सीखे हैं मह-ए-रुख़ों के लिए.....
रईस-उल-मुतग़ज़्ज़िलीन मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी शायरी के तीन रंग बताए हैं।फासिक़ाना,आशिक़ाना और आरिफ़ाना।मौलाना की तरह चक्की की मशक़्क़त तो बड़ी बात है,मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग ने तो मश्क़-ए-सुख़न से भी ज़हन को गेराँ-बार नहीं किया।ताहम वो भी अपने फ़न(फ़ोटो ग्राफ़ी)को इन्हीं तीन मोहलिक अदवार में तक़्सीम कर सकते हैं।ये और बात है कि उनके यहाँ ये तरतीब बिलकुल उलटी है।रहा हमारा मुआमला,तो अभी हम रुसो की तरह इतने बड़े आदमी नहीं हुए कि अपने ऊपर अलानिया फ़िस्क़-व-फ़ुजूर की तोहमत लगाने के बाद भी अपने और पुलिस के दरमियान एक बा-इज़्ज़त फ़ासला क़ायम रख सकें।लेकिन ये वाक़िया है कि मिर्ज़ा की तरह हम भी हिलाक-ए-फ़न हैं और हमारा नाता भी इस फन से उतना ही पुराना है।क्यूँकि जहाँ तक याद पड़ता है,तख़्ती पर“क़लम गोएद की मन शाह-ए-जहानम” लिख-लिख कर ख़ुद को गुमराह करने से पहले हम डिक बराउनी कैमरे का बटन दबाना सीख चुके थे।लेकिन जिस दिने से मिर्ज़ा की एक नंगी खुली तस्वीर (जिसे वो फ़ीगर स्टडी कहते हैं)को लंदन के एक रिसाले ने ज़ेवर-ए-तबाअत से आरास्ता किया,हमारी बे-हुनरी के नए-नए पहलू उन पर मुंकशीफ़ होते रहते हैं।
मिर्ज़ा जब से बोलना सीखे हैं,अपनी ज़बान को हमारी ज़ात पर वर्ज़िश कराते रहते हैं।और अक्सर तलमीह व इस्तिआरे से मामूली गाली ग्लोज में अदबी शान पैदा कर देते हैं।अभी कल की बात है।कहने लगे,यार!बुरा न मानना।तुम्हारे फ़न में कोई करवट,कोई पेच,मेरा मतलब है,कोई मोड़ नज़र नहीं आता।हमने कहा,प्लाट तो उर्दू नाविलों में हुआ करता है।ज़िंदगी में कहाँ? बोले हाँ,ठीक कहते हो।तुम्हारी अक्कासी भी तुम्हारी ज़िंदगी ही का अक्स है।यानी अव्वल ता आख़िर ख़्वारी का एक ना-क़ाबिल-ए-तक़लीद उस्लूब!
हर चंद कि ये कमाल-ए-नय नवाज़ी हमारे कुछ काम न आया।लेकिन यही क्या कम है कि मिर्ज़ा जैसे फ़रज़ाने कान पकड़ते हैं और हमारी हक़ीर ज़िंदगी को आला तालीमी मक़ासिद के लिए इस्तेमाल करते हैं।यानी इसे सामने रखकर अपनी औलाद को इब्रत दिलाते हैं,तनबीह-व-फ़हमाइश करते हैं।इन सफ़हात में हम अपने उस्लूब-ए-हयात की तौजीह-व-तशरीह करके पढ़ने वालों के हाथ में कलीद-ए-नाकामी नहीं देना चाहते।अल्बत्ता इतना ज़रूर अर्ज़ करेंगे कि मिर्ज़ा की तरह हम अपनी नालायक़ी को इरतक़ाई अदवार में तक़सीम तो नहीं कर सकते हैं,लेकिन जो हज़रात हमारे शौक़-ए-मुनफ़ाईल की दास्तान पढ़ने की ताब रखते हैं,वो देखेंगे कि हम सदा से हाजियों के पासपोर्ट फ़ोटो और तारीख़ी खंडरों की तस्वारें ही नहीं खींचते रहे हैं।
गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी
लेकिन हम किस शुमार क़तार में हैं।मिर्ज़ा अपने आगे बड़े बड़े फोटोग्राफ़रों को हेच समझते हैं।एक दिन हमने पूछा,मिर्ज़ा! दुनिया में सबसे बड़ा फ़ोटो ग्राफ़र कौन है?यूसुफ़ कारिश या सेसल बेटन? मुस्कुराते हुए बोले,तुमने वो हिकायत नहीं सुनी किसी नादान ने मजनूँ से पूछा,ख़िलाफत पर हक़ हज़रत-ए-हुसैन का है? या यज़ीदुलऐन का? अगर सच पूछो तो लैला का है!
इधर चंद साल से हमने ये मामूल बना लिया है कि हफ़्ता भर की ऐसाबी शिकस्त-व-रेख़्त के बाद इतवार को “मुकम्मल सब्त” मनाते हैं। और सनीचर की मुरादों भरी शाम से सोमवार की मनहूस सुब्ह तक हर वो फेअल अपने ऊपर हराम कर लेते हैं,जिसमें काम का अदना शाएबा या कमाई का ज़रा भी अंदेशा हो।छःदिन दुनिया के,एक दिन अपना।(मिर्ज़ा तो इतवार के दिन इतना आज़ाद और खुला-खुला महसूस करते हैं कि फ़जर की नमाज़ के बाद दुआ नहीं मांगते।और पीर के तसव्वुर से उनका जी इतना उलझता है कि एक दिन कहने लगे,इतवार अगर पीर के दिन हुआ करता तो कितना अच्छा होता!)ये बात नहीं कि हम मेहनत से जी चुराते हैं।जिस शग़्ल (फ़ोटो ग्राफ़ी) में इतवार गुज़रता है,उसमें तो मेहनत उतनी ही पड़ती है जितनी दफ़्तरी काम में।लेकिन फटोग्राफ़ी में दिमाग़ भी इस्तेमाल करना पड़ता है।और ‘माडल’ अगर निचले न बैठने वाले बच्चे हों तो न सिर्फ़ ज़्यादा बल्कि बार-बार इस्तेमाल करना पड़ता है।इस से बचने के लिए मिर्ज़ा ने अब हमें चंद उस्तादाना गुर सिखा दिए हैं।मस्लन एक तो यही कि परिंदों और बच्चों की तस्वीर खींचते वक़्त सिर्फ़ आँख पर फोकस करना चाहिए कि उनकी सारी शख़्सिय्यत खिंचकर आँख की चमक में आ जाती है।और जिस दिन उनकी आँख में ये चमक न रही,दुनिया अंधेर हो जाएगी।दूसरे ये कि जिस बच्चे पर तुम्हें प्यार न आए उसकी तस्वीर हरगिज़ न खींचो।फ़्रांस में एक नफ़ासत पसंद मुसव्विर गुज़रा है जो नजीब-उल-तरफ़ीन घोड़ों की तस्वीरें पेंट करने में यद-ए-तूला रखता था।निशात-ए-फ़न उसे इस दर्जा अज़ीज़ था कि जो घोड़ा दोग़ला या बीस हज़ार फ्रेंक से कम क़ीमत का हो,उसकी तस्वीर हरगिज़ नहीं बनाता था,ख़्वाह उसका मालिक बीस हज़ार मेहन्ताना ही क्यो न पेश करे।
महीना याद नहीं रहा।ग़ालिबन दिसंबर था।दिन अलबत्ता याद है,इसलिए कि इतवार था।और मज़कूरा बाला ज़र्रीं उसूलों से लैस,हम अपने ऊपर हफ़्ता-वार ख़ुद फ़रामोशी तारी किए हुए थे।घर में हमारे अज़ीज़ हम-साए की बच्ची नाजिया,अपनी सैफ़ो (सियामी बिल्ली)की क़द-ए-आदम तस्वीर खिंचवाने आई हुई थी। क़द-ए-आदम से मुराद शेर के बराबर थी।कहने लगी,“अंकल! जल्दी से हमारी बिल्ली का फ़ोटो खींच दीजिए।हम अपनी गुड़िया को अकेला छोड़ आए हैं।कल सुब्ह से बे-चारी के पेट में दर्द है। जभी तो कल हम स्कूल नहीं गए।”हमने झटपट कैमरे में तेज़ रफ़तार फ़िल्म डाली।तीनो “फ़ल्ड लैम्प” ठिकाने से अपनी-अपनी जगह रखे।फ़िर बिल्ली को दबोच-दबोच के मेज़ पर बिठाया।और उसके मुंह पर मुस्कुराहट लाने के लिए नाजिया पलास्टिक का चूहा हाथ में पकड़े सामने खड़ी हो गई।हम बटन दबा कर 1/100 सेकेंड में इस मुस्कुराहट को बक़ा-ए-दवाम बख़्शने वाले थे कि फ़ाटक की घंटी इस ज़ोर से बजी की सैफ़ू उछल कर कैमरे पर गिरी और कैमरा क़ालीन पर।हर दो को इसी हालत में छोड़कर हम ना-वक़त आने वालों के इस्तक़्बाल को दौड़े।
हज का सवाब नज़्र करूँगा हुज़ूर की
फाटक पर शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ खड़े मुस्कुरा रहे थे। उनके पहलू से रुई के दुगले में मलफ़ूफ़-व-मस्तूर एक बुज़ुर्ग हवीदा हुए,जिन पर पड़ते ही नाजिया ताली बजा के कहने लगीः
“हाय!कैसा क्यूट सेंटा क्लाज़ है!”
ये शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ के मामू जान क़िबला निकले, जो हज को तशरीफ ले जा रहे थे और हमें सवाब-ए-दारैन में शरीक करने के लिए मौज़ू चाक्सू (ख़ुर्द) से अपना पासपोर्ट फ़ोटो खिंचवाने आए थे।
“मामू जान तो बज़िद थे कि फ़ोटोग्राफ़र के पास ले चलो। बला से पैसे लग जाएं,तस्वीर तो ढंग की आए गी।बड़ी मुश्किलों से रज़ा-मंद हुए हैं यहाँ आने पर”उन्होंने शान-ए-नुज़ूल-ए-अजलाल बयान की।
ड्राइंग रूम में दाख़िल होते ही शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ साहब क मामू जान क़िब्ला दीवारों पर क़तार अंदर क़तार आवेज़ाँ तस्वीर-ए-बुताँ को आँखें फाड़-फ़ाड के देखने लगे।हर तस्वीर को एक दफ़ा फिर हम पर वो निगाह डालते,जो किसी तरह ग़लत अंदाज़ न थी।जैसी नज़्रों से वो ये तस्वीरें देख रहे थे,उनसे ज़ाहिर होता था कि साहिब-ए-नज़र का तअल्लुक़ उस नस्ल से है जिसने कल-दार रूपे पर बनी हुई मलका विक्टोरिया के बाद किसी औरत की तस्वीर नहीं देखी।एक बांकी सी तस्वीर को एक ज़रा क़रीब जाकर देखा।लाहौल पढ़ी।और पूछा,ये आप के लड़के ने खींची है?अर्ज़ किया,जी,नहीं!वो तो तीन साल से सातवीं में पढ़ रहा है।बोले हमारा भी यही ख़याल था,मगर एहतियातन पूछ लिया।
शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ साहब के मामू जान क़िब्ला (अपनी और कातिब की सहूलत के मद-ए-नज़र आइंदा उन्हें फ़क़त ‘मामू’ लिखा जाए जिन क़ारईन को हमारा इख़्तेसार ना-गवार गुज़रे,वह हर दफ़ा ‘मामू’ के बजाए शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ साहब के मामू जान क़िब्ला,पढ़ें)हमारी रहवरी के लिए ताया अब्बा मरहूम की एक मिटी मिटाई तस्वीर साथ लाए थे।शीशम के फ़्रेम को हिनाई अंगूछे से झाड़ते हुए बोले “ऐसी ख़ींच दीजिए”।हमने तस्वीर को ग़ौर से देखा तो पता चला कि मामू के अम्मे बुज़ुर्गवार भी वही रुई का दगला पहने खड़े हैं,जिस पर उल्टी करियाँ बनी हुई हैं।तलवार को बड़ी मज़बूती से पकड़ रखा है....... झाड़ू की तरह।अर्ज़ किया,क़िब्ला पास्पोर्ट फ़ोटो में तलवार की इजाज़त नहीं।फरमाया,आप को हमारे हाथ में तलवार नज़र आ रही है? हम बहुत ख़फ़ीफ़ हुए।इसलिए कि मामू के हाथ में वाक़ई कुछ न था।बजुज़ एक बे-ज़र्र गुलाब के,जिसे सूंघते हुए वो पासपोर्ट फ़ोटो खिंचवाना चाहते थे।मामू के कान(तो)‘ط’की मानिंद थे.........बाहर को निकले हुए। इस से ये न समझा जाए कि हम जिसमानी अयूब का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।दर-हक़ीक़त इस तश्बीह से हमें कानों की अफ़ादियत दिखानी मक़सूद है।क्यूँकि खुदा न-ख़्वास्ता कानों की साख़त ऐसी न होती तो उनकी तुर्की टोपी सारे चेहरे को ढांक लेती।इब्तिदाई तैयारियों के बाद बड़ी मिन्नतों से उन्हें फ़ोटो के लिए कुर्सी पर बिठाया गया।किसी तरह नहीं बैठते थे।कहते थे “भला ये कैसे हो सकता है कि आप खड़े रहें और मैं बैठ जाऊँ”।ख़ुदा-ख़ुदा करके वो बैठे तो हमने देखा कि उनकी गर्दन हिलती है।ज़ाहिर है हमें फ़ित्री रअशे पर क्या एतराज़ हो सकता है।असल मुसीबत ये थी कि गर्दन अगर दो सेकेंड हिलती तो टोपी का फुंदना दो मिनट तक हिलता रहता। हर दो अमल के एक नायाब वक़्फ़े में हमने “रेडी” कहा तो गोया आलम ही कुछ और था।एक दम अकड़ गए और ऐसे अकड़े कि जिस्म पर कहीं भी हथौड़ी मार कर रख दें तो टन-टन आवाज़ निकले।डेढ़ दो मिनट बाद तीसरी दफ़ा‘रेडी’कहकर कैमरे के दीदबान(VIEW-FINDER)से देखा तो चेहरे से ख़ौफ़ आने लगा।गर्दन पर एक रस्सी जैसी रंग न जाने कहाँ से उभर आई थी। चेहरा लाल।आँखें उस से ज़्यादा लाल।यकलख़्त एक अजीब आवाज़ आई।अगर हम उनके मुंह की तरफ़ न देख रहे होते तो यक़ीनन यही समझते कि किसी ने साईकल की हवा निकाल दी है।
“अब तो सांस लेलूँ?”सारे कमरे की हवा अपनी नाक से पम्प करते हुए पूछने लगे।अब सवाल ये नहीं था कि तस्वीर कैसी और किस पोज़ में खींची जाए।सवाल ये था कि उनका अम्ल-ए-तफ़न्नुस क्यूँकर बरक़रार रखा जाए कि तस्वीर भी खिंच जाए और हम क़त्ल-ए-अम्द के मुर्तकिब भी न हों।अपनी निगरानी में उन्हें दो चार ही सांस लिवाए थे कि मस्जिद से मुअज़्ज़िन की सदा बुलंद हुई।और पहली‘अल्लाहु-अक्बर’के बाद, मगर दूसरी पहले,मामू कुर्सी से हड़-बड़ा के उठ खड़े हुए।शीशे के जग से वज़ू किया।पूछा,क़िब्ला किस तरफ़?हमारे मुंह से निकल गया मग़्रिब की तरफ़।फ़रमाया,हमारा भी यही ख़याल था,मगर एहतियातन पूछ लिया।इसके बाद जा-नमाज़ तलब की।
मामू ने पलंग पोश पर ज़ोहर की नमाज़ क़ायम की।आख़िर में ब-आवाज़-ए-बुलंद दुआ मांगी,जिसे वो लोग,जिनका ईमान क़द्र-ए-ज़ईफ़ हो,फ़रमाइश की फ़ेहरिस्त कह सकते हैं।नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो हमें मुख़ातिब करके बड़ी नर्मी से बोले“चार फ़र्ज़ो के बाद दो सुन्नतें पढ़ी जाती हैं।तीन सुन्नतें किसी नमाज़ में नहीं पढ़ी जातीं।कम-अज़-कम मुसलमानों में!”
दूसरे कमरे में तआम-व-क़ैलूला के बाद चाँदी की ख़िलाल से हस्ब-ए-आदत-ए-क़दीम अपने मसनूई दांतों की रीख़ैं कुरेदते हुए बोले,“बेटा!तुम्हारी बीवी बहुत सुग्घड़ है।घर बहुत ही साफ़ सुथरा रखती है।बिलकुल हस्पताल लगता है।”इसके बाद उनकी और हमारी मुशतर्का जानकनी फिर शुरू हुई।हमने कहा “अब थोड़ा रिलेक्स(RELAX)कीजिए।”बोले“कहाँ करूँ?”कहा,“मेरा मतलब है,बदन ज़रा ढीला छोड़ दीजिए।और ये भूल जाए कि कैमरे के सामने बैठे हैं।”बोले,“अच्छा!ये बात है!”फ़ौरन बंधी हुई मुठ्ठियाँ खोल दीं।आँखें झपकाईं और फ़फेड़ो को अपना क़ुदरती फ़ेल फिर शुरू करने की इजाज़त दी।हमने इस“नेचुरल पोज़”से फाएदा उठाने की गर्ज़ से दौड़-दौड़ कर हर चीज़ को आख़िरी “टच” दिया,जिसमें ये बंधा टका फ़ीक़्रा भी शामिल था,“इधर देखिए।मेरी तरफ।ज़रा मुस्कुराए!”बटन दबाकर हम“शुक्रिया”कहने वाले थे कि ये देखकर ईरानी क़ालीन पैरों तले से निकल गया कि वो हमारे कहने से पहले ही ख़ुदा जाने कब से रिलैक्स करने की ग़र्ज़ से अपनी बत्तीसी हाथ में लिए हंसे चले जा रहे थे।हमने कहा“साहब!अब न हंसिए!” बोले “तो फिर आप सामने से हट जाइए!”
हमें उनके सामने से हटने में ज़्यादा सोच बिचार नहीं करना पड़ा।इसलिए कि उसी वक़्त नन्हीं नाजिया दौड़ी-दौड़ी आई और हमारी आस्तीन का कोना खींचते हुए कहने लगी“अंकल! हरी अप!प्लीज़!जा-नमाज़ पे बिल्ली पंजों से वज़ू कर रही है!हाय अल्लाह!बड़ी क्यूट लग रही है!”
फिर हम उस मंज़र की तस्वीर खींचने और मामू लाहौल पढ़ने लगे।
अगले इतवार को हम प्रोफेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस के फोटो की“री टचिंग”में जुटे हुए थे।पतलून की पंद्रहवीं सिलवट पर कलफ़ इस्त्री करके हम अब होंट का मस्सा छुपाने के लिए सिफ़र नंबर के ब्रश से मूंछ बनाने वाले थे कि इतने में मामू अपनी तस्वीरें लेने आ धमके। तस्वीरें कैसी आईं, इसके मुतआल्लिक़ हम अपने मंह से कुछ नहीं कहना चाहते।मुकालिमा ख़ुद चटाख़ पटाख़ बोल उठेगाः
“ हम ऐसे हैं?”
“क्या अर्ज़ करूँ!”
“तुम्हें किसने सिखाया तस्वीर खींचना?”
“जी! ख़ुद ही खींचने लग गया।”
“हमारा भी यही ख़याल था।मगर एहतियातन पूछ लिया।”
“आख़िर तस्वीर में क्या ख़राबी है?”
“हमारे ख़याल में ये नाक हमारी नहीं है।”
हमने उन्हें मुत्तला किया कि उनके ख़ायल और उनकी नाक में कोई मुताबिक़त नहीं है।इस पर उन्होंने ये जानना चाहा कि अगर तस्वीर को ख़ूब बड़ा किया,तब भी नाक छोटी नज़र आएगी क्या?
पंद-ए-सूद-मंद
दूसरे दिन मिर्ज़ा एक नई तर्ज़ के होटल “मांटी कारलो” के बाल रूम में उतारी हुई तस्वीर दिखने आए। और हर तस्वीर पर हमसे इस तरह दाद उसूल की जैसे मरहठे चौथ उसूल किया करते थे।ये स्पेन की एक स्ट्रिप टेनर डांसर (जिसे मिर्ज़ा उंदूलूसी रक़्क़ासा कहे चले जा रहे थे) की तस्वीरें थीं, जिन्हें बरहना तो नहीं कहा जा सकता था। इसलिए कि सफ़ेद दस्ताने पहने हुए थी। गर्म काफ़ी और तहसीन-ए-ना-शनास से उनकी तबीयत में इंशराह पैदा होने लगा तो मौक़ा ग़नीमत जान कर हमने मामूँ की ज़्यादतियाँ गोश-ए-गुज़ार कीं और मशविरा तलब किया। अब मिर्ज़ा में बड़ी पुरानी कमज़ोरी ये है कि उनसे कोई मशविरा मांगे तो हाँ में हाँ मिलाने के बजाए सच मुच मशवविरा ही देने लग जाते हैं। फिर ये भी कि हमारी सूरत में कोई ऐसी बात ज़रूर है कि हर शख़्स का बे-इख़्तियार नसीहत को जी चाहता है।चुनांचे फिर शुरू हो गएः
“साहब! आप को फोटो ख़ीचना आता है,फोटो खिचवाने वोलों से निमटना नहीं आता।सलामती चाहते हो तो कभी अपने सामने फोटो देखने का मौक़ा न दो।बस दबीज़ लिफ़ाफ़े में बंद करके हाथ में थमा दो और चलता करो।विक्टोरिया रोड के चौराहे पर जो फ़ोटो ग्राफर है।लहसनिया दाढ़ी वाला।अरे भई!वही जिसकी नाक पर चाक़ू का निशान है।आगे का दांत टूटा हुआ है।अब उसने बड़ा प्यारा उसूल बना लिया है।जो गाहक दुकान पर अपनी तस्वीर न देखे,उसे बिल में 25 फीसद नक़द रिआयत देता है।और एक तुम हो कि मुफ़्त तस्वीर खींचते हो। और शहर भर के बद-सूरतों से गालियाँ खाते फिरते हो।आज तक ऐसा नहीं हुआ कि तुमने किसी की तस्वीर खींची हो और वो हमेशा के लिए तुम्हारा जानी-दुश्मन न बन गया हो।”
कस्रत-ए-औलाद और ये फ़कीर-ए-पुर तक़्सीर
नसीहत की धुन में मिर्ज़ा ये भूल गए कि दुश्मनों की फेहरिस्त में इज़ाफ़ा करने में ख़ुद उन्होने हमारा काफ़ी हाथ बटाया है।जिसका अंदाज़ा अगर आप को नहीं है तो आने वाले वाक़ियात से हो जाएगा।हमसे कुछ दूर पी.डब्ल्यु.डी.के एक नामी ग्रामी ठेकेदार तीन कोठियों में रहते हैं।मारशल-ला के बाद से बे-चारे इतने रक़ीक़-उल-क़ल्ब हो गए है कि बरसात में कहीं से भी छत गिरने की ख़बर आए,उनका कलेजा धक से रह जाता है। हुलिया हम इसलिए नहीं बताएंगे कि इसी बात पर मिर्ज़ा से बुरी तरह डांट खा चुके हैं.......“नाक फ़िलिप्स के बल्ब जैसी,आवाज़ में बनक बैलेंस की खनक,जिस्म ख़ूब-सूरत सुराही की मानिंद.......यानी वास्त से फैला हुआ............”हमने आउट लाइन ही बनाई थी कि मिर्ज़ा घायल लहजे में बोले,“बड़े मज़ाह निगार बने फिरते हो।तुम्हें इतना भी मालूम नहीं कि जिस्मानी नक़ाएस का मज़ाक़ उड़ाना तंज़-व-मज़ाह नहीं।” करोड़ पती हैं,मगर इंकम टैक्स के डर से अपने को लखपती कहलवाते हैं।मुबदा-ए-फ़ैयाज़ ने उनकी तबीयत में कंजूसी कूट-कूट कर भर दी है।रूपया कमाने को तो सभी कमाते हैं।वो रखना भी जानते हैं।कहते हैं,आमदनी बढ़ाने की सहल तरकीब ये है कि ख़र्च घटा दो।मिर्ज़ा से रिवायत है कि उन्होंने अपनी बड़ी बेटी को इस वजह से जहेज़ नहीं दिया कि उसकी शादी एक ऐसे शख़्स से हुई,जो ख़ुद लखपती था।और दूसरी बेटी को इसलिए नहीं दिया कि उसका दूल्हा दिवालिया था।साल छःमहीने में नाक की कील तक बेच खाता।ग़र्ज़ लक्षमी घर की घर में रही।
हाँ तो इन्हीं ठेकेदार साहब का ज़िक्र है,जिनकी जाएदाद-ए-मनक़ूला-व-गैर मनक़ूला,मनकूहा-व-ग़ैर मनकूहा का नक़्शा शायर-ए-शीवा बयाँ ने एक मिस्रा में खींचकर रख दिया है;
एक इक घर में सौ-सौ कमरे,हर कमरे में नार
इस हसीन सूरत-ए-हाल का नताएज अक्सर हमें भुगतने पड़ते हैं।वो इस तरह कि हर नौ-मौलूद के अक़ीक़ा और पहली साल गिरह पर हमीं से याद-गार तस्वीर खिंचवाते हैं।और यही क्या कम है कि हम से कुछ नहीं लेते।इधर ढाई तीन साल से इतना करम और फ़रमाने लगे हैं कि जैसे ही ख़ानदानी मनसूबा शिकनी की शुबह-घड़ी क़रीब आती है तो एक नौकर,दाई को और दूसरा हमें बुलाने दौड़ता है,शरारत-ए-हमसाया की कार-फ़रमाई नज़र आए,वो ठेकेदार साहब के अलबम मुलाहिज़ा फ़रमा सकते हैं।हमारे हाथ की एक नहीं,दर्जनों तस्वीरें मिलेंगी,जिनमें मौसूफ़ कैमरे की आँख में आँखें डालकर नौ मौलूद के कान में अज़ान देते हुए नज़र आते हैं।
आए दिन की ज़चगियाँ झेलते-झेलते हम हलकान हो चुके थे,मगर ब-वजह शर्म-व-ख़ुश अख़लाक़ी ख़ामोश थे।अक़्ल काम नहीं करती थी कि इस कारोबार-ए-शौक़ को किस तरह बंद किया जाए।मजबूरन (मजबूरन अंग्रेज़ी मुहावरे के मुताबिक़) मिर्ज़ा को अपने एतिमाद में लेना पड़ा।अहवाल-ए-पुर मलाल सुनकर बोले,साहब!इन सब परिशानियों का हल एक फ़ूलदार फ़रॉक है।हमने कहा,मिर्ज़ा!हम पहले ही सताए हुए हैं।हम से ये ऐब्सट्रेक्ट गुफ़तुगू तो न करो।बोले,तुम्हरी ढलती जवानी की क़सम! मज़ाक़ नहीं करता।तुम्हारी तरह हमसायों के लख़्त हाए जिगर की तस्वीरे खींचते-खींचते अपना भी भुरकस निकल गया था।फिर मैं ने तो ये किया कि एक फूल-दार फ़रॉक ख़रीदी और उसमें एक नौज़ाएदा बच्चे की तस्वीर खींची।और उसकी तीन दर्जन कापियाँ बनाकर अपने पास रख लीं।अब जो कोई अपने नौमौलूद की फ़रमाइश करता है तो ये शर्त लगा देता हूँ कि अच्छी तस्वीर दरकार है तो ये ख़ूब-सूरत फूल-दार फ़रॉक पहना कर खिंचवाओ।फिर कैमरे में फ़िल्म डाले बग़ैर बटन दबाता हूँ।और दो तीन दिन का भुलवा देकर इसी उम-उल-त्साविर की एक कपि पकड़ा देता हू।हर बाप को इसमें अपनी शबाहत नज़र आती है!
हादसात और इब्तिदाई क़ानूनी इमदाद
हमारे पुराने जानने वालों में आग़ा वाहिद आदमी हैं,जिनसे अभी तक हमारी बोल चाल है।इसकी वाहिद वजह मिर्ज़ा ये बताते हैं कि हमने कभी उनकी तस्वीर नहीं खींची,गो कि हमारी फ़नकाराना सलाहितों से वो भी अपने तौर पर मुस्तफ़ीद हो चुके हैं।सूरत-ए-इस्तेफ़ादा ये थी कि एक इतवार को हम अपने “डार्क रूम”(जिसे पीर से सनीचर तक घर वाले ग़ुसुल-ख़ाना कहते हैं) मैं अंधेरा किए एक मारपीट से भरपूर सियासी जलसे के पिरिंट बना रहे थे।घुप अंधेरे में एक मुन्ना सा सूर्ख बल्ब जल रहा था,जिस से बस इतनी रोशनी निकल रही थी कि वो ख़ुद नज़र आ जाता था।पहले पिरिंट पर काली झंडियाँ साफ़ नज़र आने लगीं थीं, लेकिन लीडर का चेहरा किसी तरह उभर के नहीं देता था। लिहाज़ा हम उसे बार-बार चिमटी से तेज़ाबी महलूल में ग़ोते दिए जा रहे थे। इतने में किसी ने फ़ाटक की घंटी बजाई और बजाता चला गया।हम जिस वक़्त चिमटी हाथ में लिए पहुंचे हैं, तो घर वाले ही नहीं,पड़ोसी भी दौड़ कर आ गए थे। आग़ा ने हथेली से घंटी का बटन दबा रखा था और लरज़ती कपकपाती आवाज़ में हाज़्रीन को बता रहे थे कि वो किस तरह अपनी सधी सधाई मरंजाँ मरंज कार में अपनी राह चले जा रहे थे कि एक ट्राम दनदनाती हुई “रांग साइड” से आई।और उनकी कार से टकरा गई। हमारे मुंह से कही निकल गया,“मगर थी तो अपनी ही पटरी पर?” तिनतिनाते हुए बोले“जी,नहीं! टेक आफ़ करके आई थी!” ये मौक़ा उनसे उलझने का नहीं था,इसलिए कि वो जल्दी मचा रहे थे। ब-क़ौल उनके रही सही इज़्ज़त ख़ाक-ए-कराची में मिली जा रही थी।और उसी की ख़ातिर टक्कर होने से एक दो सेकेंड पहले ही वो कार से कूद कर ग़रीब ख़ाना की सिम्त रवाना हो गए थे ताकि चालान होते ही अपनी सफ़ाई में बतौर-ए-दलील नंबर 2 हादसा का फ़ोटो मा फ़ोटो ग्राफ़र पेश कर सकें। दलील नंबर 1ये थी कि जिस लमहे कार ट्राम से टकराई,वो कार में मौजद ही नहीं थे।
हम जिस हाल में थे,उसी तरह कैमरे लेकर आग़ा के साथ हो लिए और हांपते कांपते मौक़ा-ए-वारदात पर पहुंचे।देखा कि आग़ा की कार का बम्पर रट्राम के बम्पर पर चढ़ा हुआ है। अगला हिस्सा हवा में मुअल्लिक़ है और एक लौंडा पहिया घुमा-घुमा कर दूसरे से कह रहा है“अबे फ़ज़लू! इस के तो पहिए भी हैं!”
आग़ा का इसरार था कि तस्वीरे ऐसे ज़ाविए से ली जाएं, जिस से साबित हो कि पहले मुशताइअल ट्राम ने कार के टक्कर मारी।इसके बाद कार टकराई! वो भी महज़ हिफ़ाज़त-ए-ख़ुद इख़्तियारी में!हमने एहतियातन मुलज़िमा के हर पोज़ की तीन-तीन तस्वीरे ले लीं।ताकि उनमें मुबैअना ज़ाविया भी,अगर कहीं हो,तो आ जाए।हादसे को फ़िलमाते वक़्त हम इस नतीजे पर पहुंचे कि इस पेश बंदी की चंदाँ जरूरत न थी।इसलिए कि जिस ज़ाविए से मज़रूबा मुलज़िमा पर चढ़ी थी और जिस पैंतरे से आग़ा ने ट्राम और क़ानून से टक्कर ली थी,उसे देखते हुए उनका चालान इक़्दाम-ए-ख़ुद-कशी में भले ही हो जाए,ट्राम को नुक़सान पहुंचाने का सवाल पैदा नहीं होता था।इधर हम किलिक-किलिक तस्वीर पर तस्वार लिए जा रहे थे,उधर सड़क पे तमाशाइयों का हुजूम था कि बढ़ता जा रहा था।हमने कैमरे में दूसरी फ़िल्म डाली।और कार का“क्लोज़ाप” लेने की ग़र्ज़ से मिर्ज़ा हमें सहारा दे कर ट्राम की छत पर चढ़ाने लगे।इतने में एक गबरू पुलिस सार-जंट भीड़ को चीरता हुआ आया।आकर हमें नीचे उतारा।और नीचे उतार के चालान कर दिया......शार-ए-आम पर मजमा लगा के उमदन रुकावट पैदा करने के इल्ज़ाम में!और ब-क़ौल मिर्ज़ा, वो तो बड़ी ख़ैरियत हुई कि वह वहा मौजूद थे।वर्ना हमें तो कोई ज़मानत देने वाला भी न मिलता।खिंचे-खिंचे फिरते।
अक़्द-ए-सानी और आजिज़
ये पहला और आख़री मौक़ा नहीं था कि हमने अपने हक़ीर आर्ट से क़ानून और इंसाफ़ के हाथों को मंसूबा किया।(माफ़ कीजिए।हम फिर अंग्रेज़ी तरकीब इस्तेमाल कर गए।मगर क्या किया जाए,अंग्रेज़ों से पहले ऐसा ब-जूग भी तो नहीं पड़ता था) अपने बे-गानों ने बारहा ये ख़िदमत बे मुज़द हम से ली है।तीन साल पहले का ज़िक्र है।आइली क़ानून(जिसे मिर्ज़ा क़ानून-ए-इस्नादाद-ए-निकाह कहते हैं)का नेफ़ाज़ अभी नहीं हुआ था। मगर प्रेस में इसकी मवाफ़िक़त में तहरीरैं और तक़रीरैं धड़ा-धड़ छप रही थीं।जिनके गुजराती तरजुमों से गड़-बड़ाकर“बनूला किंग” सेठ अब्दुल ग़फ़ूर इब्राहीम हाजी मोहम्मद इसमाईल यूनुस छाबड़ी वाला एक लड़की से चोरी छुपे निकाह कर बैठे थे।हुलिया न पूछे तो बेहतर है।अहल-ए-बनीश को इतना इशारा काफ़ी होना चाहिए कि अगर हम उनका हूलिया ठीक-ठीक बताने लगें तो मिर्ज़ा चीख़ उठेंगे“साहब!ये तंज़-व-मज़ाह नहीं है!” इस से ये न समझा जाए कि हम उनको हिक़ारत की नज़र से देखते हैं। हाशा-व-कल्ला।हमने कुछ अर्से से ये उसूल बना लिया है कि किसी इंसान को हिक़ारत से नहीं देखना चाहिए।इसलिए कि हमने देखा कि जिस किसी को हमने हक़ीर समझा,वो फ़ौरन तरक़्क़ी कर गया।हाँ तो हम ये कह रहे थे कि जिस दिन से तादाद-ए-इज़वाज का क़ानून लागू होने वाला था,उसकी “चाँद रात” को सेठ साहब ग़रीब ख़ाने पर तशरीफ़ लाए।इंतिहाई सरासमयगी के आलम में।इनके हमराह सरासमयगी भी थी।जो सियाह बुरक़ा में थी।और बहुत ख़ूब थी।
रात के दस बज रहे थे।वो कैमरा,स्क्रीन और रोशनियाँ ठीक करते-करते ग्यारह बज गए।घंटा भर तक सेठ साहब CANDID FIGURE STUDIES को इस तरह घूरते रहे कि पहली मर्तबा हमें अपने फ़न से हिजाब आने लगा।फरमाया,अजुन बिगड़ेली बायूँ की फोटो-ग्राफ लेने में तो तुम एक नंबर उस्ताद हो।पन कोई भैन बेटी कपड़े पहन कर फोटो खिंचवाए तो क्या तुमेरा कैमरा काम करींगा? हमने कैमरे के नेक चलनी की ज़मानत दी और तिपाई रखी। तिपाई पर सेठ साहब को खड़ा किया।और उनके बाएं पहलू में दुल्हन को (सैंडल उतरवा कर) खड़ा करके फ़ोकस कर रहे थे कि वो तिपाई से छलांग लगा कर हमारे पास आए और टूटी फूटी उर्दू में,जिसमें गुजराती से ज़्यादा घबराहट की आमेजिश थी,दरख़्वास्त की कि सुरमई पर्दे पर आज की तारीख़ कोइले से लिख दी जाए और फोटो इस तरह लिया जाए कि तारीख साफ़ पढ़ी जा सके।हमने कहा,सेठ! इस की क्या तुक है? तिपाई पर वापिस चढ़ के उन्होंने बड़े ज़ोर से हमें आँख मारी और अपनी टोपी कि तरफ़ ऐसी बे-कसी से इशारा किया कि हमें उनके साथ अपनी इज़्ज़त आबरू भी मिट्टी में मिलती नज़र आई।फिर सेठ साहब अपना बायाँ हाथ दुल्हन के कंधे पर मालिकाना अंदाज़ से रख कर खड़े हो गए।दायाँ हाथ अगर और लम्बा होता ते ब-ख़ुदा उसे भी वहीं रख देते।फिल-हाल उसमें जलता हुआ सिग्रेट पकड़े हुए थे।हमारा“रेडी” कहना था कि तिपाई से फिर ज़क़ंद लगा कर हमसे लिपट गए।या अल्लाह!ख़ैर!अब क्या लफ़ड़ा है सेठ?मालूम हुआ,अब की दफ़ा ब-चश्म-ए-ख़ुद ये देखना चाहते थे कि वो कैमरे में कैसे नज़र आ रहे हैं!खुशामद दर-आमद करके फिर तिपाई पर चढ़ाया।और क़ब्ल इसके कि घड़याल रात के बारह बजा कर नई सुब्ह और क़ानून-ए-इन्सदाद-ए-निकाह के नफ़ाज़ का एलान करे,हमने उनके ख़ुफिया रिश्त-ए-मुनाकहत का मज़ीद दस्तावेज़ी सुबूत को डिक फ़िल्म पर महफ़ूज़ कर लिया।
असल दुशवारी ये थी कि तस्वीर खींचने और खिंचवाने के आदाब से मुतअल्लिक़ जो हिदायात सेठ साहब बुज़बान-ए-गुजराती या इशारों से देते रहे,उनका मंशा कम-अज़-कम हमारे फ़हम-ए-नाक़िस में ये आया कि दुल्हन सिर्फ़ उस लम्हे नक़ाब उल्टे जब हम बटन दबाएं।और जब हम बटन दबाएं तो ऐनक उतार दें।उनका बस चलता तो कैमरे का भी ‘लेंस’ उतरवा कर तस्वीर खिंचवाते।
रात की जगार से तबीयत तमाम दिन कुसलमंद रही। लिहाज़ा दफ़्तर से दो घंटे पहले ही उठ गए।घर पहुंचे तो सेठ साहब ममदूह-व-मनकूह को बरामदे में टहलते हुए पाया।गर्दन झुकाए,हाथ पीछे को बांधे,बे-क़रारी के आलम में टहले चले जा रहे थे।हमने कहा सेठ अस्सलामु-अलैकुम!बोले बालैकुम!पन फिलम को गुसल कब देंगा?हमने कहा,अभी लो,सेठ!फिर उन्होने ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि उनकी शरीक-ए-हयात की तस्वीर को उनकी मौजूदगी में “ग़ुस्ल”दिया जाए हमने जगह की तंगी का उज़्र किया,जिसके जवाब में सेठ साहब ने हमें बनोले की एक बोरी देने का लालच दिया।जितनी देर तक फ़िल्म डेवलप होती रही,वो फ़लश की जंजीर से लटके,इस गुनह-गार की नक़्ल-व-हरकत की कड़ी निगरानी करते रहे।
हम“फ़िक्सर”आख़िरी डूब दे चुके तो उन्होंने पूछा“किलियर आई है?”अर्ज़ किया बिल्कुल साफ़ चौबी गीरा से टपकती हुई फ़िल्म पकड़ के हमने उन्हें भी देखने का मौक़ा दिया।शार्क स्किन का कोट ब्रेस्ट पॉकेट के बटवे का उभार भी साफ नज़र आ रहा था।तारीख़ निगेटिव में उल्टी थी,मगर साफ़ पढ़ी जा सकती थी।चेहरे पर भी ब-क़ौल उनके काफ़ी रोशनाई थी।उन्होंने जल्दी-जल्दी दुल्हन की अंगूठी के नग गिने और उन्हें पूरे पाकर ऐसे मुतमइन हुए कि चुटकी बजा कर सिग्रट छंगलिया में दबाके पीने लगे। बोले,“मिस्टर!ये तो सोला आने किलियर है।आँख, नाक,जेब पाकेट,एक-एक नग चुगती संभाल लो।अपने बही खाते कि मवाफिक! अजुन अपनी उमेगा वाच की सुई भी बरोबर ठीक टेम देती पड़ी है।ग्यारह क्लाक।और अपुन के हाथ में जो एक ठू सिग्रेट जलता पड़ा है,वो भी साला एक दम लेट मारता है।” ये कह कर वो किसी गहरे सोच में डूब गए।फिर एक झटके से चेहरा उठा कर कहने लगे“ बड़े साहब! इस सिग्रेट पे जो साला K2 लिखे ला है,उसकी जगह Player’s No.3 बना दो नी!”
दरबार-ए-अक्बरी में बारयाबी
ख़ैर,यहाँ तो मुआमला सिग्रेट ही पर टल गया,वर्ना हमारा तजर्बा है कि सौ फ़ी-सद हज़रात और निन्नानवे फ़ीसद ख़वातीन तस्वीर में अपने आप को पहचानने से साफ़ इनकार कर देते हैं। बाक़ी रहें एक फ़ी-सद।सो उन्हें अपने कपड़ों की वजह से अपना चेहरा क़ुबूलना पड़ता है।लेकिन अगर इत्तफ़ाक़ से कपड़े भी अपने न हों तो फिर शौक़िया फोटो ग्राफ़र को चाहिए कि और रूपया बरबाद करने का कोई और मश्ग़ला तैयार करे,जिस में कम-अज़-कम मार पीट का इमकान तो न हो।इस फ़न में दर्द न रखने वालों की आँखें खोलने के लिए हम सिर्फ़ एक वाक़िया बयान करते हैं।पिछले साल बग़दादी जिम ख़ाना में तंबूला से तबाह होने वालों की इमदाद के लिए यकुम अप्रैल को “अकबर-ए-आज़म” खेला जाने वाला था और पब्लिसिटी कमिटी ने हम से दरख़्वास्त की थी कि हम ड्रेस रिहलसल की तस्वीरें खींचें ताकि अख़बारात को दो दिन पहले मुहय्या की जा सकें।
हम ज़रा देर से पहुंचे।चौथा सीन चल रहा था।अकबर-ए-आज़म दरबार में जलवा अफ़रोज़ थे और उस्ताद तान सेन बिनजू पर हज़रत फ़िराक़ गोरखपूरी की सह गज़ला राग मालकोस में गा रहे थे।जो हज़रात कभी इस राग या किसी सह ग़ज़ला की लपेट में आ चुके हैं,कुछ वो ही अंदाज़ा लगा सकते हैं,कि अगर ये दोनों यकजा हो जाएं तो उनकी संगत क्या क़यामत ढाती है।अकबर-ए-आज़म का पार्ट जिम-ख़ाने के प्रोपैगंडा सेक्रेट्री सिबग़े (शेख़ सिबग़तुल्लाह) अदा कर रहे थे।सर पर टीन का मसनूई ताज चमक रहा था,जिस में से अब तक असली घी की लपटैं आ रही थीं।ताज-ए-शाही पर शीशे के पेपर वेट का कोह-ए-नूर हीरा जगमगा रहा था।हाथ में उसी धात यानी असली टीन की तलवार।जिसे घमसान का रन पड़ते ही दोनों हाथों से पकड़ के वो कुदाल की तरह चिलाने लगे।आगे चल कर हलदी घाट की लड़ाई में ये तलवार टूट गई तो ख़ाली न्याम से दाद-ए-शुजाअत दे रहे हैं।अंजाम कार ये भी जवाब दे गया कि राणा प्रताप का सर इस से भी सख़्त निकला।फिर महाबली इसकी आख़िरी पिच्चर तमाशाइयों को दिखाते हुए दारोग़ा इस्लहा ख़ाना को राएज-उल-वक़्त गालियाँ देने लगे।हस्ब-ए-आदत ग़ुस्से में आपे से बाहर हो गए।लेकिन हस्ब-ए-आदत,मुहावरे को हाथ से न जाने दिया।दूसरे सीन में शहज़ादा सलीम को आड़े हाथों लिया। सलीम अभी अनार कली पर अपना वक़्त बरबाद कर रहा था। उसका दौर-ए-जहाँगीरी,बल्कि नूर-ए-जहाँगीरी अभी शुरू नहीं हुआ था।दौरान-ए-सरज़निश ज़ील्ल-ए-सुबहानी ने दस्त-ए-ख़ास से एक तमांचा भी मारा जिसकी आवाज़ आख़िरी क़तार तक सुनी गई। तमांचा तो अनार कली के गाल पर भी मारा था,मगर उसका ज़िक्र हमने मसलेहतन नहीं किया,क्यूँकि ये महाबली ने कुछ इस अंदाज़ से मारा कि पास से तो कम-अज़-कम हमें यही लगा कि वो दो मिनट तक अनार कली का मैक-अप से तिमतिमाता हुआ रुख़सार सहलाते रहे।
पाँचों उंगलियों पर गाल के निशान बन गए थे!
अकबरःशेख़ू!अनार कली का सर तेरे क़दमों पर है,मगर उसकी नज़र ताज पर है।
सलीमः मोहब्बत अंधी होती है आलम पनाह!
अकबरः मगर इसका ये मतलब नहीं कि औरत भी अंधी होती है!
सलीमः लेकिन अनार कली औरत नहीं,लड़की है,आलम पनाह!
अकबरः(आस्तीन और तेवरी चढ़ाकर)ऐ ख़ान-दान-ए-तैमूरिया की आख़री निशानी! ऐ ना ख़ल्फ़, मगर (कलेजा पकड़ के) इकलौते फरज़ंद!याद रख मैं तेरा बाप भी हूँ और वालिद भी!
इस ड्रामाई इंकेशाफ़ को नई नस्ल की आगाही के लिए रिकॉर्ड अज़ बस ज़रूरी था।लिहाज़ा हम कैमरे में“फ्लैश गन” फ़िट करके आगे बढ़े।ये एहसास हमें बहुत बाद में हुआ कि जितनी देर हम फ़ोकस करते रहे,महाबली अपना शाही फ़रीज़ा यानी डांट डंपट छोड़ छाड़ कर सांस रोके खड़े रहे।वो जो यकलख़्त ख़ामोश हुए तो पिछली नशिस्तों से तरह-तरह की आवाज़ आने लगीः
“अबे! डाइलाग भूल गया क्या?”
“तमांचा मार के बेहोश हो गया है!”
“महाबली! मुंह से बोलो।”
अगले सीन में फ़िल्मी तकनीक के मुताबिक़ एक“फ्लेश बैक” था।महाबली की जवानी थी और उनकी मूंछों पर अभी पावडर नहीं बुरका गया था।बाग़ि-ए-आज़म,हेमू बुक़्क़ाल (तमाशाइयों की तरफ़ मुंह करके) सजदे में पड़ा था।और हज़रत ज़िल्ल-ए-सुबहानी तलवार सोंते भुट्टा सा उसका सर उड़ाने जा रहे थे।हम भी फ़ोटो खींचने लपके।लेकिन फ़िट लाइट्स से कोई पांच गज़ दूर होंगे कि पीछे से आवाज़ आई......बैठ जाओ,यूसुफ़ कारश! और इसके फौरन बाद एक ना-महरबाँ हाथ ने बड़ी बे-दर्दी से पीछे कोट पकड़ के खींचा।पलट के देखा तो मिर्ज़ा निकले बोले“अरे साहब! ठीक से क़त्ल तो कर लेने दो।वर्ना साला उठ के भाग जाएगा और अलम-ए-बगावत करेगा!”
दूसरे ऐक्ट में कोई क़ाबिल-ए-ज़िक्र वाक़िया यानी क़त्ल नहीं हुआ।पांचों मनाज़िर में शहज़ादा सलीम,अनार कली को इस तरह हाल-ए-दिल सुनाता रहा,गोया इम्ला लिखवा रहा है।तीसरे ऐक्ट में सिब्ग़े,हमारा मतलब है ज़िल्ल-ए-सुबहानी,शाही पेचवान की गज़ों लम्बी रबर की नै (जिस से दिन में जिम-ख़ाना के लॉन को पानी दिया गया था) हाथ में थामे अनार कली पर बरस रहे थे और हम हाज़िरीन की हूटिंग की डर से“विंग” में दुबके हुए इस सीन को फ़िलमा रहे थे कि सामने की“विंग” से एक शेर-ख़्वार स्टेज पर घुटनियों चलता हुआ आया और गला फाड़-फाड़ के रोने लगा।बिल-आख़िर मामता,इश्क़ और अदाकारी पर ग़ालिब आई और इस अफ़ीफ़ा ने तख़्त-ए-शाही की ओट में हाज़रीन से पीठ करके उसका मुंह क़ुद्रती ग़िज़ा से बंद किया।उधर महाबली ख़ून के से घूंट पीते रहे।हमने बढ़ कर पर्दा गिराया।
आख़िरी ऐक्ट के आख़िरी सीन में अकबर-ए-आज़म का जनाज़ा बैंड बाजे के साथ बड़े धूम धड़क्के से निकला।जिसे फ़िलमाने के बाद हम ग्रीन रूम में गए और सिब्ग़े को मुबारक बाद दी कि इस से बेहतर मुर्दे का पार्ट आज तक हमारी नज़र से नहीं ग़ुज़रा।उन्होंने ब-तौर-ए-शुक्रिया कोरे कफ़न से हाथ निकाल कर हम से मुसाफ़ा किया।हमने कहा सिब्ग़े! और तो जो कुछ हुआ,सो हुआ,मगर अकबर कोह-ए-नूर हीरा कब लगाता था? जभी तो हमने नक़ली कोह-ए-नूर लगाया था!
“डेवलपर” को बर्फ़ से 70 डिग्री ढंडा करके हमने रातों रात फिल्म डेवलप की।और दूसरे दिन हस्ब-ए-वादा तस्वीरों के पुरूफ़ दिखाने जिम-ख़ाना पहुंचे।घड़ी हमने आज तक नहीं रखी। अंदाज़न रात के ग्यारह बज रहे होंगे।इसलिए के अभी तो डिनर की मेंज़े सजाई जा रही थी,और उनको ज़ीनत बख़्शने वाले मिम्बरान “रैन बू-रुम” (बार) में ऊंचे-ऊंचे स्टूलों पर टंगे न जाने कब से हमारी राह देख रहे थे।जैसे ही मिंबरान हमारे जाम-ए-सहत की आख़िरी बूंद नोश कर चके,हमने अपने चरमी बैग से “रश प्रिंट” निकाल कर दिखाए......और साहब!वो तो ख़ुदा ने बड़ा फ़ज़ल किया उनमें से एक भी खड़े होने के क़ाबिल न था।वर्ना हर मिंबर,क्या मर्द,क्या औरत,आज हमारे क़त्ल में माख़ूज़ होता।
ज़िल्ल-ए-सुबहानी ने फ़रमाया,हमने अनार कली को उसकी बे-राह रवी पर डांटते वक़्त आँख नहीं मारी थी।शहज़ादा सलीम अपना फोटो मुलाहिज़ा फरमा कर कहने लगे कि ये तो नेगिटों है!शेख़ अबुल फ़ज़ल ने कहा,नूर जहाँ,बेवा-ए-शेर अफ़गन,तस्वीर में सर-ता-पा मर्द अफ़गन नज़र आती है।राजा मान सिंह कड़क कर बोले कि हमारे आब-ए-रवाँ के अंगरखे में टोडरमिल की पिस्लियाँ कैसे नज़र आ रही हैं?मुल्ला दो प्याज़ा ने पूछा,ये मेरे हाथ में दस उंगलियाँ क्यूँ लगा दीं आप ने? हमने कहा,आप हिल जो गए थे।बोले,बिल्कुल ग़लत।ख़ुद आप का हाथ हिल रहा था। बल्कि मैं ने हाथ से आप को इशारा भी किया था कि कैमरा मज़बूती से पकड़िए।अनार कली की वालिदा कि बड़े कल्ले ठल्ले की औरत हैं,तुनक कर बोलीं,अल्लाह न करे,मेरी चाँद सी बन्नो ऐसी हो (उन की बन्नों के चेहरे को अगर वाक़ई चाँद से तश्बीह दी जासकती थी,तो ये वो चाँद था,जिस में बुढ़िया बैठी चरख़ा कातती नज़र आती है।)मुख़तसर ये कि हर शख़्स शाकी,हर शख़्स ख़फ़ा।अकबर-ए-आज़म के नौरतन तो नौरतन, ख़्वाजा-सरा तक हमारे ख़ून के प्यासे हो रहे थे।
पैदा होना पैसा कमाने की सूरत का
हम से जिम-ख़ाना छूट गया।औरों से क्या गिला,सिब्ग़े तक खिंचे-ख़िंचे रहने लगे।हमने भी सोचा,चलो तुम रूठे,हम छूटे। वाहसर ताकि उनकी ख़फ़गी और हमारी फ़राग़त चंद रोज़ा साबित हुई।क्यूँकि दस पंद्रह दिन बाद उन्होंने अपने फ़्लेट वाक़े छटी मंज़िल पर“सिब्ग़े एडवर टाइज़र(पाकिस्तान)प्राइवेट लिमटेड” का शोख सा साइन बोर्ड लगा दिया,जिसे अगर बीच सड़क पर लेट कर देखा जाता तो साफ़ नज़र आता।दूसरा नेक काम उन्होंने ये किया कि हमें एक नए साबुन“स्कैंडल सोप”के इश्तिहार के लिए तस्वीर खींचने पर कमीशन (मामूर) किया। अजब इत्तेफ़ाक़ है अजब इत्तिफ़ाक़ है कि हम ख़ुद कुछ अर्से से बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे कि हमारे हाँ औरत,इबादत और शराब को अब तक क्लोरो-फ़ार्म की जगह इस्तेमाल किया जाता है।यानी दर्द-व-अज़िय्यत का एहसास मिटाने के लिए,न कि सुरूर-व-इंबिसात कि ख़ातिर।इसी एहसास को सुनकर देने वाली पिंक की तलाश में थके हारे फ़ुनून-ए-लतीफ़ा तक पहुंचते हैं। और ये ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी अय्याशी को ज़रिया-ए-मआश नहीं बनाया जा सकता।चुनांचे पहली सी बोली पर हमने अपनी मताए हुनर से पीछा छुड़ाने का फैसला कर लिया।फ़िर मुआवज़ा भी माक़ूल था।यानी ढाई हज़ार रूपये।जिस में से तीन रूपये नक़्द उन्होंने हमें उसी वक़्त अदा कर दिए।और इसी रक़्म से हमने ग्यूर्ट की 27 डिग्री की सुस्त रफ़तार फ़िल्म ख़रीदी,जो जिल्द के निखार और नरमी को अपने अंदर धीरे-धीरे समो लेती है।“चेहरा”मोहय्या करने की ज़िम्मेदारी स्कैंडल सोप बनाने वोलों के सर थी।तस्वीर की पहली और आख़िरी शर्त ये थी कि “सेक्सी”हो।इस मक़सद-ए-जमील के लिए जिस ख़ातून की ख़िदमत पेश की गईं,वो बुर्क़े में निहायत भली मालूम होती थीं। बुर्क़ा उतरने के बाद खुला कि
ख़ूब था पर्दा,निहायत मस्लेहत की बात थी
सेक्स अपील तो एक तरफ़ रही,उस दुखिया के तो मुंह में मक्खन भी नहीं पिघल सकता था।अल्बत्ता दूसरी ‘माडल’ का बा-किफ़ायत लिबास अपने मुज़मिरात को छुपाने से बू-जूह क़ासिर था।हमने चंद रंगीन“श़ॉट”तीखे-तीखे ज़ावियों से लिए और तीन चार दिन बाद मिर्ज़ा को प्रोजेक्टर से TRANSPARENCIES दिखाईं।कोडक के रंग दहक रहे थे।सरकश ख़ुतूत पुकार-पुकार कर एलान-ए-जिंस कर रहे थे।हमने इस पहलू पर तवज्जो दिलाई तो इरशाद हुआ,ये एलान-ए-जिंस है या कपड़े की सनअत के ख़िलाफ़ एलान-ए-जंग?
तीसरी“सिटिंग”(निशिस्त)से दस मिनट पेश्तर मिर्ज़ा हस्ब-ए-वादा हमारी कुमक पर आ गए।सोचा था,कुछ नहीं तो दुसराथ रहेगी।फिर मिर्ज़ा का तजर्बा,ब-सबब उन तबआ-ज़ाद ग़ल्तियों के,जो वो करते रहे हैं,हम से कहीं ज़्यादा वसी-व-गूनागूँ है।लेकिन उन्होंने तो आते ही आफ़त मचा दी।असल में वो अपने नये “रोल” (हमारे फ़न्नी मुशीर) में फूले नहीं समा रहे थे।अब समझ में आया कि नया नौकर दौर कर हिरन के सींग क्यूँ उखाड़ता है और अगर हिरन भी नया हो तो
अस्दुल्लाह ख़ाँ क़यामत है!
वैसे भी मैक-अप वग़ैरा के बारे में वो कुछ ताअस्सुबात रखते हैं,जिन्हें इस वक़्त‘माडल’के चेहरे पर थोपना चाहते थे (मसलन काली औरतों के बारे में उनका ख़याल है कि उन्हें सफ़ेद सुर्मा लगाना चाहिए।अधेड़ मर्द के दाँत बहुत उजले नहीं होने चाहिएं,वर्ना लोग समझेंगे की मसनूई हैं।अला-हाजज़ा-उल-क़यास)।बोले लिप-स्टिक पर वैस्लीन लगवाओ।इस से होंट VOLUPTUOUS मालूम होन लगैंगे।आज कल के मर्द उभरे-उभरे गुर्दासे होंट पे मरते हैं।और हाँ ये फटीचर ऐनक उतार के तस्वीर लो।हमने रफ़ा-ए-शर के लिए फ़ौरन ऐनक उतार दी।बोले,साहब! अपनी नहीं उसकी।बाद-ए-अज़ाँ इरशाद हुआ,फ़ोटो को लिए नई और चमकीली सारी क़तई मौज़ूँ नहीं।खैर।मगर कम-अज़-कम सैंडल तो उतार दो।पुराना-पुराना लगता है।हमने कहा,तस्वीर चेहरे कि ली जा रही है,न कि पैरों की।बोले,अपनी टाँग न अड़ाओ। जैसे उस्ताद कहता है वही करो।हमने बेगम का शेमपैयन के रंग का नया सैंडल ला कर दिया।और ये अजीब बात है कि उसे पहन कर उसके“एक्सप्रेशन”में एक ख़ास तमकनत आ गई। बोले, साहब!ये तो जूता है।अगर किसी के बनयान में छेद हो तो इसका असर भी चेहरे के एक्सप्रेशन पर पड़ता है।ये नुक्ता बयान करके वो हमारे चेहरे की तरफ़ देखने लगे।
आँखें मेरी बाक़ी उनका
एड़ी से चोटी तक इसलाह-ए-हुस्न करने के बाद उसे सामने खड़ा किया और वो प्यारी-प्यारी नज़्रों से कैमरे को देखने लगी तो मिर्ज़ा फ़िर बीन बजाने लगे“साहब!ये फ़रंट पोज़,दो-कानों बीच एक नाक वाला पोज़ सिर्फ़ पास्पोर्ट में चलता है।आप ने ये नहीं देखा कि इसकी गर्दन लंबी है और नाक का कट यूनानी।चेहरा साफ कहे देता है कि मैं सिर्फ़ प्रोफ़ाइल के लिए बनाया गया हूँ।” हमने कहा“अच्छा,बाबा! प्रोफ़ाइल ही सही।”
इस तकनीकी समझौते के बाद हमने तुरत-फुरत कैमरे में “क्लोज़-अप लेंस”फ़िट किया।सुरमई पर्दे को दो क़दम पीछे खिसकाया।सामने एक सब्ज़ कांटेदार“केक्टस”रखा और उस पर पाँच सो वाट की स्पाट लाइट डाली।इसकी ओट में गुल-ए-रुख़सार।हल्का सा आउट आफ़ फ़ोकस ताकि ख़तूत और मुलायम हो जाएं।वो दसवी दफ़ा तन कर खड़ी हुई।सीना ब-फ़लक कशीदा, निचला होंट सूफिया लारेन की तरह आगे को निकाले।आँख़ों में “ इधर देखो मेरी आँखों में क्या है”वाली कैफ़ियत लिए।और मीठी-मीठी रोशनी में बलखाते हुए ख़ुतूत फिर गीत गाने लगे।रंग फिर कूकने लगे।आख़िरी बार हमने दीदबान से,और मिर्ज़ा ने कपड़ों से पार होती हुई नज़र से देखा।मुसकराती हुई तस्वीर लेने की ग़र्ज़ से हमने माडल को आख़िरी पेशा-वाराना हिदायत दी कि जब हम बटन दबाने लगें तो तुम होले-होले कहती रहनाः
चीज़,चीज़,चीज़,चीज़।
ये सुनना था कि मिर्ज़ा ने हमारा हाथ पकड़ लिया और इसी तरह बरामदे में ले गए।बोले,कितने फ़ाक़ों में सीखी है ये ट्रिक? क्या रेड़ मारी है,मुसकुराहट की! साहब! हर चेहरा हंसने के लिए नहीं बनाया गया!ख़ुसूसन मशरिक़ी चेहरा।कम-अज़-कम ये चेहरा!हमने कहा,जनाब!औरत के चेहरे पर मशरिक़ मग़रिब बताने बाला क़ुतुब-नुमा थोड़ा ही लगा होता है।ये तो लड़की है। बुध तक के होंट मुसकुराहट से ख़म हैं।लंका में नारियल और पाम के दरख़्तों से घिरी हुई एक नीली झील है,जिसके बारे में ये रिवायत चली आती है कि इसके पानी में एक दफ़ा गौतम बुद्ध अपना चेहरा देखकर यूंही मुसकुरा दिया था।अब ठीक उसी जगह एक ख़ूब-सूरत मंदिर है जो इस मुसकुराहट की याद में बनाया गया है।मिर्ज़ा ने वहीं बात पकड़ ली।बोले,साहब!गौतम बुद्ध की मुसकुराहट और है,मोनालिज़ा की और!बुद्ध अपने आप पर मुसकुराया था। मोनालिज़ा दूसरों पर मुसकुराती है।शायद अपने शौहर की सादा लौही पर!बुद्ध की मूर्तियाँ देखो।मुसकुराते हुए उसकी आँखें झुकी हुई हैं।मोनालिज़ा की खुली हूई।मोनालिज़ा होंटों से मुसकुराती है।उसका चेहरा नहीं हंसता।उसकी आँखें नहीं हंस सकतीं।इसके बर-अक्स अजंता की औरत को देखो।उसके लब बंद हैं।मगर ख़ुतूत खुल खेलते हैं।वो अपने समूचे बदन से मुसकुराना जानती है।होंटों की कली ज़रा नहीं खिलती,फिर भी उसका हरा भरा बदन,उसका अंग-अंग मुसकुरा उठता है।हमने कहा,मिर्ज़ा!इसमें अजंता एलोरा का इजारा नहीं।बदन तो मारलिन मिनरो का भी खिलखिलाता था! बोले,कौन मसख़रा कहता है? वो ग़रीब उमर भर हंसी और हँसना न आया।साहब! हंसना न आया, इसलिए कि वो जन्म-जन्म की निंदा सी थी।उसका रुवाँ-रुवाँ बुलावे देता रहा।उसका सारा वजूद,एक-एक पोर,एक-एक मसाम
इंतिज़ार-ए-सैद में इक दीदा-ए-बे-ख़्वाब था
वो अपने छतनार बदन,अपने सारे बदन से आँख मारती थी।मगर हंसी? उसकी हंसी एक लज़्ज़त भरी सिसकी से कभी आगे न बढ़ सकी।अच्छा।आओ।अब मैं तुम्हें बताऊँ कि हंसने वालियाँ कैसे हंसा करती हैः-
जात हती इक नार अकेली,सो बीच बजार भयो मुजराए
आप हंसी, कछू नैन हंसे, कछू नैन बीच हंसू कजराए
हार के बीच हुमेल हंसी, बाजू बंदन बीच हंसो गजराए
भवैं मरूर के ऐसी हंसी जैसे चंद्र को दाब चलो बदराए
मिर्ज़ा ब्रिज भाषा की इस चौपाई का अंग्रेज़ी में तर्जुमा करने लगे और हम कान लटकाए सुनते रहे।लेकिन अभी वो तीसरे मिस्रा का ख़ून नहीं कर पाए थे कि सिब्ग़े के सब्र-व-जब्त का पैमाना छलक गया।क्यूँकि‘माडल’ सौ रूपये फी घंटा के हिसाब से आई थी और डेढ़ सौ रूपये गुज़र जाने के बा-वजूद अभी पहली किलिक की नौबत नहीं आई थी।
तस्वीरे कैसी आईं?तीन कम ढाई हज़ार रूपये वसूल हुए या नहीं?इश्तिहार कहाँ छपा?लड़की का फ़ोन नंबर क्या है?स्कैंडल सोप फ़ैक्ट्री कब नीलाम हुई?इन तमाम सवालात का जवाब,हम इंशाअल्लाह,बहुत जल्द ब-ज़रियए मज़मून देंगे।सर-ए-दस्त क़ारेईन को ये मालूम करके मस्सर्त होगी कि मिर्ज़ा के जिस पाले पोसे कैक्टस को हमने रुख़-ए-रोशन के आगे रक्खा था,उसे फरवरी में फूलों की नुमाइश में पहला इनाम मिला। (जूलाई-1964ई)
रईस-उल-मुतग़ज़्ज़िलीन मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी शायरी के तीन रंग बताए हैं।फासिक़ाना,आशिक़ाना और आरिफ़ाना।मौलाना की तरह चक्की की मशक़्क़त तो बड़ी बात है,मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग ने तो मश्क़-ए-सुख़न से भी ज़हन को गेराँ-बार नहीं किया।ताहम वो भी अपने फ़न(फ़ोटो ग्राफ़ी)को इन्हीं तीन मोहलिक अदवार में तक़्सीम कर सकते हैं।ये और बात है कि उनके यहाँ ये तरतीब बिलकुल उलटी है।रहा हमारा मुआमला,तो अभी हम रुसो की तरह इतने बड़े आदमी नहीं हुए कि अपने ऊपर अलानिया फ़िस्क़-व-फ़ुजूर की तोहमत लगाने के बाद भी अपने और पुलिस के दरमियान एक बा-इज़्ज़त फ़ासला क़ायम रख सकें।लेकिन ये वाक़िया है कि मिर्ज़ा की तरह हम भी हिलाक-ए-फ़न हैं और हमारा नाता भी इस फन से उतना ही पुराना है।क्यूँकि जहाँ तक याद पड़ता है,तख़्ती पर“क़लम गोएद की मन शाह-ए-जहानम” लिख-लिख कर ख़ुद को गुमराह करने से पहले हम डिक बराउनी कैमरे का बटन दबाना सीख चुके थे।लेकिन जिस दिने से मिर्ज़ा की एक नंगी खुली तस्वीर (जिसे वो फ़ीगर स्टडी कहते हैं)को लंदन के एक रिसाले ने ज़ेवर-ए-तबाअत से आरास्ता किया,हमारी बे-हुनरी के नए-नए पहलू उन पर मुंकशीफ़ होते रहते हैं।
मिर्ज़ा जब से बोलना सीखे हैं,अपनी ज़बान को हमारी ज़ात पर वर्ज़िश कराते रहते हैं।और अक्सर तलमीह व इस्तिआरे से मामूली गाली ग्लोज में अदबी शान पैदा कर देते हैं।अभी कल की बात है।कहने लगे,यार!बुरा न मानना।तुम्हारे फ़न में कोई करवट,कोई पेच,मेरा मतलब है,कोई मोड़ नज़र नहीं आता।हमने कहा,प्लाट तो उर्दू नाविलों में हुआ करता है।ज़िंदगी में कहाँ? बोले हाँ,ठीक कहते हो।तुम्हारी अक्कासी भी तुम्हारी ज़िंदगी ही का अक्स है।यानी अव्वल ता आख़िर ख़्वारी का एक ना-क़ाबिल-ए-तक़लीद उस्लूब!
हर चंद कि ये कमाल-ए-नय नवाज़ी हमारे कुछ काम न आया।लेकिन यही क्या कम है कि मिर्ज़ा जैसे फ़रज़ाने कान पकड़ते हैं और हमारी हक़ीर ज़िंदगी को आला तालीमी मक़ासिद के लिए इस्तेमाल करते हैं।यानी इसे सामने रखकर अपनी औलाद को इब्रत दिलाते हैं,तनबीह-व-फ़हमाइश करते हैं।इन सफ़हात में हम अपने उस्लूब-ए-हयात की तौजीह-व-तशरीह करके पढ़ने वालों के हाथ में कलीद-ए-नाकामी नहीं देना चाहते।अल्बत्ता इतना ज़रूर अर्ज़ करेंगे कि मिर्ज़ा की तरह हम अपनी नालायक़ी को इरतक़ाई अदवार में तक़सीम तो नहीं कर सकते हैं,लेकिन जो हज़रात हमारे शौक़-ए-मुनफ़ाईल की दास्तान पढ़ने की ताब रखते हैं,वो देखेंगे कि हम सदा से हाजियों के पासपोर्ट फ़ोटो और तारीख़ी खंडरों की तस्वारें ही नहीं खींचते रहे हैं।
गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी
लेकिन हम किस शुमार क़तार में हैं।मिर्ज़ा अपने आगे बड़े बड़े फोटोग्राफ़रों को हेच समझते हैं।एक दिन हमने पूछा,मिर्ज़ा! दुनिया में सबसे बड़ा फ़ोटो ग्राफ़र कौन है?यूसुफ़ कारिश या सेसल बेटन? मुस्कुराते हुए बोले,तुमने वो हिकायत नहीं सुनी किसी नादान ने मजनूँ से पूछा,ख़िलाफत पर हक़ हज़रत-ए-हुसैन का है? या यज़ीदुलऐन का? अगर सच पूछो तो लैला का है!
इधर चंद साल से हमने ये मामूल बना लिया है कि हफ़्ता भर की ऐसाबी शिकस्त-व-रेख़्त के बाद इतवार को “मुकम्मल सब्त” मनाते हैं। और सनीचर की मुरादों भरी शाम से सोमवार की मनहूस सुब्ह तक हर वो फेअल अपने ऊपर हराम कर लेते हैं,जिसमें काम का अदना शाएबा या कमाई का ज़रा भी अंदेशा हो।छःदिन दुनिया के,एक दिन अपना।(मिर्ज़ा तो इतवार के दिन इतना आज़ाद और खुला-खुला महसूस करते हैं कि फ़जर की नमाज़ के बाद दुआ नहीं मांगते।और पीर के तसव्वुर से उनका जी इतना उलझता है कि एक दिन कहने लगे,इतवार अगर पीर के दिन हुआ करता तो कितना अच्छा होता!)ये बात नहीं कि हम मेहनत से जी चुराते हैं।जिस शग़्ल (फ़ोटो ग्राफ़ी) में इतवार गुज़रता है,उसमें तो मेहनत उतनी ही पड़ती है जितनी दफ़्तरी काम में।लेकिन फटोग्राफ़ी में दिमाग़ भी इस्तेमाल करना पड़ता है।और ‘माडल’ अगर निचले न बैठने वाले बच्चे हों तो न सिर्फ़ ज़्यादा बल्कि बार-बार इस्तेमाल करना पड़ता है।इस से बचने के लिए मिर्ज़ा ने अब हमें चंद उस्तादाना गुर सिखा दिए हैं।मस्लन एक तो यही कि परिंदों और बच्चों की तस्वीर खींचते वक़्त सिर्फ़ आँख पर फोकस करना चाहिए कि उनकी सारी शख़्सिय्यत खिंचकर आँख की चमक में आ जाती है।और जिस दिन उनकी आँख में ये चमक न रही,दुनिया अंधेर हो जाएगी।दूसरे ये कि जिस बच्चे पर तुम्हें प्यार न आए उसकी तस्वीर हरगिज़ न खींचो।फ़्रांस में एक नफ़ासत पसंद मुसव्विर गुज़रा है जो नजीब-उल-तरफ़ीन घोड़ों की तस्वीरें पेंट करने में यद-ए-तूला रखता था।निशात-ए-फ़न उसे इस दर्जा अज़ीज़ था कि जो घोड़ा दोग़ला या बीस हज़ार फ्रेंक से कम क़ीमत का हो,उसकी तस्वीर हरगिज़ नहीं बनाता था,ख़्वाह उसका मालिक बीस हज़ार मेहन्ताना ही क्यो न पेश करे।
महीना याद नहीं रहा।ग़ालिबन दिसंबर था।दिन अलबत्ता याद है,इसलिए कि इतवार था।और मज़कूरा बाला ज़र्रीं उसूलों से लैस,हम अपने ऊपर हफ़्ता-वार ख़ुद फ़रामोशी तारी किए हुए थे।घर में हमारे अज़ीज़ हम-साए की बच्ची नाजिया,अपनी सैफ़ो (सियामी बिल्ली)की क़द-ए-आदम तस्वीर खिंचवाने आई हुई थी। क़द-ए-आदम से मुराद शेर के बराबर थी।कहने लगी,“अंकल! जल्दी से हमारी बिल्ली का फ़ोटो खींच दीजिए।हम अपनी गुड़िया को अकेला छोड़ आए हैं।कल सुब्ह से बे-चारी के पेट में दर्द है। जभी तो कल हम स्कूल नहीं गए।”हमने झटपट कैमरे में तेज़ रफ़तार फ़िल्म डाली।तीनो “फ़ल्ड लैम्प” ठिकाने से अपनी-अपनी जगह रखे।फ़िर बिल्ली को दबोच-दबोच के मेज़ पर बिठाया।और उसके मुंह पर मुस्कुराहट लाने के लिए नाजिया पलास्टिक का चूहा हाथ में पकड़े सामने खड़ी हो गई।हम बटन दबा कर 1/100 सेकेंड में इस मुस्कुराहट को बक़ा-ए-दवाम बख़्शने वाले थे कि फ़ाटक की घंटी इस ज़ोर से बजी की सैफ़ू उछल कर कैमरे पर गिरी और कैमरा क़ालीन पर।हर दो को इसी हालत में छोड़कर हम ना-वक़त आने वालों के इस्तक़्बाल को दौड़े।
हज का सवाब नज़्र करूँगा हुज़ूर की
फाटक पर शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ खड़े मुस्कुरा रहे थे। उनके पहलू से रुई के दुगले में मलफ़ूफ़-व-मस्तूर एक बुज़ुर्ग हवीदा हुए,जिन पर पड़ते ही नाजिया ताली बजा के कहने लगीः
“हाय!कैसा क्यूट सेंटा क्लाज़ है!”
ये शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ के मामू जान क़िबला निकले, जो हज को तशरीफ ले जा रहे थे और हमें सवाब-ए-दारैन में शरीक करने के लिए मौज़ू चाक्सू (ख़ुर्द) से अपना पासपोर्ट फ़ोटो खिंचवाने आए थे।
“मामू जान तो बज़िद थे कि फ़ोटोग्राफ़र के पास ले चलो। बला से पैसे लग जाएं,तस्वीर तो ढंग की आए गी।बड़ी मुश्किलों से रज़ा-मंद हुए हैं यहाँ आने पर”उन्होंने शान-ए-नुज़ूल-ए-अजलाल बयान की।
ड्राइंग रूम में दाख़िल होते ही शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ साहब क मामू जान क़िब्ला दीवारों पर क़तार अंदर क़तार आवेज़ाँ तस्वीर-ए-बुताँ को आँखें फाड़-फ़ाड के देखने लगे।हर तस्वीर को एक दफ़ा फिर हम पर वो निगाह डालते,जो किसी तरह ग़लत अंदाज़ न थी।जैसी नज़्रों से वो ये तस्वीरें देख रहे थे,उनसे ज़ाहिर होता था कि साहिब-ए-नज़र का तअल्लुक़ उस नस्ल से है जिसने कल-दार रूपे पर बनी हुई मलका विक्टोरिया के बाद किसी औरत की तस्वीर नहीं देखी।एक बांकी सी तस्वीर को एक ज़रा क़रीब जाकर देखा।लाहौल पढ़ी।और पूछा,ये आप के लड़के ने खींची है?अर्ज़ किया,जी,नहीं!वो तो तीन साल से सातवीं में पढ़ रहा है।बोले हमारा भी यही ख़याल था,मगर एहतियातन पूछ लिया।
शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ साहब के मामू जान क़िब्ला (अपनी और कातिब की सहूलत के मद-ए-नज़र आइंदा उन्हें फ़क़त ‘मामू’ लिखा जाए जिन क़ारईन को हमारा इख़्तेसार ना-गवार गुज़रे,वह हर दफ़ा ‘मामू’ के बजाए शेख़ मोहम्मद शम्सुल हक़ साहब के मामू जान क़िब्ला,पढ़ें)हमारी रहवरी के लिए ताया अब्बा मरहूम की एक मिटी मिटाई तस्वीर साथ लाए थे।शीशम के फ़्रेम को हिनाई अंगूछे से झाड़ते हुए बोले “ऐसी ख़ींच दीजिए”।हमने तस्वीर को ग़ौर से देखा तो पता चला कि मामू के अम्मे बुज़ुर्गवार भी वही रुई का दगला पहने खड़े हैं,जिस पर उल्टी करियाँ बनी हुई हैं।तलवार को बड़ी मज़बूती से पकड़ रखा है....... झाड़ू की तरह।अर्ज़ किया,क़िब्ला पास्पोर्ट फ़ोटो में तलवार की इजाज़त नहीं।फरमाया,आप को हमारे हाथ में तलवार नज़र आ रही है? हम बहुत ख़फ़ीफ़ हुए।इसलिए कि मामू के हाथ में वाक़ई कुछ न था।बजुज़ एक बे-ज़र्र गुलाब के,जिसे सूंघते हुए वो पासपोर्ट फ़ोटो खिंचवाना चाहते थे।मामू के कान(तो)‘ط’की मानिंद थे.........बाहर को निकले हुए। इस से ये न समझा जाए कि हम जिसमानी अयूब का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।दर-हक़ीक़त इस तश्बीह से हमें कानों की अफ़ादियत दिखानी मक़सूद है।क्यूँकि खुदा न-ख़्वास्ता कानों की साख़त ऐसी न होती तो उनकी तुर्की टोपी सारे चेहरे को ढांक लेती।इब्तिदाई तैयारियों के बाद बड़ी मिन्नतों से उन्हें फ़ोटो के लिए कुर्सी पर बिठाया गया।किसी तरह नहीं बैठते थे।कहते थे “भला ये कैसे हो सकता है कि आप खड़े रहें और मैं बैठ जाऊँ”।ख़ुदा-ख़ुदा करके वो बैठे तो हमने देखा कि उनकी गर्दन हिलती है।ज़ाहिर है हमें फ़ित्री रअशे पर क्या एतराज़ हो सकता है।असल मुसीबत ये थी कि गर्दन अगर दो सेकेंड हिलती तो टोपी का फुंदना दो मिनट तक हिलता रहता। हर दो अमल के एक नायाब वक़्फ़े में हमने “रेडी” कहा तो गोया आलम ही कुछ और था।एक दम अकड़ गए और ऐसे अकड़े कि जिस्म पर कहीं भी हथौड़ी मार कर रख दें तो टन-टन आवाज़ निकले।डेढ़ दो मिनट बाद तीसरी दफ़ा‘रेडी’कहकर कैमरे के दीदबान(VIEW-FINDER)से देखा तो चेहरे से ख़ौफ़ आने लगा।गर्दन पर एक रस्सी जैसी रंग न जाने कहाँ से उभर आई थी। चेहरा लाल।आँखें उस से ज़्यादा लाल।यकलख़्त एक अजीब आवाज़ आई।अगर हम उनके मुंह की तरफ़ न देख रहे होते तो यक़ीनन यही समझते कि किसी ने साईकल की हवा निकाल दी है।
“अब तो सांस लेलूँ?”सारे कमरे की हवा अपनी नाक से पम्प करते हुए पूछने लगे।अब सवाल ये नहीं था कि तस्वीर कैसी और किस पोज़ में खींची जाए।सवाल ये था कि उनका अम्ल-ए-तफ़न्नुस क्यूँकर बरक़रार रखा जाए कि तस्वीर भी खिंच जाए और हम क़त्ल-ए-अम्द के मुर्तकिब भी न हों।अपनी निगरानी में उन्हें दो चार ही सांस लिवाए थे कि मस्जिद से मुअज़्ज़िन की सदा बुलंद हुई।और पहली‘अल्लाहु-अक्बर’के बाद, मगर दूसरी पहले,मामू कुर्सी से हड़-बड़ा के उठ खड़े हुए।शीशे के जग से वज़ू किया।पूछा,क़िब्ला किस तरफ़?हमारे मुंह से निकल गया मग़्रिब की तरफ़।फ़रमाया,हमारा भी यही ख़याल था,मगर एहतियातन पूछ लिया।इसके बाद जा-नमाज़ तलब की।
मामू ने पलंग पोश पर ज़ोहर की नमाज़ क़ायम की।आख़िर में ब-आवाज़-ए-बुलंद दुआ मांगी,जिसे वो लोग,जिनका ईमान क़द्र-ए-ज़ईफ़ हो,फ़रमाइश की फ़ेहरिस्त कह सकते हैं।नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो हमें मुख़ातिब करके बड़ी नर्मी से बोले“चार फ़र्ज़ो के बाद दो सुन्नतें पढ़ी जाती हैं।तीन सुन्नतें किसी नमाज़ में नहीं पढ़ी जातीं।कम-अज़-कम मुसलमानों में!”
दूसरे कमरे में तआम-व-क़ैलूला के बाद चाँदी की ख़िलाल से हस्ब-ए-आदत-ए-क़दीम अपने मसनूई दांतों की रीख़ैं कुरेदते हुए बोले,“बेटा!तुम्हारी बीवी बहुत सुग्घड़ है।घर बहुत ही साफ़ सुथरा रखती है।बिलकुल हस्पताल लगता है।”इसके बाद उनकी और हमारी मुशतर्का जानकनी फिर शुरू हुई।हमने कहा “अब थोड़ा रिलेक्स(RELAX)कीजिए।”बोले“कहाँ करूँ?”कहा,“मेरा मतलब है,बदन ज़रा ढीला छोड़ दीजिए।और ये भूल जाए कि कैमरे के सामने बैठे हैं।”बोले,“अच्छा!ये बात है!”फ़ौरन बंधी हुई मुठ्ठियाँ खोल दीं।आँखें झपकाईं और फ़फेड़ो को अपना क़ुदरती फ़ेल फिर शुरू करने की इजाज़त दी।हमने इस“नेचुरल पोज़”से फाएदा उठाने की गर्ज़ से दौड़-दौड़ कर हर चीज़ को आख़िरी “टच” दिया,जिसमें ये बंधा टका फ़ीक़्रा भी शामिल था,“इधर देखिए।मेरी तरफ।ज़रा मुस्कुराए!”बटन दबाकर हम“शुक्रिया”कहने वाले थे कि ये देखकर ईरानी क़ालीन पैरों तले से निकल गया कि वो हमारे कहने से पहले ही ख़ुदा जाने कब से रिलैक्स करने की ग़र्ज़ से अपनी बत्तीसी हाथ में लिए हंसे चले जा रहे थे।हमने कहा“साहब!अब न हंसिए!” बोले “तो फिर आप सामने से हट जाइए!”
हमें उनके सामने से हटने में ज़्यादा सोच बिचार नहीं करना पड़ा।इसलिए कि उसी वक़्त नन्हीं नाजिया दौड़ी-दौड़ी आई और हमारी आस्तीन का कोना खींचते हुए कहने लगी“अंकल! हरी अप!प्लीज़!जा-नमाज़ पे बिल्ली पंजों से वज़ू कर रही है!हाय अल्लाह!बड़ी क्यूट लग रही है!”
फिर हम उस मंज़र की तस्वीर खींचने और मामू लाहौल पढ़ने लगे।
अगले इतवार को हम प्रोफेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस के फोटो की“री टचिंग”में जुटे हुए थे।पतलून की पंद्रहवीं सिलवट पर कलफ़ इस्त्री करके हम अब होंट का मस्सा छुपाने के लिए सिफ़र नंबर के ब्रश से मूंछ बनाने वाले थे कि इतने में मामू अपनी तस्वीरें लेने आ धमके। तस्वीरें कैसी आईं, इसके मुतआल्लिक़ हम अपने मंह से कुछ नहीं कहना चाहते।मुकालिमा ख़ुद चटाख़ पटाख़ बोल उठेगाः
“ हम ऐसे हैं?”
“क्या अर्ज़ करूँ!”
“तुम्हें किसने सिखाया तस्वीर खींचना?”
“जी! ख़ुद ही खींचने लग गया।”
“हमारा भी यही ख़याल था।मगर एहतियातन पूछ लिया।”
“आख़िर तस्वीर में क्या ख़राबी है?”
“हमारे ख़याल में ये नाक हमारी नहीं है।”
हमने उन्हें मुत्तला किया कि उनके ख़ायल और उनकी नाक में कोई मुताबिक़त नहीं है।इस पर उन्होंने ये जानना चाहा कि अगर तस्वीर को ख़ूब बड़ा किया,तब भी नाक छोटी नज़र आएगी क्या?
पंद-ए-सूद-मंद
दूसरे दिन मिर्ज़ा एक नई तर्ज़ के होटल “मांटी कारलो” के बाल रूम में उतारी हुई तस्वीर दिखने आए। और हर तस्वीर पर हमसे इस तरह दाद उसूल की जैसे मरहठे चौथ उसूल किया करते थे।ये स्पेन की एक स्ट्रिप टेनर डांसर (जिसे मिर्ज़ा उंदूलूसी रक़्क़ासा कहे चले जा रहे थे) की तस्वीरें थीं, जिन्हें बरहना तो नहीं कहा जा सकता था। इसलिए कि सफ़ेद दस्ताने पहने हुए थी। गर्म काफ़ी और तहसीन-ए-ना-शनास से उनकी तबीयत में इंशराह पैदा होने लगा तो मौक़ा ग़नीमत जान कर हमने मामूँ की ज़्यादतियाँ गोश-ए-गुज़ार कीं और मशविरा तलब किया। अब मिर्ज़ा में बड़ी पुरानी कमज़ोरी ये है कि उनसे कोई मशविरा मांगे तो हाँ में हाँ मिलाने के बजाए सच मुच मशवविरा ही देने लग जाते हैं। फिर ये भी कि हमारी सूरत में कोई ऐसी बात ज़रूर है कि हर शख़्स का बे-इख़्तियार नसीहत को जी चाहता है।चुनांचे फिर शुरू हो गएः
“साहब! आप को फोटो ख़ीचना आता है,फोटो खिचवाने वोलों से निमटना नहीं आता।सलामती चाहते हो तो कभी अपने सामने फोटो देखने का मौक़ा न दो।बस दबीज़ लिफ़ाफ़े में बंद करके हाथ में थमा दो और चलता करो।विक्टोरिया रोड के चौराहे पर जो फ़ोटो ग्राफर है।लहसनिया दाढ़ी वाला।अरे भई!वही जिसकी नाक पर चाक़ू का निशान है।आगे का दांत टूटा हुआ है।अब उसने बड़ा प्यारा उसूल बना लिया है।जो गाहक दुकान पर अपनी तस्वीर न देखे,उसे बिल में 25 फीसद नक़द रिआयत देता है।और एक तुम हो कि मुफ़्त तस्वीर खींचते हो। और शहर भर के बद-सूरतों से गालियाँ खाते फिरते हो।आज तक ऐसा नहीं हुआ कि तुमने किसी की तस्वीर खींची हो और वो हमेशा के लिए तुम्हारा जानी-दुश्मन न बन गया हो।”
कस्रत-ए-औलाद और ये फ़कीर-ए-पुर तक़्सीर
नसीहत की धुन में मिर्ज़ा ये भूल गए कि दुश्मनों की फेहरिस्त में इज़ाफ़ा करने में ख़ुद उन्होने हमारा काफ़ी हाथ बटाया है।जिसका अंदाज़ा अगर आप को नहीं है तो आने वाले वाक़ियात से हो जाएगा।हमसे कुछ दूर पी.डब्ल्यु.डी.के एक नामी ग्रामी ठेकेदार तीन कोठियों में रहते हैं।मारशल-ला के बाद से बे-चारे इतने रक़ीक़-उल-क़ल्ब हो गए है कि बरसात में कहीं से भी छत गिरने की ख़बर आए,उनका कलेजा धक से रह जाता है। हुलिया हम इसलिए नहीं बताएंगे कि इसी बात पर मिर्ज़ा से बुरी तरह डांट खा चुके हैं.......“नाक फ़िलिप्स के बल्ब जैसी,आवाज़ में बनक बैलेंस की खनक,जिस्म ख़ूब-सूरत सुराही की मानिंद.......यानी वास्त से फैला हुआ............”हमने आउट लाइन ही बनाई थी कि मिर्ज़ा घायल लहजे में बोले,“बड़े मज़ाह निगार बने फिरते हो।तुम्हें इतना भी मालूम नहीं कि जिस्मानी नक़ाएस का मज़ाक़ उड़ाना तंज़-व-मज़ाह नहीं।” करोड़ पती हैं,मगर इंकम टैक्स के डर से अपने को लखपती कहलवाते हैं।मुबदा-ए-फ़ैयाज़ ने उनकी तबीयत में कंजूसी कूट-कूट कर भर दी है।रूपया कमाने को तो सभी कमाते हैं।वो रखना भी जानते हैं।कहते हैं,आमदनी बढ़ाने की सहल तरकीब ये है कि ख़र्च घटा दो।मिर्ज़ा से रिवायत है कि उन्होंने अपनी बड़ी बेटी को इस वजह से जहेज़ नहीं दिया कि उसकी शादी एक ऐसे शख़्स से हुई,जो ख़ुद लखपती था।और दूसरी बेटी को इसलिए नहीं दिया कि उसका दूल्हा दिवालिया था।साल छःमहीने में नाक की कील तक बेच खाता।ग़र्ज़ लक्षमी घर की घर में रही।
हाँ तो इन्हीं ठेकेदार साहब का ज़िक्र है,जिनकी जाएदाद-ए-मनक़ूला-व-गैर मनक़ूला,मनकूहा-व-ग़ैर मनकूहा का नक़्शा शायर-ए-शीवा बयाँ ने एक मिस्रा में खींचकर रख दिया है;
एक इक घर में सौ-सौ कमरे,हर कमरे में नार
इस हसीन सूरत-ए-हाल का नताएज अक्सर हमें भुगतने पड़ते हैं।वो इस तरह कि हर नौ-मौलूद के अक़ीक़ा और पहली साल गिरह पर हमीं से याद-गार तस्वीर खिंचवाते हैं।और यही क्या कम है कि हम से कुछ नहीं लेते।इधर ढाई तीन साल से इतना करम और फ़रमाने लगे हैं कि जैसे ही ख़ानदानी मनसूबा शिकनी की शुबह-घड़ी क़रीब आती है तो एक नौकर,दाई को और दूसरा हमें बुलाने दौड़ता है,शरारत-ए-हमसाया की कार-फ़रमाई नज़र आए,वो ठेकेदार साहब के अलबम मुलाहिज़ा फ़रमा सकते हैं।हमारे हाथ की एक नहीं,दर्जनों तस्वीरें मिलेंगी,जिनमें मौसूफ़ कैमरे की आँख में आँखें डालकर नौ मौलूद के कान में अज़ान देते हुए नज़र आते हैं।
आए दिन की ज़चगियाँ झेलते-झेलते हम हलकान हो चुके थे,मगर ब-वजह शर्म-व-ख़ुश अख़लाक़ी ख़ामोश थे।अक़्ल काम नहीं करती थी कि इस कारोबार-ए-शौक़ को किस तरह बंद किया जाए।मजबूरन (मजबूरन अंग्रेज़ी मुहावरे के मुताबिक़) मिर्ज़ा को अपने एतिमाद में लेना पड़ा।अहवाल-ए-पुर मलाल सुनकर बोले,साहब!इन सब परिशानियों का हल एक फ़ूलदार फ़रॉक है।हमने कहा,मिर्ज़ा!हम पहले ही सताए हुए हैं।हम से ये ऐब्सट्रेक्ट गुफ़तुगू तो न करो।बोले,तुम्हरी ढलती जवानी की क़सम! मज़ाक़ नहीं करता।तुम्हारी तरह हमसायों के लख़्त हाए जिगर की तस्वीरे खींचते-खींचते अपना भी भुरकस निकल गया था।फिर मैं ने तो ये किया कि एक फूल-दार फ़रॉक ख़रीदी और उसमें एक नौज़ाएदा बच्चे की तस्वीर खींची।और उसकी तीन दर्जन कापियाँ बनाकर अपने पास रख लीं।अब जो कोई अपने नौमौलूद की फ़रमाइश करता है तो ये शर्त लगा देता हूँ कि अच्छी तस्वीर दरकार है तो ये ख़ूब-सूरत फूल-दार फ़रॉक पहना कर खिंचवाओ।फिर कैमरे में फ़िल्म डाले बग़ैर बटन दबाता हूँ।और दो तीन दिन का भुलवा देकर इसी उम-उल-त्साविर की एक कपि पकड़ा देता हू।हर बाप को इसमें अपनी शबाहत नज़र आती है!
हादसात और इब्तिदाई क़ानूनी इमदाद
हमारे पुराने जानने वालों में आग़ा वाहिद आदमी हैं,जिनसे अभी तक हमारी बोल चाल है।इसकी वाहिद वजह मिर्ज़ा ये बताते हैं कि हमने कभी उनकी तस्वीर नहीं खींची,गो कि हमारी फ़नकाराना सलाहितों से वो भी अपने तौर पर मुस्तफ़ीद हो चुके हैं।सूरत-ए-इस्तेफ़ादा ये थी कि एक इतवार को हम अपने “डार्क रूम”(जिसे पीर से सनीचर तक घर वाले ग़ुसुल-ख़ाना कहते हैं) मैं अंधेरा किए एक मारपीट से भरपूर सियासी जलसे के पिरिंट बना रहे थे।घुप अंधेरे में एक मुन्ना सा सूर्ख बल्ब जल रहा था,जिस से बस इतनी रोशनी निकल रही थी कि वो ख़ुद नज़र आ जाता था।पहले पिरिंट पर काली झंडियाँ साफ़ नज़र आने लगीं थीं, लेकिन लीडर का चेहरा किसी तरह उभर के नहीं देता था। लिहाज़ा हम उसे बार-बार चिमटी से तेज़ाबी महलूल में ग़ोते दिए जा रहे थे। इतने में किसी ने फ़ाटक की घंटी बजाई और बजाता चला गया।हम जिस वक़्त चिमटी हाथ में लिए पहुंचे हैं, तो घर वाले ही नहीं,पड़ोसी भी दौड़ कर आ गए थे। आग़ा ने हथेली से घंटी का बटन दबा रखा था और लरज़ती कपकपाती आवाज़ में हाज़्रीन को बता रहे थे कि वो किस तरह अपनी सधी सधाई मरंजाँ मरंज कार में अपनी राह चले जा रहे थे कि एक ट्राम दनदनाती हुई “रांग साइड” से आई।और उनकी कार से टकरा गई। हमारे मुंह से कही निकल गया,“मगर थी तो अपनी ही पटरी पर?” तिनतिनाते हुए बोले“जी,नहीं! टेक आफ़ करके आई थी!” ये मौक़ा उनसे उलझने का नहीं था,इसलिए कि वो जल्दी मचा रहे थे। ब-क़ौल उनके रही सही इज़्ज़त ख़ाक-ए-कराची में मिली जा रही थी।और उसी की ख़ातिर टक्कर होने से एक दो सेकेंड पहले ही वो कार से कूद कर ग़रीब ख़ाना की सिम्त रवाना हो गए थे ताकि चालान होते ही अपनी सफ़ाई में बतौर-ए-दलील नंबर 2 हादसा का फ़ोटो मा फ़ोटो ग्राफ़र पेश कर सकें। दलील नंबर 1ये थी कि जिस लमहे कार ट्राम से टकराई,वो कार में मौजद ही नहीं थे।
हम जिस हाल में थे,उसी तरह कैमरे लेकर आग़ा के साथ हो लिए और हांपते कांपते मौक़ा-ए-वारदात पर पहुंचे।देखा कि आग़ा की कार का बम्पर रट्राम के बम्पर पर चढ़ा हुआ है। अगला हिस्सा हवा में मुअल्लिक़ है और एक लौंडा पहिया घुमा-घुमा कर दूसरे से कह रहा है“अबे फ़ज़लू! इस के तो पहिए भी हैं!”
आग़ा का इसरार था कि तस्वीरे ऐसे ज़ाविए से ली जाएं, जिस से साबित हो कि पहले मुशताइअल ट्राम ने कार के टक्कर मारी।इसके बाद कार टकराई! वो भी महज़ हिफ़ाज़त-ए-ख़ुद इख़्तियारी में!हमने एहतियातन मुलज़िमा के हर पोज़ की तीन-तीन तस्वीरे ले लीं।ताकि उनमें मुबैअना ज़ाविया भी,अगर कहीं हो,तो आ जाए।हादसे को फ़िलमाते वक़्त हम इस नतीजे पर पहुंचे कि इस पेश बंदी की चंदाँ जरूरत न थी।इसलिए कि जिस ज़ाविए से मज़रूबा मुलज़िमा पर चढ़ी थी और जिस पैंतरे से आग़ा ने ट्राम और क़ानून से टक्कर ली थी,उसे देखते हुए उनका चालान इक़्दाम-ए-ख़ुद-कशी में भले ही हो जाए,ट्राम को नुक़सान पहुंचाने का सवाल पैदा नहीं होता था।इधर हम किलिक-किलिक तस्वीर पर तस्वार लिए जा रहे थे,उधर सड़क पे तमाशाइयों का हुजूम था कि बढ़ता जा रहा था।हमने कैमरे में दूसरी फ़िल्म डाली।और कार का“क्लोज़ाप” लेने की ग़र्ज़ से मिर्ज़ा हमें सहारा दे कर ट्राम की छत पर चढ़ाने लगे।इतने में एक गबरू पुलिस सार-जंट भीड़ को चीरता हुआ आया।आकर हमें नीचे उतारा।और नीचे उतार के चालान कर दिया......शार-ए-आम पर मजमा लगा के उमदन रुकावट पैदा करने के इल्ज़ाम में!और ब-क़ौल मिर्ज़ा, वो तो बड़ी ख़ैरियत हुई कि वह वहा मौजूद थे।वर्ना हमें तो कोई ज़मानत देने वाला भी न मिलता।खिंचे-खिंचे फिरते।
अक़्द-ए-सानी और आजिज़
ये पहला और आख़री मौक़ा नहीं था कि हमने अपने हक़ीर आर्ट से क़ानून और इंसाफ़ के हाथों को मंसूबा किया।(माफ़ कीजिए।हम फिर अंग्रेज़ी तरकीब इस्तेमाल कर गए।मगर क्या किया जाए,अंग्रेज़ों से पहले ऐसा ब-जूग भी तो नहीं पड़ता था) अपने बे-गानों ने बारहा ये ख़िदमत बे मुज़द हम से ली है।तीन साल पहले का ज़िक्र है।आइली क़ानून(जिसे मिर्ज़ा क़ानून-ए-इस्नादाद-ए-निकाह कहते हैं)का नेफ़ाज़ अभी नहीं हुआ था। मगर प्रेस में इसकी मवाफ़िक़त में तहरीरैं और तक़रीरैं धड़ा-धड़ छप रही थीं।जिनके गुजराती तरजुमों से गड़-बड़ाकर“बनूला किंग” सेठ अब्दुल ग़फ़ूर इब्राहीम हाजी मोहम्मद इसमाईल यूनुस छाबड़ी वाला एक लड़की से चोरी छुपे निकाह कर बैठे थे।हुलिया न पूछे तो बेहतर है।अहल-ए-बनीश को इतना इशारा काफ़ी होना चाहिए कि अगर हम उनका हूलिया ठीक-ठीक बताने लगें तो मिर्ज़ा चीख़ उठेंगे“साहब!ये तंज़-व-मज़ाह नहीं है!” इस से ये न समझा जाए कि हम उनको हिक़ारत की नज़र से देखते हैं। हाशा-व-कल्ला।हमने कुछ अर्से से ये उसूल बना लिया है कि किसी इंसान को हिक़ारत से नहीं देखना चाहिए।इसलिए कि हमने देखा कि जिस किसी को हमने हक़ीर समझा,वो फ़ौरन तरक़्क़ी कर गया।हाँ तो हम ये कह रहे थे कि जिस दिन से तादाद-ए-इज़वाज का क़ानून लागू होने वाला था,उसकी “चाँद रात” को सेठ साहब ग़रीब ख़ाने पर तशरीफ़ लाए।इंतिहाई सरासमयगी के आलम में।इनके हमराह सरासमयगी भी थी।जो सियाह बुरक़ा में थी।और बहुत ख़ूब थी।
रात के दस बज रहे थे।वो कैमरा,स्क्रीन और रोशनियाँ ठीक करते-करते ग्यारह बज गए।घंटा भर तक सेठ साहब CANDID FIGURE STUDIES को इस तरह घूरते रहे कि पहली मर्तबा हमें अपने फ़न से हिजाब आने लगा।फरमाया,अजुन बिगड़ेली बायूँ की फोटो-ग्राफ लेने में तो तुम एक नंबर उस्ताद हो।पन कोई भैन बेटी कपड़े पहन कर फोटो खिंचवाए तो क्या तुमेरा कैमरा काम करींगा? हमने कैमरे के नेक चलनी की ज़मानत दी और तिपाई रखी। तिपाई पर सेठ साहब को खड़ा किया।और उनके बाएं पहलू में दुल्हन को (सैंडल उतरवा कर) खड़ा करके फ़ोकस कर रहे थे कि वो तिपाई से छलांग लगा कर हमारे पास आए और टूटी फूटी उर्दू में,जिसमें गुजराती से ज़्यादा घबराहट की आमेजिश थी,दरख़्वास्त की कि सुरमई पर्दे पर आज की तारीख़ कोइले से लिख दी जाए और फोटो इस तरह लिया जाए कि तारीख साफ़ पढ़ी जा सके।हमने कहा,सेठ! इस की क्या तुक है? तिपाई पर वापिस चढ़ के उन्होंने बड़े ज़ोर से हमें आँख मारी और अपनी टोपी कि तरफ़ ऐसी बे-कसी से इशारा किया कि हमें उनके साथ अपनी इज़्ज़त आबरू भी मिट्टी में मिलती नज़र आई।फिर सेठ साहब अपना बायाँ हाथ दुल्हन के कंधे पर मालिकाना अंदाज़ से रख कर खड़े हो गए।दायाँ हाथ अगर और लम्बा होता ते ब-ख़ुदा उसे भी वहीं रख देते।फिल-हाल उसमें जलता हुआ सिग्रेट पकड़े हुए थे।हमारा“रेडी” कहना था कि तिपाई से फिर ज़क़ंद लगा कर हमसे लिपट गए।या अल्लाह!ख़ैर!अब क्या लफ़ड़ा है सेठ?मालूम हुआ,अब की दफ़ा ब-चश्म-ए-ख़ुद ये देखना चाहते थे कि वो कैमरे में कैसे नज़र आ रहे हैं!खुशामद दर-आमद करके फिर तिपाई पर चढ़ाया।और क़ब्ल इसके कि घड़याल रात के बारह बजा कर नई सुब्ह और क़ानून-ए-इन्सदाद-ए-निकाह के नफ़ाज़ का एलान करे,हमने उनके ख़ुफिया रिश्त-ए-मुनाकहत का मज़ीद दस्तावेज़ी सुबूत को डिक फ़िल्म पर महफ़ूज़ कर लिया।
असल दुशवारी ये थी कि तस्वीर खींचने और खिंचवाने के आदाब से मुतअल्लिक़ जो हिदायात सेठ साहब बुज़बान-ए-गुजराती या इशारों से देते रहे,उनका मंशा कम-अज़-कम हमारे फ़हम-ए-नाक़िस में ये आया कि दुल्हन सिर्फ़ उस लम्हे नक़ाब उल्टे जब हम बटन दबाएं।और जब हम बटन दबाएं तो ऐनक उतार दें।उनका बस चलता तो कैमरे का भी ‘लेंस’ उतरवा कर तस्वीर खिंचवाते।
रात की जगार से तबीयत तमाम दिन कुसलमंद रही। लिहाज़ा दफ़्तर से दो घंटे पहले ही उठ गए।घर पहुंचे तो सेठ साहब ममदूह-व-मनकूह को बरामदे में टहलते हुए पाया।गर्दन झुकाए,हाथ पीछे को बांधे,बे-क़रारी के आलम में टहले चले जा रहे थे।हमने कहा सेठ अस्सलामु-अलैकुम!बोले बालैकुम!पन फिलम को गुसल कब देंगा?हमने कहा,अभी लो,सेठ!फिर उन्होने ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि उनकी शरीक-ए-हयात की तस्वीर को उनकी मौजूदगी में “ग़ुस्ल”दिया जाए हमने जगह की तंगी का उज़्र किया,जिसके जवाब में सेठ साहब ने हमें बनोले की एक बोरी देने का लालच दिया।जितनी देर तक फ़िल्म डेवलप होती रही,वो फ़लश की जंजीर से लटके,इस गुनह-गार की नक़्ल-व-हरकत की कड़ी निगरानी करते रहे।
हम“फ़िक्सर”आख़िरी डूब दे चुके तो उन्होंने पूछा“किलियर आई है?”अर्ज़ किया बिल्कुल साफ़ चौबी गीरा से टपकती हुई फ़िल्म पकड़ के हमने उन्हें भी देखने का मौक़ा दिया।शार्क स्किन का कोट ब्रेस्ट पॉकेट के बटवे का उभार भी साफ नज़र आ रहा था।तारीख़ निगेटिव में उल्टी थी,मगर साफ़ पढ़ी जा सकती थी।चेहरे पर भी ब-क़ौल उनके काफ़ी रोशनाई थी।उन्होंने जल्दी-जल्दी दुल्हन की अंगूठी के नग गिने और उन्हें पूरे पाकर ऐसे मुतमइन हुए कि चुटकी बजा कर सिग्रट छंगलिया में दबाके पीने लगे। बोले,“मिस्टर!ये तो सोला आने किलियर है।आँख, नाक,जेब पाकेट,एक-एक नग चुगती संभाल लो।अपने बही खाते कि मवाफिक! अजुन अपनी उमेगा वाच की सुई भी बरोबर ठीक टेम देती पड़ी है।ग्यारह क्लाक।और अपुन के हाथ में जो एक ठू सिग्रेट जलता पड़ा है,वो भी साला एक दम लेट मारता है।” ये कह कर वो किसी गहरे सोच में डूब गए।फिर एक झटके से चेहरा उठा कर कहने लगे“ बड़े साहब! इस सिग्रेट पे जो साला K2 लिखे ला है,उसकी जगह Player’s No.3 बना दो नी!”
दरबार-ए-अक्बरी में बारयाबी
ख़ैर,यहाँ तो मुआमला सिग्रेट ही पर टल गया,वर्ना हमारा तजर्बा है कि सौ फ़ी-सद हज़रात और निन्नानवे फ़ीसद ख़वातीन तस्वीर में अपने आप को पहचानने से साफ़ इनकार कर देते हैं। बाक़ी रहें एक फ़ी-सद।सो उन्हें अपने कपड़ों की वजह से अपना चेहरा क़ुबूलना पड़ता है।लेकिन अगर इत्तफ़ाक़ से कपड़े भी अपने न हों तो फिर शौक़िया फोटो ग्राफ़र को चाहिए कि और रूपया बरबाद करने का कोई और मश्ग़ला तैयार करे,जिस में कम-अज़-कम मार पीट का इमकान तो न हो।इस फ़न में दर्द न रखने वालों की आँखें खोलने के लिए हम सिर्फ़ एक वाक़िया बयान करते हैं।पिछले साल बग़दादी जिम ख़ाना में तंबूला से तबाह होने वालों की इमदाद के लिए यकुम अप्रैल को “अकबर-ए-आज़म” खेला जाने वाला था और पब्लिसिटी कमिटी ने हम से दरख़्वास्त की थी कि हम ड्रेस रिहलसल की तस्वीरें खींचें ताकि अख़बारात को दो दिन पहले मुहय्या की जा सकें।
हम ज़रा देर से पहुंचे।चौथा सीन चल रहा था।अकबर-ए-आज़म दरबार में जलवा अफ़रोज़ थे और उस्ताद तान सेन बिनजू पर हज़रत फ़िराक़ गोरखपूरी की सह गज़ला राग मालकोस में गा रहे थे।जो हज़रात कभी इस राग या किसी सह ग़ज़ला की लपेट में आ चुके हैं,कुछ वो ही अंदाज़ा लगा सकते हैं,कि अगर ये दोनों यकजा हो जाएं तो उनकी संगत क्या क़यामत ढाती है।अकबर-ए-आज़म का पार्ट जिम-ख़ाने के प्रोपैगंडा सेक्रेट्री सिबग़े (शेख़ सिबग़तुल्लाह) अदा कर रहे थे।सर पर टीन का मसनूई ताज चमक रहा था,जिस में से अब तक असली घी की लपटैं आ रही थीं।ताज-ए-शाही पर शीशे के पेपर वेट का कोह-ए-नूर हीरा जगमगा रहा था।हाथ में उसी धात यानी असली टीन की तलवार।जिसे घमसान का रन पड़ते ही दोनों हाथों से पकड़ के वो कुदाल की तरह चिलाने लगे।आगे चल कर हलदी घाट की लड़ाई में ये तलवार टूट गई तो ख़ाली न्याम से दाद-ए-शुजाअत दे रहे हैं।अंजाम कार ये भी जवाब दे गया कि राणा प्रताप का सर इस से भी सख़्त निकला।फिर महाबली इसकी आख़िरी पिच्चर तमाशाइयों को दिखाते हुए दारोग़ा इस्लहा ख़ाना को राएज-उल-वक़्त गालियाँ देने लगे।हस्ब-ए-आदत ग़ुस्से में आपे से बाहर हो गए।लेकिन हस्ब-ए-आदत,मुहावरे को हाथ से न जाने दिया।दूसरे सीन में शहज़ादा सलीम को आड़े हाथों लिया। सलीम अभी अनार कली पर अपना वक़्त बरबाद कर रहा था। उसका दौर-ए-जहाँगीरी,बल्कि नूर-ए-जहाँगीरी अभी शुरू नहीं हुआ था।दौरान-ए-सरज़निश ज़ील्ल-ए-सुबहानी ने दस्त-ए-ख़ास से एक तमांचा भी मारा जिसकी आवाज़ आख़िरी क़तार तक सुनी गई। तमांचा तो अनार कली के गाल पर भी मारा था,मगर उसका ज़िक्र हमने मसलेहतन नहीं किया,क्यूँकि ये महाबली ने कुछ इस अंदाज़ से मारा कि पास से तो कम-अज़-कम हमें यही लगा कि वो दो मिनट तक अनार कली का मैक-अप से तिमतिमाता हुआ रुख़सार सहलाते रहे।
पाँचों उंगलियों पर गाल के निशान बन गए थे!
अकबरःशेख़ू!अनार कली का सर तेरे क़दमों पर है,मगर उसकी नज़र ताज पर है।
सलीमः मोहब्बत अंधी होती है आलम पनाह!
अकबरः मगर इसका ये मतलब नहीं कि औरत भी अंधी होती है!
सलीमः लेकिन अनार कली औरत नहीं,लड़की है,आलम पनाह!
अकबरः(आस्तीन और तेवरी चढ़ाकर)ऐ ख़ान-दान-ए-तैमूरिया की आख़री निशानी! ऐ ना ख़ल्फ़, मगर (कलेजा पकड़ के) इकलौते फरज़ंद!याद रख मैं तेरा बाप भी हूँ और वालिद भी!
इस ड्रामाई इंकेशाफ़ को नई नस्ल की आगाही के लिए रिकॉर्ड अज़ बस ज़रूरी था।लिहाज़ा हम कैमरे में“फ्लैश गन” फ़िट करके आगे बढ़े।ये एहसास हमें बहुत बाद में हुआ कि जितनी देर हम फ़ोकस करते रहे,महाबली अपना शाही फ़रीज़ा यानी डांट डंपट छोड़ छाड़ कर सांस रोके खड़े रहे।वो जो यकलख़्त ख़ामोश हुए तो पिछली नशिस्तों से तरह-तरह की आवाज़ आने लगीः
“अबे! डाइलाग भूल गया क्या?”
“तमांचा मार के बेहोश हो गया है!”
“महाबली! मुंह से बोलो।”
अगले सीन में फ़िल्मी तकनीक के मुताबिक़ एक“फ्लेश बैक” था।महाबली की जवानी थी और उनकी मूंछों पर अभी पावडर नहीं बुरका गया था।बाग़ि-ए-आज़म,हेमू बुक़्क़ाल (तमाशाइयों की तरफ़ मुंह करके) सजदे में पड़ा था।और हज़रत ज़िल्ल-ए-सुबहानी तलवार सोंते भुट्टा सा उसका सर उड़ाने जा रहे थे।हम भी फ़ोटो खींचने लपके।लेकिन फ़िट लाइट्स से कोई पांच गज़ दूर होंगे कि पीछे से आवाज़ आई......बैठ जाओ,यूसुफ़ कारश! और इसके फौरन बाद एक ना-महरबाँ हाथ ने बड़ी बे-दर्दी से पीछे कोट पकड़ के खींचा।पलट के देखा तो मिर्ज़ा निकले बोले“अरे साहब! ठीक से क़त्ल तो कर लेने दो।वर्ना साला उठ के भाग जाएगा और अलम-ए-बगावत करेगा!”
दूसरे ऐक्ट में कोई क़ाबिल-ए-ज़िक्र वाक़िया यानी क़त्ल नहीं हुआ।पांचों मनाज़िर में शहज़ादा सलीम,अनार कली को इस तरह हाल-ए-दिल सुनाता रहा,गोया इम्ला लिखवा रहा है।तीसरे ऐक्ट में सिब्ग़े,हमारा मतलब है ज़िल्ल-ए-सुबहानी,शाही पेचवान की गज़ों लम्बी रबर की नै (जिस से दिन में जिम-ख़ाना के लॉन को पानी दिया गया था) हाथ में थामे अनार कली पर बरस रहे थे और हम हाज़िरीन की हूटिंग की डर से“विंग” में दुबके हुए इस सीन को फ़िलमा रहे थे कि सामने की“विंग” से एक शेर-ख़्वार स्टेज पर घुटनियों चलता हुआ आया और गला फाड़-फाड़ के रोने लगा।बिल-आख़िर मामता,इश्क़ और अदाकारी पर ग़ालिब आई और इस अफ़ीफ़ा ने तख़्त-ए-शाही की ओट में हाज़रीन से पीठ करके उसका मुंह क़ुद्रती ग़िज़ा से बंद किया।उधर महाबली ख़ून के से घूंट पीते रहे।हमने बढ़ कर पर्दा गिराया।
आख़िरी ऐक्ट के आख़िरी सीन में अकबर-ए-आज़म का जनाज़ा बैंड बाजे के साथ बड़े धूम धड़क्के से निकला।जिसे फ़िलमाने के बाद हम ग्रीन रूम में गए और सिब्ग़े को मुबारक बाद दी कि इस से बेहतर मुर्दे का पार्ट आज तक हमारी नज़र से नहीं ग़ुज़रा।उन्होंने ब-तौर-ए-शुक्रिया कोरे कफ़न से हाथ निकाल कर हम से मुसाफ़ा किया।हमने कहा सिब्ग़े! और तो जो कुछ हुआ,सो हुआ,मगर अकबर कोह-ए-नूर हीरा कब लगाता था? जभी तो हमने नक़ली कोह-ए-नूर लगाया था!
“डेवलपर” को बर्फ़ से 70 डिग्री ढंडा करके हमने रातों रात फिल्म डेवलप की।और दूसरे दिन हस्ब-ए-वादा तस्वीरों के पुरूफ़ दिखाने जिम-ख़ाना पहुंचे।घड़ी हमने आज तक नहीं रखी। अंदाज़न रात के ग्यारह बज रहे होंगे।इसलिए के अभी तो डिनर की मेंज़े सजाई जा रही थी,और उनको ज़ीनत बख़्शने वाले मिम्बरान “रैन बू-रुम” (बार) में ऊंचे-ऊंचे स्टूलों पर टंगे न जाने कब से हमारी राह देख रहे थे।जैसे ही मिंबरान हमारे जाम-ए-सहत की आख़िरी बूंद नोश कर चके,हमने अपने चरमी बैग से “रश प्रिंट” निकाल कर दिखाए......और साहब!वो तो ख़ुदा ने बड़ा फ़ज़ल किया उनमें से एक भी खड़े होने के क़ाबिल न था।वर्ना हर मिंबर,क्या मर्द,क्या औरत,आज हमारे क़त्ल में माख़ूज़ होता।
ज़िल्ल-ए-सुबहानी ने फ़रमाया,हमने अनार कली को उसकी बे-राह रवी पर डांटते वक़्त आँख नहीं मारी थी।शहज़ादा सलीम अपना फोटो मुलाहिज़ा फरमा कर कहने लगे कि ये तो नेगिटों है!शेख़ अबुल फ़ज़ल ने कहा,नूर जहाँ,बेवा-ए-शेर अफ़गन,तस्वीर में सर-ता-पा मर्द अफ़गन नज़र आती है।राजा मान सिंह कड़क कर बोले कि हमारे आब-ए-रवाँ के अंगरखे में टोडरमिल की पिस्लियाँ कैसे नज़र आ रही हैं?मुल्ला दो प्याज़ा ने पूछा,ये मेरे हाथ में दस उंगलियाँ क्यूँ लगा दीं आप ने? हमने कहा,आप हिल जो गए थे।बोले,बिल्कुल ग़लत।ख़ुद आप का हाथ हिल रहा था। बल्कि मैं ने हाथ से आप को इशारा भी किया था कि कैमरा मज़बूती से पकड़िए।अनार कली की वालिदा कि बड़े कल्ले ठल्ले की औरत हैं,तुनक कर बोलीं,अल्लाह न करे,मेरी चाँद सी बन्नो ऐसी हो (उन की बन्नों के चेहरे को अगर वाक़ई चाँद से तश्बीह दी जासकती थी,तो ये वो चाँद था,जिस में बुढ़िया बैठी चरख़ा कातती नज़र आती है।)मुख़तसर ये कि हर शख़्स शाकी,हर शख़्स ख़फ़ा।अकबर-ए-आज़म के नौरतन तो नौरतन, ख़्वाजा-सरा तक हमारे ख़ून के प्यासे हो रहे थे।
पैदा होना पैसा कमाने की सूरत का
हम से जिम-ख़ाना छूट गया।औरों से क्या गिला,सिब्ग़े तक खिंचे-ख़िंचे रहने लगे।हमने भी सोचा,चलो तुम रूठे,हम छूटे। वाहसर ताकि उनकी ख़फ़गी और हमारी फ़राग़त चंद रोज़ा साबित हुई।क्यूँकि दस पंद्रह दिन बाद उन्होंने अपने फ़्लेट वाक़े छटी मंज़िल पर“सिब्ग़े एडवर टाइज़र(पाकिस्तान)प्राइवेट लिमटेड” का शोख सा साइन बोर्ड लगा दिया,जिसे अगर बीच सड़क पर लेट कर देखा जाता तो साफ़ नज़र आता।दूसरा नेक काम उन्होंने ये किया कि हमें एक नए साबुन“स्कैंडल सोप”के इश्तिहार के लिए तस्वीर खींचने पर कमीशन (मामूर) किया। अजब इत्तेफ़ाक़ है अजब इत्तिफ़ाक़ है कि हम ख़ुद कुछ अर्से से बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे कि हमारे हाँ औरत,इबादत और शराब को अब तक क्लोरो-फ़ार्म की जगह इस्तेमाल किया जाता है।यानी दर्द-व-अज़िय्यत का एहसास मिटाने के लिए,न कि सुरूर-व-इंबिसात कि ख़ातिर।इसी एहसास को सुनकर देने वाली पिंक की तलाश में थके हारे फ़ुनून-ए-लतीफ़ा तक पहुंचते हैं। और ये ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी अय्याशी को ज़रिया-ए-मआश नहीं बनाया जा सकता।चुनांचे पहली सी बोली पर हमने अपनी मताए हुनर से पीछा छुड़ाने का फैसला कर लिया।फ़िर मुआवज़ा भी माक़ूल था।यानी ढाई हज़ार रूपये।जिस में से तीन रूपये नक़्द उन्होंने हमें उसी वक़्त अदा कर दिए।और इसी रक़्म से हमने ग्यूर्ट की 27 डिग्री की सुस्त रफ़तार फ़िल्म ख़रीदी,जो जिल्द के निखार और नरमी को अपने अंदर धीरे-धीरे समो लेती है।“चेहरा”मोहय्या करने की ज़िम्मेदारी स्कैंडल सोप बनाने वोलों के सर थी।तस्वीर की पहली और आख़िरी शर्त ये थी कि “सेक्सी”हो।इस मक़सद-ए-जमील के लिए जिस ख़ातून की ख़िदमत पेश की गईं,वो बुर्क़े में निहायत भली मालूम होती थीं। बुर्क़ा उतरने के बाद खुला कि
ख़ूब था पर्दा,निहायत मस्लेहत की बात थी
सेक्स अपील तो एक तरफ़ रही,उस दुखिया के तो मुंह में मक्खन भी नहीं पिघल सकता था।अल्बत्ता दूसरी ‘माडल’ का बा-किफ़ायत लिबास अपने मुज़मिरात को छुपाने से बू-जूह क़ासिर था।हमने चंद रंगीन“श़ॉट”तीखे-तीखे ज़ावियों से लिए और तीन चार दिन बाद मिर्ज़ा को प्रोजेक्टर से TRANSPARENCIES दिखाईं।कोडक के रंग दहक रहे थे।सरकश ख़ुतूत पुकार-पुकार कर एलान-ए-जिंस कर रहे थे।हमने इस पहलू पर तवज्जो दिलाई तो इरशाद हुआ,ये एलान-ए-जिंस है या कपड़े की सनअत के ख़िलाफ़ एलान-ए-जंग?
तीसरी“सिटिंग”(निशिस्त)से दस मिनट पेश्तर मिर्ज़ा हस्ब-ए-वादा हमारी कुमक पर आ गए।सोचा था,कुछ नहीं तो दुसराथ रहेगी।फिर मिर्ज़ा का तजर्बा,ब-सबब उन तबआ-ज़ाद ग़ल्तियों के,जो वो करते रहे हैं,हम से कहीं ज़्यादा वसी-व-गूनागूँ है।लेकिन उन्होंने तो आते ही आफ़त मचा दी।असल में वो अपने नये “रोल” (हमारे फ़न्नी मुशीर) में फूले नहीं समा रहे थे।अब समझ में आया कि नया नौकर दौर कर हिरन के सींग क्यूँ उखाड़ता है और अगर हिरन भी नया हो तो
अस्दुल्लाह ख़ाँ क़यामत है!
वैसे भी मैक-अप वग़ैरा के बारे में वो कुछ ताअस्सुबात रखते हैं,जिन्हें इस वक़्त‘माडल’के चेहरे पर थोपना चाहते थे (मसलन काली औरतों के बारे में उनका ख़याल है कि उन्हें सफ़ेद सुर्मा लगाना चाहिए।अधेड़ मर्द के दाँत बहुत उजले नहीं होने चाहिएं,वर्ना लोग समझेंगे की मसनूई हैं।अला-हाजज़ा-उल-क़यास)।बोले लिप-स्टिक पर वैस्लीन लगवाओ।इस से होंट VOLUPTUOUS मालूम होन लगैंगे।आज कल के मर्द उभरे-उभरे गुर्दासे होंट पे मरते हैं।और हाँ ये फटीचर ऐनक उतार के तस्वीर लो।हमने रफ़ा-ए-शर के लिए फ़ौरन ऐनक उतार दी।बोले,साहब! अपनी नहीं उसकी।बाद-ए-अज़ाँ इरशाद हुआ,फ़ोटो को लिए नई और चमकीली सारी क़तई मौज़ूँ नहीं।खैर।मगर कम-अज़-कम सैंडल तो उतार दो।पुराना-पुराना लगता है।हमने कहा,तस्वीर चेहरे कि ली जा रही है,न कि पैरों की।बोले,अपनी टाँग न अड़ाओ। जैसे उस्ताद कहता है वही करो।हमने बेगम का शेमपैयन के रंग का नया सैंडल ला कर दिया।और ये अजीब बात है कि उसे पहन कर उसके“एक्सप्रेशन”में एक ख़ास तमकनत आ गई। बोले, साहब!ये तो जूता है।अगर किसी के बनयान में छेद हो तो इसका असर भी चेहरे के एक्सप्रेशन पर पड़ता है।ये नुक्ता बयान करके वो हमारे चेहरे की तरफ़ देखने लगे।
आँखें मेरी बाक़ी उनका
एड़ी से चोटी तक इसलाह-ए-हुस्न करने के बाद उसे सामने खड़ा किया और वो प्यारी-प्यारी नज़्रों से कैमरे को देखने लगी तो मिर्ज़ा फ़िर बीन बजाने लगे“साहब!ये फ़रंट पोज़,दो-कानों बीच एक नाक वाला पोज़ सिर्फ़ पास्पोर्ट में चलता है।आप ने ये नहीं देखा कि इसकी गर्दन लंबी है और नाक का कट यूनानी।चेहरा साफ कहे देता है कि मैं सिर्फ़ प्रोफ़ाइल के लिए बनाया गया हूँ।” हमने कहा“अच्छा,बाबा! प्रोफ़ाइल ही सही।”
इस तकनीकी समझौते के बाद हमने तुरत-फुरत कैमरे में “क्लोज़-अप लेंस”फ़िट किया।सुरमई पर्दे को दो क़दम पीछे खिसकाया।सामने एक सब्ज़ कांटेदार“केक्टस”रखा और उस पर पाँच सो वाट की स्पाट लाइट डाली।इसकी ओट में गुल-ए-रुख़सार।हल्का सा आउट आफ़ फ़ोकस ताकि ख़तूत और मुलायम हो जाएं।वो दसवी दफ़ा तन कर खड़ी हुई।सीना ब-फ़लक कशीदा, निचला होंट सूफिया लारेन की तरह आगे को निकाले।आँख़ों में “ इधर देखो मेरी आँखों में क्या है”वाली कैफ़ियत लिए।और मीठी-मीठी रोशनी में बलखाते हुए ख़ुतूत फिर गीत गाने लगे।रंग फिर कूकने लगे।आख़िरी बार हमने दीदबान से,और मिर्ज़ा ने कपड़ों से पार होती हुई नज़र से देखा।मुसकराती हुई तस्वीर लेने की ग़र्ज़ से हमने माडल को आख़िरी पेशा-वाराना हिदायत दी कि जब हम बटन दबाने लगें तो तुम होले-होले कहती रहनाः
चीज़,चीज़,चीज़,चीज़।
ये सुनना था कि मिर्ज़ा ने हमारा हाथ पकड़ लिया और इसी तरह बरामदे में ले गए।बोले,कितने फ़ाक़ों में सीखी है ये ट्रिक? क्या रेड़ मारी है,मुसकुराहट की! साहब! हर चेहरा हंसने के लिए नहीं बनाया गया!ख़ुसूसन मशरिक़ी चेहरा।कम-अज़-कम ये चेहरा!हमने कहा,जनाब!औरत के चेहरे पर मशरिक़ मग़रिब बताने बाला क़ुतुब-नुमा थोड़ा ही लगा होता है।ये तो लड़की है। बुध तक के होंट मुसकुराहट से ख़म हैं।लंका में नारियल और पाम के दरख़्तों से घिरी हुई एक नीली झील है,जिसके बारे में ये रिवायत चली आती है कि इसके पानी में एक दफ़ा गौतम बुद्ध अपना चेहरा देखकर यूंही मुसकुरा दिया था।अब ठीक उसी जगह एक ख़ूब-सूरत मंदिर है जो इस मुसकुराहट की याद में बनाया गया है।मिर्ज़ा ने वहीं बात पकड़ ली।बोले,साहब!गौतम बुद्ध की मुसकुराहट और है,मोनालिज़ा की और!बुद्ध अपने आप पर मुसकुराया था। मोनालिज़ा दूसरों पर मुसकुराती है।शायद अपने शौहर की सादा लौही पर!बुद्ध की मूर्तियाँ देखो।मुसकुराते हुए उसकी आँखें झुकी हुई हैं।मोनालिज़ा की खुली हूई।मोनालिज़ा होंटों से मुसकुराती है।उसका चेहरा नहीं हंसता।उसकी आँखें नहीं हंस सकतीं।इसके बर-अक्स अजंता की औरत को देखो।उसके लब बंद हैं।मगर ख़ुतूत खुल खेलते हैं।वो अपने समूचे बदन से मुसकुराना जानती है।होंटों की कली ज़रा नहीं खिलती,फिर भी उसका हरा भरा बदन,उसका अंग-अंग मुसकुरा उठता है।हमने कहा,मिर्ज़ा!इसमें अजंता एलोरा का इजारा नहीं।बदन तो मारलिन मिनरो का भी खिलखिलाता था! बोले,कौन मसख़रा कहता है? वो ग़रीब उमर भर हंसी और हँसना न आया।साहब! हंसना न आया, इसलिए कि वो जन्म-जन्म की निंदा सी थी।उसका रुवाँ-रुवाँ बुलावे देता रहा।उसका सारा वजूद,एक-एक पोर,एक-एक मसाम
इंतिज़ार-ए-सैद में इक दीदा-ए-बे-ख़्वाब था
वो अपने छतनार बदन,अपने सारे बदन से आँख मारती थी।मगर हंसी? उसकी हंसी एक लज़्ज़त भरी सिसकी से कभी आगे न बढ़ सकी।अच्छा।आओ।अब मैं तुम्हें बताऊँ कि हंसने वालियाँ कैसे हंसा करती हैः-
जात हती इक नार अकेली,सो बीच बजार भयो मुजराए
आप हंसी, कछू नैन हंसे, कछू नैन बीच हंसू कजराए
हार के बीच हुमेल हंसी, बाजू बंदन बीच हंसो गजराए
भवैं मरूर के ऐसी हंसी जैसे चंद्र को दाब चलो बदराए
मिर्ज़ा ब्रिज भाषा की इस चौपाई का अंग्रेज़ी में तर्जुमा करने लगे और हम कान लटकाए सुनते रहे।लेकिन अभी वो तीसरे मिस्रा का ख़ून नहीं कर पाए थे कि सिब्ग़े के सब्र-व-जब्त का पैमाना छलक गया।क्यूँकि‘माडल’ सौ रूपये फी घंटा के हिसाब से आई थी और डेढ़ सौ रूपये गुज़र जाने के बा-वजूद अभी पहली किलिक की नौबत नहीं आई थी।
तस्वीरे कैसी आईं?तीन कम ढाई हज़ार रूपये वसूल हुए या नहीं?इश्तिहार कहाँ छपा?लड़की का फ़ोन नंबर क्या है?स्कैंडल सोप फ़ैक्ट्री कब नीलाम हुई?इन तमाम सवालात का जवाब,हम इंशाअल्लाह,बहुत जल्द ब-ज़रियए मज़मून देंगे।सर-ए-दस्त क़ारेईन को ये मालूम करके मस्सर्त होगी कि मिर्ज़ा के जिस पाले पोसे कैक्टस को हमने रुख़-ए-रोशन के आगे रक्खा था,उसे फरवरी में फूलों की नुमाइश में पहला इनाम मिला। (जूलाई-1964ई)
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