ख़्वाजा हसन निज़ामी
निकाला शेख़ को मजलिस से उसने यह कहकर
यह बेयुक़ूफ़ है मरने का ज़िक्र करता है
मै चौधवी सदी का मुसाफिर।घर से चलता हू तो टिफिन बासकिट और अख़बार का पर्चा सर्दी हो तो एक फैश्न एबल कंबल ज़रूर साथ रखता हू ।गुज़ीसता सदियो के मुसलमान मुसल्मान सफ़र को जाते थे तो जानमाज़,क़ूरान शरीफ,लोटा,मिसवाक और कफ़न भी साथ लेते थे क्योकि उनको एबाद्त और मौत का घर से निकल कर भी खियाल रहता था।
यह तो मै नही कह सकता कि समान-ए-सफर मेरा अच्छा होता है या उनका अच्छा होता होता था।उसका फ़ैसला हर शख़्स अपने अपने मज़ाक़ के मुआफिक कर सकता है।
अलबत्ता कफ़न कि निस्बत इतना कह सकता हू कि यह बहूत ही डरावनी चीज़ है।उसको अपने ड्रेस रूम मै बसूरत फ़ोटो भी नही देखना चाहता।अजीब बे-हंग्म लिबास है और लिबास भी उस वक़्त का जिसका खियाल करने से क़ूअत –ए-अक़ल को सदमाँ होता है,और ख़व्वा-मंवखा ऐश व राहत में गिर-गिराहट होने लगती है।
सुनता हू मुसलमानो के हा एक हदीस आयी है कि जो शख़्स रात दिन में चालीस बार रिज़ाना मौत को याद कर लिया करे तो उसको श हीद का दर्जा मिलता है।मेरे फैमली डाक्टर को इसकी ख़बर हो जाए कि मैने ऐसी बात सुनने का विर्द किया है।तो ज़रूर क्लोराफार्म लेकर दौर आए।या आफ़ियोन कास्त पिलाए।या ब्रांडी के चंद क़तरे हल्क़ में टपकाए क्योकि उसको मेरी सेहत का बड़ा खियाल रहता था।और वह नही चाहता कि ऐसी वही चीजों से मेरा दिमाग परिशान हो।
मै उन दिनो व्हिस्की का एक गिलास ज़ियादा पीने लगा हू क्यूकी कम बख़्त वाहिमा लड़ाई कि डरावनी शकले सामने आता है। और दिल से कहता है कि एसबी आदमी मर जाया करते है मेरा दिल ऐसा वाक्के हुआ है कि वह मरने के खियाल में फौरन जी लगा लेता है।हर चन्द उसको इधर से हटाता हू।मगर वह मैदान-ए-जंग के बे-गोर व कफ़न मुरदों के देखने से बाज़ नही आता।और ठंडे सांस भर के कहता है एक दिन सबको इसी तरह मरना होगा।मैने बरहा उससे पूछा कि मुझको भी?तो उसने ज़रा रियायत न कि और यही कहा।हा तुझको भी।इसलिए मैने मजबूरन जाम-ए-शराब से उसका मूह बंद किया और थोड़ी देर के लिए उससे निजात हासिल की।
कल कि सुनो!एक मुसलमान शहिदों के कफ़न कि निस्बत बहस कर रहा था।मैने चाहा कि सुनी अन सुनी करदु।मगर उसने कहा कि आप भी तो मुसलमान है।मुझे कुछ शर्म सी आई।और मैने साईल कि रियायत से अल्हम्दोलिल्लाह कह दिया।
यह लोग बड़े बे-तहज़ीब होते है।इतना खियाल न किया कि मैने कितनी बड़ी जुरअत करके उसका दिल ठंडा किया था।चाहिए था कि ख़ामूश हो जाता मगर वह तो गले का हार हो गया।बोला श्हिदों को कफ़्न नही दिया जाता।वो अपने मल्बूश ख़वान आलूद ही में बगैर गुसल के द्फ़्न होते है।ख़ून उनका गुसल है और ख़ून भरी पौसक उनका कफ़्न-द्फ़्न। क्फ़्न का हमवज़न लफ़्ज़ सुनकर मुझे एक फिरेरी से आई।और दिल के अन्दर सीना के फुट्टे में दर्द कि सी कसक मालूम हुई मै डरा। क्यों साहब कल क्रिकेट का मैच कैसा रहा?इस वहशी ने जवाब दिया आप गेंद बल्ले को पूछते है मुझे इसकी बाबत कुछ मालूम नही।इतना कू कर फिर शहीद के कफ़्न को ले बैठा कि वह कैसी अच्छी मौत है।मुसलमान दूल्हा बनकर ख़ुदाके सामने जाता है।सर कटा हुआ।सीनाछेदा हुआ।आंखे अपने माबुद के आगे झुकी हुई।
अब तो मेरा दिल लरज़्ने लगा।मुझको एक जमाई आई और बाएँ हिस्सा-ए-जिस्म में रसा का सारा असर महसूस हुआ मैने उससे कहा तुम ने देखा मेरा बयां हाथ और पाव कुछ काँपता है।फ़ालिज तो नही है उसने हंसकर जवाब दिया।जी नही वहम है!और बिलगर्ज़ फ़ालिज हो भी तो क्या डर है।हम तो ख़ुदा रुसूल कि बाते कर रहे है।इसमे जो तकलीफ़ हो।सवाब में लिख जाती है।
यह सुनकर मुझको ताब न रही उसकी दीदा-दिलेरी और बे-हरासी पर गुस्सा भी आया और तरस भी कि यह लोग किस क़दर क्म्ज़ोर अक़ीदा रखते है।और ज़्ंद्गि जैसी प्यारी चीज़ कि ख़ाक क़दर नही जानते और मैने उसको तरशी से यह गुफ्तगू बन्द करने का हुक्म दिया।
खैर हो गई।कि डीयर फादर हेमिल्टनइधर आ निकले।और मै उनके हमराह उठकर चला आया।ताहम जेहादी शहीद का कफ़्न रात भर सर पर सवार रहा।इसी वास्ते आज आठ बजे के बदले दस बजे बेदार हुआ हू।
निकाला शेख़ को मजलिस से उसने यह कहकर
यह बेयुक़ूफ़ है मरने का ज़िक्र करता है
मै चौधवी सदी का मुसाफिर।घर से चलता हू तो टिफिन बासकिट और अख़बार का पर्चा सर्दी हो तो एक फैश्न एबल कंबल ज़रूर साथ रखता हू ।गुज़ीसता सदियो के मुसलमान मुसल्मान सफ़र को जाते थे तो जानमाज़,क़ूरान शरीफ,लोटा,मिसवाक और कफ़न भी साथ लेते थे क्योकि उनको एबाद्त और मौत का घर से निकल कर भी खियाल रहता था।
यह तो मै नही कह सकता कि समान-ए-सफर मेरा अच्छा होता है या उनका अच्छा होता होता था।उसका फ़ैसला हर शख़्स अपने अपने मज़ाक़ के मुआफिक कर सकता है।
अलबत्ता कफ़न कि निस्बत इतना कह सकता हू कि यह बहूत ही डरावनी चीज़ है।उसको अपने ड्रेस रूम मै बसूरत फ़ोटो भी नही देखना चाहता।अजीब बे-हंग्म लिबास है और लिबास भी उस वक़्त का जिसका खियाल करने से क़ूअत –ए-अक़ल को सदमाँ होता है,और ख़व्वा-मंवखा ऐश व राहत में गिर-गिराहट होने लगती है।
सुनता हू मुसलमानो के हा एक हदीस आयी है कि जो शख़्स रात दिन में चालीस बार रिज़ाना मौत को याद कर लिया करे तो उसको श हीद का दर्जा मिलता है।मेरे फैमली डाक्टर को इसकी ख़बर हो जाए कि मैने ऐसी बात सुनने का विर्द किया है।तो ज़रूर क्लोराफार्म लेकर दौर आए।या आफ़ियोन कास्त पिलाए।या ब्रांडी के चंद क़तरे हल्क़ में टपकाए क्योकि उसको मेरी सेहत का बड़ा खियाल रहता था।और वह नही चाहता कि ऐसी वही चीजों से मेरा दिमाग परिशान हो।
मै उन दिनो व्हिस्की का एक गिलास ज़ियादा पीने लगा हू क्यूकी कम बख़्त वाहिमा लड़ाई कि डरावनी शकले सामने आता है। और दिल से कहता है कि एसबी आदमी मर जाया करते है मेरा दिल ऐसा वाक्के हुआ है कि वह मरने के खियाल में फौरन जी लगा लेता है।हर चन्द उसको इधर से हटाता हू।मगर वह मैदान-ए-जंग के बे-गोर व कफ़न मुरदों के देखने से बाज़ नही आता।और ठंडे सांस भर के कहता है एक दिन सबको इसी तरह मरना होगा।मैने बरहा उससे पूछा कि मुझको भी?तो उसने ज़रा रियायत न कि और यही कहा।हा तुझको भी।इसलिए मैने मजबूरन जाम-ए-शराब से उसका मूह बंद किया और थोड़ी देर के लिए उससे निजात हासिल की।
कल कि सुनो!एक मुसलमान शहिदों के कफ़न कि निस्बत बहस कर रहा था।मैने चाहा कि सुनी अन सुनी करदु।मगर उसने कहा कि आप भी तो मुसलमान है।मुझे कुछ शर्म सी आई।और मैने साईल कि रियायत से अल्हम्दोलिल्लाह कह दिया।
यह लोग बड़े बे-तहज़ीब होते है।इतना खियाल न किया कि मैने कितनी बड़ी जुरअत करके उसका दिल ठंडा किया था।चाहिए था कि ख़ामूश हो जाता मगर वह तो गले का हार हो गया।बोला श्हिदों को कफ़्न नही दिया जाता।वो अपने मल्बूश ख़वान आलूद ही में बगैर गुसल के द्फ़्न होते है।ख़ून उनका गुसल है और ख़ून भरी पौसक उनका कफ़्न-द्फ़्न। क्फ़्न का हमवज़न लफ़्ज़ सुनकर मुझे एक फिरेरी से आई।और दिल के अन्दर सीना के फुट्टे में दर्द कि सी कसक मालूम हुई मै डरा। क्यों साहब कल क्रिकेट का मैच कैसा रहा?इस वहशी ने जवाब दिया आप गेंद बल्ले को पूछते है मुझे इसकी बाबत कुछ मालूम नही।इतना कू कर फिर शहीद के कफ़्न को ले बैठा कि वह कैसी अच्छी मौत है।मुसलमान दूल्हा बनकर ख़ुदाके सामने जाता है।सर कटा हुआ।सीनाछेदा हुआ।आंखे अपने माबुद के आगे झुकी हुई।
अब तो मेरा दिल लरज़्ने लगा।मुझको एक जमाई आई और बाएँ हिस्सा-ए-जिस्म में रसा का सारा असर महसूस हुआ मैने उससे कहा तुम ने देखा मेरा बयां हाथ और पाव कुछ काँपता है।फ़ालिज तो नही है उसने हंसकर जवाब दिया।जी नही वहम है!और बिलगर्ज़ फ़ालिज हो भी तो क्या डर है।हम तो ख़ुदा रुसूल कि बाते कर रहे है।इसमे जो तकलीफ़ हो।सवाब में लिख जाती है।
यह सुनकर मुझको ताब न रही उसकी दीदा-दिलेरी और बे-हरासी पर गुस्सा भी आया और तरस भी कि यह लोग किस क़दर क्म्ज़ोर अक़ीदा रखते है।और ज़्ंद्गि जैसी प्यारी चीज़ कि ख़ाक क़दर नही जानते और मैने उसको तरशी से यह गुफ्तगू बन्द करने का हुक्म दिया।
खैर हो गई।कि डीयर फादर हेमिल्टनइधर आ निकले।और मै उनके हमराह उठकर चला आया।ताहम जेहादी शहीद का कफ़्न रात भर सर पर सवार रहा।इसी वास्ते आज आठ बजे के बदले दस बजे बेदार हुआ हू।
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