वेल्कम,हेलो हेलो,माई डीयर16ई.।अंदर आइए।केक चखिए।कम मिठास की चाय पीजिए।अँगीठी गर्म है हाथ सेंकिए।नाक को तो सर्दी नहीं लगती।ख़ुनकी मालूम हो तो उसको भी गर्मा लीजिए मगर हाँ आप के नाक है भी या नहीं,15ई.के तो न थी।एल जर्मनी ने वअदा ख़िलाफ़ियाँ।अहद-ए-शिकनियाँ करके बेचारे की नाक काट ली थी।
भाई मेरे घर में ब्रेकफास्ट का तो कोई सामान नहीं है।तेरह-तेज़ी की घुंघनीया खा-खाकर दिन काटता हूँ।तुम्हारे लिए एक ख़ानसामाँ से केक का एक टुकड़ा और ठंडी फीकी चाय की एक प्याली मांग लाया था।“चह कुंद बे-नवा हमीं दारू”सब्र करके उसी को नोश कर लो।ज़्यादा हिर्स हो तो मैदान-ए-जंग में जाओ वहाँ सब कुछ मिलेगा।
ज़रा सुनना ख़ुदा ने कहा था मैं ख़ुद ज़माना और वक़्त हूँ।क्या तुम भी ख़ुदा हो।क्यूँकि तुम भी टाइम और वक़्त हो।मगर ख़ुदा तो बदला नहीं करता और तुम बारह महीने में बदल जाते हो।लिहाज़ा मालूम हुआ कि तुम ख़ुदा नहीं हो।पस जब तुम ख़ुदा नहीं हो।तो लाओ मेरा केक फेरदो।और चाय की प्याली भी वापस दो।
हाँ याद आया मैं तुम मशरिक़ी हो और मशरिक़ वाले देकर वापस नहीं लिया करते।अच्छा ख़ैर खालो।निगल लो।थोड़लो।तुम्हें किसने बुलाया था।मान न मान मैं तेरा मेहमान आओ-भगत करता तो अपने मोहर्रम की करता जो मेरा लाडला है।हिज्री सन का पहला पैग़ाम लेकर आता है।तुम से मुझे क्या ग़रज़ तुम को पादरी साहब के यहाँ जाना चाहिए था।
लाहौल वला क़ुव्वत।माफ़ कीजिएगा।जनाब भूक-व-मुफ़लिसी में इंसान की अक़्ल क़ाबू में नहीं रहती।आप हमारे बादशाह की निशानी हैं।हर दफ़्तर में आप ही का सिक्का चलता है।हमारी क़ौम तो आप से इस क़दर मोहब्बत रखती है कि हर शख़्स दीवार पर आँखों के सामने आप ही को लटकाता है।जनवरी की क़सम मैं तुम्हारा ताबेदार हूँ।वफ़ा शुआर ख़ादिम हूँ।तुम्हारा क्या कहना।बड़े अच्छे हो।कैसे गर्म-गर्म कोट लाते हो,तुम्हारे आने की ख़बर सुनकर एक महीना पहले ख़ैरात बांटने वाले मुझको लिहाफ़ बनवा देते हैं।और लिहाफ़ के अंदर मुझ को ऐसा आराम मिलता है।जैसा कछवा अपनी ख़ौल में।
मेरी आदत ख़ुशामद करने की नहीं है पर आज तो मैं तुम्हारी ख़ुशामद करूँगा।और कहो तो तुम्हारे बूट भी साफ़ करने में उज़्र न होगा।लेकिन ये वअदा करलो कि तुम15 ई.और14 ई.की ख़ूँरेज़ी को बंद करा दोगे।
मियाँ मुझे इस लड़ाई से तो कुछ तकलीफ़ नहीं।दुनिया में कुछ भी हुआ करे।मुझे इस से क्या ग़रज़।अलबत्ता ये बे आरामी है कि सूइयाँ और रंग बहुत महंगा हो गया है।जानते हो कि मैं दमड़ी धैला का आदमी हूँ।सूइयाँ सस्ती थी तो अपनी गुदड़ी में आसानी से पेवंद लगा लेता था।और आधी का रंग लाकर उसको रंग लेता था।अब ये दोनों इस क़दर गिराँ हैं कि मैं न सूइयाँ ख़रीद सकता हूँ न रंग यूँ ही मैला कुचला छितड़े लगाए फिरता हूँ।
अगर तुम लड़ाई बंद न कराओ।तो ये दोनों चीज़ें तो सस्ती करा दो।बस मैं तो फ़क़त इतना चाहता हूँ।मुझे न ख़िताब चाहिए।न कौंसिल की मेंबरी।मैं तो रूखी रोटी पेट भर कर।और कुँवें का पानी और तले का मोटा झूटा कपड़ा,चाहता हूँ।
कुँवें का पानी इस वास्ते दरकार है।कि नल का पानी लोहे के मुँह से आता है।और लोहा आज कल तोप में,बंदूक़ में,गोले में,गोलियों में,आदमी का ख़ून बहाता है और मैं खूनखराबे से बहुत डरता हूँ।अंदेशा है कि लोहे का पानी पीकर कहीं मुझ मे फ़ितना-व-फ़साद का असर न आ जाए।
भाई मेरे घर में ब्रेकफास्ट का तो कोई सामान नहीं है।तेरह-तेज़ी की घुंघनीया खा-खाकर दिन काटता हूँ।तुम्हारे लिए एक ख़ानसामाँ से केक का एक टुकड़ा और ठंडी फीकी चाय की एक प्याली मांग लाया था।“चह कुंद बे-नवा हमीं दारू”सब्र करके उसी को नोश कर लो।ज़्यादा हिर्स हो तो मैदान-ए-जंग में जाओ वहाँ सब कुछ मिलेगा।
ज़रा सुनना ख़ुदा ने कहा था मैं ख़ुद ज़माना और वक़्त हूँ।क्या तुम भी ख़ुदा हो।क्यूँकि तुम भी टाइम और वक़्त हो।मगर ख़ुदा तो बदला नहीं करता और तुम बारह महीने में बदल जाते हो।लिहाज़ा मालूम हुआ कि तुम ख़ुदा नहीं हो।पस जब तुम ख़ुदा नहीं हो।तो लाओ मेरा केक फेरदो।और चाय की प्याली भी वापस दो।
हाँ याद आया मैं तुम मशरिक़ी हो और मशरिक़ वाले देकर वापस नहीं लिया करते।अच्छा ख़ैर खालो।निगल लो।थोड़लो।तुम्हें किसने बुलाया था।मान न मान मैं तेरा मेहमान आओ-भगत करता तो अपने मोहर्रम की करता जो मेरा लाडला है।हिज्री सन का पहला पैग़ाम लेकर आता है।तुम से मुझे क्या ग़रज़ तुम को पादरी साहब के यहाँ जाना चाहिए था।
लाहौल वला क़ुव्वत।माफ़ कीजिएगा।जनाब भूक-व-मुफ़लिसी में इंसान की अक़्ल क़ाबू में नहीं रहती।आप हमारे बादशाह की निशानी हैं।हर दफ़्तर में आप ही का सिक्का चलता है।हमारी क़ौम तो आप से इस क़दर मोहब्बत रखती है कि हर शख़्स दीवार पर आँखों के सामने आप ही को लटकाता है।जनवरी की क़सम मैं तुम्हारा ताबेदार हूँ।वफ़ा शुआर ख़ादिम हूँ।तुम्हारा क्या कहना।बड़े अच्छे हो।कैसे गर्म-गर्म कोट लाते हो,तुम्हारे आने की ख़बर सुनकर एक महीना पहले ख़ैरात बांटने वाले मुझको लिहाफ़ बनवा देते हैं।और लिहाफ़ के अंदर मुझ को ऐसा आराम मिलता है।जैसा कछवा अपनी ख़ौल में।
मेरी आदत ख़ुशामद करने की नहीं है पर आज तो मैं तुम्हारी ख़ुशामद करूँगा।और कहो तो तुम्हारे बूट भी साफ़ करने में उज़्र न होगा।लेकिन ये वअदा करलो कि तुम15 ई.और14 ई.की ख़ूँरेज़ी को बंद करा दोगे।
मियाँ मुझे इस लड़ाई से तो कुछ तकलीफ़ नहीं।दुनिया में कुछ भी हुआ करे।मुझे इस से क्या ग़रज़।अलबत्ता ये बे आरामी है कि सूइयाँ और रंग बहुत महंगा हो गया है।जानते हो कि मैं दमड़ी धैला का आदमी हूँ।सूइयाँ सस्ती थी तो अपनी गुदड़ी में आसानी से पेवंद लगा लेता था।और आधी का रंग लाकर उसको रंग लेता था।अब ये दोनों इस क़दर गिराँ हैं कि मैं न सूइयाँ ख़रीद सकता हूँ न रंग यूँ ही मैला कुचला छितड़े लगाए फिरता हूँ।
अगर तुम लड़ाई बंद न कराओ।तो ये दोनों चीज़ें तो सस्ती करा दो।बस मैं तो फ़क़त इतना चाहता हूँ।मुझे न ख़िताब चाहिए।न कौंसिल की मेंबरी।मैं तो रूखी रोटी पेट भर कर।और कुँवें का पानी और तले का मोटा झूटा कपड़ा,चाहता हूँ।
कुँवें का पानी इस वास्ते दरकार है।कि नल का पानी लोहे के मुँह से आता है।और लोहा आज कल तोप में,बंदूक़ में,गोले में,गोलियों में,आदमी का ख़ून बहाता है और मैं खूनखराबे से बहुत डरता हूँ।अंदेशा है कि लोहे का पानी पीकर कहीं मुझ मे फ़ितना-व-फ़साद का असर न आ जाए।
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