ऊदू ग़ज़ल में कोई आठ किरदार होते हैं।ये सब मौक़े-मौक़े से स्टेज पर नुमूदार होते हैं।इन में से तीन किरदार मर्कज़ी,मक़व्वी और मुफ़ीद कहलाए जा सकते हैं।ये तीनों ग़ज़ल को जिस्म-व-जान बख्शते हैं।(जांबख़शी नहीं करते)अपनी इफ़ादियत और अपने सिफ़ात के लिहाज़ से इन में माशूक़ सर-ए-फ़हरिस्त है क्यूँकि इश्क़ अव़्वल दरद-ए-दिल माशूक़ पैदा मी शूद।ये तय शुदा बात है इस पर काफ़ी तहक़ीक़ की जा चुकी है।ये शख़्स आम तौर पर कमसिन और ज़ालिम होता है।बाला ख़ाने पर रहता है और अगर किसी वजह से बाला ख़ाने पर नहीं रहता तो दिन में दो-चार मर्तबा ऊपर आता ज़रूर है(कपड़े सिखाने)छत पर उमूमन नंगे पांव में आया करता है।(हालाँकि छत गर्म होती होगी)और उसके पाँव जलते होंगे बाद में मेंहदी लगा लेता होगा)।उसकी रिहाइश गली या कूचे में होती है।किसी पॉश लोकललिटी में या किसी शाहेराह पर किसी माशूक़ को रिहाइश करते नहीं देखा गया।आम शाहराहें या तिजारती मुक़ामात जहाँ बसों और मोटरों की भीड़ होती है,इश्क़ के लिए मुनासिब जगह नहीं होती।कोई टक्कर मार दे तो।माशूक़ फ़ितरतन हरजाई होता है(इसी में उसका भला है)।वैसे ये क़ाबिल-ए-ग़ौर शख़्स है क्यूँकि इस में जगह-जगह हुस्न पाया जाता है।कहीं-कहीं नज़ाकत भी होती है।
ग़ज़ल में माशूक़ के फ़ौरन बाद आशिक़ का दर्जा है जो उमूमन नाशाद-व-नामुराद हुआ करता है और वस्ल किए बगै़र मर जाता है।कहता तो यही है।यूँ बीच में कभी-कभी क़त्ल हो कर मुर्ग़ बिस्मिल की तरह तड़पा करता है।इसके शब-व-रोज़ अच्छे नहीं गुज़रते।उसका दिल शाम ही से उदास रहता है(दिन में कौन सा ख़ुश रहता है)।उसकी रातों की इब्तिदाई साअ़तें मय-ख़ाने में और मय-ख़ाने बंद होने के बाद की घड़ियाँ,हिज्र में गुज़रती हैं।उसे हिसाब नहीं आता लेकिन तारे गिनने की कोशिश करता है,गिनती भूल जाता है तो दोबारा शुरू करता है।(उसे ज़ेर समा सोने से मना करना चाहिए)आशिक़ रातों को उठकर रोता भी है और उसके हमसाए जो पहले ही से अपने इज़दिवाजी मसाइल की वजह से परेशान रहते हैं उसकी ग़ैर ज़रूरी और पक्के राग से मिलती जुलती गिरिया-व-ज़ारी की वजह से ठीक से सो नहीं सकते।(सुबह देर से उठते और काम पर देर से पहुंचते हैं)।
ग़ज़ल का तीसरा मरकज़ी और मुक़तदिर किरदार रक़ीब है जो आशिक़ के पोशीदा कामों में रोड़े अटकाता है।ये बहुत तेज़ तर्रार और फॉल शख़्स होता है।ग़ज़ब ये है कि इश्क़-व-मुहब्बत के ऐसे मुआमलात में भी जो खु़फ़ीया ख़त-व-किताबत के लाएक़ होते हैं। ये शख़्स आशिक़ से सबक़त ले जाता है।रक़ीब आशिक़ की तरह गिरेबान चाक नहीं घूमा करता।अपनी शक्ल से उसकी ख़ूब घटती है,आशिक़ इसीलिए उसे रक़ीब रूसियाह के नाम से याद करता है।माशूक़ भी आशिक़ के मुक़ाबले में रक़ीब को ज़्यादा पसंद करता है और उसकी वजह शायद ये है कि रक़ीब शायरी नहीं करता और उसका यही हुनर उसके काम आता है------ ग़ज़ल में उसे अद्व के नाम से भी पुकारा जाता है।
एक माशूक़,एक आशिक़ और एक नफ़्र-ए-रक़ीब,ये तीन अफ़राद एक ग़ज़ल के लिए काफ़ी थे लेकिन ग़ज़ल में जे़ब-ए-दास्तान नाम की भी एक चीज़ होती है जिसके लिए कुछ मज़ीद किरदार दरकार होते हैं।ये लोग ग़ैर मुतअल्लिक़ अश्ख़ास होते हैं और ग़ज़ल के असल मौज़ू से उनका तअल्लुक़ सरसरी होता है।ये सिर्फ़ आँखों देखा हाल नश्र करते हैं।रक़ीब तो नहीं लेकिन आशिक़ उनका बहरहाल मुख़ालिफ़ होता है।उसका दिल उन लोगों की तरफ़ से साफ़ नहीं।ये अश्ख़ास-ए-तादाद में पाँच हैं और इनके नाम हैं वाइज़, मुहतसिब, ज़ाहिद, शैख़ और नासहे।इन में सबसे ज़्यादा मज़लूम शख़्स नासहे है।ये कमगो और कम आमेज़ आदमी है।आशिक़ के कवाएफ़ से बा-ख़बर रहता है लेकिन इन में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेता और दीन-व-शारा से मुतअल्लिक़ या तो उसकी मालूमात कम होती हैं या वो ख़ुद ही किसी मस्लेहत की बिना पर उन में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेता।सिर्फ़ समाजी नुक़्ता-ए-नज़र से या अपनी तिब्बी सलाहियतों की बिना पर कभी कोई नसीहत कर दी तो कर दी वर्ना अपने काम से काम रखता है (ये और बात है कि इस बात से कोई वाक़िफ़ नहीं है कि इसका असली काम होता क्या है)नासहे के इस तर्ज़-ए-अमल और उसकी मियानारवी के बाइस आशिकों ने उसकी मुख़ालिफ़त नहीं की है बल्कि एक लिहाज़ से उसकी थोड़ी बहुत इज़्ज़त ही की है,वर्ना नासहे के अलावा दूसरे लोग जो ग़ज़ल में पाए जाते हैं एहतिजाजी फ़हम का निशाना बने हैं,(ख़ुद उनका रवैया भी तो ठीक नहीं रहा है)नासहे की तो इतनी क़द्र-व-मंजिलत हुई है कि आशिक़ ने उसकी राह में दीद-व-दिल बिछाने का भी एहतिमाम किया है बस इतना पूछा है कि मेरे हाँ वो आया तो समझाएगा क्या?।नासहे की तरफ़ से उसे इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिला।कम से कम ग़ज़ल इस मुआमले में ख़ामोश है लेकिन इस बात का ज़रूर पता चलता है कि नासहे ने अपनी नसबी शराफ़त की बिना पर आशिक़ को अपने घर मेहमान भी रखा ताकि वो कूचा-व-बाज़ार में मारा-मारा न फिरे और बदनाम न हो,लेकिन आशिक़ ने नासहे की इस बुर्दबारी और दरिया दिल्ली का ग़लत मतलब निकाला और ये एलान किया कि क्या इस तरह उसे क़ैद करने से उसके अंदाज़-ए-जुनूँ छूट जाऐंगे?(आशिक़ को तो जब भी क़ैद करना हो ख़ुद उसके घर में नज़रबंद करना चाहिए)।
मुहतसिब क़द्रे सख़्त गीर शख़्स होता है।एक मदर्र्स की तरह मुरव्वत और रिआयत के मानी ज़रूर जानता है लेकिन इन अलफ़ाज़ को अमली जामा नहीं पहनाता(पहनाए भी कैसे उसने तैयार मलबूसात की दुकान नहीं खोली है बल्कि बाअज़ औक़ात तो वो ख़ुद जामा के बाहर रहता है)चश्मपोशी उसे पसंद नहीं।वो समझता है चश्मपोशी बस उसी वक़्त जे़ब देती है जब आँखें बंद हो रही हों और उसमें ज़ाहिर है कि देर लगती है?मुहतसिब दिल का कमज़ोर होता है इसलिए अपने चाल चलन का बड़ा ख़याल रखता है।अंदर ही अंदर ख़्वाह वो कुछ हो,कोशिश करता है कि ना-पसंदीदा अजनबी न समझा जाए।अपनी इसी एहतियात और रख-रखाव के बाइस वो आशिक़ जैसे बदगुमान शख़्स को भी ठीक ही आदमी नज़र आया।लेकिन वाइज़,ज़ाहिद और शेख़ ये तीनों तो तीन हर्फ़ से ज़्यादा के मुस्तहिक़ नहीं क़रार पाए।उन पर फ़रेब,मकर, अय्यारी के अलावा चोरी और तग़ल्लुब जैसे क़बीह जराएम के इल्ज़ाम भी लगाए गए।फ़रेब,मकर और अय्यारी की हद तक आख़िर ठीक है क्यूँकि वाइज़,ज़ाहिद और शैख़ भी बहरहाल आदमी की एक क़िस्म हैं और आदमी ज़माना-ए-दराज़ से ये मशग़ला इख़्तियार किए हुए है लेकिन वाइज़ का चोरी की वारदात में बज़ात-ए-ख़ुद मुलव्विस होना दुख की बात है।चोरी और वो भी एक बोतल की।
गुमां बेजा न था बोतल उड़ा लेने का वाइज़ पर
तलाशी ली जो हज़रत की तो ज़ेर-ए-आस्तीं निकली
हम बहरहाल इस ख़याल के हामी हैं कि आदमी का अमल नहीं उसकी नियत देखनी चाहिए हो सकता है कि वाइज़-ए-मज़कूर ने शराब की मुबैय्यना बोतल दूसरों को बलानोशी से बाज़ रखने के लिए उठा ली हो और उसका इरादा किसी मुनासिब मौक़े पर उस बोतल को तल्फ़ कर देने का हो।ये बात क़रीना-ए-क़यास है लेकिन इसे क्या किया जाए कि छुप कर पीने के मुआमले में ये तीनों इत्तिहाद-ए-सलासे की तरह हद से ज़्यादा बदनाम हैं और उन्हें शराब ख़ाने के अंदर दाख़िल होते देखने वाले लोग जिन्हें चश्मदीद गवाह कहा जाता है,तादाद में कम नहीं हैं।
ज़ाहिद ने पहले आके तो देखा इधर उधर
फिर सर झुका के दाख़िल-ए-मय-ख़ाना हो गया
सर तो उसने मयख़ाने के एहतिराम में झुकाया होगा।ज़ाहिद के अलावा वाइज़ को भी ऐन उस वक़्त पकड़ा गया जब कुछ लोग सैर होकर पीने के बाद मय-ख़ाने के दरवाज़े से निकल रहे थे और ये दाख़िल हो रहे थे(मय-ख़ानों में भी पिछले दरवाज़ों से आमद-व-रफ़्त का इंतिज़ाम होना चाहिए।पिछला दरवाज़ा तो सभी जगह होता है)और जनाब शैख़ जाते हुए तो नहीं लेकिन वहाँ से वापिस होते वक़्त बच न सके।
मय-ख़ाने से पलटते हुए शैख़ जी मिले
पूछा कहाँ गए थे तो बोले कहीं नहीं
(पीने के बाद याद नहीं रहा होगा)
वाइज़ और ज़ाहिद के बारे में तो नहीं सुना गया लेकिन शैख़ के तआल्लुक़ से तो यहाँ तक मशहूर है कि उन्होंने शराब के लिए अपना जुब्बा-व-दस्तार तक गर्द रखने में तकल्लुफ़ नहीं किया।
शैख़ इतना तो जताओ न तुम अपना तक़वा
एवज़-ए-मय है गिर-व-जुब्बह-व-दस्तार हनूज़
इसीलिए शैख़ नमाज़ भी पढ़े और कितनी ही तवज्जा से क्यूँ न पढ़े शुबा,अय्यारी का हुआ है(इस लिहाज़ से उस शैख़ के मुक़ाबले में शेख़ चिल्ली बेहतर मालूम होते हैं जिनके नमूने आज भी जगह-जगह मिलते हैं शेर-व-अदब में चिली शुयूख़ की तादाद ज़्यादा हो गई है।
वाइज़,ज़ाहिद और शैख़ अपनी उम्र,अमामा और असा की वजह से भी अवाम की अक़ीदत के सज़ावार हैं लेकिन आशिक़ की दस्तबर्द से उनकी रेश तक महफ़ूज़ नहीं रही(ये भी तग़ल्लुब ही हुआ)किसी भी आशिक़ को जे़ब नहीं देता कि वो शिकस्त तो खाए रक़ीब से लेकिन इंतिकाम ले उन लोगों से मुम्किन है ये लोग कभी-कभी पीते भी हों लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि आशिक़ उनका ख़ून पी ले।उनका क़ुसूर इतना ही है कि उन्हें शराब ख़ाने जाते देखा गया।ये कोई ऐसे ज़ी हैसियत लोग नहीं हैं कि दो-दो मकान किराए पर लें या अपने रिहायशी मकान पर अलग से कोई इंतिज़ाम करें।उनके पास इतना पैसा होता तो ये भी अपना एक फ़ाउंडेशन बना लेते।यूँ मतऊन न होते।बिचारे!
गर्दिश-ए-अय्याम आम तौर पर नुक़्सान पहुंचाती है लेकिन उन पाँच बिचारों के हक़ में गर्दिश-ए-अय्याम,बाइस-ए-आराम साबित हुई।ग़ज़ल से उन्हें सुबुकदोश कर दिया गया और उनकी जगह अब मुंसिफ़,मसीहा,फ़क़ीहा-ए-शहर और अमीर-ए-कारवाँ की जामा तलाशी ही नहीं ख़ाना तलाशी हो रही है।काफ़ी माल बरामद हो रहा है।
ग़ज़ल के असल किरदारों का रहन-सहन और उनके आदात-व-अत्वार भी बेहतर हो गए हैं(हालाँकि रिहाइश की आसाइश अब कम ही मयस्सर है)आशिक़ अब अदबी और सियासी जलसों में उठने बैठने लगा है।कुर्सी पर भी बैठता है तो तमीज़ से।उसके पाँव ज़मीन पर टिके रहते हैं।उसके किरदार में हैरतनाक तबदीली आ गई है।वो तो आग लेने भी नहीं गया था।पयंबरी उसके घर आ गई।जो आशिक़ अपने क़त्ल होने पर मर्सिया पढ़ता था अब कूए यार से निकलता भी है तो सीधे सूएदार जाता है।(शहर का जुग़्राफ़िया ही भूल गया है)रास्ते में सिगनल भी मिलें तो नहीं ठहरता और तो और ख़ुद माशूक़ भी तज़किया-ए-नफ़्स और तफ़्ज़ीय-ए-क़ल्ब का शिकार हो गया है।ये शख़्स जो पहले बड़ी सफ़्फ़ाकी से आशिकों के क़त्ल पर तूल जाता था अब आलमी अमन काउंसिल का मिम्बर बन गया है।इस से शायद किसी ने कह दिया है कि मियाँ अब एक दो क़त्ल से काम नहीं चलता,ये क़त्ल-ए-आम के दिन हैं।तुम नादिरशाह तो हो नहीं और न थानेदार हो कि लोगों को बुला-बुला कर अंधा कर सको।ये बात उसकी समझ में आ गई है और रहा रक़ीब तो वो मफ़रूर है।किसी और के पासपोर्ट पर बाहर चला गया है उसकी फरारी पर लोग इतने ख़ुश हैं कि तलाश-ए-गुमशुदा का इश्तिहार भी नहीं छपता।उन पाँच बेचारों की अलबत्ता अब भी याद आती है।अच्छे लोग थे।
ग़ज़ल में माशूक़ के फ़ौरन बाद आशिक़ का दर्जा है जो उमूमन नाशाद-व-नामुराद हुआ करता है और वस्ल किए बगै़र मर जाता है।कहता तो यही है।यूँ बीच में कभी-कभी क़त्ल हो कर मुर्ग़ बिस्मिल की तरह तड़पा करता है।इसके शब-व-रोज़ अच्छे नहीं गुज़रते।उसका दिल शाम ही से उदास रहता है(दिन में कौन सा ख़ुश रहता है)।उसकी रातों की इब्तिदाई साअ़तें मय-ख़ाने में और मय-ख़ाने बंद होने के बाद की घड़ियाँ,हिज्र में गुज़रती हैं।उसे हिसाब नहीं आता लेकिन तारे गिनने की कोशिश करता है,गिनती भूल जाता है तो दोबारा शुरू करता है।(उसे ज़ेर समा सोने से मना करना चाहिए)आशिक़ रातों को उठकर रोता भी है और उसके हमसाए जो पहले ही से अपने इज़दिवाजी मसाइल की वजह से परेशान रहते हैं उसकी ग़ैर ज़रूरी और पक्के राग से मिलती जुलती गिरिया-व-ज़ारी की वजह से ठीक से सो नहीं सकते।(सुबह देर से उठते और काम पर देर से पहुंचते हैं)।
ग़ज़ल का तीसरा मरकज़ी और मुक़तदिर किरदार रक़ीब है जो आशिक़ के पोशीदा कामों में रोड़े अटकाता है।ये बहुत तेज़ तर्रार और फॉल शख़्स होता है।ग़ज़ब ये है कि इश्क़-व-मुहब्बत के ऐसे मुआमलात में भी जो खु़फ़ीया ख़त-व-किताबत के लाएक़ होते हैं। ये शख़्स आशिक़ से सबक़त ले जाता है।रक़ीब आशिक़ की तरह गिरेबान चाक नहीं घूमा करता।अपनी शक्ल से उसकी ख़ूब घटती है,आशिक़ इसीलिए उसे रक़ीब रूसियाह के नाम से याद करता है।माशूक़ भी आशिक़ के मुक़ाबले में रक़ीब को ज़्यादा पसंद करता है और उसकी वजह शायद ये है कि रक़ीब शायरी नहीं करता और उसका यही हुनर उसके काम आता है------ ग़ज़ल में उसे अद्व के नाम से भी पुकारा जाता है।
एक माशूक़,एक आशिक़ और एक नफ़्र-ए-रक़ीब,ये तीन अफ़राद एक ग़ज़ल के लिए काफ़ी थे लेकिन ग़ज़ल में जे़ब-ए-दास्तान नाम की भी एक चीज़ होती है जिसके लिए कुछ मज़ीद किरदार दरकार होते हैं।ये लोग ग़ैर मुतअल्लिक़ अश्ख़ास होते हैं और ग़ज़ल के असल मौज़ू से उनका तअल्लुक़ सरसरी होता है।ये सिर्फ़ आँखों देखा हाल नश्र करते हैं।रक़ीब तो नहीं लेकिन आशिक़ उनका बहरहाल मुख़ालिफ़ होता है।उसका दिल उन लोगों की तरफ़ से साफ़ नहीं।ये अश्ख़ास-ए-तादाद में पाँच हैं और इनके नाम हैं वाइज़, मुहतसिब, ज़ाहिद, शैख़ और नासहे।इन में सबसे ज़्यादा मज़लूम शख़्स नासहे है।ये कमगो और कम आमेज़ आदमी है।आशिक़ के कवाएफ़ से बा-ख़बर रहता है लेकिन इन में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेता और दीन-व-शारा से मुतअल्लिक़ या तो उसकी मालूमात कम होती हैं या वो ख़ुद ही किसी मस्लेहत की बिना पर उन में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेता।सिर्फ़ समाजी नुक़्ता-ए-नज़र से या अपनी तिब्बी सलाहियतों की बिना पर कभी कोई नसीहत कर दी तो कर दी वर्ना अपने काम से काम रखता है (ये और बात है कि इस बात से कोई वाक़िफ़ नहीं है कि इसका असली काम होता क्या है)नासहे के इस तर्ज़-ए-अमल और उसकी मियानारवी के बाइस आशिकों ने उसकी मुख़ालिफ़त नहीं की है बल्कि एक लिहाज़ से उसकी थोड़ी बहुत इज़्ज़त ही की है,वर्ना नासहे के अलावा दूसरे लोग जो ग़ज़ल में पाए जाते हैं एहतिजाजी फ़हम का निशाना बने हैं,(ख़ुद उनका रवैया भी तो ठीक नहीं रहा है)नासहे की तो इतनी क़द्र-व-मंजिलत हुई है कि आशिक़ ने उसकी राह में दीद-व-दिल बिछाने का भी एहतिमाम किया है बस इतना पूछा है कि मेरे हाँ वो आया तो समझाएगा क्या?।नासहे की तरफ़ से उसे इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिला।कम से कम ग़ज़ल इस मुआमले में ख़ामोश है लेकिन इस बात का ज़रूर पता चलता है कि नासहे ने अपनी नसबी शराफ़त की बिना पर आशिक़ को अपने घर मेहमान भी रखा ताकि वो कूचा-व-बाज़ार में मारा-मारा न फिरे और बदनाम न हो,लेकिन आशिक़ ने नासहे की इस बुर्दबारी और दरिया दिल्ली का ग़लत मतलब निकाला और ये एलान किया कि क्या इस तरह उसे क़ैद करने से उसके अंदाज़-ए-जुनूँ छूट जाऐंगे?(आशिक़ को तो जब भी क़ैद करना हो ख़ुद उसके घर में नज़रबंद करना चाहिए)।
मुहतसिब क़द्रे सख़्त गीर शख़्स होता है।एक मदर्र्स की तरह मुरव्वत और रिआयत के मानी ज़रूर जानता है लेकिन इन अलफ़ाज़ को अमली जामा नहीं पहनाता(पहनाए भी कैसे उसने तैयार मलबूसात की दुकान नहीं खोली है बल्कि बाअज़ औक़ात तो वो ख़ुद जामा के बाहर रहता है)चश्मपोशी उसे पसंद नहीं।वो समझता है चश्मपोशी बस उसी वक़्त जे़ब देती है जब आँखें बंद हो रही हों और उसमें ज़ाहिर है कि देर लगती है?मुहतसिब दिल का कमज़ोर होता है इसलिए अपने चाल चलन का बड़ा ख़याल रखता है।अंदर ही अंदर ख़्वाह वो कुछ हो,कोशिश करता है कि ना-पसंदीदा अजनबी न समझा जाए।अपनी इसी एहतियात और रख-रखाव के बाइस वो आशिक़ जैसे बदगुमान शख़्स को भी ठीक ही आदमी नज़र आया।लेकिन वाइज़,ज़ाहिद और शेख़ ये तीनों तो तीन हर्फ़ से ज़्यादा के मुस्तहिक़ नहीं क़रार पाए।उन पर फ़रेब,मकर, अय्यारी के अलावा चोरी और तग़ल्लुब जैसे क़बीह जराएम के इल्ज़ाम भी लगाए गए।फ़रेब,मकर और अय्यारी की हद तक आख़िर ठीक है क्यूँकि वाइज़,ज़ाहिद और शैख़ भी बहरहाल आदमी की एक क़िस्म हैं और आदमी ज़माना-ए-दराज़ से ये मशग़ला इख़्तियार किए हुए है लेकिन वाइज़ का चोरी की वारदात में बज़ात-ए-ख़ुद मुलव्विस होना दुख की बात है।चोरी और वो भी एक बोतल की।
गुमां बेजा न था बोतल उड़ा लेने का वाइज़ पर
तलाशी ली जो हज़रत की तो ज़ेर-ए-आस्तीं निकली
हम बहरहाल इस ख़याल के हामी हैं कि आदमी का अमल नहीं उसकी नियत देखनी चाहिए हो सकता है कि वाइज़-ए-मज़कूर ने शराब की मुबैय्यना बोतल दूसरों को बलानोशी से बाज़ रखने के लिए उठा ली हो और उसका इरादा किसी मुनासिब मौक़े पर उस बोतल को तल्फ़ कर देने का हो।ये बात क़रीना-ए-क़यास है लेकिन इसे क्या किया जाए कि छुप कर पीने के मुआमले में ये तीनों इत्तिहाद-ए-सलासे की तरह हद से ज़्यादा बदनाम हैं और उन्हें शराब ख़ाने के अंदर दाख़िल होते देखने वाले लोग जिन्हें चश्मदीद गवाह कहा जाता है,तादाद में कम नहीं हैं।
ज़ाहिद ने पहले आके तो देखा इधर उधर
फिर सर झुका के दाख़िल-ए-मय-ख़ाना हो गया
सर तो उसने मयख़ाने के एहतिराम में झुकाया होगा।ज़ाहिद के अलावा वाइज़ को भी ऐन उस वक़्त पकड़ा गया जब कुछ लोग सैर होकर पीने के बाद मय-ख़ाने के दरवाज़े से निकल रहे थे और ये दाख़िल हो रहे थे(मय-ख़ानों में भी पिछले दरवाज़ों से आमद-व-रफ़्त का इंतिज़ाम होना चाहिए।पिछला दरवाज़ा तो सभी जगह होता है)और जनाब शैख़ जाते हुए तो नहीं लेकिन वहाँ से वापिस होते वक़्त बच न सके।
मय-ख़ाने से पलटते हुए शैख़ जी मिले
पूछा कहाँ गए थे तो बोले कहीं नहीं
(पीने के बाद याद नहीं रहा होगा)
वाइज़ और ज़ाहिद के बारे में तो नहीं सुना गया लेकिन शैख़ के तआल्लुक़ से तो यहाँ तक मशहूर है कि उन्होंने शराब के लिए अपना जुब्बा-व-दस्तार तक गर्द रखने में तकल्लुफ़ नहीं किया।
शैख़ इतना तो जताओ न तुम अपना तक़वा
एवज़-ए-मय है गिर-व-जुब्बह-व-दस्तार हनूज़
इसीलिए शैख़ नमाज़ भी पढ़े और कितनी ही तवज्जा से क्यूँ न पढ़े शुबा,अय्यारी का हुआ है(इस लिहाज़ से उस शैख़ के मुक़ाबले में शेख़ चिल्ली बेहतर मालूम होते हैं जिनके नमूने आज भी जगह-जगह मिलते हैं शेर-व-अदब में चिली शुयूख़ की तादाद ज़्यादा हो गई है।
वाइज़,ज़ाहिद और शैख़ अपनी उम्र,अमामा और असा की वजह से भी अवाम की अक़ीदत के सज़ावार हैं लेकिन आशिक़ की दस्तबर्द से उनकी रेश तक महफ़ूज़ नहीं रही(ये भी तग़ल्लुब ही हुआ)किसी भी आशिक़ को जे़ब नहीं देता कि वो शिकस्त तो खाए रक़ीब से लेकिन इंतिकाम ले उन लोगों से मुम्किन है ये लोग कभी-कभी पीते भी हों लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि आशिक़ उनका ख़ून पी ले।उनका क़ुसूर इतना ही है कि उन्हें शराब ख़ाने जाते देखा गया।ये कोई ऐसे ज़ी हैसियत लोग नहीं हैं कि दो-दो मकान किराए पर लें या अपने रिहायशी मकान पर अलग से कोई इंतिज़ाम करें।उनके पास इतना पैसा होता तो ये भी अपना एक फ़ाउंडेशन बना लेते।यूँ मतऊन न होते।बिचारे!
गर्दिश-ए-अय्याम आम तौर पर नुक़्सान पहुंचाती है लेकिन उन पाँच बिचारों के हक़ में गर्दिश-ए-अय्याम,बाइस-ए-आराम साबित हुई।ग़ज़ल से उन्हें सुबुकदोश कर दिया गया और उनकी जगह अब मुंसिफ़,मसीहा,फ़क़ीहा-ए-शहर और अमीर-ए-कारवाँ की जामा तलाशी ही नहीं ख़ाना तलाशी हो रही है।काफ़ी माल बरामद हो रहा है।
ग़ज़ल के असल किरदारों का रहन-सहन और उनके आदात-व-अत्वार भी बेहतर हो गए हैं(हालाँकि रिहाइश की आसाइश अब कम ही मयस्सर है)आशिक़ अब अदबी और सियासी जलसों में उठने बैठने लगा है।कुर्सी पर भी बैठता है तो तमीज़ से।उसके पाँव ज़मीन पर टिके रहते हैं।उसके किरदार में हैरतनाक तबदीली आ गई है।वो तो आग लेने भी नहीं गया था।पयंबरी उसके घर आ गई।जो आशिक़ अपने क़त्ल होने पर मर्सिया पढ़ता था अब कूए यार से निकलता भी है तो सीधे सूएदार जाता है।(शहर का जुग़्राफ़िया ही भूल गया है)रास्ते में सिगनल भी मिलें तो नहीं ठहरता और तो और ख़ुद माशूक़ भी तज़किया-ए-नफ़्स और तफ़्ज़ीय-ए-क़ल्ब का शिकार हो गया है।ये शख़्स जो पहले बड़ी सफ़्फ़ाकी से आशिकों के क़त्ल पर तूल जाता था अब आलमी अमन काउंसिल का मिम्बर बन गया है।इस से शायद किसी ने कह दिया है कि मियाँ अब एक दो क़त्ल से काम नहीं चलता,ये क़त्ल-ए-आम के दिन हैं।तुम नादिरशाह तो हो नहीं और न थानेदार हो कि लोगों को बुला-बुला कर अंधा कर सको।ये बात उसकी समझ में आ गई है और रहा रक़ीब तो वो मफ़रूर है।किसी और के पासपोर्ट पर बाहर चला गया है उसकी फरारी पर लोग इतने ख़ुश हैं कि तलाश-ए-गुमशुदा का इश्तिहार भी नहीं छपता।उन पाँच बेचारों की अलबत्ता अब भी याद आती है।अच्छे लोग थे।
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