Monday, 13 February 2017

मेरी रुम-मेट / शफ़ीक़ा फ़रहत

सुना है शब-ए-मेराज को तमाम रात इबादत करने के बाद जो दुआ मांगी जाए वो ज़रूर पूरी होती है।अगर वाक़ई उस रात की दुआ में क़ुबूलियत के ज़रा भी इमकानात हैं तो ऐ ख़ुदाऐ दो जहाँ!ऐ वो जिसने मुझे और मेरी रुम-मेट को पैदा किया और जो हम दोनों को जिलाए जा रहा है।मेरा मतलब है उन्हें जिला रहा है और मुझे मार रहा है।मैं तुझे हाज़िर-व-नाज़िर जान कर वअदा करती हूँ कि अबकी शब-ए-मेराज में दस बारह प्याली चाय पीकर मैं भी जागूंगी और तमाम रात जाग कर कृष्ण चन्द्र के अफ़साने या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़लें पढ़ने या जागने में ख़्वाब देखने के बजाए ख़ुज़ू-व-ख़ुशू से नमाज़ें पढ़ूंगी। सजदे में सर रखकर किसी ताज़ा फ़िल्म की हीरोइन के ब्लाउज़ के नए डिज़ाइन के मुतअल्लिक़ नहीं सोचूँगी और तस्बीह पर हाथ फेरते हुए आइन्दा इतवार को सहेलियों को दी जाने वाली पार्टी का मीनू भी नहीं बनाऊंगी।बल्कि सिदक़ दिल से तेरी इबादत करूंगी और जब किसी धार्मिक फ़िल्म के पवित्र सीन की तरह दरोदीवार से नूर बरसने लगेगा और बगै़र इवनिंग इन पेरिस की शीशी खोले सारा कमरा भीनी-भीनी मदहोश कुन ख़ुशबू से महक उठेगा और सर ख़ुद ब-ख़ुद जज़्बा-ए-बसीरत से सजदे में जापड़े गा।यानी वो घड़ी आ जाएगी जब मेरी एक जुंबिश-ए-लब से दुनिया की हर नेअमत मेरे क़दमों पर आ सकती है तो ऐ ख़ुदा-ए-दो-जहाँ मैं तुझ से सिर्फ़ ये इल्तिजा करूंगी कि मुझे मेरी रुम-मेट से निजात दिला दे!!

मुम्किन है आप ये सोच रहे हों कि मैं और मेरी रुम-मेट एक दूसरे के जानी दुश्मन हैं।हर सुब्ह आँख खोलते ही बल्कि अक्सर आँखें खोले बगै़र लड़ना शुरू कर देते हैं और फिर थोड़े-थोड़े वक़्फ़े के बाद ये लड़ाई दिन भर होती रहती है।हत्ता कि रात को ख़्वाब में भी हम लड़ते रहते हैं।और इस रोज़-रोज़ बल्कि मिनट-मिनट के लड़ाई झगड़े से तंग आ कर मैं ये दुआ माँग रही हूँ।

तो अर्ज़ ये है कि इतनी मेहनत से अख़्ज़ किए हुए आप के ये नताएज क़तई ग़लत हैं। हम दोनों में आज तक कभी लड़ाई नहीं हुई।वो दिन भर मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें करती हैं।दिन में चार छःमर्तबा निहायत उम्दा क़िस्म की चाय बना के पिलाती हैं।अपनी किताबें क़लम पैंसिल हर चीज़ वक़्त-ए-ज़रूरत इस्तेमाल के लिए दे देती हैं। नतीजे के तौर पर मैं अपनी किताबों से ज़्यादा उनकी किताबें,अपने क़लम से ज़्यादा उनका क़लम और अपने कपड़ों से ज़्यादा उनके कपड़े इस्तेमाल करती नज़र आती हूँ।

तब तो आप सोच रहे होंगे कि यक़ीनन मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है इतनी अच्छी-अच्छी इतनी नेक रुम-मेट से बे-ज़ार हूँ।अब तक तो मेरा दिमाग़ ख़राब नहीं हुआ है लेकिन अगर रुम-मेट न बदली गई तो इंशाआल्लाह जल्द ही ख़राब हो जाएगा।!

अगर वो महज़ मेरी रुम-मेट होतीं तो मुझे उनके वजूद पर कोई एतराज़ न होता।मगर अब इस बद-क़िस्मती को क्या कहिए कि रुम-मेट होने के अलावा वो अफ़्साना निगार भी हैं।!उनकी रग-रग में एक अज़ीम आर्टिस्ट की रूह तड़प रही है।उनकी सारी आदतें उठना बैठना,सोना जागना,खाना पीना ग़र्ज़ कि पसंद न पसंद हर चीज़ इंतिहाई आर्टिस्टिक क़िस्म की है।ये और बात है कि उनके दस में से पाँच अफ़साने शुक्रिए के साथ वापस आ जाते हैं।और बाक़ी पाँच वो ख़ुद भेजती ही नहीं।!

उन्हें अपने अफ़सानों के वापस आने का तो इतना रंज नहीं जितना इस बात का है कि लोगों का ख़ुसूसन एडिटरों का मुताला इतना महदूद और फ़रुक़ इतना पस्त है कि वो उनके अफ़सानों को समझ नहीं सकते।जब कोई अफ़साना वापिस आता है तो वो मातमी मजलिस मुनअक़िद करके ज़बान-व-अदब की ज़बूँ हाली पर आठ-आठ आँसू रोती हैं और इशारों और कनायों में अहल-ए-मजलिस को इस बात पर मजबूर करती हैं कि वापस आए हुए अफ़साने की शान में क़सीदे पढ़े जाएँ।

और अब इसे मेरी क़िस्मत की ख़ूबी काहिए कि मुझे इस क़िस्म की हर मजलिस में शिरकत करनी पड़ती है।

मातमी मजलिसें उमूमन कमरे में ही मुनअक़िद होती हैं और वो मुझे ज़रा ख़बर नहीं करतीं ताकि मैं बतौर-ए-एहतियात उस रोज़ कमरे से बाहर हॉस्टल से बाहर बल्कि सिरे से शहर से ही बाहर न चली जाऊं।चुनांचे मैं शाम को डाइनिंग हाल से चाय पीने और गप्पैं हांकने के बाद इस अरूवे से कमरे में आती हूँ कि ज़रा कपड़े बदल कर खेलने जाऊं।दरवाज़ा खोलते ही ठिठक जाती हूँ।कमरे में मेरी रुम-मेट और उनकी सवा दर्जन सहेलियाँ बिराजमान हैं।मुझे देखते ही रुम-मेट साहिबा बाल बिखेरे मातमी चेहरा बनाए मर्सिया पढ़ने के अंदाज़ में फ़रमाती हैं।“आओ-आओ तुम्हारा ही इंतिज़ार कर रहे थे हम लोग।”

मैं फ़ौरन इंतिज़ार की नौइयत को समझ जाती हूँ और ख़ुद को दिल ही दिल में गालियाँ देती हूँ कि अगर ईन्हीं कपड़ों में खेलने चली जाती तो कौन सी क़यामत आ जाती।ज़्यादा से ज़्यादा यही होता ना कि ख़ूबसूरत सी रेशमी साड़ी पाँव में आकर नीचे से बिलकुल फट जाती।मगर अब कपड़े बदलने की हिमाक़त करके तो मैं ने उससे बड़ी आफ़त मोल ले ली है।बहरहाल ये जानते हुए भी कि अब यहाँ से रिहाई मुम्किन नहीं मैं कोशिश ज़रूर करती हूँ।

“अच्छा तो तुम लोग बैठो।मैं अभी बैडमिंटन खेल के आती हूँ।”

“अजी अब बैडमिंटन वैड मिंनटन रहने भी दो ना।यहाँ हमारी जान पर बनी है और आप को खेल की सूझी है।”उधर इरशाद होता है।

अब ज़ाहिर है कि खेल कमबख़्त किसी की जान से बढ़कर तो हो नहीं सकता इसलिए मसीहा बनकर किसी की जान बचाने की ख़ातिर अपनी जान जलाना शुरू कर देती हूँ।

मुझे इस तरह आमादा देख कर उनकी कोई हम्दर्द मतला अर्ज़ करती हैं।“देखो ना मिमला बे-चारी का अफ़साना फिर वापस आ गया।ये कम्बख़्त रिसाले वाले...”और वो ग़ज़ल मुकम्मल करने के फ़राएज़ मुझ पर डाल देती हैं।

“कौन सा अफ़साना।”अधूरे मिस्रे को नज़र अंदाज करके मैं पूछती हूँ।

“वही जो मैं ने तुम्हें उस दिन सुनाया था।”

“भई तुम तो मुझे रोज़ ही दस बारह अफ़साने सुनाती रहती हो।”मैं उनकी बे-चारगी को भूल जाती हूँ क्यूँकि ग्राउंड पर लड़कियाँ ख़ुब शोर मचा रही थीं जिसका मतलब था खेल ज़ोरों पर है।

“अरे वही वाला जो टीले पर बैठकर सुनाया था।”

“ओ भई।इन मुबहम इशारों को कैसे समझूँ अफ़साने तो तुमने मुझे कमरे में,बाग़ में टीले पर ग़र्ज़ ये कि हर जगह बैठकर खड़े होकर बल्कि चलते फिरते सुनाए हैं।मैं उन सबको कैसे याद रखूँ?”

“तुम अफ़साना ही जो देख लो।”वो काग़ज़ का पुलिन्दा मेरी तरफ़ बढ़ाती हैं।मैं उसे उलट-पलट कर देखती हूँ।वो चंद सेकण्ड न जाने किस मुश्किल से इंतिज़ार करती हैं कि मैं अफ़साने की तारीफ़ में ज़मीन आसमान के कुलाबे मिलादूँ शुरू-शुरू में ज़रा सच्चाई के मूड मै ज़्यादा रहा करती थी।इसलिए ऐसे अलफ़ाज़ नहीं मिलते थे जिस से कि बात हक़ीक़त से ज़्यादा परे भी न हो और उनकी दिल शिकनी भी न हो।लेकिन चूँकि बहुत जोड़ तोड़ के बाद भी ये मुम्किन न था इसलिए मैं सोचती ही रह जाती और वो ख़ुद ही कहतीं।

“अब ऐसा बुरा भी तो नहीं है।उनके पर्चे में तो ऐसे-ऐसे अफ़साने आते हैं कि लिखने वाले शाए करने वाले दोनों का मुँह नोच लेने को जी चाहता है।इसका प्लाट तो ख़ासा अच्छा है।!”

मैं निहायत सआदत मंदी से सर हिला कर उनके इस प्लाट की दाद देती हूँ जिसका हीरो लखपती करोड़पती का इकलौता बेटा होता है और हीरोइन माली,धोबी, मेहतर,चमार या ऐसे ही किसी आदमी की चंद-ए-आफ़्ताब चंद-ए-महताब बेटी।हीरो हीरोइन को बर्तन मांझते,झाड़ू देते या सड़क कूटते देख लेता है और देखते ही अपनी इकलौती जान से आशिक़ हो जाता है।और रसीद के तौर पर हीरोइन ग़श खाकर गिर पड़ती है।फिर मज़ीद नालाएक़ी का सबूत देते हुए दोनों छुप-छुप कर मिलते हैं हस्ब-ए-रिवायत पकड़े जाते हैं।हीरोइन को हीरो का बाप या उसकी माँ या उसकी दादी चुटिया पकड़कर घर से निकाल देते हैं।और हीरो किसी करोड़पती की लड़की से जो हमेशा बदसूरत जाहिल,फूहड़ और लड़ाका होती है शादी करदी जाती है।इश्क़ के बाद दिक़ के दर्जे शुरू होते हैं यानी शादी के फ़ौरन बाद हीरो हीरोइन को दिक़ हो जाता है।अगर दिक़ न होता तो वो ज़हर खा लेते हैं।ज़हर न मिले तो कपड़ों पर तेल छिड़क के हंसी ख़ुशी ख़ुद को शोला-ए-ज़ार बना लेते हैं।और जो ये भी न हो तो नदी में डूब के ठंडे-ठंडे जन्नत को सुधारते हैं।तरीक़ा चाहे कुछ हो सिर्फ़ दोनों हमेशा साथ हैं।!

कभी हीरो ग़रीब होता है और हीरोइन अमीर मगर अंजाम फिर भी वही होता है जो कि बक़ौल उनके हर अफ़साने का अंजाम होना चाहिए-----!

कभी मज़ीद बदलने की ख़ातिर वो हीरो हीरोइन को एक ही क्लास का बनादेती हैं।मोहब्बत भी लाज़िमी तौर पर उन्हें एक दूसरे से होती है।तमाम मंज़िलें निहायत आसानी से तय हो जाती हैं।सिर्फ़ आँखों की सूइयाँ रह जाती हैं तब हीरोइन को साँप काट लेता है या वो मारे ख़ुशी के नाचते-नाचते कोठे से गिरकर मर जाती है।या ऐसा ही कोई और हादसा होता है और हीरो साहब टापते रह जाते हैं और चिता के शोलों के साथ“ओ दूर के मुसाफ़िर हमको भी साथ ले ले।हम रह गए अकेले।”गाते हैं।

प्लाट हमेशा कुछ इसी क़िस्म का होता है और जब प्लाट की तारीफ़ का मरहला ब-हज़ार दिक़्क़त तय हो जाता है तो हाज़िरीन में से कोई मुझ से जाने किस जन्म की दुश्मनी निकालते हुए कहती हैं।“भई ज़बान कितनी अच्छी और अंदाज़ कितना प्यारा है।!”

लीजिए साहब अब ज़बान की तारीफ़ कीजिए और इसके बाद दुनिया भर के रिसालों और उनके नालायक़,बेवक़ूफ़,जाहिल एडिटरों को बे-भाव की सुनाइए।जो बक़ौल उनके सिर्फ़ क़िस्मत या पैसे या बाप दादा के असर-व-रसूख़ से एडिटर बन बैठे हैं और जो हमेशा अपने दोस्तों की चीज़ें छापते हैं या फिर उन लड़कियों की जो हर अफ़साने के साथ एक अदद रंगीन ख़त लिखकर उन्हें भी अफ़साने का हीरो बना देती हैं।!

शुरू-शुरू में दो तीन मरतबा मैं इस तरह बे-ख़ता बे-क़ुसूर पकड़ी गई तो मेरे भी पर पुर्जे़ निकल आए जब इस क़िस्म की महफ़िल जमती नज़र आती मैं फ़ौरन कमरे से ये कहती हुई निकल जाती।“ज़रा एक मिनट ठहरिए।वो नीचे बीना मेरा इंतिज़ार कर रही है उसे रुख़स्त करके आती हूँ।”और उस एक मिनट के वअदे पर वहाँ से कई-कई घंटों के लिए ग़ायब हो जाती।!

लेकिन मेरा ये बहाना ज़्यादा दिन न चल सका उधर मैं ने किसी बीना, मीना,नजमा,सलमा को टालने का नाम लिया इधर उनकी कोई आशिक़ सादिक़ क़िस्म की सहेली ये ख़िदमत अंजाम देने के लिए हज़ार जान से आमादा हो गईं।

बात अगर सिर्फ़ वापस आए हुए अफ़सानों के तअज़ियती जलसों तक ही महदूद होती तब भी ख़ैर उन्हें इक्नॉमिक्स के लैक्चर समझकर गवारा कर लिया जाता जिनमें हर आन भटकते हुए ख़यालात को किसी न किसी तरह क़ाबू में करके प्रोफ़ेसर के ऊटपटाँग सवालों के जवाब देने की नाकाम कोशिश करके अपनी बे-पनाह दिलचस्पी का इज़हार किया जाता है।मगर नहीं साहब वो तो मालूम होता है अगले पिछले किसी जन्म में किसी लाऊडीस्पीकर की दुकान की मालिक या अख़बार के शोबा-ए-इश्तिहारात की इंचार्ज रह चुकी हैं उन्हें तो अपनी ला-सानी क़ुव्वत-ए-तख़लीक़ के मुज़ाहिरे का जुनून है।लिहाज़ा वो तमाम अफ़सानों पर खुले इजलास में बहस करती हैं(जो बहस कम और तारीफ़ ज़्यादा होती है!)जो वापस आ चुके हैं।जो उन्होंने लिखे हैं।मगर कहीं भेजे नहीं।जो अभी तक साफ़ नहीं किए गए।वो अफ़साने जो उन्होंने सोचे हैं लेकिन लिखे नहीं।वो ख़ाके जिनके अफ़साने बनाने का इरादा वो कर रही हैं।और उन मतबूआ।ग़ैर मतबूआ।हक़ीक़ी और तख़य्युली अफ़सानों की तादाद किसी भी तरह आसमान के तारों से कम नहीं।!तारों की तादाद में तो फिर भी मज़ीद इज़ाफ़ा के कोई इमकानात नहीं मगर उनके तख़य्युल में तो हर लम्हे फटाफट कहानियाँ ढलती रहती हैं।!अभी सुब्ह के सिर्फ़ आठ बजे हैं। मैं बिस्तर में दुबकी अपने अधूरे ख़्वाब पूरे करने की आस में आँखें बंद किए सोने की कोशिश कर रही हूँ कि आवाज़ आती है।

“अरे भई सुनना ज़रा.....वो ग़ज़ब का प्लाट सूझा है।” फिर वो अपना बे-चारा ख़्वाब तो गया जहन्नुम में उनका ग़ज़ब का प्लाट ग़ज़ब ढाने लगता है।!

रात के दस बजे हमने बड़ी कोशिशों से अपने दिल-व-दिमाग़ को पॉलिटिक्स पढ़ने पर मजबूर किया। अभी एक ही पैराग्राफ़ पढ़ा था कि आप के दिमाग़ में फिर प्लाट की वही नाज़िल होने लगती है फिर कहाँ की पॉलिटिक्स और कहाँ की इक्नॉमिक्स!!

बारहा ऐसा हुआ कि खेल के मैदान में आप को प्लाट सूझा और आप ने खेल ख़ुद भी अधूरा छोड़ा और मुझे भी घसीट घसाट के ग्राउंड से ले गईं।इसलिए अब मैं कितनी ही ख़ुशामद करती हूँ मुझे अपना पार्टनर भी नहीं बनाता!

हद ये कि आप क्लास में लैक्चर के दौरान भी प्लाट का ज़िक्र करने से नहीं चूकतीं।उनकी शायराना और अदीबाना हरकत की वजह से मैं कई मरतबा डांट खा चुकी हूँ और आज तो क्लास आउट की सआदत भी नसीब होगई थी वो तो ख़ैर हुई घंटा बज गया और हमसे पहले प्रोफ़ैसर साहब ख़ुद ही आउट हो गईं।और मुझे तो यक़ीन है कि अगर रात को दो बजे भी उनके दिमाग़ में कोई प्लाट आ जाए तो वो“आदमी बुलबुला है पानी का------क्या भरोसा है ज़िंदगानी का।”वाली बात पर यक़ीन रखे हुए सुब्ह तक इंतिज़ार नहीं करेंगी बल्कि उसी वक़्त मुझे सोते-सोते उठाकर वो बेश-बहा प्लाट सुनाएंगी और मेरा सुकून ग़ारत करके ख़ुद सुकून हासिल करेंगी।!

अफ़साने लिखने का उन्हें ऐसा अरमान है कि वो हर मामूली वाक़िया या अख़बारी ख़बर से अफ़साना लिखने की हद तक मुतअस्सिर हो जाती है।चुनांचे जब उन्होंने पढ़ा कि“रात फ़लाँ-फ़लाँ जगह चोर आए और तक़रीबन दो सौ रुपये ले गए तो फ़ौरन कुछ इस क़िस्म का प्लाट सोच लिया।मुतवस्सित तबक़े का एक घराना।पहली तारीख़ को शौहर बहुत रात गए तनख़्वाह लेकर आता है और पैसे मेज़ की दराज़ में रखकर सो जाता है सुब्ह वहाँ रुपये नहीं मिलते बीवी समझती है मियाँ ने रुपये ख़ुद रख कर चोरी का बहाना कर दिया इधर शौहर को बीवी पर शक है।दोनों में वो लड़ाई होती है कि मियाँ के दोस्त और बीवी के मैके वाले सब बिला टिकट तमाशा देखने पहुँच जाते हैं।तब किसी की नज़र सहन की दीवार के पास पड़े हुए फटे मफ़लर पर पड़ती है जिस से साबित होता है कि घर में चोर आया था।”

दूसरे तीसरे दिन वो मुझे इस प्लाट का अफ़साना बनाकर दिखाती हैं मैं आँखें मल-मल कर देखती हूँ लेकिन मुझे इस सिरे से उस सिरे तक न कहीं वो लड़ाका मियाँ बीवी नज़र आते हैं। और न चोर मैं घबरा कर पूछती हूँ “भई वो लड़ाका मियाँ बीवी और चोर क्या हुए?”

“कुछ नहीं भई बात ये है कि मैं ने ज़रा प्लाट बदल दिया है अपने पहले ड्राफ़्ट मैं ने वही प्लाट रक्खा था। तुम चाहो तो वो भी पढ़ लेना।”

दो एक मरतबा मैं उनके पहले ड्राफ़्ट को मामूली चीज़ समझ कर पढ़ने की ज़िम्मेदारी ले चुकी हूँ लेकिन उसके दीदार हुए तो पता चला कि उसे पढ़ने वाला अभी इस दुनिया में पैदा ही नहीं हुआ वो ख़ुद समझ लेती हूँ तो और बात है वर्ना मुझे तो यक़ीन है कि उसे ख़ुद ख़ुदा भी नहीं समझ सकता।!लिहाज़ा मैं उनकी इस पेशकश को ब-कमाल-ए-सफ़ाई टाल जाती हूँ।और उनकी तख़लीक़ी क़ुव्वत पर दिल ही दिल में वज्द करती हूँ कि जिस दुनिया को बनाने बिगाड़ने में ख़ुदा को बरसों लगते हैं। उसे वो पल भर में मलियामेट करके रख देती हैं-----!

दर-अस्ल वाक़िया ये होता है कि दूसरी मरतबा लिखते वक़्त लड़ाका मियाँ बीवी आशिक़ माशूक़ बन जाते हैं और चोर रक़ीब-ए-रू सियाह।तीसरी मरतबा जब वो क़लम उठाती हैं तो उन्हें शहर की फ़िज़ा इश्क़-व-आशिक़ी के लिए कुछ साज़गार नज़र नहीं आती।वो एक जुंबिश-ए-क़लम से शहर को देहात में बदल देती हैं।दो-चार पनघट के रोमान।रक़ीब की लगाई-बुझाई और हीरोइन की आहों और आँसुओं के बाद हीरो हीरोइन मिल जाते हैं यही हश्र उनके हर अफ़साने का होता है देखती कुछ हैं।सोचती कुछ हैं और लिखती कुछ और हैं----!

उनके अफ़सानों से तो फिर भी निबाह किया जा सकता है लेकिन उनकी शायराना रूह।शायराना जज़्बात और शायराना अदाओं को क्या करूँ जिन्होंने न सिर्फ़ मेरे दिल-व-जिगर बल्कि दिमाग़ को भी छलनी कर दिया है और बिल्कुल एक शायराना महबूब की तरह मेरे होश-व-हवास,मेरा सब्र-व-सुकून सब कुछ मुझ से छीन लिया है और शायद वो दिन भी दूर नहीं जब मेरे दामन के चाक और गरेबां के चाक का फ़ासिला ख़त्म हो जाए!

एक लंबी सी कुछ गर्म कुछ ठंडी सांस और हाय कितना प्यारा है,उनका तकिया कलाम है दिन भर वो हर ख़ूबसूरत और बदसूरत चीज़ को देखकर अजीब-व-ग़रीब क़िस्म की आहें भर कर“हाय कितना प्यारा है”का विर्द करती रहती हैं।अब तो उन्हें ऐसी आदत पड़ गई है कि वो किसी चीज़ को देखने की भी ज़रूरत महसूस नहीं करतीं और हर पाँच मिनट बाद टेप का बंद धरा देती हैं और यहाँ मुझे उनके हर“प्यारे”से लिल्लाही बुग़ज़ हो गया है।हालाँकि पहले यही चीज़ें मुझे भी अच्छी लगती थीं मगर अब तो उन्हें जिस पर प्यार आया मुझे झट उस से नफ़रत हो गई---!”

और भी कई तरीक़ों से वो मुझे सताया जाया करती थी।सर्दी इस ग़ज़ब की है कि मैं लिहाफ़ के अंदर भी काँप रही हूँ और आप हैं कि पूरी खिड़की खोले ख़्वाह मख़्वाह चाँद तारों को घूरने की कोशिश कर रही हैं उनसे खिड़की बंद करने के लिए कहती हूँ तो वो पलट कर इस हैरत से मुझे देखती हैं गोया मैं ने कोई ऐसी बात कह दी हो जिसकी उन्हें किसी जाहिल झट से भी तवक़्क़ो न थी!कुछ मेरी बदज़ौक़ी पर ऐसा पुर-दर्द और तवील मर्सिया शुरू करदेंगी कि मुझे फ़ौरन तहय्या कर लेना पड़ता है कि आइंदा चाहे मैं सर्दी में ठिठुर जाऊं।मुझे नज़ला ज़ुकाम, निमोनिया हो जाए मगर मैं कभी खिड़की बंद करने के लिए नहीं कहूँगी।बल्कि अगर कभी भूले से वो ख़ुद खिड़की बंद करदें तो मैं खोल दूंगी----!

आप ख़ैर से ख़ुद को हमेशा किसी न किसी इंतिहाई ख़तरनाक मर्ज़ में मुबतिला महसूस करती हैं दिन भर में दस बारह क़िस्म की दवाएं पिया करती हैं।और जब इस से भी तस्कीन नहीं होती तो डॉक्टर के पास इंजैक्शन लगवाने पहुंच जाएँ और मैं चाहूँ या ना चाहूँ साथ हमेशा मुझे ही ले जाती हैं डॉक्टर के यहाँ जाने से तो मुझे कोई इनकार नहीं लेकिन वहाँ पहुंच कर जो ड्रामा वो स्टेज करती हैं उसकी साइड हीरोइन का रोल अदा करना मेरे बस का रोग नहीं!

तशरीफ़ आप ले जाती हैं इंजैक्शन लगवाने लेकिन डिसपेंसरी पहुंचते ही ठिंकना शुरू कर देती हैं हाय अल्लाह डॉक्टर साहब।इंजैक्शन मत लगाइए....आँ.... मैं नहीं लगवाऊँ गी....बड़ा दर्द होता है डॉक्टर साहिब....

सुई देखते ही उनके हाथ पैर ठंडे होने लगते हैं इख़तिलाज तो ख़ैर बहुत पहले ही शुरू हो चुका होता है और बहुत बाद तक रहता है जैसे ही डाक्टर हाथ पकड़ता है वो चीख़ मार के उछल पड़ती हैं। और गो सुई अभी कई फ़ुट दूर होती है आप दर्द से कराहने लगती हैं और सुई बाज़ू में दाख़िल होने और निकलने का वक़फ़ा तो क़यामत का होता है।जब ये क़यामत गुज़र जाती है तो आप निढाल होकर कुर्सी पर गिर पड़ती हैं वो तो डाक्टर साठ साल का बुढ्ढा खूसट है वर्ना इस क़यामत के हम-रिकाब कोई और क़यामत भी होती---!

मगर क़यामत से तो हर-वक़्त मुझे भुगतना पड़ता है।बार-हा सोचती हूँ उनसे लड़ाई करलूँ मगर जब भी लड़ाई की निय्यत बांधती हूँ मुझे कपड़ों की ज़रूरत पड़जाती है पैसे ख़त्म हो जाते हैं। क़लम की निब टूट जाती है और इसके साथ ही मेरी ये निय्यत भी टूट जाती है----!!

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