Monday, 13 February 2017

मरहूम की याद में / पतरस बुख़ारी

 एक दिन मिर्ज़ा साहब और मैं बरामदे में साथ साथ कुर्सियाँ डाले चुप-चाप बैठे थे । जब दोस्ती बहुत पुरानी हो जाए तो गुफ़्तुगू की चंदाँ ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती और दोस्त एक दूसरे की ख़ामोशी से लुत्फ़-अंदोज़ हो सकते हैं । यही हालत हमारी थी । हम दोनों अपने-अपने ख़्यालात में ग़र्क़ थे । मिर्ज़ा साहब तो ख़ुदा जाने क्या सोच रहे थे । लेकिन मैं ज़माने की ना-साज़गारी पर ग़ौर कर रहा था । दूर सड़क पर थोड़े-थोड़े वक़्फ़े के बाद एक मोट कार गुज़र जाती थी । मेरी तबीयत कुछ ऐसी वाक़े हुई है कि मैं जब कभी किसी मोटर कार को देखूं मुझे ज़माने की ना-साज़गारी का ख़्याल ज़रूर सताने लगता है और मैं कोई ऐसी तर्कीब सोचने लगता हूँ जिस से दुनिया की तमाम दौलत सब इंसानों में बराबर-बराबर तक़्सीम की जा सके । अगर मैं सड़क पर पैदल जा रहा हूँ और कोई मोटर इस अदा से से गुज़र जाए कि गर्द-व-ग़ुबार मेरे फेफड़ों, मेरे दिमाग़, मेरे मेदे और मेरी तल्ली तक पहुंच जाए तो उस दिन मैं घर आकर इल्म-ए-कीमिया की वो किताब निकाल लेता हूँ जो मैं ने एफ़.ए में पढ़ी थी और इस ग़र्ज़ से इस का मुताला करने लगता हूँ कि शायद बम बनाने का कोई नुस्ख़ा हाथ आ जाए ।

मैं कुछ देर तक आहें भरता रहा । मिर्ज़ा साहब ने कुछ तवज्जो न की । आख़िर मैं ने ख़ामोशी को तोड़ा और मिर्ज़ा साहब से मुख़ातब हो कर बोला ।

" मिर्ज़ा साहब ! हम में और हैवानों में क्या फ़र्क़ है ? "

मिर्ज़ा साहब बोले : " भई कुछ होगा ही न आख़िर । "

मैं ने कहा, " मैं बताऊं तुम्हें ? "

कहने लगे, " बोलो " ।

मैं ने कहा, " कोई फ़र्क़ नहीं । सुनते हो मिर्ज़ा । कोई फ़र्क़ नहीं । हम में और हैवानों में....कम-अज़-कम मुझ में और हैवानों में कोई फ़र्क़ नहीं । हाँ हाँ मैं जानता हूँ तुम मीन-मीख़ निकालने में बड़े ताक़ हो । कह दोगे हैवान जुगाली करते हैं, तुम जुगाली नहीं करते । उन की दुम होती है, तुम्हारी दुम नहीं, लेकिन इन बातों से क्या होता है ? इन से तो सिर्फ़ यही साबित होता है । वो मुझ से अफ़जल हैं लेकिन एक बात में, मैं और वो बिलकुल बराबर हैं । वह भी पैदल चलते हैं और मैं भी पैदल चलता हूँ । इस का तुम्हारे पास क्या जवाब है ? जवाब नहीं । कुछ है तो कहो । बस चुप हो जाओ । तुम कुछ नहीं कह सकते । जब से मैं पैदा हुआ हूँ उस दिन से पैदल चल रहा हूँ ।

पैदल ! तुम पैदल के मानी नहीं जानते । पैदल के मानी हैं सीना-ए-ज़मीन पर इस तरह से हर्कत करना कि दोनों पाँव में एक ज़रूर ज़मीन पर रहे यानी तमाम उम्र मेरे हर्कत करने का तरीक़ा यही रहा है कि एक पाँव ज़मीन पर रखता हूँ और दूसरा उठाता हूँ । दूसरा रखता हूँ पहला उठाता हूँ । एक आगे एक पीछे, एक पीछे एक आगे । ख़ुदा की क़सम इस तरह की ज़िंदगी से दिमाग़ सोचने के क़ाबिल नहीं रहता । हवास बेकार हो जाते हैं । तख़य्युल मर जाता है । आदमी गधे से बद्तर हो जाता है । "

मिर्ज़ा साहब मेरी इस तक़रीर के दौरान कुछ इस बे-परवाई से सिगरेट पीते रहे कि दोस्तों की बे-वफाई पर रोने को दिल चाहता था । मैं ने अज़-हद हिक़ारत और नफ़रत के साथ मुँह उन की तरफ़ से फेर लिया । ऐसा मालूम होता था कि मिर्ज़ा को मेरी बातों पर यक़ीन ही नहीं आता । गोया मैं अपनी जो तकालीफ़ बयान कर रहा हूँ वो महज़ ख़्याली हैं यानी मेरा पैदल चलने के ख़िलाफ़ शिकायत करना क़ाबिल-ए-तवज्जो ही नहीं, यानी मैं किसी सवारी का मुस्तहिक़ ही नहीं । मैं ने दिल में कहा । " अच्छा मिर्ज़ा यूँ ही सही । देखो तो मैं क्या करता हूँ । "

मैं ने अपने दाँत पच्ची कर लिए और कुर्सी के बाज़ू पर से झुक कर मिर्ज़ा के क़रीब पहुंच गया । मिर्ज़ा ने भी सर मेरी तरफ़ मोड़ा । मैं मुस्कुरा दिया लेकिन मेरे तबस्सुम में ज़हर मिला हुआ था । जब मिर्ज़ा सुनने के लिए बिलकुल तैयार हो गया तो मैं ने चबा-चबा कर कहा :

" मिर्ज़ा ! मैं एक मोटर कार ख़रीदने लगा हूँ । "

ये कह कर मैं बड़े इस्तिग़ना के साथ दूसरी तरफ़ देखने लगा ।

मिर्ज़ा बोले " क्या कहा तुम ने ? क्या ख़रीदने लगे हो ? "

मैं ने कहा " सुना नहीं तुम ने ? एक मोटरकार ख़रीदने लगा हूँ । मोटरकार एक ऐसी गाड़ी है जिस को बाज़ लोग मोटर कहते हैं, बाज़ लोग कार कहते हैं । लेकिन चूँकि तुम ज़रा कुंद-ज़हन हो, इस लिए मैंने दोनों लफ़्ज़ इस्तेमाल कर दिए ताकि तुम्हें समझने में कोई दिक़्क़त पेश न आए " ।

मिर्ज़ा बोले " हूँ " ।

अब के मिर्ज़ा नहीं मैं बे-परवाई से सिगरेट पीने लगा । भवें मैं ने ऊपर को चढ़ा लीं । सिगरेट वाला हाथ मुँह तक इस अंदाज़ से लाता और ले जाता था कि बड़े बड़े ऐक्टर इस पर रश्क करें ।

थोड़ी देर के बाद मिर्ज़ा बोले । " हूँ " ।

मैंने सोचा असर हो रहा है । मिर्ज़ा साहब पर रोब पड़ रहा है । मैं चाहता था, मिर्ज़ा कुछ बोले, ताकि मुझे मालूम हो, कहाँ तक मर्ऊब हुआ है लेकिन मिर्ज़ा ने फिर कहा " हूँ " ।

मैं ने कहा " मिर्ज़ा जहाँ तक मुझे मालूम है तुम ने स्कूल और कॉलेज और घर पर दो तीन ज़बानें सीखी हैं और इस के अलावा तुम्हें कई ऐसे अल्फ़ाज़ भी आते हैं जो किसी स्कूल या कॉलेज या शरीफ़ घराने में नहीं बोले जाते । फिर भी इस वक़्त तुम्हारा कलाम " हूँ " से आगे नहीं बढ़ता । तुम जलते हो । मिर्ज़ा इस वक़्त तुम्हारी जो ज़हनी कैफ़ीयत है, इस को अरबी ज़बान में हसद कहते हैं । "

मिर्ज़ा साहब कहने लगे । " नहीं ये बात तो नहीं, मैं तो सिर्फ़ ख़रीदने के लफ़्ज़ पर ग़ौर कर रहा था । तुम ने कहा मैं एक मोटर-कार ख़रीदने लगा हूँ, तो मियां साहबज़ादे ! ख़रीदना तो एक ऐसा फ़ेल है कि इस के लिए रुपये वग़ैरा की ज़रूरत होती है । वग़ैरा का बंद-व-बस्त तो बख़ूबी हो जाएगा । लेकिन रुपये का बंद-व-बस्त कैसे करोगे ?"

ये नुक्ता मुझे भी न सूझा था लेकिन मैं ने हिम्मत न हारी । मैं ने कहा " मैं अपनी कई क़ीमती अशिया बेच सकता हूँ ।"

मिर्ज़ा बोले । " कौन कौन सी मसलन ? "

मैं ने कहा । " एक तो मैं सिगरेट केस बेच डालूँगा । "

मिर्ज़ा कहने लगे । " चलो दस आने तो ये हो गए । बाक़ी ढाई तीन हज़ार का इंतजाम भी इसी तरह हो जाए तो सब काम ठीक हो जाएगा । "

इस के बाद ज़रूरी यही मालूम हुआ कि गुफ़्तुगू का सिलसिला कुछ देर के लिए रोक दिया जाये चुनांचे मैं मिर्ज़ा से बेज़ार हो कर ख़ामोश हो रहा । ये बात समझ में न आई कि लोग रुपये कहाँ से लाते हैं । बहुत सोचा । आख़िर इस नतीजे पर पहुंचा कि लोग चोरी करते हैं । इस से एक-गोना इतमिनान हुआ ।

मिर्ज़ा बोले " में तुम्हें एक तरकीब बताऊं एक बाइस्किल ले लो । "

मैं ने कहा “ वह रुपये का मसला तो फिर भी जूँ का तूँ रहा । "

कहने लगे " मुफ़्त " ।

मैं ने हैरान हो कर पूछा " मुफ़्त वो कैसे ? "

कहने लगे " मुफ़्त ही समझो । आख़िर दोस्त से क़ीमत लेना भी कहाँ की शराफ़त है । अलबत्ता तुम ही एहसान क़ुबूल करना गवारा न करो तो और बात है । "

ऐसे मौक़े पर जो हंसी मैं हँसता हूँ इस में मासूम बच्चे की मसर्रत, जवानी की ख़ुश-दिली, उबलते हुए फव्वारों की मौसीक़ी और बुलबुलों का नग़मा सब एक दूसरे के साथ मिले होते हैं । चुनांचे मैं ये हंसी हंसा और इस तरह हंसा कि खिली हुई बाछें फिर घंटो तक अपनी अस्ली जग्ह पर वापस न आएं । जब मुझे यक़ीन हो गया कि यक-लख़्त कोई ख़ुशख़बरी सुनने से दिल की हर्कत बंद हो जाने का जो ख़तरा होता है इस से महफ़ूज़ हूँ तो मैं ने पूछा । " है किस की ? "

मिर्ज़ा बोले " मेरे पास एक बाइस्किल पड़ी है तुम ले लो । "

मैं ने कहा " फिर कहना फिर कहना !"

कहने लगे भई ! एक बाइस्किल मेरे पास है । जब मेरी है तो तुम्हारी है । तुम ले लो । "

यक़ीन मानिए मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया । शर्म के मारे मैं पसीना पसीना हो गया । चौधवीं सदी में ऐसी बे-ग़र्ज़ी और ईसार भला कहाँ देखने में आता है । मैंने कुर्सी सरका कर मिर्ज़ा के पास कर ली । समझ में ना आया कि अपनी निदामत और मम्नूनियत का इज़हार किन अल्फ़ाज़ में करूं ।

मैं ने कहा । " मिर्ज़ा सब से पहले तो मैं इस गुस्ताख़ी और दुरुश्ती और बे-अदबी के लिए माफ़ी मांगता हूँ जो अभी मैं ने तुम्हारे साथ गुफ़्तुगू में रवा रखी । दूसरे मैं आज तुम्हारे सामने एक एतराफ़ करना चाहता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि तुम मेरी साफ गोई की दाद दोगे और मुझे अपनी रहम-दिली के सदक़े माफ़ कर दोगे । मैं हमेशा तुम को अज़-हद कमीना, मुम्सिक, ख़ुदग़र्ज़ और अय्यार इंसान समझता रहा हूँ । देखो नाराज़ मत हो । इंसान से ग़ल्ती हो ही जाती है । लेकिन आज तुम ने अपनी शराफ़त और दोस्त परवरी का सबूत दिया है और मुझ पर साबित कर दिया है कि मैं कितना क़ाबिल-ए-नफ़रत, तंग ख़्याल और हक़ीर शख़्स हूँ । मुझे माफ़ कर दो । "

मेरी आँखों में आँसू भर आए । क़रीब था कि मैं मिर्ज़ा के हाथ को बोसा देता और अपने आँसुओं को छुपाने के लिए उस की गोद में सर रख देता । मिर्ज़ा साहब कहने लगे ।

" वाह इस में मेरी फ़य्याज़ी क्या हुई , मेरे पास एक बाइस्किल है, जैसे मैं सवार हुआ वैसे तुम सवार हुए । "

मैं ने कहा, " मिर्ज़ा मुफ़्त में न लूँगा । ये हर्गिज़ नहीं हो सकता । "

मिर्ज़ा कहने लगे । " बस मैं इसी बात से डरता था । तुम हस्सास इतने हो कि किसी का एहसान लेना गवारा नहीं करते । हालाँ कि ख़ुदा गवाह है, एहसान इस में कोई नहीं ।"

मैं ने कहा, " ख़ैर कुछ भी सही, तुम सचमुच मुझे इसकी क़ीमत बता दो । "

मिर्ज़ा बोले, " क़ीमत का ज़िक्र कर के तुम गोया मुझे कांटों में घसीटते हो और जिस क़ीमत पर मैं ने ख़रीदी थी वह तो बहुत ज़्यादा थी और अब तो वह इतने की रही भी नहीं । "

मैं ने पूछा, " तुम ने कितने की ख़रीदी थी ? "

कहने लगे, " मैं ने पौने दो सौ रुपये में ली थी लेकिन उस ज़माने में बाइस्किलों का रिवाज ज़रा कम था, इसलिए क़ीमतें ज़रा ज़्यादा थीं । "

मैं ने कहा । " क्या बहुत पुरानी है ? "

बोले, " नहीं ऐसी पुरानी भी क्या होती । मेरा लड़का उस पर कॉलेज आया जाया करता था और उसे कॉलेज छोड़े अभी दो साल भी नहीं हुए । लेकिन इतना ज़रूर है कि आज कल की बाइस्किलों से ज़रा मुख़्तलिफ़ है । आज कल तो बाइस्किलें टीन की बनती है । जिन्हें कॉलेज के सरफिरे लौंडे सस्ती समझ कर ख़रीद लेते हैं । पुरानी बइस्किलों के ढाँचे मज़बूत हुआ करते थे । "

" मगर मिर्ज़ा पौने दो सौ रुपय तो मैं हर्गिज़ नहीं दे सकता । इतने रुपये मेरे पास कहाँ से आए ? मैं तो इस से आधी क़ीमत भी नहीं दे सकता । "

मिर्ज़ा कहने लगे । " तो मैं तुम से पूरी क़ीमत थोड़ी मांगता हूँ अव्वल तो क़ीमत लेना नहीं चाहता लेकिन..........."

मैं ने कहा, " न मिर्ज़ा ! क़ीमत तो तुम्हें लेनी पड़ेगी । अच्छा तुम यूँ करो मैं तुम्हारी जेब में कुछ रुपये डाल देता हूँ । तुम घर जाके गिन लेना । अगर तुम्हें मंज़ूर हुए तो कल बाइस्किल भेज देना वर्ना रुपये वापस कर देना, अब यहाँ बैठ कर मैं तुम से सौदा चुकाऊँ, ये तो कुछ दुकानदारों की सी बात मालूम होती है । "

मिर्ज़ा बोले " भई जैसे तुम्हारी मर्ज़ी । मैं तो अब भी यही कहता हूँ कि क़ीमत-वीमत जाने दो । लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम न मानोगे । "

मैं उठ कर अंदर कमरे में आया । मैं ने सोचा इस्तेमाल शुदा चीज़ की लोग आम तौर पर आधी क़ीमत देते हैं लेकिन जब मैंने मिर्ज़ा से कहा था कि मिर्ज़ा मैं तो आधी क़ीमत भी नहीं दे सकता तो मिर्ज़ा इस पर मोतरिज़ न हुआ था । वो बे-चारा तो बल्कि यही कहता था कि तुम मुफ़्त ही ले लो, लेकिन मुफ़्त मैं कैसे ले लूं ? आख़िर बाइस्किल है, एक सवारी है । फिट्नों और घोड़ों मोटरों और तांगों के ज़ुमरे में शुमार होती है । बक्स खोला तो मालूम हुआ कि हस्त-व-बूद कुल छियालीस रुपये हैं । छियालीस रुपये तो कुछ ठीक रक़्म नहीं । पैंतालीस या पच्चास होँ जब भी बात है । पच्चास तो हो नहीं सकते और अगर पैंतीलीस ही देने हैं तो चालीस क्यूँ न दिए जाएँ । जिन रक़मों के आख़िर में सिफ़र आता है वो रक़में कुछ ज़्यादा माक़ूल मालूम होती हैं । बस ठीक है चालीस रुपये दे दूंगा । ख़ुदा करे मिर्ज़ा क़ुबूल कर ले ।

बाहर आया चालीस रुपये मुट्ठी में बंद कर के मैं ने मिर्ज़ा की जेब में डाल दिए और कहा " मिर्ज़ा इस को क़ीमत न समझना । लेकिन अगर एक मुफ़लिस दोस्त की हक़ीर सी रक़म मंज़ूर करना तुम्हें अपनी तौहीन मालूम न हो तो कल बाइस्किल भेजवा देना " ।

मिर्ज़ा चलने लगे तो मैं ने फिर कहा कि मिर्ज़ा कल ज़रूर सुबह ही सुबह भेजवा देना रुख़्सत होने से पहले मैं ने फिर एक दफ़ा कहा " कल सुबह आठ नौ बजे तक पहुंच जाये । देर न कर देना..... ख़ुदा-हाफ़िज़.... और देखो मिर्ज़ा मेरे थोड़े से रूपों को भी ज़्यादा समझना..... ख़ुदा-हाफ़िज़...... और तुम्हारा बहुत बहुत शुक्रिया । मैं तुम्हारा बहुत ममनून ममनून हूँ और मेरी गुस्ताख़ी को माफ़ कर देना । देखो न कभी-कभी यूँ ही बे-तकल्लुफ़ी में..... कल सुबह आठ नौ बजे तक.... ज़रूर..... ख़ुदा-हाफ़िज़...."

मिर्ज़ा कहने लगे "ज़रा उस को झाड़-पोंछ लेना और तेल वग़ैरा डलवा लेना । मेरे नौकर को फ़ुर्सत हुई तो ख़ुद ही डलवा दूंगा, वर्ना तुम ख़ुद ही डलवा लेना " ।

मैं ने कहा " हाँ हाँ । वो सब कुछ हो जाएगा । तुम कल भेज ज़रूर देना और देखना आठ बजे तक या साढे़ सात बजे तक पहुंच जाए । " अच्छा......ख़ुदा-हाफ़िज़ !"

रात को बिस्तर पर लेटा तो बाइस्किल पर सैर करने के मुख़्तलिफ़ प्रोग्राम तजवीज़ करता रहा । ये इरादा तो पुख़्ता कर लिया कि दो तीन दिन के अंदर अंदर इर्द-गिर्द की तमाम मशहूर तारीख़ी इमारात और खंडरों को नए सिरे से देख डालूँगा । इस के बाद अगले गर्मी के मौसम में हो सका तो बाइस्किल पर कश्मीर वग़ैरा की सैर करूँगा । सुबह सुबह की हवा-ख़ोरी के लिए हर रोज़ नहर तक जाया करूँगा । शाम को ठंडी सड़क पर जहां और लोग सैर को निकलेंगे मैं भी सड़क की साफ़ शफ़्फ़ाफ़ सतह पर हल्के हल्के ख़ामोशी के साथ हाथी दांत की एक गेंद की मानिंद गुज़र जाऊंगा । डूबते हुए आफ़ताब की रौशनी बाइस्किल के चमकीले हिस्सों पर पड़ेगी तो बाइस्किल जग-मगा उठेगी और ऐसा मालूम होगा जैसे एक राज हंस ज़मीन के साथ साथ उड़ रहा है । वह मुस्कुराहट जिस का मैं ऊपर ज़िक्र कर चुका हूँ अभी तक मेरे होंटों पर खेल रही थी । बारहा दिल चाहा कि अभी भाग कर जाऊं और इसी वक़्त मिर्ज़ा को गले लगा लूँ ।

रात को ख़्वाब में दुआएँ मांगता रहा कि ख़ुदाया मिर्ज़ा बाइस्किल देने पर रज़ा-मंद हो जाए । सुबह उठा तो उठने के साथ ही नौकर ने ये ख़ुश-ख़बरी सुनाई के हुज़ूर वो बाइस्किल आ गई है । मैं ने कहा " इतनी सवेरे ? "

नौकर ने कहा " वो तो रात ही को ही आ गई थी । आप सो गए थे मैं ने जगाना मुनासिब न समझा और साथ ही मिर्ज़ा साहब का आदमी ये ढिबरियाँ कसने का एक औज़ार भी दे गया है " ।

मैं हैरान तो हुआ कि मिर्ज़ा साहब ने बाइस्किल भेजवा देने में इस क़द्र उज्लत से क्यूँ काम लिया लेकिन इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी निहायत शरीफ़ और दयानतदार हैं । रूपये ले लिए थे तो बाइस्किल क्यूँ रोक लेते ।

नौकर से कहा " देखो ये औज़ार यहीं छोड़ जाओ और देखो बाइस्किल को किसी कपड़े से ख़ूब अच्छी तरह झाड़ो और ये मोड़ पर जो बाइस्किलों वाला बैठता है उस से जा कर बाइस्किल में डालने का तेल ले आओ और देखो..... अबे भागा कहाँ जा रहा है । हम ज़रूरी बात तुम से कह रहे हैं । बाइस्किल वाले से तेल की एक कुप्पी भी ले आना और जहां-जहां तेल देने की जगह है वहां तेल दे देना और बाइस्किल वाले से कहना कि कोई घटिया सा तेल न दे दे जिस से तमाम पुर्जे़ ही ख़राब हो जाएं । बाइस्किल के पुर्जे़ बड़े नाज़ुक होते हैं और बाइस्किल बाहर निकाल रखो । हम अभी कपड़े पहन कर आते हैं । हम ज़रा सैर को जा रहे हैं और देखो साफ़ कर देना और बहुत ज़ोर ज़ोर से कपड़ा भी मत रगड़ना, बाइस्किल का पॉलिश घिस जाता है " ।

जल्दी जल्दी चाय पी। ग़ुस्ल-ख़ाने में बड़े जोश-व-ख़रोश के साथ " चल चल चम्बेली बाग़ में " गाता रहा । इस के बाद कपड़े बदले, औज़ार को जेब में डाला और कमरे से बाहर निकला ।
बरामदे में आया तो बरामदे के साथ ही एक अजीब-व-ग़रीब मशीन पर नज़र पड़ी । ठीक तरह से पहचान न सका कि क्या चीज़ है ? नौकर से दर्याफ़्त किया " क्यों बे ये क्या चीज़ है ? "

नौकर बोला, " हुज़ूर ये बाइस्किल है "।

मैंने कहा, " बाइस्किल? किस की बाइस्किल ? "

कहने लगा, " मिर्ज़ा साहब ने भेजवाई है आप के लिए " ।

मैंने कहा, " और जो बाइस्किल रात को उन्हों ने भेजी थी वो कहाँ गई ? "

कहने लगा, " यही तो है " ।

मैंने कहा, " क्या बकता है जो बाइस्किल मिर्ज़ा साहब ने कल रात को भेजी थी वो बाइस्किल यही है ?"

कहने लगा, " जी हाँ " ।

मैं ने कहा, " अच्छा " और फिर उसे देखने लगा । उस को साफ़ क्यूँ नहीं किया? "

" उस को दो तीन दफ़ा साफ़ किया है ? "

" तो ये मैली क्यूँ है ? "

नौकर ने इस का जवाब देना शायद मुनासिब न समझा ।

" और तेल लाया ? "

" हाँ हुज़ूर लाया हूँ " ।

" दिया " ?

" हुज़ूर वह तेल देने के छेद होते हैं वह नहीं मिलते " ।

" क्या वजह ? "

" हुज़ूर धुरों पर मैल और ज़ंग जमा है । वो सुराख़ कहीं बीच ही में दब-दबा गए हैं " ।

रफ़्ता रफ़्ता मैं उस चीज़ के क़रीब आया । जिस को मेरा नौकर बाइस्किल बता रहा था । उस के मुख़्तलिफ़ पुर्ज़ों पर ग़ौर किया तो इतना तो साबित हो गया कि बाइस्किल है लेकिन मुजमल हैय्यत से ये साफ़ ज़ाहिर था कि हिल और रहट और चर्ख़ा और इसी तरह की ईजादात से पहले की बनी हुई है । पहिए को घुमा घुमा कर वो सुराख़ तलाश किया जहां किसी ज़माने में तेल दिया जाता था । लेकिन अब इस सुराख़ में से आमद-व-रफ़्त का सिलसिला बंद था । चुनांचे नौकर बोला, " हुज़ूर वो तेल तो सब इधर उधर बहा जाता है । बीच में तो जाता ही नहीं ।"

मैं ने कहा, " अच्छा ऊपर ऊपर ही डाल दो ये भी मुफ़ीद होता है " ।

आख़िर-कार बाइस्किल पर सवार हुआ । पहला ही पांव चलाया, तो ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई मुर्दा अपनी हड्डियां चट्ख़ा चट्ख़ा कर अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ज़िंदा हो रहा है । घर से निकलते ही कुछ थोड़ी सी इतराई थी इस पर बाइस्किल ख़ुद-बख़ुद चलने लगी लेकिन इस रफ़्तार से जैसे तारकोल ज़मीन पर बहता है और साथ ही मुख़्तलिफ़ हिस्सों से तरह तरह की आवाज़ें बरामद होनी शुरू हुईं । इन आवाज़ों के मुख़्तलिफ़ गिरोह थे । चीं, चां, चूँ की क़िस्म आवाज़ें ज़्यादा तर गद्दी के नीचे और पिछले पहीए से निकलती थीं । खट, खड़-खड़, खड़ड़, के क़बील की आवाज़ें मड-गार्डों से आती थीं । चर-चर्रख़, चर-चर्रख़ की क़िस्म के सुर ज़ंजीर और पैंडल से निकलते थे । ज़ंजीर ढीली ढीली थी । मैं जब कभी पैडल पर ज़ोर डालता था ज़ंजीर में एक अंगड़ाई सी पैदा होती थी जिस से वो तन जाती थी और चड़-चड़ बोलने लगती थी और फिर ढीली हो जाती थी । पिछला पहिया घूमने के अलावा झूमता भी था यानी एक तो आगे को चलता था और इस के अलावा दाहिने से बाएँ और बाएँ से दाहिने को भी हर्कत करता था । चुनांचे सड़क पर जो निशान पड़ जाता था उस को देख कर ऐसा मालूम होता था जैसे कोई मख़्मूर साँप लहरा कर निकल गया है । मड-गार्ड थे तो सही लेकिन पहीयों के ऐन ऊपर न थे । इन का फ़ायदा सिर्फ़ ये मालूम होता था कि इंसान शिमाल की सिम्त सैर करने को निकले और आफ़ताब मग़रिब में ग़ुरूब हो रहा हो तो मड-गार्डों की बदौलत टायर धूप से बचे रहेंगे । अगले पहिए के टायर में एक बड़ा सा पैवंद लगा था जिस की वजह से पहिया हर चक्कर में एक दफ़ा लम्हा भर को ज़ोर से ऊपर उठ जाता था और मेरा सर पीछे को यूं झटके खा रहा था जैसे कोई मुतवातिर ठोड़ी के नीचे मुक्के मारे जा रहा हो । पिछले और अगले पहिए को मिला कर चूं चूं फट, चूं चूं फट...... की सदा निकल रही थी । जब उतार पर बाइस्किल ज़रा तेज़ हुई तो फ़िज़ा में एक भूँचाल सा आ गया और बाइस्किल के कई और पुर्जे़ जो अब तक सो रहे थे । बेदार हो कर गोया हुए । इधर उधर के लोग चौंके, माओं ने अपने बच्चों को सीने से लगा लिया, खड़ड़-खड़ड़ के बीच में पहियों की आवाज़ जुदा सुनाई दे रही थी लेकिन चूँकि बाइस्किल अब पहले से तेज़ थी इस लिए चूं-चूं फट, चूं-चूं फट की आवाज़ ने अब चचों फट, चचों फट, की सूरत इख़्तियार कर ली थी । तमाम बाइस्किल किसी अदक़ अफ़्रीक़ी ज़बान की गर्दानें दोहरा रही थी ।

इस क़द्र तेज़ रफ़्तारी बाइस्किल की तबा-नाज़ुक पर गिराँ गुज़री । चुनांचे इस में यक-लख़्त दो तबदीलियां वाक़े हो गईं । एक तो हैंडल एक तरफ़ को मुड़ गया जिस का नतीजा ये हुआ कि मैं जा तो सामने को रहा था लेकिन मेरा तमाम जिस्म दाएं तरफ़ को मुड़ा हुआ था। इस के अलावा बाइस्किल की गद्दी दफ़अतन छः इंच के क़रीब नीचे बैठ गई । चुनांचे जब पैंडल चलाने के लिए मैं टांगें ऊपर नीचे कर रहा था तो मेरे घुटने मेरी ठोड़ी तक पहुंच जाते थे । कमर दोहरी हो कर बाहर को निकली हुई थी और साथ ही अगले पहिए की अठखेलियों की वजह से सर बराबर झटके खा रहा था ।

गद्दी का नीचा हो जाना अज़-हद तकलीफ़-देह साबित हुआ । इस लिए मैं ने मुनासिब यही समझा कि इस को ठीक कर लूं । चुनांचे मैं ने बइस्किल को ठहरा लिया और नीचे उतरा । बाइस्किल के ठहर जाने से यक-लख़्त जैसे दुनिया में एक ख़ामोशी सी छा गई । ऐसा मालूम हुआ जैसे मैं किसी रेल के स्टेशन से निकल कर बाहर आ गया हूँ । जेब से मैं ने औज़ार निकाला । गद्दी को ऊंचा किया। कुछ हैंडल को ठीक किया और दोबारा सवार हो गया ।

दस क़दम भी चलने न पाया था कि अब के हैंडल यक-लख़्त नीचा हो गया । इतना कि गद्दी अब हैंडल से कोई फ़ुट भर ऊंची थी । मेरा तमाम जिस्म आगे को झुका हुआ था । तमाम बोझ दोनों हाथों पर था जो हैंडल पर रखे थे और बराबर झटके खा रहे थे । आप मेरी हालत को तसव्वुर करें तो आप को मालूम होगा कि मैं दूर से ऐसा मालूम हो रहा था जैसे कोई औरत आटा गूँध रही हो । मुझे इस मुशाबहत का एहसास बहुत तेज़ था जिस की वजह से मेरे माथे पर पसीना आ गया । मैं दाएं बाएं लोगों को कनखियों से देखता जाता था । यूँ तो हर शख़्स मील भर पहले ही से मुड़ मुड़ कर देखने लगता था लेकिन इन में कोई भी ऐसा ना था जिस के लिए मेरी मुसीबत ज़ियाफ़त-ए-तबा का बाइस न हो ।

हैंडल तो नीचा हो ही गया था । थोड़ी देर के बाद गद्दी भी फिर नीची हो गई और मैं हमातन ज़मीन के क़रीब पहुंच गया । एक लड़के ने कहा, " देखो ये आदमी क्या कर रहा है " । गोया उस बदतमीज़ के नज़दीक मैं कोई करतब दिखा रहा था । मैं ने उतर कर फिर हैंडल और गद्दी को ऊंचा किया । लेकिन थोड़ी देर के बाद इन में से एक ना एक फिर नीचा हो जाता । वो लम्हे जिन के दौरान में मेरा हाथ और मेरा जिस्म दोनों ही बुलंदी पर वाक़े हों बहुत ही कम थे और उन में भी मैं यही सोचता रहता था कि अब कि गद्दी पहले बैठेगी या हैंडल ? चुनांचे निडर हो कर न बैठता बल्कि जिस्म को गद्दी से क़द्रे ऊपर ही रखता लेकिन इस से हैंडल पर इतना बोझ पड़ जाता कि वो नीचा हो जाता ।

जब दो मील गुज़र गए और बाइस्किल की उठक बैठक ने एक मुक़र्रररा बाक़ायदगी इख़्तियार कर ली, तो फ़ैसला किया कि किसी मिस्त्री से पेंच क़सवा लेने चाहिएँ । चुनांचे बाइस्किल को एक दुकान पर ले गया ।

बाइस्किल की खड़-खड़ से दुकान में जितने लोग काम कर रहे थे सब के सब सर उठा कर मेरी तरफ़ देखने लगे लेकिन मैं ने जी कड़ा कर के कहा :

" ज़रा उस की मरम्मत कर दीजीए " ।

एक मिस्त्री आगे बढ़ा । लोहे की एक सलाख़ उस के हाथ में थी जिस से उस ने मुख़्तलिफ़ हिस्सों को बड़ी बे-दर्दी के साथ ठोक-बजा कर देखा । मालूम होता था उस ने बड़ी तेज़ी के साथ सब हालात का अंदाज़ा लगा लिया है लेकिन फिर भी मुझ से पूछने लगा । " किस किस पुर्जे़ की मुरम्मत कराइएगा " ?

मैंने कहा " बड़े गुस्ताख़ हो तुम देखते नहीं कि सिर्फ़ हैंडल और गद्दी को ज़रा ऊंचा करवा के क़सवाना है बस और क्या ? इन को मेहरबानी कर के फ़ौरन ठीक कर दो और बताओ कितने पैसे हुए ? ”

मिस्त्री कहने लगा "मड गार्ड भी ठीक ना कर दूँ ? "

मैंने कहा " हाँ, वो भी ठीक कर दो " ।

कहने लगा " अगर आप बाक़ी चीज़ें भी ठीक करा लें तो अच्छा हो " ।

मैंने कहा । " अच्छा कर दो " ।

बोला " यूँ थोड़ी हो सकता है । दस पंद्रह दिन का काम है । आप इसे हमारे पास छोड़ जाईए ।"

" और पैसे कितने लो गे ?"

कहने लगा " बस चालीस रुपये लगेंगे " ।

हम ने कहा, " बस जी जो काम तुम से कहा है कर दो और बाक़ी हमारे मामलात में दख़ल मत दो । "

थोड़ी देर में हैंडल और गद्दी फिर ऊंची कर के कस दी गई । मैं चलने लगा तो मिस्त्री ने कहा मैंने कस तो दिया है लेकिन पेच सब घिसे हुए हैं । अभी थोड़ी देर में फिर ढीले हो जाएँगे ।"

मैंने कहा " हैं बदतमीज़ कहीं का । तो दो आने पैसे मुफ़्त में ले लिए ? "

बोला " जनाब आप को बाइस्किल भी मुफ़्त में मिली होगी । ये आप के दोस्त मिर्ज़ा साहब की है ना ? लल्लू ये वही बाइस्किल है जो पिछले साल मिर्ज़ा साहब यहाँ बेचने को लाए थे । पहचानी तुम ने ? भई सदियाँ ही गुज़र गईं लेकिन इस बाइस्किल की ख़ता माफ़ होने में नहीं आती । "

मैंने कहा " वाह मिर्ज़ा साहब के लड़के इस पर कॉलेज आया जाया करते थे और उन को अभी कॉलेज छोड़े दो साल भी नहीं हुए । "

मिस्त्री ने कहा । " हाँ वो तो ठीक है लेकिन मिर्ज़ा साहब ख़ुद जब कॉलेज में पढ़ते थे तो उन के पास भी तो यही बाइस्किल थी ।"

मेरी तबीयत ये सुन कर कुछ मुर्दा सी हो गई । मैं बाइस्किल को साथ लिए आहिस्ता आहिस्ता पैदल चल पड़ा । लेकिन पैदल चलना भी मुश्किल था । इस बाइस्किल के चलाने में ऐसे ऐसे पुठों पर ज़ोर पड़ता था जो आम बाइस्किलों के चलाने में इस्तेमाल नहीं होते । इस लिए टांगों और कंधों और कमर और बाज़ुओं में जा-बजा दर्द हो रहा था । मिर्ज़ा का ख़्याल रह रह कर आता था, लेकिन मैं हर बार कोशिश कर के उसे दिल से हटा देता था । वर्ना मैं पागल हो जाता और जुनून की हालत में पहली हर्कत मुझ से ये सर्ज़द हुई कि मिर्ज़ा के मकान के सामने बाज़ार में एक जलसा मुनअक़िद करता जिस में मिर्ज़ा की मक्कारी, बेईमानी और दग़ाबाज़ी पर एक तवील तक़रीर करता । कुल बनी-नौ-इंसान और आईन्दा आने वाली नस्लों की नापाक फ़ितरत से आगाह कर देता और उस के बाद एक चिता जला कर उस में ज़िंदा जल कर मर जाता ।

मैं ने बेहतर यही समझा कि जिस तरह हो सके अब इस बाइस्किल को औने-पौने दामों में बेच कर जो वसूल हो उसी पर सब्र शुक्र करूं । बला से दस पंद्रह रुपये का ख़सारा सही । चालीस के चालीस रुपये तो ज़ाया न होंगे । रास्ते में बाइस्किलों की एक और दुकान आई वहां ठहर गया ।

दुकानदार बढ़ कर मेरे पास आया लेकिन मेरी ज़बान को जैसे क़ुफ़्ल लग गया था । उम्र भर किसी चीज़ के बेचने की नौबत न आई थी। मुझे ये भी मालूम नहीं कि ऐसे मौक़े पर क्या कहते हैं । आख़िर बड़े सोच बिचार और बड़े ताम्मुल के बाद मुँह से सिर्फ़ इतना निकला कि ये " बाइस्किल " है ।

दुकान-दार ने कहा, " फिर ? "

मैं ने कहा, " लोगे ? "

कहने लगा । " क्या मतलब ? "

मैं ने कहा, " बेचते हैं हम । "

दुकानदार ने मुझे ऐसी नज़र से देखा कि मुझे ये महसूस हुआ कि मुझ पर चोरी का शुबा कर रहा है । फिर बाइस्किल को देखा । फिर मुझे देखा । फिर बाइस्किल को देखा । ऐसा मालूम होता था कि फ़ैसला नहीं कर सकता । आदमी कौन सा है और बाइस्किल कौन सी है ? आख़िर कार बोला,

" क्या करेंगे आप इस को बेच कर ? "

ऐसे सवालों का ख़ुदा जाने क्या जवाब होता है । मैं ने कहा, " क्या तुम ये पूछना चाहते हो कि जो रुपये मुझे वसूल होंगे इन का मसरफ़ क्या होगा ? "

कहने लगा " वो तो ठीक है मगर कोई इस को ले कर करेगा क्या ? "

मैंने कहा, " इस पर चढ़ेगा और क्या करेगा ।"

कहने लगा, " अच्छा चढ़ गया, फिर ? "

मैं ने कहा, " फिर क्या ? फिर चलाएगा और क्या ? "

दुकान-दार बोला, " अच्छा ? हूँ । ख़ुदा-बख़्श ज़रा यहां आना । ये बाइस्किल बिकने आई है । "

जिन हज़रत इस्म-ए-गिरामी ख़ुदा-बख़्श था उन्हों ने बाइस्किल को दूर ही से यूँ देखा जैसे बू सूंघ रहे हों ।

इस के बाद दोनों ने आपस में मश्वरा किया । आख़िर में वह जिन का नाम ख़ुदा-बख़्श नहीं था, मेरे पास आए और कहने लगे, "तो आप सच-मुच बेच रहे हैं?"

मैंने कहा " तो और क्या, महज़ आप से हम-कलाम हो ने का फ़ख़्र हासिल करने के लिए मैं घर से ये बहाना गढ़ कर लाया था?"

कहने लगा, "तो क्या लेंगे आप ?"

मैंने कहा, " तुम ही बताओ । "

कहने लगा, " सच-मुच बताऊं ? "

मैंने कहा, "अब बताओगे भी या यूँ ही तरसाते रहोगे ? "

कहने लगा, " तीन रुपय दूँगा इस के । "

मेरा ख़ून खौल उठा और मेरे हाथ पांव और होंट ग़ुस्से के मारे काँपने लगे । मैं ने कहा :

" ओ सनअत-व-हिर्फ़त से पेट पालने वाले निचले तबक़े के इंसान ! मुझे अपनी तौहीन की परवाह नहीं लेकिन तू ने अपनी बेहूदा-गुफ़तारी से इस बे-ज़बान चीज़ को जो सद्मा पहुंचाया है इस के लिए मैं तुझे क़यामत तक माफ़ नहीं कर सकता " ये कह कर मैं बाइस्किल पर सवार हो गया और अंधा-धुंद पांव चलाने लगा ।

मुश्किल से बीस क़दम गया हूँगा कि मुझे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे ज़मीन यक-लख़्त उछल कर मुझ से आ लगी है । आसमान मेरे सर पर से हट कर मेरी टांगों के बीच में से गुज़र गया और इधर उधर की इमारतों ने एक दूसरे के साथ अपनी-अपनी जगह बदल ली है । हवास बजा हुए तो मालूम हुआ कि मैं ज़मीन पर इस बे-तकल्लुफ़ी से बैठा हूँ गोया बड़ी मुद्दत से मुझे इस बात का शौक़ था जो आज पूरा हुआ । इर्द-गिर्द कुछ लोग जमा थे जिन में अक्सर हंस रहे थे । सामने वो दुकान थी जहाँ अभी अभी मैं ने अपनी नाकाम गुफ़्त-व-शुनीद का सिलसिला मुन्क़ते किया था । मैं ने अपने गिर्द-व-पेश पर ग़ौर किया तो मालूम हुआ कि मेरी बाइस्किल का अगला पहिया बिलकुल अलग हो कर लुढ़क्ता हुआ सड़क के उस पार जा पहुंचा है और बाक़ी बाइस्किल मेरे पास पड़ी है । मैं ने फ़ौरन अपने आप को सँभाला । जो पहिया अलग हो गया था उस को एक हाथ में उठाया दूसरे हाथ में बाक़ी मांदा बइस्किल को थामा और चल खड़ा हुआ । ये महज़ एक इज़्तिरारी हर्कत थी वर्ना हाशा वकुल्ला वो बाइस्किल मुझे हर्गिज़ इतनी अज़ीज़ न थी कि मैं उस को इस हालत में साथ साथ लिए फिरता ।

जब मैं ये सब कुछ उठा कर चल दिया तो मैं ने अपने आप से पूछा कि ये तुम क्या कर रहे हो ? कहाँ जा रहे हो ? तुम्हारा इरादा क्या है ? ये दो पहिए काहे को ले जा रहे हो ?

सब सवालों का जवाब यही मिला कि देखा जाएगा । फ़िल-हाल तुम यहां से चल दो । सब लोग तुम्हें देख रहे हैं । सर ऊंचा रखो और चलते जाओ । जो हंस रहे हैं उन्हें हँसने दो । इस क़िस्म के बेहूदा लोग हर क़ौम और हर मुल्क में पाए जाते हैं । आख़िर हुआ क्या ? महज़ एक हादसा । बस दाएँ बाएँ मत देखो । चलते जाओ ।

लोगों के नाशाईस्ता कलिमात भी सुनाई दे रहे थे । एक आवाज़ आई " बस हज़रत ग़ुस्सा थूक डालीए ! " एक दूसरे साहब बोले, " बेहया बाइस्किल ! घर पहुंच के तुझे मज़ा चखाऊंगा ।" एक वालिद अपने लख़त-ए-जिगर की उंग्ली पकड़े जा रहे थे । मेरी तरफ़ इशारा करके कहने लगे । " देखा बेटा ये सर्कस की बाइस्किल है । इस के दोनों पहिए अलग अलग होते हैं । "

लेकिन मैं चलता गया । थोड़ी देर के बाद मैं आबादी से दूर निकल गया । अब मेरी रफ़्तार में एक अज़ीमत पाई जाती थी । मेरा दिल जो कई घंटों से कश-मकश में पेच-व-ताब खा रहा था अब बहुत हल्का हो गया था । मैं चलता गया चलता गया हत्ता कि दरिया पर जा पहुंचा । पुल के ऊपर खड़े होकर मैंने दोनों पहियों को एक-एक करके इस बेपरवाई के साथ दरिया में फेंक दिया जैसे कोई लेटर-बॉक्स में ख़त डालता है और वापस शहर को रवाना हो गया ।

सब से पहले मिर्ज़ा के घर गया । दरवाज़ा खटखटाया । मिर्ज़ा बोले, " अंदर आ जाओ " ।

मैं ने कहा । आप ज़रा बाहर तशरीफ़ लाइए । मैं आप जैसे ख़ुदा रसीदा बुज़ुर्ग के घर वज़ू किए बगै़र कैसे दाख़िल हो सकता हूँ ।"

बाहर तशरीफ़ लाए तो मैं ने वो औज़ार उन की ख़िद्मत में पेश किया जो उन्हों ने बाइस्किल के साथ मुफ़्त ही मुझ को इनायत फ़रमाया था और कहा :

" मिर्ज़ा साहब आप ही इस औज़ार से शौक़ फ़रमाया कीजिए मैं अब इस से बेनियाज़ हो चुका हूँ । "

घर पहुंच कर मैं ने फिर इल्म-ए-कीमिया की उस किताब का मुताला शुरू किया जो मैंने एफ़.ए में पढ़ी थी ।

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