Monday, 13 February 2017

मुर्ग़-व-माही / यूसूफ़ नाज़िम

आदमी का पेट,आदमी के जिस्म का सबसे ताक़तवर हिस्सा है।आदमी का दिल-व-दिमाग़ उसकी गोयाई और समाअत और उसका ज़मीर सब पेट की रइय्यत हैं।दुनिया के आधे से ज़्यादा जराएम की बुनियाद यही पेट है।फ़लसफ़ा और मंतिक़ जैसे उलूम के इलावा अदब और शायरी भी दर्द-ए- शिकम ही की पैदावार है।आदमी के इस पेट के दीगर अहवाल ये हैं कि ये हर क़िस्म के जानवरों, परिन्दों,फलों और तरकारियों का गोदाम है। इन अश्या-ए-ख़ुर्दिनी में यूँ तो सभी चीज़ें आदमी को भाती हैं लेकिन इन में मुर्ग़-व-माही इसके बड़े शौक़ की चीज़ें हैं और आदमी की उम्र कुछ ही क्यों न हो इन दो चीज़ों के दीदार ही पर नहीं उनके ज़िक्र पर भी उसकी लार ज़रूर टपकती है।इन दिनों मे मछली को बतौर ग़िज़ा फ़ौक़ियत हासिल है क्यूँकि ये हमेशा नहाती धोती रहती हैं जब कि मुर्ग़ इतना सफ़ाई पसंद नहीं होता।मछलियाँ आदात-व-अत्वार के एतबार से भी मज़बूत कैरेक्टर की हामिल मानी गई हैं।इनके मुतअल्लिक़ ऐसी वैसी बातें कभी सुनने में नहीं आई।इसके बरख़िलाफ़ मुर्ग़(ये आम तौर पर वाहिद ही होता है) और मुर्ग़ियों की बे-तकल्लुफ़ी बल्कि बे-हिजाबी आम बात है।सच पूछा जाए तो अब सिर्फ़ मछलियाँ ही क़दीम मशरिक़ी तहज़ीब की नाम लेवा रह गई हैं।उनकी इसी ख़ूबी और इस ख़ूबी के अलावा दीगर औसाफ़-ए-हमीदा की बिना पर मछलियों को जल तरकारी माना गया है(जल परी तो वो होती ही हैं) तरकारी जैसी मासूम और बेज़रर सिन्फ़ में शामिल किए जाने की वजह से तरकारी नोश लोगों के हलक़े में भी मछली बेहद मक़बूल है।बल्कि साहिली इलाक़े के लोग इसी एक ज़िंदा और फ़आल तरकारी के शैदाई हैं।वो सैलाबों में बह जाना पसंद करते हैं लेकिन मछलियों से दूर नहीं रहना चाहते।

मछली अपनी शोहरत का ख़ुद इंतिज़ाम कर लेती है और पकने पर किसी मीडिया की मदद लिए बगै़र दूर-दूर तक अपनी ख़ुशबू फैलाई है।उसकी ख़ुशबू सूंघ कर पड़ोस में लोग कफ़-ए-अफ़सोस मलते हैं कि हमने क्यूँ इतने अच्छे पड़ोसियों से तआल्लुक़ात बिगाड़ लिए।हमारे तआल्लुक़ात ख़ुशगवार होते तो हम सिर्फ़ उस ख़ुशबू के नहीं मसदर ख़ुशबू के भी हक़दार होते।मुर्ग़ पर मछली की फ़ौक़ियत की एक वजह ये भी है कि मछली से निमटने के लिए नक़ली दाँत नहीं बनवाने पड़ते।इस लिहाज़ से मुर्ग़ काफ़ी महंगा पड़ता है।अहल-ए-ज़बान लोग मछली ही को पसंद करते हैं।मुर्ग़ के साथ एक वक़्त ये भी है कि डिश से मुर्ग़ की टांग निकल जाए तो ऐसा मालूम होता है कि महफ़िल की शमा बुझ गई।लेकिन मछली किसी क़िस्म का ग़म अंगेज़ माहौल नहीं पैदा करती।उसका हर हिस्सा बैत-उल-ग़ज़ल होता है---सर तो मतला होता ही है।

मछली में कांटे ज़रूर होते हैं लेकिन कांटे तो गुलाब की शाख़ में भी होते हैं और यूँ भी मछली,ब-वक़्त-ए-तआम आप की पूरी तवज्जे चाहती है।उसे खाते वक़्त उसका मुताला करना चाहिए।वैसे आला ज़ात की मछलियाँ भी होती हैं जिन में कांटे नहीं होते।ये मछलियाँ आला ज़ात के आदमियों से बेहतर होती हैं।ये कोई ज़रर नहीं पहुंचातीं।महबूबाओं और शायरों को सिर्फ़ ऐसी ही मछली खानी चाहिए शायर को इसलिए कि अगर मछली का कोई नामाक़ूल कांटा उनके हलक़ में फंस गया तो वो सुमन कलियाँ में अपना कलाम कैसे बना सकेंगे।

मछलियों के औसाफ़ की फ़हरिस्त में ईसार और क़ुर्बानी के जज़बात भी शामिल हैं।मछलियाँ ग़ैरमामूली हद तक जांनिसार होती हैं इसलिए हर छोटी मछली बड़ी मछली के ग़िज़ा के काम आती है(मुर्गों में ये वस्फ़ सिरे से मादूम होता है वो पैदाइशी ख़ुदग़र्ज़ होते हैं)

मछलियाँ हमेशा पानी पीती हैं लेकिन मुर्ग़ आम तौर पर सिर्फ़ ज़बह होते वक़्त पानी पीते हैं।ज़िंदगी में भी पीते होंगे लेकिन उनकी ज़्यादा तवज्जे खाने ही की तरफ़ होती है।मछलियाँ पानी के ज़ाएक़े की भी पर्वा नहीं करतीं।वो पानी से अफ़लातूनी इश्क़ करती हैं।पानी मीठा हो या खारा वो किसी भी पानी के साथ गुज़ारा कर लेती हैं।ये शराफ़त की निशानी है और मुर्ग़ियाँ हैं कि नमकीन पानी का एक क़तरा नहीं सह सकतीं।शायद वो जानती हैं कि नमकीन पानी से सिर्फ़ ग़रारा किया जाता है।

मछली बहुत ख़ामोश और पुर-सुकून शख़्स होती है।ये बोलती ही नहीं।जानती है इस नक्क़ार खाने में किसकी आवाज़ सुनी जाती है जो उसकी सुनी जाएगी।मुर्ग़ियां इस मुआमले में दाद-व-बे-दाद से बेनियाज़ होती हैं।बोले चली जाएंगी।जिस घर में मुर्ग़ियाँ मौजूद हों उस घर में शोर के लिए बच्चों की ज़रूरत नहीं होती।मुर्ग़ियों के शोर से बचने के लिए लोग फ़िल्मी गानों के रिकार्ड और लाउडइस्पीकर का इंतिज़ाम करते हैं।मुर्ग़ियाँ दोपहर के वक़्त खासतौर पर बहुत बोलती हैं और ऊंचा बोलती हैं।किसी को क़ैलूला नहीं करने देतीं।

मछली की बरतरी इस से भी साबित होती है कि मछली का शिकार एक मुअज़्ज़ज़ शुग्ल है जब कि मुर्ग़ को पकड़ना शिकार नहीं समझा जाता।उसकी हैसियत दाल बराबर होती है।शुरफ़ा मछली के शिकार में इस बात का ख़ास ख़याल रखते हैं कि कोई मछली जलद न फंसे।इन में से ज़्यादा शरीफ़ लोग तो शाम के वक़्त ख़ाली हाथ लौटना पसंद करते हैं।ये और बात है कि घर में दाख़िल होने से पहले दो बासी मछलियाँ बाज़ार से ख़रीद लेते हैं।ये घर में दाख़िल होने का इजाज़त-नामा होता है।

सूरी एतबार से भी मुर्ग़ियों के मुक़ाबले में मछलियाँ ज़्यादा क़ाबिल-ए-दीद होती हैं।उनकी तरफ़ नज़र भरकर देखा जा सकता है।मुर्ग़ियाँ हुस्न-व-जमाल से महरूम होती हैं और देखने में भी ग़िज़ा ही दिखाई देती हैं।मुर्ग़ियाँ और मछलियाँ दोनों पाली जा सकती हैं लेकिन दिल सिर्फ़ मछलियों से बहलता है क्यूँकि पाली जाने वाली मछलियाँ तो और भी महजबीन होती हैं।ये कहना तो ग़लत होगा कि ख़ूबसूरती उन पर ख़त्म हो जाती है।लेकिन इन---में से चंद वाक़ई मिस वर्ल्ड होती हैं। क़ुदरत ने इन मछलियों के लिए निहायत बेश-क़ीमत रंग इस्तेमाल किए हैं।और उनके कई दीदा जे़ब डिज़ाइन बनाए हैं।इनके बरअक्स सारी की सारी मुर्ग़ियाँ एक सी दिखाई देती हैं और उन में से कुछ तो सिर्फ़ भर्ती की होती हैं।लेकिन मुर्ग़ियों में ये ख़ूबी ज़रूर होती है कि ये सब प्रोलतारी तबक़े से ताअल्लुक़ रखती हैं और इन में बूरज़ुवाई आदतें नहीं होतीं।ये अपनी रिहाइश के मुआमले में बहुत क़नाअत पसंद होती हैं।उन्हें शीशे का घर नहीं चाहिए।ये बे-चारी,झांप या ज़्यादा से ज़्यादा दीवर-दार के बोसीदा तख़्तों से बने हुए दरबों पर इक्तिफ़ा कर लेती हैं।रिहाइश के अलावा ग़िज़ा के सिलसिले में भी मछलियों के मुतालिबात बहुत हैं जो सब के सब पूरे करने पड़ते हैं।इसके बावजूद ये डूब मरती हैं।

लज़्ज़त-ए-काम व दहन के इलावा,मुर्ग़ियाँ अहल-ए-दानिश के ग़ौर-व-फ़िक्र का भी मर्कज़ रही हैं और मुफ़क्किरीन हमेशा इस फ़िक्र में मुबतिला रहे कि मुर्ग़ी पहले पैदा हुई या अंडा।इस क़िस्म का नाजाएज़ सवाल मछलियों के बारे में कभी नहीं पूछा गया।(यही तो अवामी तबक़े की मुसीबत है)मुर्ग़ीयों की एक और नफ़सियाती उलझन जो ज़ेर-ए-बहस रहती है ये है कि मुर्ग़ी अंडा देते वक़्त अंडर ग्राउंड क्यूँ चली जाती है।मुर्ग़ियों की फ़ितरत का ये तज़ाद किसी भी दानिशवर की समझ में नहीं आया।इस नुकते से ये बात बहरहाल साबित होती है कि कॉम्प्लेक्स सिर्फ़ इंसानों की इजारादारी नहीं मुर्ग़ियाँ भी इसमें बराबर की शरीक हैं।

मुर्गों और मछलियों की जॉमेट्री लिखी जाए तो मछलियाँ उफु़क़ी होती हैं और मछलियाँ अमूदी,मछलियाँ खड़ी नहीं हो सकतीं और मुर्ग़ियाँ लेट नहीं सकतीं।लेकिन इस फ़र्क़ से उनको ज़िंदगी के मामूलात में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

मुर्ग़ियों और मछलियों में एक फ़र्क़ ये भी है कि मुर्ग़ियाँ सदक़े के काम भी आती हैं।मछलियों को ख़ैर ख़ैरात के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता।ये रिवायत के ख़िलाफ़ बात है।अक्सर घरों में हाल-हाल तक ये तरीक़ा राइज था कि घर का बच्चा शाम के वक़्त जब वो मदरसे से वापिस आता तो बच्चे की वालिदा दरवाज़े ही पर उसके इस्तेक़बाल के लिए खड़ी हुई मिलतीं और उनके हाथों में एक मुर्ग़ी होती ये मुर्ग़ी बतौर सदक़ा उतारी जाती।(वालिदा बच्चे से कभी ये ना पूछतीं कि बेटा आज तुमने कुछ पढ़ा भी।बस मुर्ग़ी जान से जाती)जिन वालिदाओं का बस मुर्ग़ी पर न चलता वो एक अंडे ही सदक़े में दे देतीं।क्यूँकि अंडे में ख़ूबू मुर्ग़ी ही की होती है।मुर्ग़ियों के बारे में इसीलिए ये बात कही जाती है कि ये तन्हा जानवर है जिसे पैदा होने से पहले भी खाया जा सकता है।

मुर्ग़ियाँ ब-ज़ाहिर खलंडरी होती हैं लेकिन इन में ज़िम्मेदारी का जज़बा कूट-कूट कर भरा होता है और जब भी किसी मुर्ग़ी को अफ़्ज़ाइश-ए-नस्ल के काम पर मामूर किया जाता है वो दुनियावी मशाग़िल और लहू-व-लुअब से किनारा-कश होकर पूरी तवज्जे के साथ ये फ़र्ज़ अंजाम देती है और कुछ ही दिनों में सारे घर में मुर्ग़ी के डेढ़ दो दर्जन बच्चे हंसते खेलते नज़र आते हैं इन बच्चों के बारे में ये कहा जा सकता है कि ये हमेशा सर बुलंद पैदा होते हैं और दुनिया में आने के लिए ख़ुद ही रास्ता हमवार करते हैं।उनकी चोंच जो ठोंग कहलाती है,उन्हें तारीकी से रौशनी में लाती है।क्या तअज्जुब ऑटोमेशन का ख़याल यहीं से लिया गया हो।

सारी मख़्लूक़-ए-ख़ुदावंदी में सपीद-ए-सहर का कोई सच्चा आशिक़ है तो वो यही मुर्ग़ है मुर्ग़ की बाँग ही उसकी निजात का बाइस होगी वर्ना उस के करतूत सब जानते हैं।

मुर्ग़ ईमान को तक़वियत पहुंचाता है इसीलिए अहल-ए-दस्तर-ख़्वान सिर्फ़ उसे जानते और मानते हैं जिस पर मुर्ग़ मौजूद हो और अगर वो मुस्लिम हो तो क्या कहने।अहल-ए-ईमान लोगों के अलावा मुर्ग़ तहतानी मदरसों के मुअल्लिमों में भी बहुत मक़बूल है।जब भी उन्हें मुर्ग़ की याद सताती है वो किसी तालिब-ए-इल्म को मुर्गा बना देते हैं।ग़नीमत है कि ज़बह नहीं करते।

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