-हिदायत एक साहब ने यह सुरमा दंबाला दार लगाया था। इतना हमने भी देखा कि महबूब उन्हें देखते ही हंस दिया। आगे का हाल हमें मालूम नहीं।

यही नहीं, साबुन और तेल तैयार करने, बूट पालिश बनाने, खटमल और मच्छर मारने और मशहूर आम अदवीया की नकलें तैयार करने की तरकीबें भी इस में दर्ज हैं। लोग अक्सर शिकायत करते हैं कि उर्दू में कोई इन्साईक्लो-पीडिया नहीं। मालूमात की किताब नहीं। इंसाइकिलो-पीडिया क्या होती है।बे-अदब शर्त मुँह न खूलवाऐ। हम ने इंसाइकिलो-पीडिया बरटेनिका वग़ैरा देखी हैं। अल्लम ग़ल्लम मज़ामीन का तूमार है। अहल-ए-दिल के मतलब की एक बात भी नहीं। न नुस्खे़ न तावीज़। न उर्सों की तारीखें न मोहब्बत के अम्लीयात न ख़्वाब न ख़्वाबों की ताबीरें। हमारा ये दस्तूर हो गया है कि बाहर की चीज़ को हमेशा अच्छा जानेंगे। अपने हाँ के सोने को भी मिट्टी गरदानेंगे।

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