घाग(या-घाघ)की हयत सौती-व-तहरीरी इसको किसी तारीफ़ का मोहताज नहीं रखतीं अलफ़ाज़ के शक्ल और आवाज़ से कितने और कैसे कैसे माना अख़ज़ किए गए हैं।लिसानियात की पूरी तारीख़ इसपर गवाह है।कभी-कभी तलफ़्फ़ुज़ से बोलने वाले की नस्ल और क़बीले का पता लगा लेते हैं।घाग की तारीफ़ मंतिक़ या फ़लसफ़ा से नहीं तजुर्बे से की जाती है।ऐसा तजुर्बा जिसे अक़्ल-मंद समझ लेता है। बे-वक़ूफ़ बरतना चाहता है।
घागियात का एक उसूल यह है कि कूज़िय्ये में फ़रीक़ से बेहतर क़ाज़ी बनना है।झगड़े में फ़रीक़ होना ख़ामी की दलील है।हुक्म बनना अक़्ल-मंदों का शुआर है।अगर हर एजाद के लिए एक माँ की ज़रूरत है तो हर ज़रूरत के लिए एक घाग लाज़िम आता है।घाग मौजूद न होता तो दुनिया से ज़रूरत का उंसिर मफ़क़ूद हो जाता और “तलब महज़ है सारा आलम” का फ़लसफ़ा इंसिदाद तौहीन-ए-मज़ाहिब के क़ानून की मानिंद नाक़िस होकर रह जाता।घाग का कमाल ये है कि वो घाग ना समझा जाये।अगर कोई शख़्स घाग होने का इज़हार करे या बाक़ौल शख़्से “मार खा जाए” तो वो घाग नहीं घागस है और ये घाग की अदना क़िस्म है।इनमें इम्तियाज़ करना दुशवार भी है आसान भी है।जैसे किसी रोशन ख़्याल बीवी के जज़्बा-ए-शौहर परस्ती या किसी मौलवी के जज़्बा-ए-ख़ुदातर्सी का सही अंदाज़ा लगाना।
घाग की एक मुनफ़रिद शख़्सियत होती है वह न कोई ज़ात है न क़बीला वह सिर्फ़ पैदा हो जाता है लेकिन उसकी नस्ल नहीं चलती, रिवायत क़ायम रहती है।हर तबक़ा और जमात में कोई न कोई घाग मौजूद होता है।मुआशरा, मज़हब, हुकूमत, ग़र्ज़ वह तमाम इदारे जिनसे इंसान अपने आप को बनाता बिगाड़ता या डरता डराता रहता है किसी ना किसी घाग की द्स्त्ब्र्द में होता है।वह जज़बात से ख़ाली होता है और अपने मक़सद के हुसूल में न जाहिल को जाहिल समझता है न आलिम को आलिम।दानिश-मंद के सामने वह अपने को अहमक़ और अहमक़ के सामने अहमक़-तर ज़ाहिर करेगा जब तक वह अपने मक़ासिद में कामियाब हो सकता है उसको ये परवा नहीं होती कि दुनिया उसको क्या कहेगी।वो कामियाबी ही को मक़सद जानता है,वसीले को अहमियत नहीं देता।
घाग का सोसाइटी के जिस तबक़े से तअल्लुक़ होता है उसी एतबार से उसकी घागीयत का दर्जा मुतअय्यन होता है निचले तबक़े का मुतवस्सित तबक़े और मुतवस्सित तबक़े का आला तबक़े के घाग पर फ़ौक़ियत रखता है इसलिए कि मुख़्ख़िर-उज़-ज़िक्र को अव्वल-उल-ज़िक्र से कहीं ज़्यादा सहूलतें मयस्सर होती हैं।यहाँ तक कि वो घाग न भी हों जब भी अपनी दौलत और असर से काम निकाल सकते हैं।उनसे कम दर्जा वाले को अपनी घागीयत के सिवा कुछ और मयस्सर नहीं होता।मसलन घाग होने के एतबार से एक पटवारी का दर्जा किसी सफ़ीर से कम नहीं।बशर्तेकि सफ़ीर ख़ुद कभी पटवारी न रह चुका हो।
सियासी घाग को क़ौम और हुकूमत के दरमियान वही हैसियत हासिल होती है जो क़िमार-ख़ाने के मैनेजर को क़िमार-बाज़ों में होती है।यानी हार जीत किसी की नफ़ा उसका!वह सदारत की कुर्सी पर सबसे ज़्यादा हार पहनकर तालियों और नारों की गूंज में बैठता है।और तहरीर-व-तक़रीर में प्रेस और हुकूमत के नुमाइंदों को पेश-ए-नज़र रखता है।कहीं गोली चलने वाली हो या दार-व-रस्न का सामना हो तो वह अपने ड्राइंग रूम या कोहस्तानी क़याम-गाह को बेहतर-व-महफ़ूज़-तर जगह समझता है।उसके नज़दीक क़ौम की हैसियत नआश की है।उस पर मज़ार तामीर करके नज़राने और चढ़ावे वसूल किए जा सकते हैं।लेकिन पेश-क़दमी की ज़रूरत हो तो उनसे पाट कर रास्ते हमवार किए जा सकते हैं।अपने अग़राज़ के पेश-ए-नज़र वह नौहा-ए-ग़म और नग़मा-ए-शादी में कोई फ़र्क़ नहीं करता।वह हुकूमत से खु़फ़ीया तौर पर और हुकूमत उससे एलानिया डरती है।
घाग सिर्फ़ अपना दोस्त होता है।किसी और की दोस्ती पर एतबार नहीं रखता।मौक़ा से फ़ाएदा उठाता है मौक़ा को अपने से फ़ाएदा नहीं उठाने देता।कभी-कभी वह अपने को ख़तरे में भी डाल देता है लेकिन उसी वक़्त जब उसे यक़ीन होता है कि ख़तरे से उसको नहीं बल्कि उससे ख़तरे को नुक़्सान पहुंचेगा।वह इंतिहापसंद नहीं होता सिर्फ़ इंतहापसंदों से फ़ाएदा उठाता है।उसकी मिसाल एक ऐसी अदालती-मिस्ल से दी जा सकती है जिसकी रौ से मुतज़ाद फ़ैसले आसानी से दिए जा सकते हैं और वह फ़ैसले आसानी से बहाल भी रखे जा सकते हैं और तोड़े भी जा सकते हैं।
सियासी घाग फ़ैक्ट्री के बड़े पहिए की मानिंद होता है ब-ज़ाहिर ये मालूम होगा कि सिर्फ़ एक बड़ा पहिया गर्दिश कर रहा है लेकिन उस एक पहिए के दम से मालूम नहीं कितने और कुल-पुर्जे़ गर्दिश करते होते हैं।कहीं भारी मशीन तैय्यार होती है कहीं नाज़ुक हल्के हल्के तरह तरह के आलात।कहीं ज़हर कहीं तिरयाक कहीं बरहना रखने के लिए कपड़े तैय्यार होते होंगे कहीं भूका रखने के लिए ख़िरमन जमा किया जा रहा होगा।कहीं हिफ़ाज़त का काम दर पेश होगा कहीं हलाकत के सामान फ़राहम किए जा रहे होंगे।घाग बोलने के मौक़ा पर सोचता है और छींकने को सिर्फ़ एक जमाई पर ख़त्म कर देता है वह ज़ब्ता-ए-फ़ौजदारी और किताब-ए-ईलाहाई दोनों की ताक़त और कमज़ोरी से वाक़िफ़ होता है।आराम कमरे में बैठ कर जेलख़ाने पर अज़ाब झेलने वालों से हमदर्दी करेगा।कभी-कभी वह मल्कूलमौत की ज़द में न हो।
वह हुकूमत के ख़िताबात नहीं क़ुबूल करता लेकिन ख़िताब याफ़्तों को अपने असर में रखता है।कौंसिल और कमेटी में नहीं बोलता लेकिन कौंसिल और कमेटी में बोलने वाले उसकी ज़बान से बोलते हैं।वह कभी बीमार नहीं पड़ता लेकिन बीमारी उसी तरह मनाता है जिस तरह दूसरे तातील मनाते हैं उसका बीमार होना दरहक़ीक़त अपनी सेहत मनाना होता है।वह हर तरह के जुर्म का मुर्तक़िब होता है लेकिन मा-ख़ुद किसी में नहीं होता।जराइमपेशा होता है सज़ा याफ़्ता नहीं होता।
मज़हबी घाग को मज़हब से वही निसबत है जो बआज़ नौजवानों को अपने वालदैन से होती है।वह वालदैन को अपना कमज़ोर और मज़बूत दोनों पहलू समझता है।एक तरफ़ तो वो उनको हुक्काम के आस्तानों पर हाज़िर होकर मुरादें मांगने का वसीला समझता है दूसरी तरफ़ अगर वह ख़ुद तालीम याफ़ता रोशन ख़याल और इसी तरह की बीवी का शौहर है और वालदैन ज़ी हैसियत नहीं हैं तो उनको हुक्काम-ए-आली मक़ाम के चपरासी से भी छुपाने की कोशिश करेगा।ज़रूरत पड़ जाएगा तो मज़हब का वास्ता दिलाकर दूसरों को हिंदोस्तान से हिज्रत पर आमादा करेगा किसी और मौक़े पर मज़हब ही की आड़ पकड़ कर दार-उल-हरब में सूद लेने लगा।वह तारिक़ हवालात रहेगा।तारिक़-ए-लज़्ज़त न होगा।
एक शख़्स का किरदार यूँ बयान किया गया।पेश मुल्ला क़ाज़ी पेश क़ाज़ी मुल्ला।पेश हीच हर दो व पेश हर दो हीच।यानी वह मुल्ला के सामने क़ाज़ी बना रहता है और क़ाज़ी के सामने मुल्ला।दोनों में से किसी का सामना न हो तो दोनों हैसियतें इख़्तियार कर लेता है या और दोनों मौजूद हूँ तो कहीं का नहीं रहता। ये मक़ूला घागस पर सादिक़ आता है। घाग ऐसा मौक़ा ही नहीं आने देता कि वह कहीं का न रहे घाग की ये मुस्तनद है।
दफ़अतन हाजी बलग़-उल-अली वारिद हुए और आते ही बे-रब्त सवालात और दूसरे इज़्तिरारी या इख़्तियारी मश्ग़ाल से एक दम धूम मचा दी। कमरे में दाख़िल होने से पहले दौर ही से सलाम अलैकुम। कम्बल बर्दोश रीश बदामाँ, पूछने लगे, नज़र क्यूँ नहीं आते सिगरेट लाओ। पानी मँगाओ,आख़िर देर क्या है , खाना खा चुके हो , कुछ मालूम हुआ , कमीशन वाले आज टेनिस खेलेंगे या डॉक्टर ज़ियाउद्दीन साहब
का बयान लेंगे। अच्छा कोई गाना सुनाओ। “आमद-ए-शहज़ादा है गुलशन है सारा लखनऊ!” एक कुर्सी पर जा बैठे ठीक तौर से जगह नहीं पकड़ी थी कि खड़े होकर दीवार पर आवेज़ाँ तस्वीर देखने लगे लेकिन जैसे तस्वीर देखना नहीं वक़्त गुज़ारना नामद नज़र हो। वहीं से बात जस्त की तो चारपाई पर दराज़ और कम्बल में मलफ़ूफ़ चंद लम्हे के बाद उठ बैठे जैसे कोई भोली बात याद आ गई हो। फिर यूँ लेट गए जैसे उस चीज़ को उसके साथ सारी काइनात को सब्र कर बैठे हों। पानी आया, फ़रमाया नहीं दिया सलाई लाओ। वह आई तो जलाने के बजाए उससे ख़िलाल करने लगे। कुछ किताबें उलटीं। अख़बार के औराक़ ज़ेर-व-ज़बर कर डाले फ़रमाया ये सब तो हुआ बताओ फ़लाँ साहब मकान पर मिलेंगे। और हाँ तुम कुछ लिख रहे थे अर्ज़ किया “घाग” फ़रमाया शैतनत से बाज़ न आओगे। अब देखता हूँ तो हाजी साहब सहन के दरवाज़े से ग़ायब होते नज़र आए।
जैसा कि बयान किया जा सकता है हर जमात में घाग होते हैं। यहाँ तक कि फ़रिश्तों में जब “मुसलसल-व-मुदाम” इबादत होने लगी तो मस्लेहत-ए-इलाही ने आदम को पैदा किया। फ़रिश्तों का ये कहना कि ये सफ़ा-ए-हस्ती पर फ़साद पर फैलाएंगे घाग की आमद का पेशख़ेमा था। जिस तौर पर कट्टर मुल्हिद और दहरिए कभी कभी कट्टर मुअह्हिद और मुत्तक़ी हो जाते हैं इसी तौर पर फ़रिश्तों के मासूम तबक़े में इबलीस (घाग) पैदा हुआ।गंदुम चशी पर आदम-व-हव्वा से बाज़पुर्स की गई।घागस थे घिघ्घी बंध गई।अपनी ख़ता का इसतरह एतराफ़ किया जैसे उसपर उनको क़ुदरत हासिल थी।घाग से जवाबतलब किया गया तो उसने जवाब दिया।
“मुझे आख़िर किसने गुमराह किया” ये सवाल इर्तिकाब-ए-जुर्म से ज़्यादा संगीन था।घाग और घागस दोनों जिला-वतन किए गए और इस जहान में फेंक दिए गए जहाँ नबर्द आज़माई के हर एक को मसावी मवाक़े मिले जिसकी तरफ़ इक़बाल ने इशारा किया है।
मज़ी अन्दर जहान कौर ज़ौक़े
कि यज़्दान-दारद व शैतान नदारो
घागियात का एक उसूल यह है कि कूज़िय्ये में फ़रीक़ से बेहतर क़ाज़ी बनना है।झगड़े में फ़रीक़ होना ख़ामी की दलील है।हुक्म बनना अक़्ल-मंदों का शुआर है।अगर हर एजाद के लिए एक माँ की ज़रूरत है तो हर ज़रूरत के लिए एक घाग लाज़िम आता है।घाग मौजूद न होता तो दुनिया से ज़रूरत का उंसिर मफ़क़ूद हो जाता और “तलब महज़ है सारा आलम” का फ़लसफ़ा इंसिदाद तौहीन-ए-मज़ाहिब के क़ानून की मानिंद नाक़िस होकर रह जाता।घाग का कमाल ये है कि वो घाग ना समझा जाये।अगर कोई शख़्स घाग होने का इज़हार करे या बाक़ौल शख़्से “मार खा जाए” तो वो घाग नहीं घागस है और ये घाग की अदना क़िस्म है।इनमें इम्तियाज़ करना दुशवार भी है आसान भी है।जैसे किसी रोशन ख़्याल बीवी के जज़्बा-ए-शौहर परस्ती या किसी मौलवी के जज़्बा-ए-ख़ुदातर्सी का सही अंदाज़ा लगाना।
घाग की एक मुनफ़रिद शख़्सियत होती है वह न कोई ज़ात है न क़बीला वह सिर्फ़ पैदा हो जाता है लेकिन उसकी नस्ल नहीं चलती, रिवायत क़ायम रहती है।हर तबक़ा और जमात में कोई न कोई घाग मौजूद होता है।मुआशरा, मज़हब, हुकूमत, ग़र्ज़ वह तमाम इदारे जिनसे इंसान अपने आप को बनाता बिगाड़ता या डरता डराता रहता है किसी ना किसी घाग की द्स्त्ब्र्द में होता है।वह जज़बात से ख़ाली होता है और अपने मक़सद के हुसूल में न जाहिल को जाहिल समझता है न आलिम को आलिम।दानिश-मंद के सामने वह अपने को अहमक़ और अहमक़ के सामने अहमक़-तर ज़ाहिर करेगा जब तक वह अपने मक़ासिद में कामियाब हो सकता है उसको ये परवा नहीं होती कि दुनिया उसको क्या कहेगी।वो कामियाबी ही को मक़सद जानता है,वसीले को अहमियत नहीं देता।
घाग का सोसाइटी के जिस तबक़े से तअल्लुक़ होता है उसी एतबार से उसकी घागीयत का दर्जा मुतअय्यन होता है निचले तबक़े का मुतवस्सित तबक़े और मुतवस्सित तबक़े का आला तबक़े के घाग पर फ़ौक़ियत रखता है इसलिए कि मुख़्ख़िर-उज़-ज़िक्र को अव्वल-उल-ज़िक्र से कहीं ज़्यादा सहूलतें मयस्सर होती हैं।यहाँ तक कि वो घाग न भी हों जब भी अपनी दौलत और असर से काम निकाल सकते हैं।उनसे कम दर्जा वाले को अपनी घागीयत के सिवा कुछ और मयस्सर नहीं होता।मसलन घाग होने के एतबार से एक पटवारी का दर्जा किसी सफ़ीर से कम नहीं।बशर्तेकि सफ़ीर ख़ुद कभी पटवारी न रह चुका हो।
सियासी घाग को क़ौम और हुकूमत के दरमियान वही हैसियत हासिल होती है जो क़िमार-ख़ाने के मैनेजर को क़िमार-बाज़ों में होती है।यानी हार जीत किसी की नफ़ा उसका!वह सदारत की कुर्सी पर सबसे ज़्यादा हार पहनकर तालियों और नारों की गूंज में बैठता है।और तहरीर-व-तक़रीर में प्रेस और हुकूमत के नुमाइंदों को पेश-ए-नज़र रखता है।कहीं गोली चलने वाली हो या दार-व-रस्न का सामना हो तो वह अपने ड्राइंग रूम या कोहस्तानी क़याम-गाह को बेहतर-व-महफ़ूज़-तर जगह समझता है।उसके नज़दीक क़ौम की हैसियत नआश की है।उस पर मज़ार तामीर करके नज़राने और चढ़ावे वसूल किए जा सकते हैं।लेकिन पेश-क़दमी की ज़रूरत हो तो उनसे पाट कर रास्ते हमवार किए जा सकते हैं।अपने अग़राज़ के पेश-ए-नज़र वह नौहा-ए-ग़म और नग़मा-ए-शादी में कोई फ़र्क़ नहीं करता।वह हुकूमत से खु़फ़ीया तौर पर और हुकूमत उससे एलानिया डरती है।
घाग सिर्फ़ अपना दोस्त होता है।किसी और की दोस्ती पर एतबार नहीं रखता।मौक़ा से फ़ाएदा उठाता है मौक़ा को अपने से फ़ाएदा नहीं उठाने देता।कभी-कभी वह अपने को ख़तरे में भी डाल देता है लेकिन उसी वक़्त जब उसे यक़ीन होता है कि ख़तरे से उसको नहीं बल्कि उससे ख़तरे को नुक़्सान पहुंचेगा।वह इंतिहापसंद नहीं होता सिर्फ़ इंतहापसंदों से फ़ाएदा उठाता है।उसकी मिसाल एक ऐसी अदालती-मिस्ल से दी जा सकती है जिसकी रौ से मुतज़ाद फ़ैसले आसानी से दिए जा सकते हैं और वह फ़ैसले आसानी से बहाल भी रखे जा सकते हैं और तोड़े भी जा सकते हैं।
सियासी घाग फ़ैक्ट्री के बड़े पहिए की मानिंद होता है ब-ज़ाहिर ये मालूम होगा कि सिर्फ़ एक बड़ा पहिया गर्दिश कर रहा है लेकिन उस एक पहिए के दम से मालूम नहीं कितने और कुल-पुर्जे़ गर्दिश करते होते हैं।कहीं भारी मशीन तैय्यार होती है कहीं नाज़ुक हल्के हल्के तरह तरह के आलात।कहीं ज़हर कहीं तिरयाक कहीं बरहना रखने के लिए कपड़े तैय्यार होते होंगे कहीं भूका रखने के लिए ख़िरमन जमा किया जा रहा होगा।कहीं हिफ़ाज़त का काम दर पेश होगा कहीं हलाकत के सामान फ़राहम किए जा रहे होंगे।घाग बोलने के मौक़ा पर सोचता है और छींकने को सिर्फ़ एक जमाई पर ख़त्म कर देता है वह ज़ब्ता-ए-फ़ौजदारी और किताब-ए-ईलाहाई दोनों की ताक़त और कमज़ोरी से वाक़िफ़ होता है।आराम कमरे में बैठ कर जेलख़ाने पर अज़ाब झेलने वालों से हमदर्दी करेगा।कभी-कभी वह मल्कूलमौत की ज़द में न हो।
वह हुकूमत के ख़िताबात नहीं क़ुबूल करता लेकिन ख़िताब याफ़्तों को अपने असर में रखता है।कौंसिल और कमेटी में नहीं बोलता लेकिन कौंसिल और कमेटी में बोलने वाले उसकी ज़बान से बोलते हैं।वह कभी बीमार नहीं पड़ता लेकिन बीमारी उसी तरह मनाता है जिस तरह दूसरे तातील मनाते हैं उसका बीमार होना दरहक़ीक़त अपनी सेहत मनाना होता है।वह हर तरह के जुर्म का मुर्तक़िब होता है लेकिन मा-ख़ुद किसी में नहीं होता।जराइमपेशा होता है सज़ा याफ़्ता नहीं होता।
मज़हबी घाग को मज़हब से वही निसबत है जो बआज़ नौजवानों को अपने वालदैन से होती है।वह वालदैन को अपना कमज़ोर और मज़बूत दोनों पहलू समझता है।एक तरफ़ तो वो उनको हुक्काम के आस्तानों पर हाज़िर होकर मुरादें मांगने का वसीला समझता है दूसरी तरफ़ अगर वह ख़ुद तालीम याफ़ता रोशन ख़याल और इसी तरह की बीवी का शौहर है और वालदैन ज़ी हैसियत नहीं हैं तो उनको हुक्काम-ए-आली मक़ाम के चपरासी से भी छुपाने की कोशिश करेगा।ज़रूरत पड़ जाएगा तो मज़हब का वास्ता दिलाकर दूसरों को हिंदोस्तान से हिज्रत पर आमादा करेगा किसी और मौक़े पर मज़हब ही की आड़ पकड़ कर दार-उल-हरब में सूद लेने लगा।वह तारिक़ हवालात रहेगा।तारिक़-ए-लज़्ज़त न होगा।
एक शख़्स का किरदार यूँ बयान किया गया।पेश मुल्ला क़ाज़ी पेश क़ाज़ी मुल्ला।पेश हीच हर दो व पेश हर दो हीच।यानी वह मुल्ला के सामने क़ाज़ी बना रहता है और क़ाज़ी के सामने मुल्ला।दोनों में से किसी का सामना न हो तो दोनों हैसियतें इख़्तियार कर लेता है या और दोनों मौजूद हूँ तो कहीं का नहीं रहता। ये मक़ूला घागस पर सादिक़ आता है। घाग ऐसा मौक़ा ही नहीं आने देता कि वह कहीं का न रहे घाग की ये मुस्तनद है।
दफ़अतन हाजी बलग़-उल-अली वारिद हुए और आते ही बे-रब्त सवालात और दूसरे इज़्तिरारी या इख़्तियारी मश्ग़ाल से एक दम धूम मचा दी। कमरे में दाख़िल होने से पहले दौर ही से सलाम अलैकुम। कम्बल बर्दोश रीश बदामाँ, पूछने लगे, नज़र क्यूँ नहीं आते सिगरेट लाओ। पानी मँगाओ,आख़िर देर क्या है , खाना खा चुके हो , कुछ मालूम हुआ , कमीशन वाले आज टेनिस खेलेंगे या डॉक्टर ज़ियाउद्दीन साहब
का बयान लेंगे। अच्छा कोई गाना सुनाओ। “आमद-ए-शहज़ादा है गुलशन है सारा लखनऊ!” एक कुर्सी पर जा बैठे ठीक तौर से जगह नहीं पकड़ी थी कि खड़े होकर दीवार पर आवेज़ाँ तस्वीर देखने लगे लेकिन जैसे तस्वीर देखना नहीं वक़्त गुज़ारना नामद नज़र हो। वहीं से बात जस्त की तो चारपाई पर दराज़ और कम्बल में मलफ़ूफ़ चंद लम्हे के बाद उठ बैठे जैसे कोई भोली बात याद आ गई हो। फिर यूँ लेट गए जैसे उस चीज़ को उसके साथ सारी काइनात को सब्र कर बैठे हों। पानी आया, फ़रमाया नहीं दिया सलाई लाओ। वह आई तो जलाने के बजाए उससे ख़िलाल करने लगे। कुछ किताबें उलटीं। अख़बार के औराक़ ज़ेर-व-ज़बर कर डाले फ़रमाया ये सब तो हुआ बताओ फ़लाँ साहब मकान पर मिलेंगे। और हाँ तुम कुछ लिख रहे थे अर्ज़ किया “घाग” फ़रमाया शैतनत से बाज़ न आओगे। अब देखता हूँ तो हाजी साहब सहन के दरवाज़े से ग़ायब होते नज़र आए।
जैसा कि बयान किया जा सकता है हर जमात में घाग होते हैं। यहाँ तक कि फ़रिश्तों में जब “मुसलसल-व-मुदाम” इबादत होने लगी तो मस्लेहत-ए-इलाही ने आदम को पैदा किया। फ़रिश्तों का ये कहना कि ये सफ़ा-ए-हस्ती पर फ़साद पर फैलाएंगे घाग की आमद का पेशख़ेमा था। जिस तौर पर कट्टर मुल्हिद और दहरिए कभी कभी कट्टर मुअह्हिद और मुत्तक़ी हो जाते हैं इसी तौर पर फ़रिश्तों के मासूम तबक़े में इबलीस (घाग) पैदा हुआ।गंदुम चशी पर आदम-व-हव्वा से बाज़पुर्स की गई।घागस थे घिघ्घी बंध गई।अपनी ख़ता का इसतरह एतराफ़ किया जैसे उसपर उनको क़ुदरत हासिल थी।घाग से जवाबतलब किया गया तो उसने जवाब दिया।
“मुझे आख़िर किसने गुमराह किया” ये सवाल इर्तिकाब-ए-जुर्म से ज़्यादा संगीन था।घाग और घागस दोनों जिला-वतन किए गए और इस जहान में फेंक दिए गए जहाँ नबर्द आज़माई के हर एक को मसावी मवाक़े मिले जिसकी तरफ़ इक़बाल ने इशारा किया है।
मज़ी अन्दर जहान कौर ज़ौक़े
कि यज़्दान-दारद व शैतान नदारो
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