Monday, 13 February 2017

उर्दू की आख़िरी किताब / पतरस बुख़ारी

माँ की मुसीबत

माँ बच्चे को गोद में लिए बैठी है । बाप अंगूठा चूस रहा है और देख-देख कर ख़ुश होता है । बच्चा हसब-ए-मामूल आँखें खोले पड़ा है । माँ मुहब्बत भरी निगाहों से उस के मुँह को तक रही है और प्यार से हसब-ए-ज़ेल बातें पूछती है :

1- वो दिन कब आए गा जब तू मीठी मीठी बातें करेगा ?

2- बड़ा कब होगा ? मुफ़स्सल लिखो ।

3- दूलहा कब बनेगा और दुल्हन कब ब्याह कर लाएगा ? इस में शर्माने की ज़रूरत नहीं ।

4- हम कब बुड्ढे होंगे ?

5- तू कब कमाएगा ?

6- आप कब खाएगा ? और हमें कब खिलाएगा ? बाक़ायदा टाइम-टेबल बना कर वाज़ेह करो ।

बच्चा मुस्कुराता है और कैलैंडर की मुख़्तलिफ़ तारीख़ों की तरफ़ इशारा करता है । तो माँ का दिल बाग़-बाग़ हो जाता है । जब नन्हा सा होंट निकाल-निकाल कर बाक़ी चेहरे से रोनी सूरत बनाता है तो ये बेचैन हो जाती है । सामने पंगूरा लटक रहा है । सुलाना हो तो अफ़ीम खिला कर उस में लेटा देती है । रात को अपने साथ सुलाती है । (बाप के साथ दूसरा बच्चा सोता है) जाग उठता है तो झट चौंक पड़ती है और मुहल्ले वालों से माफ़ी मांगती है । कच्ची नींद में रोने लगता है । तो बेचारी मामता की मारी आग जला कर दूध को एक और उबाल देती है । सुबह जब बच्चे की आँख खुलती है तो आप भी उठ बैठती है । उस वक़्त तीन बजे का अमल होता है । दिन चढ़े मुँह धुलाती है । आँखों में काजल लगाती है और जी कड़ा कर के कहती है क्या चाँद सा मुखड़ा निकल आया । वाह वा !
खाना ख़ुद-बख़ुद पक रहा है
देखना, बीवी आप बैठी पका रही है । वर्ना दरअस्ल ये काम मियाँ का है । हर चीज़ क़रीने से रखी है । धोए-धाए बर्तन संदूक़ पर चुने हैं ताकि संदूक़ ना खुल सके । एक तरफ़ नीचे ऊपर मिट्टी के बर्तन धरे हैं । किसी में दाल है, किसी में आटा, किसी में चूहे । फुकनी और पानी का लोटा पास है ताकि जब चाहे आग जला ले, जब चाहे पानी डाल कर बुझा दे । आटा गुंधा रखा है । चावल पक चुके हैं । नीचे उतार कर रखे हैं । दाल चूल्हे पर चढ़ी है । ग़रज़ कि सब काम हो चुका है । लेकिन ये फिर भी पास बैठी है । मियाँ जब आता है तो खाना ला कर सामने रखती है । पीछे कभी नहीं रखती । खाना खा चुकता है तो खाना उठा लेती है । हर रोज़ यूं न करे तो मियाँ के सामने हज़ारों रकाबियों का ढेर लग जाये । खाने पकाने से फ़ारिग़ होती है तो कभी सीना ले बैठी है कभी चर्ख़ा कातने लगती है । क्यूँ न हो ? महात्मा-गांधी की बदौलत ये सारी बातें सीखी हैं । आप हाथ पांव ना हिलाए तो डाक्टर से इलाज करवाना पड़े ।
धोबी आज कपड़े धो रहा है
बड़ी मेहनत करता है शाम को भट्टी चढ़ाता है, दिन भर बेकार बैठा रहता है । कभी कभी बैल पर लादी लादता है और घाट का रस्ता लेता है । कभी नाले पर धोता है कभी दरिया पर ताकि कपड़ों [ कपड़े ] वाले कभी पकड़ न सकें । जाड़ा हो तो सर्दी सताती है, गर्मी हो तो धूप जलाती है । सिर्फ़ बहार के मौसम में काम करता है । दोपहर होने आई, अब तक पानी में खड़ा है । उसे ज़रूर सरसाम हो जाएगा। दरख़्त के नीचे बैल बंधा है । झाड़ी के पास कुत्ता बैठा है । दरिया के उस पार एक गिलहरी दौड़ रही है । धोबी उन्हीं से अपना जी बहलाता है ।

देखना धोबन रोटी लाई है । धोबी को बहाना हाथ आया है । कपड़ा पटरे पर रख कर उस से बातें करने लगा । कुत्ते ने भी देख कर कान खड़े किए । अब धोबन गाना गाएगी । धोबी दरिया से निकलेगा । दरिया का पानी फिर नीचा हो जाएगा ।

मियाँ धोबी ! ये कुत्ता क्यूँ पाल रखा ? साहब कहावत की वजह से और फिर ये तो हमारा चौकीदार है । देखिए ! अमीरों के कपड़े मैदान में फैले पड़े हैं । क्या मजाल कोई पास तो आ जाए । जो लोग एक दफ़ा कपड़े दे जाएं फिर वापस नहीं ले जा सकते । मियाँ धोबी ! तुम्हारा काम बहुत अच्छा है । मैल-कुचैल से पाक साफ़ करते हो । नंगा फ़िराते हो ।

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