Monday, 13 February 2017

....गधे शुमारी / मुस्तनसर हुसैन तारड़

“यरक़ान भाई”

“हाँ फ़ुरक़ान भाई”

“भई बहुत उदास और रंजीदा और मलूल वग़ैरा दिखाई दे रहे हो। क्या हो गया ?”

“जो होना था हो गया। बुरा हुआ या भला हुआ।”

“यरक़ान भाई तुम्हारी तबीयत कुछ ठीक नहीं लगती जो इतने पुराने फ़िल्मी गाने अलाप रहे हो।”

“ये गाना नहीं मेरे दिल की आवाज़ है......और आवाज़ दे तू कहाँ है”

“लेकिन हुआ क्या है......?”

“हम बढ़ गए हैं......”

“हम किधर बढ़ गए हैं?”

“हम तादाद में बढ़ गए हैं।”

“वो तो अल्लाह ताला के निज़ाम में तमाम चरिंद परिंद और इंसान बढ़ते ही रहते हैं। इस में फ़िक्र की कौन सी बात है?”

“इसलिए कि और कुछ नहीं बढ़ा, सिर्फ़ हम बढ़ गए हैं।”

“यानी?”

“यानी ये कि पाकिस्तान में गधे बढ़ गए हैं।”

“ओहो......यानी गधे......यानी डंकीज़?”

“गधे को डंकी कहा जाए तो भी वो गधा ही रहता है......ख़बर ये है कि पाकिस्तान में गुज़श्ता पंद्रह बरसों में गदहों की तादाद में दो गुना इज़ाफ़ा हो गया है। मोहक्मा-ए-शुमारियात के मुताबिक़ 1971-72 ई. में गदहों की तादाद दस लाख नव्वे हज़ार थी जो कि अब बढ़कर बीस लाख अठत्तर हज़ार हो गई है।”

“कमाल है......इस ख़बर में हैरत का मुक़ाम ये है कि पाकिस्तान में एक मोहक्मा-ए-शुमारियात का भी है...... ये क्या शुमार करते हैं?”

“ज़ाहिर है ये गदहे शुमार करते हैं”

“गदहों के शुमार करने का तरीक़ा-ए-कार क्या है?”

“मुझे क्या मालूम कि क्या तरीका-ए-कार है......लेकिन मेरा ख़याल है कि सबसे पहले तमाम गदहों के काम शुमार कर लिए जाते हैं।और फिर उनकी चार टांगें, और इस के बाद कुल को छः पर तक़सीम कर लिया जाता होगा और यूँ गदहों की तादाद पता चल जाती होगी”

“नहीं भई कोई और तरीक़ा होगा।ये तो ज़रा पेचीदा है”

“तो फिर शायद वो हर पाकिस्तानी से पूछते होंगे कि आप क्या हैं।”

“नहीं,नहीं इस तरह तो तादाद करोड़ों में हो जाएगी...... ख़ैर कोई भी तरीक़ा हो ये उनका डंकी सीक्रेट है। लेकिन एक और सवाल ज़हन में आता है कि मोहक्मा-ए-शुमारियात को गदहों से इतनी रग़्बत क्यूँ है......?”

“यानी?”

“यानी ये कि उन्होंने पाकिस्तान के मगर मच्छों को क्यूँ शुमार नहीं किया......यहाँ एक से एक बड़ा मगरमच्छ पड़ा है...... उन्होंने पाकिस्तान में पाए जाने वाले लगड़ बगड़, लिधर, नेवले, गीदड़, सुवर और दीगर हैवान क्यूँ नहीं गिने...... सिर्फ़ गदहे क्यूँ......”

इसलिए कि गदहे आप का बोझ उठा लेते हैं...... उफ़ तक नहीं करते......रूखी-सूखी खाकर गुज़ारा कर लेते हैं।”

“ये तो कोई बात न हुई...... वैसे एक और सवाल है!”

“मैं मोहक्मा-ए-शुमारियात में तो नहीं, फ़ुरक़ान भाई! सवाल उनसे पूछो”

“उनसे जाकर पूछूँ कि आप ने पाकिस्तान में सिर्फ़ गदहों को क्यूँ शुमार किया है, गदहियों को क्यूँ शुमार नहीं किया......।”

“यार उन्होंने शुमार किया होगा”

“नहीं अख़बार में सिर्फ़ ये छपा है कि पाकिस्तान में गदहे बढ़ गए ...... होना ये चाहिए था कि पाकिस्तान में गदहों और गधिया बढ़ गए......”

“भई वो जो शुमार करने वाले होंगे, उनको नहीं पता होगा गदहे और गदही में क्या फ़र्क़ होता है......”

“एक और सवाल है”

“मोहक्मा-ए-शुमारियात से दरयाफ़्त करो”

“नहीं ये हमारे बारे में है...... अगर पाकिस्तान में गदहे बढ़ गए हैं तो तुम क्यूँ फ़िक्रमंद हो...... तुम ये क्यूँ कहते हो कि हम बढ़ गए हैं?”

“भई गदहे वही होते हैं नाँ जो बोझ उठाते हैं। जिनको खाने को कुछ नहीं मिलता।और हमें सब बे-वक़ूफ़ समझते हैं...... मैं बज़ात-ए-ख़ुद एक गदहा हूँ।”

“ख़ैर ये तो तुम गदहों के साथ ज़्यादती कर रहे हो...... वैसे मैं फिर यही पूछूंगा कि मोहक्मा-ए-शुमारियात पाकिस्तान में सिर्फ़ गदहों को क्यूँ शुमार करता है...... और उसको कैसे मालूम है कि पिछले चंद बरसों में गदहे दो गुने हो गए हैं......”

“बिल्कुल दुरुस्त......तुम गदहे वग़ैरा तो नहीं हो, क्यूँकि अगर तुम होते तो हम भी होते। और हम नहीं हैं...... बताओ क्यूँ फ़िक्रमंद हो......।”

“कोलंबिया का आतिश फ़िशां जो फट पड़ा है।”

“कोलंबिया का आतिश फ़िशां...... इसका पाकिस्तानी गदहों से क्या तअल्लुक़ है?”

“है तअल्लुक़......भाई फ़ुरक़ान! देखो, क़ाफ़िया कैसा मिला है......”

“यार यरक़ान तुम तो वाक़ई गदहे हो.... ये इथोपिया और कोलंबिया बीच में कहाँ आ गए?”

“देखो, फ़ुरक़ान...... हम जो काइनात के भेद जानना चाहते हैं।हमें फ़ख़्र है कि हम मुल्कों और सेहरावो को जानते हैं।दुनिया सिकुड़ गई है।कंप्यूटर, सय्यारे, चाँद पर क़दम ...... लेकिन तुम ज़रा अपने सीने पर हाथ रखकर कह सकते हो कि तुम इस से पेशतर कोलंबिया को जानते थे?”

“हूँ.....हाँ......नहीं ......हाँ बस नाम सुन रखा था। और वो भी शायद......”

“तुम जानते थे कि ये मुल्क कहाँ वाक़े है?”

“हाँ ......शायद अमरीका में कहीं......”

“तुम्हें पता है, इसके दार-उल-हुकूमत का क्या नाम है...... इसके किसी शहर का क्या नाम है...... वहाँ के लोग कैसे हैं...... उसके चेहरे कैसे हैं...... क्या वो भी अपने बच्चे को आइसक्रीम खाते देख कर ख़ुश होते हैं...... क्या वो भी खेत में से फूटने वाली गंदुम को सूंघकर ख़ुशी से दीवाने होते हैं ......क्या उन्हें भी सर्दी लगती है...... गर्मी लगती है...... बल्कि बहुत गर्मी लगती है और वो जब आतिश फ़िशां के लावे में हज़ारों की तादाद में दफ़न हो रहे होंगे, बच्चे भी फ़ुरक़ान ...... वैसे बच्चे जैसे मेरे तुम्हारे हैं ......तो उनके दिल में क्या होगा भाई फ़ुरक़ान......”

“देखो यरक़ान...... सच्ची बात है कि मैं ने ज़िंदगी में पहली मर्तबा कोलंबिया के बारे में कोई ख़बर पढ़ी है।मैं वाक़ई कोलंबिया के बारे में कुछ नहीं जानता...... इस पूरे मुल्क के चरिंद-परिंद और इंसानों के बारे में कुछ नहीं जानता...... सिवाए इस के कि जुनूबी अमरीकी मुसन्निफ़ गार्सिया-मार-कनीर वहाँ का था...... और हम सारी दुनिया के बारे में सब कुछ तो नहीं जान सकते...... सब कुछ जानने के लिए वो उम्र और वो वक़्त दरकार है, जो हमारे पास नहीं है......।”

“तो फिर हम क्यूँ कहते हैं कि दुनिया सिकुड़ गई है। ज़राए-इबलाग़ की वजह से दुनिया एक मुल्क बन गई है...... हमें ये मालूम ही नहीं कि उस शहर का नाम है जिस पर लावे का दरिया आया और ठहर गया और उस लावे में दब जाने वाली बच्चों की चीख़ें कौन सी ज़बान में थीं...... वो आहें जो कई रोज़ तक मलबे में से बुलंद होती रहीं और ख़त्म हो गईं। वो कमीयूनिस्ट थीं ईसाई थीं या सरमायादार थीं......? हम ये क्यूँ कहते हैं कि पूरी बनी नौ इंसानी एक बिरादरी है जबकि हम उस बिरादरी को जानते तक नहीं...... उनके चेहरे तक नहीं पहचानते......।”

“देखो यरक़ान भाई! मुझे ज़िंदगी में और बहुत सारे काम करने हैं इसलिए मेरे पास इतना वक़्त नहीं कि सारा दिन यहीं तुम्हारे पास बैठा रहूँ......इसलिए ख़ुदा हाफ़िज़’’।

तुम जानते हो कि कोलंबिया में आतिश फ़िशां क्यूँ फटा था और क्यूँ तक़रीबन एक लाख अफ़राद हलाक हो गए थे?”

“क्यूँ?”

“इसलिए कि वहाँ भी गदहे ज़्यादा हो गए थे......”

“ख़ुदा के वास्ते यरक़ान भाई होश की दवा करो...... गदहों का और आतिश फ़िशां का आपस में क्या तअल्लुक़ है......?”

“वहाँ भी कोलंबिया में भी कोई मोहक्मा-ए-शुमारियात होगा जो इंसानों के बजाए सिर्फ़ गदहों को गिनता होगा...... और लोग ये समझते होंगे कि इस मुल्क में इंसान कम हैं और गदहे ज़्यादा हैं।” हालाँ कि ऐसा होता नहीं है...... हम इंसानों का ध्यान रखें तो शायद आतिश फ़िशां हमेशा के लिए ठंडे हो जाएं......।”

“ख़ुदा हाफ़िज़ यरक़ान भाई”

“ख़ुदा हाफ़िज़”

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