हम ने कॉलेज में तालीम तो ज़रूर पाई और रफ़्ता रफ़्ता बी,ए भी पास कर लिया, लेकिन इस निस्फ़ सदी के दौरान जो कॉलेज में गुज़ारनी पड़ी, हॉस्टल में दाख़िल होने की इजाज़त हमें स़िर्फ एक ही दफ़ा मिली ।
ख़ुदा का यह फ़ज़ल हम पर कब और किस तरह हुआ, ये सवाल एक दासतान का मोहताज है ।
जब हमने इंटरेंस पास किया तो मक़ामी स्कूल के हेड-मास्टर साहब ख़ास तौर पर मुबारक-बाद देने के लिए आए । क़रीबी रिश्तेदारों ने दावतें दीं । मोहल्ले वालों में मिठाई बाँटी गई और हमारे घर वालों पर यक-लख़्त इस बात का इंक्शाफ़ हुआ कि वो लड़का जिसे आज तक अपनी कोताह-बीनी की वजह से एक बेकार और नालायक़ फ़रज़न्द समझ रहे थे। दरअस्ल ला-महदूद क़ाबलियतों का मालिक है, जिस की नश-व-नुमा पर बेशुमार आने वाली नस्लों की बहबूदी का इनहिसार है। चुनांचे हमारी आईन्दा ज़िंदगी के मुताल्लिक़ तरह तरह की तजवीज़ों पर ग़ौर किया जाने लगा।
थर्ड डिवीज़न में पास होने की वजह से युनिवर्सिटी ने हमको वज़ीफा देना मुनासिब न समझा। चूँकि हमारे ख़ानदान ने ख़ुदा के फज़ल से आज तक कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया इस लिए वज़ीफ़े का न मिलना भी ख़ुसूसन उन रिश्तेदारों के लिए जो रिश्ते के लिहाज़ से ख़ानदान के मज़ाफात में बसते थे, फख़्र-व-मुबाहात का बाइस बन गया और “मरकज़ी रिश्ते-दारों” ने तो इस को पास-ए-वज़ा और हिफज़-ए-मरातिब समझ कर मुमतहिनों की शराफत-व-नजाबत को बे-इंतेहा सराहा। बहर-हाल हमारे ख़ानदान में फ़ालतू रूपये की बहतात थी, इस लिए बेला-तकल्लुफ़ ये फैसला कर लिया गया कि न सिर्फ़ हमारी बल्कि मुल्क-व-क़ौम और शायद बनी-नौ-ए-इन्सान की बेहतरी के लिए ये ज़रूरी है कि ऐसे होनहार तालिब-ए-इल्म की तालीम जारी रखी जाए ।
इस बारे में हम से भी मश्वरा लिया गया। उम्र भर में इस से पहले हमारे किसी मामले में हम से राय तलब न की गई थी, लेकिन अब तो हालात बहुत मुख़्तलिफ़ थे। अब तो एक ग़ैर-जानिब-दार और ईमान-दार मुंसिफ़ यानी यूनीवर्सिटी हमारी बे-दार-मग़्ज़ी की तसदीक़ कर चुकी थी। अब भला हमें क्यूँ नज़र-अंदाज़ किया जा सकता था। हमारा मश्वरा ये था कि हमें फौरन विलायत भेज दिया जाए। हम ने मुख़्तलिफ़ लीडरों की तक़रीरों के हवाले से ये साबित किया कि हिंदुस्तान का तरीक़ा-ए-तालीम बहुत नाक़िस है। अख़बारात में से इश्तिहार दिखा-दिखा कर ये वाज़ह किया कि विलायत में कॉलेज की तालीम के साथ साथ फ़ुर्सत के औक़ात में बहुत थोड़ी-थोड़ी फ़ीस दे कर बयक-वक़्त जर्नलिज़्म,फ़ोटो ग्राफ़ी, तसनीफ़-व-तालीफ़, दनदान साज़ी, ऐनक साज़ी, एजेंटों का काम, गर्ज़ कि बे-शुमार मुफ़ीद और कम ख़र्च में बाला-नशीं पेशे सीखे जा सकते हैं और थोड़े अरसे के अंदर इंसान हर-फ़न मौला बन सकता है।
लेकिन हमारी तजवीज़ को फौरन रद्द कर दिया गया, क्योंकि विलायत भेजने के लिए हमारे शहर में कोई रिवायात मौजूद न थीं। हमारे गिर्द-व-नवाह में से किसी का लड़का अभी तक विलायत न गया था इस लिए हमारे शहर की पब्लिक वहाँ के हालात से क़तअन नावाक़िफ थी।
इस के बाद फिर हम से राय तलब न की गई और हमारे वालिद, हेड-मास्टर साहब, तहसील-दार साहब इन तीनों ने मिल कर ये फ़ैसला किया कि हमें लाहौर भेज दिया जाए ।
जब हमने यह ख़बर सुनी तो शुरू-शुरू में हमें सख़्त मायूसी हुई, लेकिन इधर उधर के लोगों से लाहौर के हालात सुने तो मालूम हुआ कि लंदन और लाहौर में चंदाँ फ़र्क़ नहीं। बाज़ वाक़िफ़-कार दोस्तो ने सिनेमा के हालात पर रौशनी डाली। बाज़ ने थिएटरों के मक़ासिद से आगाह किया। बाज़ ने ठंडी सड़क वग़ैरह के मशाग़िल को सुलझा कर समझाया। बाज़ ने शाहदरे और शाला-मार की अरमान अंगेज़ फ़ज़ा का नक़्शा खींचा चुनांचे जब लाहौर का जुग़राफ़िया पूरी तरह हमारे ज़हन नशीन हो गया तो साबित ये हुआ कि खुश-गवार मक़ाम है और आला दर्जे की तालीम हासिल करने के लिए बे-हद मौज़ूँ। इस पर हमने अपनी ज़िंदगी का प्रोग्राम वज़ा करना शुरू कर दिया। जिस में लिखने पढ़ने को जगह तो ज़रूर दी गई लेकिन एक मुनासिब हद तक, ताकि तबीयत पर कोई ना-जायज बोझ न पड़े और फ़ितरत अपना काम हुस्न-व- ख़ूबी के साथ कर सके।
लेकिन तहसील-दार साहब और हेड-मास्टर साहब की नेक-नियति यहीं तक महदूद न रही। अगर वो सिर्फ़ एक आम और मुजमल सा मश्वरा दे देते कि लड़के को लाहौर भेज दिया जाए तो बहुत ख़ूब था, लेकिन उनहोंने तो तफ़सीलात में दख़्ल देना शुरु कर दिया और हॉस्टल की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी का मुक़ाबला कर के हमारे वालिद पर ये साबित कर दिया कि घर पाकीज़गी और तहारत का एक काबा और हॉस्टल गुनाह-व-मासियत का एक दोज़ख है। एक तो थे वो चर्ब ज़बान, इस पर उन्होंने बे-शुमार ग़लत बयानियों से काम लिया चुनांचे घर वालों को यक़ीन सा हो गया कि कॉलेज का हॉस्टल जरायम पेशा अक़्वाम की एक बस्ती है और जो तलबा बाहर के शहरों से लाहौर जाते हैं अगर उनकी पूरी निगेह-दाश्त न की जाए तो वो अक्सर या तो शराब के नशे में चूर सड़क के किनारे किसी नाली में गिरे हुए पाए जाते हैं या किसी जुए ख़ाने में हज़ार-हा रुपये हार कर खुद-कुशी कर लेते हैं या फिर फ़र्स्ट-इयर का इम्तिहान पास करने से पहले दस बारह शादियाँ कर बैठते हैं ।
चुनांचे घर वालों को ये सोचने की आदत पड़ गई कि लड़के को कॉलेज में तो दाख़िल किया जाए लेकिन हॉंस्टल में न रखा जाए । कॉलेज ज़रूर, मगर हॉस्टल हरगिज़ नहीं । कॉलेज मुफ़ीद, मगर हॉस्टल मुज़िर । वो बहुत ठीक, मगर ये नामुमकिन। जब उन्होंने अपनी ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐन ही ये बना लिया कि कोई ऐसी तरकीब सोची जाए, जिस से लड़का हॉस्टल की ज़द से महफ़ूज़ रहे तो किसी ऐसी तरकीब का सूझ जाना क्या मुश्किल था। ज़रूरत ईजाद की माँ है। चुनांचे अज़-ह़द गौर-व-खौज़ के बाद लाहौर में हमारे एक मामूँ दरयाफ़्त किए गए और उनको हमारा सर-परस्त बना दिया गया। मेरे दिल में उनकी इज़्ज़त पैदा करने के लिए बहुत से शजरों की वरक़ गर्दानी से मुझ पर ये साबित किया गया कि वो वाक़ई मेरे मामूँ हैं। मुझे बताया गया कि जब मैं शीर-ख़्वार बच्चा था तो वो मुझ से बेइंतहा मुहब्बत किया करते थे, चुनांचे फैसला यह हुआ कि हम पढ़ें कॉलेज में और रहें मामूँ के घर ।
उस से तहसील-ए-इल्म का जो एक वलवला सा हमारे दिल में उठ रहा था, वो कुछ बैठ सा गया। हम ने सोचा यह मामूँ लोग अपनी सर-परस्ती के ज़ोम में वालदैन से भी ज़्यादा एहतियात बरतेंगें, जिस का नतीजा यह होगा कि हमारे दिमाग़ी और रूहानी क़वा को फ़लने फ़ूलने का मौक़ा न मिलेगा और तालीम का अस्ली मक़्सद फ़ौत हो जाएगा, चुनांचे वही हुआ जिस का हमें ख़ौफ़ था। हम रोज़-ब-रोज़ मुरझाते चले गए और हमारे दिमाग़ पर फफूँदी सी जमने लगी। सिनेमा जाने कि इजाज़त कभी कभार मिल जाती थी लेकिन इस शर्त पर कि बच्चों को भी साथ लेता जाऊँ। इस सोहबत में भला मैं सिनेमा से क्या अख़्ज़ कर सकता था। थिएटर के मामले में हमारी मालूमात इंद्र सभा से आगे बढ़ने न पाईं । तैरना हमें न आया क्युँकि हमारे मामूँ का एक मशहूर क़ौल है कि “डूबता वही है जो तैराक हो” जिसे तैरना न आता हो वो पानी में घुसता ही नहीं। घर पर आने जाने वाले दोस्तों का इन्तिख़ाब मामूँ के हाथ में था। कोट कितना लम्बा पहना जाए और बाल कितने लम्बे रखे जाएँ, इनके मुताल्लिक़ हिदायात बहुत कड़ी थीं। हफ़्ते में दो बार घर ख़त लिखना ज़रूरी था। सिगरेट ग़ुस्ल-ख़ाने में छुप कर पीते थे। गाने बजाने की सख़्त ममानियत थी।
ये सिपाहियाना ज़िंदगी हमें रास न आई । यूँ तो दोस्तों से मुलाक़ात भी हो जाती थी। सैर को भी चले जाते थे। हंस बोल भी लेते थे लेकिन वो जो ज़िंदगी में एक आज़ादी, एक फ़र्राख़ी, एक वाबस्तगी होनी चाहिए वो हमें नसीब न हुई। रफ़्ता रफ़्ता हमने अपने माहौल पर ग़ौर करना शुरू किया कि मामूँ जान अमूमन किस वक़्त घर में होते हैं, किस वक़्त बाहर जाते हैं, किस कमरे में से किस कमरे तक गाने की आवाज़ नहीं पहुँच सकती, किस दरवाज़े से कमरे के किस कोने में झांकना नामुमकिन है, घर का कौन सा दरवाज़ा रात के वक़्त बाहर से खोला जा सकता है, कौन सा मुलाज़िम मवाफ़िक़ है, कौन सा नमक हलाल है। जब तजरेबे और मुताले से इन बातों का अच्छी तरह अन्दाज़ा हो गया तो हमने इस ज़िंदगी में भी नशो-व-नुमा के लिए चंद गुंजाइशें पैदा कर लीं लेकिन फिर भी हम रोज़ देखते थे कि हॉस्टल में रहने वाले तलबा किस तरह अपने पाँव पर खड़े हो कर ज़िंदगी की शाहराह पर चल रहे हैं । हम उनकी ज़िंदगी पर रश्क करने लगे। अपनी ज़िंदगी को सुधारने की ख़्वाहिश हमारे दिल में रोज़-ब-रोज़ बढ़ती गई । हम ने दिल से कहा, वालदैन की नाफ़रमानी किसी मज़हब में जायज़ नहीं लेकिन उन की ख़िदमत में दरख़्वास्त करना, उन के सामने अपनी नाक़िस राय का इज़हार करना, उनको सही वाक़यात से आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है और दुनिया की कोई ताक़त मुझे अपने फर्ज़ की अदायगी से बाज़ नहीं रख सकती।
चुनांचे जब गर्मियों की तातीलात में, मैं वतन को वापस गया तो चंद मुख़्तसर मगर जामे और मुअस्सिर तक़रीरें अपने दिमाग़ में तैयार रखीं । घर वालों को हॉस्टल पर सब से बड़ा एतराज़ ये था कि वहाँ की आज़ादी नौ-जवानों के लिए अज़-हद मुज़िर होती है । इस ग़लत-फ़हमी को दूर करने के लिए हज़ार हा वाक़यात ऐसे तसनीफ़ किए जिन से हॉस्टल के क़वायद की सख़्ती उन पर अच्छी तरह रौशन हो जाए । सुपेरिटेंडेंट साहब के ज़ुल्म-व-त्शदुद् की चंद मिसालें रिक्क़्त अंगेज़ और हैबत ख़ेज़ पैराएमें सुनाईं । आँखें बंद कर के एक आह भरी और बेचारे अश्फ़ाक़ का वाक़या बयान किया कि एक दिन शाम के वक़्त बेचारा हॉस्टल को वापस आ रहा था। चलते चलते पाँव में मोच आ गई । दो मिनट देर से पहुँचा। सिर्फ़ दो मिनट। बस साहब उस पर सुपेरिटेंडेंट साहब ने फ़ौरन तार दे कर उस के वालिद को बुलवा लिया। पुलिस से तहक़ीक़ात करने को कहा और महीने भर के लिए उस का जेब ख़र्च बंद करवा दिया। तौबा है इलाही !
लेकिन ये वाक़या सुन कर घर के लोग सुपेरिटेंडेंट साहब के मुखालिफ़ हो गए । हॉस्टल की ख़ूबी उन पर वाज़ह न हुई। फिर एक दिन मौक़ा पा कर बेचारे महमूद का वाक़या बयान किया कि एक दफा शामत-ए-आमाल बेचारा सिनेमा देखने चला गया। क़ुसूर उस से यह हुआ कि एक रुपये वाले दर्जे में जाने के बजाय वो दो रूपये वाले दर्जे में चला गया। बस इतनी सी फ़ुज़ूल खर्ची पर उसे उम्र भर सिनेमा जाने की मोमाने-अत हो गई है ।
लेकिन इस से भी घर वाले मुतास्सिर न हुए । उन के रवैये से मुझे फ़ौरन एहसास हुआ कि एक रूपये और दो रुपये के बजाय आठ आने और एक रूपया कहना चाहिए था ।
इन्हीं नाकाम कोशिशों में तातीलात गुज़र गईं और हमने फिर मामूँ की चौखट पर आकर सजदा किया ।
अगली गर्मियों की छुट्टियों में जब हम फिर घर गए तो हम ने एक नया ढंग इख़्तियार किया । दो साल तालीम पाने के बाद हमारे ख़्यालात में पुख़्तगी सी आ गई थी ।
पिछ्ले साल हॉस्टल की हिमायत में जो दलायल हमने पेश की थीं वो अब हमें निहायत बोदी मालूम होने लगी थीं । अब के हमने इस मौज़ू पर एक लेक्चर दिया कि जो शख़्स हॉस्टल की ज़िंदगी से महरूम हो,उस की शख़्सियत नामुकम्मल रह जाती है । हॉस्टल से बाहर शख़्सियत पनपने नहीं पाती । चंद दिन तो हम इस पर फ़लसफ़याना गुफ़्तगू करते रहे और नफ़्सियात के नुक्ता-ए-नज़र से इस पर बहुत कुछ रौशनी डाली लेकिन हमें महसूस हुआ कि बग़ैर मिसालों के काम न चलेगा और जब मिसालें देने की नौबत आई तो ज़रा दिक़्क़त महसूस हुई । कॉलेज के जिन तलबा के मुताल्लिक़ मेरा ईमान था कि वो ज़बरदस्त शख़्सियतों के मालिक हैं, उनकी ज़िंदगी कुछ ऐसी न थी कि वालदैन के सामने बतौर नमूने के पेश की जा सके। हर वो शख़्स जिसे कॉलेज में तालीम हासिल करने का मौक़ा मिला है जानता है कि “वालदैनी अग़राज़” के लिए वाक़यात को एक नए और अछुते पैराए में बयान करने की ज़रूरत पेश आती है, लेकिन इस नए पैराए का सूझ जाना इलहाम और इत्तेफ़ाक़ पर मुनहसिर है । बाज़ रौशन ख़्याल बेटे वालदैन को अपने हैरत-अंगेज़ औसाफ़ का क़ायल नहीं कर सकते और बाज़ नालायक़ से नालायक़ तालिब-ए-इल्म वालदैन को कुछ इस तरह मुतमईन कर देते हैं कि हर हफ़्ते उन के नाम मनी-आर्डर पे मनी-आर्डर चला आता है।
बना-दाँ आँ चुनाँ रोज़ी रसांद
कि दाना अन्दराँ हैराँ बमांद
जब हम डेढ़ महीने तक शख़्सियत और ‘हॉस्टल की ज़िंदगी पर इस का इनहसार’ उन दोनों मज़मूनों पर वक़्तन-फ़ौक़्तन अपने ख़्यालात का इज़हार करते रहे, तो एक दिन वालिद ने पूछा :
“ तुम्हारा शख़्सियत से आख़िर मतलब क्या है ? ”
मैं तो ख़ुदा से यही चाहता था कि वो मुझे अर्ज़-व-मारूज़ का मौक़ा दें । मैं ने कहा “ देखिए ना ! मसलन एक तालिब-ए-इल्म है । वो कॉलेज में पढ़ता है। अब एक तो उसका दिमाग़ है । एक उसका जिस्म है । जिस्म की सेहत भी ज़रूरी है और दिमाग़ की सेहत तो जरूरी है ही, लेकिन इनके अलावा एक और बात भी होती है जिस से आदमी गोया पहचाना जाता है । मैं उसको शख़्सियत कहता हूँ। उसका तअल्लुक़ न जिस्म से होता है न दिमाग़ से । हो सकता है कि एक आदमी की जिस्मानी सेहत बिल्कुल ख़राब हो और उसका दिमाग़ भी बिल्कुल बेकार हो लेकिन फिर भी उसकी शख़्सियत .......न ख़ैर दिमाग़ तो बेकार नहीं होना चाहिए , वरना इंसान ख़ब्ती होता है । लेकिन फिर भी अगर हो भी, तो भी..... गोया शख़्सियत एक ऐसी चीज़ है..... ठहरिये, मैं अभी एक मिनट में आप को बताता हूँ । ”
एक मिनट के बजाय वालिद ने मुझे आधे घंटे की मोहलत दी जिस के दौरान वो ख़ामोशी के साथ मेरे जवाब का इंतिज़ार करते रहे । इस के बाद वहाँ से उठ कर चला आया ।
तीन चार दिन बाद मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ । मुझे शख़्सियत नहीं सीरत कहना चाहिए । शख़्सियत एक बेरंग सा लफ़्ज़ है । सीरत के लफ़्ज़ से नेकी टपकती है । चुनांचे मैंने सीरत को अपना तकिया-कलाम बना लिया लेकिन यह भी मुफ़ीद साबित न हुआ। वालिद कहने लगे: “ क्या सीरत से तुम्हारा मतलब चाल चलन है या कुछ और ? ”
मै ने कहा : “ चाल चलन ही कह लीजिए ”
“ तो गोया दिमाग़ी और जिस्मानी सेहत के अलावा चाल चलन भी अच्छा होना चाहिए ? ”
मैं ने कहा “ बस यही तो मेरा मतलब है । ”
“ और यह चाल-चलन हॉस्टल में रहने से बहुत अच्छा हो जाता है ? । ”
मैं ने निस्बतन नहीफ़ आवाज़ से कहा “ जी हाँ । ”
यानी हॉस्टल में रहने वाले तालिब-ए-इल्म नमाज़-रोज़े के ज़्यादा पाबंद होते हैं । मुल्क की ज़्यादा ख़िदमत करते हैं । सच ज़्यादा बोलते हैं । नेक ज़्यादा होते हैं । ”
मैं ने कहा : “ जी हाँ । ”
कहने लगे : “ वो क्यूँ ? ”
इस सवाल का जवाब एक बार प्रिंसिपल साहब ने तक़सीम-ए-इनआमात के जलसे में निहायत वज़ाहत के साथ बयान किया था । ऐ काश मैं ने उस वक़्त तवज्जो से सुना होता ।
इस के बाद फिर साल भर मैं मामूँ के घर में “ ज़िंदगी है तो ख़ज़ाँ के भी गुज़र जाएंगे दिन ” गाता रहा ।
हर साल मेरी दरख़्वास्त का यही हश्र होता रहा । लेकिन मैं ने हिम्मत न हारी । हर साल नाकामी का मुंह देखना पड़ता लेकिन अगले साल गर्मियों की छुट्टी में पहले से भी ज़्यादा शद-व-मद के साथ तबलीग़ का काम जारी रखता । हर दफ़ा नई-नई दलीलें पेश करता, नई-नई मिसालें काम में लाता । जब शख़्सियत और सीरत वाले मज़मून से काम न चला तो अगले साल हॉस्टल की ज़िंदगी के इनज़बात और बाक़ायदगी पर तब्सिरा किया । इस से अगले साल यह दलील पेश की कि हॉस्टल में रहने से प्रोफ़ेसरों के साथ मिलने जुलने के मौक़े ज़्यादा मिलते रहते हैं और इन “ बेरून-अज़-कॉलेज ” मुलाक़तों से इंसान पारस हो जाता है । इस से अगले साल ये मतलब यूँ अदा किया कि हॉस्टल की आब-व-हवा बड़ी अच्छी होती है, सफ़ाई का ख़ास तौर से ख़्याल रखा जाता है । मख्खियाँ और मच्छर मारने के लिए कई-कई अफ़्सर मुक़र्रर हैं । इस से अगले साल यूँ सुखन-पैरा हुआ कि जब बड़े-बड़े हुक्काम कॉलेज का मुआईना करने आते हैं तो हॉस्टल में रहने वाले तलबा से फ़रदन फ़रदन हाथ मिलाते हैं । इस से रुसूख़ बढ़ता है, लेकिन जूँ जूँ ज़माना गुज़रता गया मेरी तक़रीरों में जोश बढ़ता गया लेकिन माक़ूलियत कम होती गई । शुरू शुरू में हॉस्टल के मसले पर वालिद मुझ से बाक़ायदा बहस किया करते थे । कुछ अरसे बाद उन्होंने यक-लफ़ज़ी इनकार का रवैया इख़्तियार किया । फिर एक आध साल मुझे हंस के टालते रहे और आख़िर में यह नौबत आन पहुँची कि वो हॉस्टल का नाम सुनते ही एक तन्ज़-आमेज़ क़हक़हे के साथ मुझे तशरीफ ले जाने का हुक्म दे दिया करते थे ।
उन के इस सुलूक से आप यह अंदाज़ा न लगाइए कि उन की शफ़्क़त कुछ कम हो गई थी । हरगिज़ नहीं । हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है कि बाज़ ना-गवार हादसात की वजह से घर में मेरा इक़तदार कुछ कम हो गया था ।
इत्तेफ़ाक़ यह हुआ कि मैं ने जब पहली मर्तबा बी,ए का इम्तिहान दिया तो फ़ेल हो गया । अगले साल एक मर्तबा फिर यही वाक़या पेश आया । इस के बाद भी जब तीन चार दफ़ा यही क़िस्सा हुआ तो घर वालों ने मेरी उमंगों में दिल्चस्पी लेनी छोड़ दी । बी,ए में पै दर पै फ़ेल होने की वजह से मेरी गुफ़्तगू में एक सोज़ तो ज़रूर आ गया था लेकिन कलाम में वो पहले जैसी शौकत और मेरी राय की वो पहले जैसी वक़अत अब न रही थी।
मैं ज़मान-ए-तालिब-इलमी के उस दौर का हाल ज़रा तफ़सील से बयान करना चाहता हूँ क्यूँकि इस से एक तो आप मेरी ज़िंदगी के नशीब-व-फ़राज़ से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो जाएंगे और इस के अलावा इस से यूनीवर्सिटी की बाज़ बे-क़ायदगीयों का राज़ भी आप पर आशकार हो जाएगा । मैं पहले साल बी,ए में क्यूँ फ़ेल हुआ, इस का समझना बहुत आसान है । बात ये हुई कि जब हम ने एफ़,ए का इम्तिहान दिया तो चूँकि हमने काम ख़ूब दिल लगा कर किया था इस लिए इस में “कुछ” पास ही हो गए । बहर-हाल फ़ेल न हुए । यूनीवर्सिटी ने यूँ तो हमारा ज़िक्र बड़े अच्छे अलफ़ाज़ में किया लेकिन रियाज़ी के मुताल्लिक़ ये इरशाद हुआ कि सिर्फ़ इस मज़मून का इम्तिहान एक आध दफ़ा फिर दे डालो । (ऐसे इम्तिहान को इस्तलाहन कम्पार्टमेंट का इम्तिहान कहा जाता है । शायद इसलिए कि बग़ैर रज़ा-मंदी अपने हमराही मुसाफ़िरों के अगर कोई इस में सफ़र कर रहे हों मगर नक़ल नवेसी की सख़्त मुमानियत है । )
अब जब हम बी,ए में दाख़िल होने लगे तो हमने यह सोचा कि बी,ए में रियाज़ी लेंगे । इस तरह से कम्पार्टमेंट के इम्तिहान के लिए फ़ालतू काम न करना पड़े गा । लेकिन हमें सब लोगों ने यही मश्वरा दिया कि तुम रियाज़ी मत लो । जब हम ने इस की वजह पूछी तो किसी ने हमें कोई माक़ूल जवाब न दिया लेकिन जब प्रिंसिपल साहब ने भी यही मश्वरा दिया तो हम रज़ा-मंद हो गए, चुनांचे बी,ए में हमारे मज़ामीन अंग्रेज़ी, तारीख़ और फ़ारसी क़रार पाए । साथ साथ हम रियाज़ी के इम्तिहान की भी तैयारी करते रहे । गोया हम तीन की बजाए चार मज़मून पढ़ रहे थे । इस तरह से जो सूरत-ए-हालात पैदा हुई उसका अंदाज़ा वही लोग लगा सकते थे जिन्हें यूनीवर्सिटी के इम्तिहानात का काफ़ी तजर्बा है । हमारी क़ुव्वत-ए-मुताला मुंतशिर हो गई और ख़्यालात में परागंदगी पैदा हुई । अगर मुझे चार की बजाए सिर्फ़ तीन मज़ामीन पढ़ने होते तो जो वक़्त मैं फ़िलहाल चौथे मज़मून को दे रहा था वो बांट कर मैं उन तीन मज़ामीन को देता, आप यक़ीन मानिए इस से बड़ा फर्क़ पड़ जाता और फर्ज़ किया अगर मैं वो वक़्त तीनों को बांट कर न देता बल्कि सब का सब उन तीनों में से किसी एक मज़मून के लिए वक़्फ कर देता तो कम-अज़-कम उस मज़मून में ज़रूर पास हो जाता, लेकिन मौजूदा हालात में तो वही होना लाज़िम था जो हुआ, यानी ये कि मैं किसी मज़मून पर कमाहक़्हू तवज्जो न कर सका । कम्पार्टमेंट के इम्तिहान में तो पास हो गया, लेकिन बी,ए में एक तो अंग्रेज़ी में फ़ेल हुआ । वो तो होना ही था, क्यूँकि अंग्रेज़ी हमारी मादरी ज़बान नहीं । इसके अलावा तारीख और फ़ारसी में भी फ़ेल हो गया । अब आप सोचिए ना कि जो वक़्त मुझे कम्पार्टमेंट के इम्तिहान पर सर्फ़ करना पड़ा वो अगर मैं वहाँ सर्फ़ न करता बल्कि उसकी बजाए ........ मगर ख़ैर यह बात मैं पहले अर्ज़ कर चुका हूँ ।
फ़ारसी में किसी ऐसे शख़्स का फ़ेल होना जो एक इल्म दोस्त ख़ानदान से तअल्लुक़ रखता हो लोगों के लिए अज़-हद हैरत का मोजिब हुआ और सच पूछिये तो हमें भी इस पर सख़्त नदामत हुई, लेकिन ख़ैर अगले साल ये नदामत धुल गई और हम फ़ारसी में पास हो गए । इस से अगले साल तारीख़ में पास हो गए और उस से अगले साल अंग्रेज़ी में ।
अब क़ायदे की रो से हमें बी,ए का सर्टिफिकेट मिल जाना चाहिए था, लेकिन यूनीवर्सिटी की इस तिफ़लाना ज़िद का क्या इलाज कि तीनों मज़मूनों में बयक-वक़्त पास होना ज़रूरी है । बाज़ तबाए ऐसे हैं कि जब तक यकसूई न हो, मुताला नहीं कर सकतीं । क्या ज़रूरी है कि उन के दिमाग़ को ज़बरदस्ती एक खिचड़ी सा बना दिया जाए । हम ने हर साल सिर्फ़ एक मज़मून पर अपनी तमाम तर तवज्जो दी और इस में वो कामियाबी हासिल की कि बायद-व-शायद । बाक़ी दो मज़मून हमने नहीं देखे लेकिन हम ने यह तो साबित कर दिया कि जिस मज़मून में चाहें पास हो सकते हैं ।
अब तक दो मज़मूनों में फ़ेल होते रहे थे, लेकिन इस के बाद हमने तहय्या कर लिया कि जहाँ तक हो सकेगा अपने मुताले को वसी करेंगे। यूनीवर्सिटी के बे-हूदा और बे-माना क़वायद को हम अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ नहीं बना सकते तो अपनी तबीयत पर ही कुछ ज़ोर डालें लेकिन जितना ग़ौर किया इसी नतीजे पर पहुँचे कि तीन मज़मूनों में बयक-वक़्त पास होना फ़िलहाल मुश्किल है । पहले दो में पास होने की कोशिश करनी चाहिए । चुनांचे हम पहले साल अंग्रेज़ी और फ़ारसी में पास हो गए और दूसरे साल फ़ारसी और तारीख़ में ।
जिन जिन मज़ामीन में हम जैसे जैसे फ़ेल हुए वो इस नक़्शे से ज़ाहिर हैं :
1- अंग्रेज़ी- तारीख़- फ़ारसी
2- अंग्रेज़ी- तारीख़
3- अंग्रेज़ी- फ़ारसी
4- तारीख़- फ़ारसी
गोया जिन जिन तरीक़ों से हम दो-दो मज़ामीन में फ़ेल हो सकते थे वो हम ने पूरे कर दिए । इस के बाद हमारे लिए दो मज़ामीन में फ़ेल होना नामुमकिन हो गया और एक एक मज़मून में फ़ेल होने की बारी आई । चुनांचे अब हमने मन्द्र्जह ज़ैल नक़्शे के मुताबिक़ फ़ेल होना शुरू कर दिया:
5- तारीख़ में फ़ेल
6- अंग्रेज़ी में फ़ेल
इतनी दफ़ा इम्तिहान दे चुकने के बाद जब हम ने अपने नतीजों को यूँ अपने सामने रख कर ग़ौर किया तो साबित हुआ कि ग़म की रात ख़त्म होने वाली है । हम ने देखा कि अब हमारे फ़ेल होने का सिर्फ़ एक ही तरीक़ा बाक़ी रह गया है वो ये कि फ़ारसी में फ़ेल हो जाएँ लेकिन इस के बाद तो पास होना लाज़िम है । हर चंद कि यह सानहा अज़-हद जानकाह होगा। लेकिन इस में ये मसलेहत तो ज़रूर मुजमर है कि इस से हमें एक क़िस्म का टीका लग जाएगा । बस यही एक कसर बाक़ी रह गई है । इस साल फ़ारसी में फ़ेल होंगे और फ़िर अगले साल क़तई पास जाएँगे । चुनांचे सातवीं दफा इम्तिहान देने के बाद हम बे-ताबी से फ़ेल होने का इन्तज़ार करने लगे । ये इन्तज़ार दरअस्ल फ़ेल होने का न था बल्कि इस बात का इन्तज़ार था कि इस फ़ेल होने के बाद अगले साल हमेशा के लिए बी,ए हो जाएँगे ।
हर साल इम्तिहान के बाद घर आता तो वालदैन को नतीजे के लिए पहले ही से तैयार कर देता । रफ़्ता रफ़्ता नहीं बल्कि यक-लख़्त और फ़ौरन । रफ़्ता रफ़्ता तैयार करने से ख़्वाह-मख़्वाह वक़्त ज़ाया होता है और परेशानी मुफ़्त में तूल खींचती है । हमारा क़ायदा ये था कि जाते ही कह दिया करते थे कि इस साल तो कम-अज़-कम पास नहीं हो सकते । वालदैन को अक्सर यक़ीन न आता । ऐसे मौक़ों पर तबीयत को बड़ी उलझन होती है । मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मैं परचों में क्या लिख कर आया हूँ । अच्छी तरह जानता हूँ कि मुमतहिन लोग अक्सर नशे की हालत में परचे न देखें तो मेरा पास होना कतअन नामुमकिन है । चाहता हूँ कि मेरे तमाम बही ख्वाहों को भी इस बात का यक़ीन हो जाए ताकि वक़्त पर उन्हें सदमा न हो । लेकिन बही-ख़्वाह हैं कि मेरी तमाम तशरीहात को महज़ कसर-ए-नफ़सी समझते हैं । आख़री सालों में वालिद को फ़ौरन यक़ीन आ जाया करता था क्यूँकि तजर्बे से उन पर साबित हो चुका था कि मेरा अंदाज़ा ग़लत नहीं होता लेकिन इधर उधर के लोग “ अजी नहीं साहब ”, “ अजी क्या कह रहे हो ” ?, “ अजी ये भी कोई बात है ? ” ऐसे फ़िकरों से नाक में दम कर देते। बहर-हाल अब के फिर घर पहुँचते ही हम ने हसब-ए-दस्तूर अपने फ़ेल होने की पेशन-गोई कर दी। दिल को ये तसल्ली थी कि बस ये आख़री दफ़ा है। अगले साल ऐसी पेशन-गोई करने की कोई ज़रूरत न होगी ।
साथ ही ख़्याल आया कि वो हॉस्टल का क़िस्सा फिर शुरू करना चाहिए । अब तो कॉलेज में सिर्फ़ एक ही साल बाक़ी रह गया है । अब भी हॉस्टल में रहना नसीब न हुआ तो उम्र भर गोया आज़ादी से महरूम रहे । घर से निकले तो मामूँ के दड़बे में और जब मामूँ के दड़बे से निकले तो शायद अपना एक दड़बा बनाना पड़ेगा । आज़ादी का एक साल । सिर्फ़ एक साल । और ये आख़री मौक़ा है ।
आख़री दरख़्वास्त करने से पहले मैं ने तमाम ज़रूरी मसालहा बड़ी एहतियात से जमा किया । जिन प्रोफ़ेसरों से मुझे अब हम-उम्री का फ़ख़्र हासिल था उन के सामने नेहायत बे-तकल्लुफ़ी से अपनी आरज़ुओं का इज़हार किया और उन से वालिद को ख़तूत लिखवाए कि अगले साल लड़के को ज़रूर आप हॉस्टल में भेज दें । बाज़ कामयाब तलबा के वालदैन से भी इसी मज़मून की अर्ज़दाश्तें भेजवाईं । ख़ुद एदाद-व-शुमार से साबित किया कि यूनीवर्सिटी से जितने लड़के पास होते हैं उन में से अक्सर हॉस्टल में रहते हैं और यूनीवर्सिटी का कोई वज़ीफ़ा या तमग़ा या इनाम तो कभी हॉसटल से बाहर गया ही नहीं । मैं हैरान हूँ कि यह दलील मुझे इस से पेश्तर कभी क्यूँ न सूझी थी, क्यूँकि यह बहुत ही कारगर साबित हुई । वालिद का इनकार नरम होते होते ग़ौर-व-ख़ौज में तबदील हो गया । लेकिन फिर भी उनके दिल से शक रफ़ा न हुआ । कहने लगे “ मेरी समझ में नहीं आता कि जिस लड़के को पढ़ने का शौक हो वो हॉस्टल के बजाए घर पर क्यूँ नहीं पढ़ सकता । ”
मैं ने जवाब दिया “ हॉस्टल में एक इल्मी फ़ज़ा होती है जो अरस्तू और अफ़लातून के घर के सिवा और किसी घर में दस्तियाब नहीं हो सकती । हॉस्टल में जिसे देखो बहर-ए-उलूम में ग़ोता-ज़न नज़र आता है, बावजूद इस के हर हॉस्टल में दो-दो सौ तीन-तीन सौ लड़के रहते हैं । फिर भी वो ख़ामोशी तारी रहती है कि क़ब्रिस्तान मालूम होता है ।
वजह यह कि हर एक अपने अपने काम में लगा रहता है । शाम के वक़्त हॉस्टल के सहन में जा-बजा तलबा इल्मी मोबाहिसों में मशग़ूल नज़र आते हैं । अलस्सबाह हर एक तालिब-ए-इल्म किताब हाथ में लिए हॉस्टल के चमन में टहलता नज़र आता है । खाने के कमरे में, कॉमन रूम में, ग़ुस्ल ख़ानों में, बरामदों में, हर जगह लोग फ़लसफ़े और रियाज़ी और तारीख़ की बातें करते हैं । जिन को अदब-ए-अंग्रेज़ी का शौक है वो दिन रात आपस में शेक्सपियर की तरह गुफ़्तगू करने की मश्क़ करते हैं । रियाज़ी के तलबा अपने हर एक ख़्याल को अलजेब्रा में अदा करने की आदत डाल लेते हैं । फ़ारसी के तलबा रुबाइयों में तबादला-ए-ख़्याल करते हैं । तारीख़ के दिलदादा........” वालिद ने इजाज़त दे दी ।
अब हमें यह इन्तज़ार कि कब फ़ेल हों और कब अगले साल के लिए अर्ज़ी भेजें । इस दौरान हमने उन तमाम दोस्तों से ख़त-व-किताबत की जिन के मुताल्लिक़ यक़ीन था कि अगले साल फिर उन की रफ़ाक़त नसीब होगी और उन्हें यह मज़दा सुनाया कि आईंदा साल हमेशा के लिए कॉलेज की तारीख़ में यादगार रहेगा, क्यूँकि हम तालीमी ज़िंदगी का एक वसी तजर्बा अपने साथ लिए हॉस्टल में आ रहे हैं जिस से हम तलबा की नई पौद को मुफ़्त मुस्तफ़ीद फ़रमाएँगें । अपने ज़हन में हमने हॉस्टल में अपनी हैसियत एक मादर-ए-महरबान की सी सोच ली, जिस के इर्द-गिर्द तजर्बा-कार तलबा मुर्ग़ी के बच्चों की तरह भागते फिरेंगें । सुपेरिटेंडेंट साहब को जो किसी ज़माने में हमारे हम-जमात रह चुके थे लिख भेजा कि जब हम हॉस्टल में आएँगे तो फ़लाँ फ़लाँ मराआत की तवक़्क़ो आप से रखेंगे और फ़लाँ फ़लाँ क़वायद से अपने आप को मुस्तश्ना समझेंगें। इत्तलाअन अर्ज़ है ।
और यह सब कुछ कर चुकने के बाद हमारी बदनसीबी देखिए कि जब नतीजा निकला तो हम पास हो गए ।
हम पे तो जो ज़ुल्म हुआ सो हुआ, यूनीवर्सिटी वालों की हिमाक़त मुलाहज़ा फ़रमाए कि हमें पास करके अपनी आमदनी का एक मुस्तक़िल ज़रिया हाथ से गंवा बैठे।
ख़ुदा का यह फ़ज़ल हम पर कब और किस तरह हुआ, ये सवाल एक दासतान का मोहताज है ।
जब हमने इंटरेंस पास किया तो मक़ामी स्कूल के हेड-मास्टर साहब ख़ास तौर पर मुबारक-बाद देने के लिए आए । क़रीबी रिश्तेदारों ने दावतें दीं । मोहल्ले वालों में मिठाई बाँटी गई और हमारे घर वालों पर यक-लख़्त इस बात का इंक्शाफ़ हुआ कि वो लड़का जिसे आज तक अपनी कोताह-बीनी की वजह से एक बेकार और नालायक़ फ़रज़न्द समझ रहे थे। दरअस्ल ला-महदूद क़ाबलियतों का मालिक है, जिस की नश-व-नुमा पर बेशुमार आने वाली नस्लों की बहबूदी का इनहिसार है। चुनांचे हमारी आईन्दा ज़िंदगी के मुताल्लिक़ तरह तरह की तजवीज़ों पर ग़ौर किया जाने लगा।
थर्ड डिवीज़न में पास होने की वजह से युनिवर्सिटी ने हमको वज़ीफा देना मुनासिब न समझा। चूँकि हमारे ख़ानदान ने ख़ुदा के फज़ल से आज तक कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया इस लिए वज़ीफ़े का न मिलना भी ख़ुसूसन उन रिश्तेदारों के लिए जो रिश्ते के लिहाज़ से ख़ानदान के मज़ाफात में बसते थे, फख़्र-व-मुबाहात का बाइस बन गया और “मरकज़ी रिश्ते-दारों” ने तो इस को पास-ए-वज़ा और हिफज़-ए-मरातिब समझ कर मुमतहिनों की शराफत-व-नजाबत को बे-इंतेहा सराहा। बहर-हाल हमारे ख़ानदान में फ़ालतू रूपये की बहतात थी, इस लिए बेला-तकल्लुफ़ ये फैसला कर लिया गया कि न सिर्फ़ हमारी बल्कि मुल्क-व-क़ौम और शायद बनी-नौ-ए-इन्सान की बेहतरी के लिए ये ज़रूरी है कि ऐसे होनहार तालिब-ए-इल्म की तालीम जारी रखी जाए ।
इस बारे में हम से भी मश्वरा लिया गया। उम्र भर में इस से पहले हमारे किसी मामले में हम से राय तलब न की गई थी, लेकिन अब तो हालात बहुत मुख़्तलिफ़ थे। अब तो एक ग़ैर-जानिब-दार और ईमान-दार मुंसिफ़ यानी यूनीवर्सिटी हमारी बे-दार-मग़्ज़ी की तसदीक़ कर चुकी थी। अब भला हमें क्यूँ नज़र-अंदाज़ किया जा सकता था। हमारा मश्वरा ये था कि हमें फौरन विलायत भेज दिया जाए। हम ने मुख़्तलिफ़ लीडरों की तक़रीरों के हवाले से ये साबित किया कि हिंदुस्तान का तरीक़ा-ए-तालीम बहुत नाक़िस है। अख़बारात में से इश्तिहार दिखा-दिखा कर ये वाज़ह किया कि विलायत में कॉलेज की तालीम के साथ साथ फ़ुर्सत के औक़ात में बहुत थोड़ी-थोड़ी फ़ीस दे कर बयक-वक़्त जर्नलिज़्म,फ़ोटो ग्राफ़ी, तसनीफ़-व-तालीफ़, दनदान साज़ी, ऐनक साज़ी, एजेंटों का काम, गर्ज़ कि बे-शुमार मुफ़ीद और कम ख़र्च में बाला-नशीं पेशे सीखे जा सकते हैं और थोड़े अरसे के अंदर इंसान हर-फ़न मौला बन सकता है।
लेकिन हमारी तजवीज़ को फौरन रद्द कर दिया गया, क्योंकि विलायत भेजने के लिए हमारे शहर में कोई रिवायात मौजूद न थीं। हमारे गिर्द-व-नवाह में से किसी का लड़का अभी तक विलायत न गया था इस लिए हमारे शहर की पब्लिक वहाँ के हालात से क़तअन नावाक़िफ थी।
इस के बाद फिर हम से राय तलब न की गई और हमारे वालिद, हेड-मास्टर साहब, तहसील-दार साहब इन तीनों ने मिल कर ये फ़ैसला किया कि हमें लाहौर भेज दिया जाए ।
जब हमने यह ख़बर सुनी तो शुरू-शुरू में हमें सख़्त मायूसी हुई, लेकिन इधर उधर के लोगों से लाहौर के हालात सुने तो मालूम हुआ कि लंदन और लाहौर में चंदाँ फ़र्क़ नहीं। बाज़ वाक़िफ़-कार दोस्तो ने सिनेमा के हालात पर रौशनी डाली। बाज़ ने थिएटरों के मक़ासिद से आगाह किया। बाज़ ने ठंडी सड़क वग़ैरह के मशाग़िल को सुलझा कर समझाया। बाज़ ने शाहदरे और शाला-मार की अरमान अंगेज़ फ़ज़ा का नक़्शा खींचा चुनांचे जब लाहौर का जुग़राफ़िया पूरी तरह हमारे ज़हन नशीन हो गया तो साबित ये हुआ कि खुश-गवार मक़ाम है और आला दर्जे की तालीम हासिल करने के लिए बे-हद मौज़ूँ। इस पर हमने अपनी ज़िंदगी का प्रोग्राम वज़ा करना शुरू कर दिया। जिस में लिखने पढ़ने को जगह तो ज़रूर दी गई लेकिन एक मुनासिब हद तक, ताकि तबीयत पर कोई ना-जायज बोझ न पड़े और फ़ितरत अपना काम हुस्न-व- ख़ूबी के साथ कर सके।
लेकिन तहसील-दार साहब और हेड-मास्टर साहब की नेक-नियति यहीं तक महदूद न रही। अगर वो सिर्फ़ एक आम और मुजमल सा मश्वरा दे देते कि लड़के को लाहौर भेज दिया जाए तो बहुत ख़ूब था, लेकिन उनहोंने तो तफ़सीलात में दख़्ल देना शुरु कर दिया और हॉस्टल की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी का मुक़ाबला कर के हमारे वालिद पर ये साबित कर दिया कि घर पाकीज़गी और तहारत का एक काबा और हॉस्टल गुनाह-व-मासियत का एक दोज़ख है। एक तो थे वो चर्ब ज़बान, इस पर उन्होंने बे-शुमार ग़लत बयानियों से काम लिया चुनांचे घर वालों को यक़ीन सा हो गया कि कॉलेज का हॉस्टल जरायम पेशा अक़्वाम की एक बस्ती है और जो तलबा बाहर के शहरों से लाहौर जाते हैं अगर उनकी पूरी निगेह-दाश्त न की जाए तो वो अक्सर या तो शराब के नशे में चूर सड़क के किनारे किसी नाली में गिरे हुए पाए जाते हैं या किसी जुए ख़ाने में हज़ार-हा रुपये हार कर खुद-कुशी कर लेते हैं या फिर फ़र्स्ट-इयर का इम्तिहान पास करने से पहले दस बारह शादियाँ कर बैठते हैं ।
चुनांचे घर वालों को ये सोचने की आदत पड़ गई कि लड़के को कॉलेज में तो दाख़िल किया जाए लेकिन हॉंस्टल में न रखा जाए । कॉलेज ज़रूर, मगर हॉस्टल हरगिज़ नहीं । कॉलेज मुफ़ीद, मगर हॉस्टल मुज़िर । वो बहुत ठीक, मगर ये नामुमकिन। जब उन्होंने अपनी ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐन ही ये बना लिया कि कोई ऐसी तरकीब सोची जाए, जिस से लड़का हॉस्टल की ज़द से महफ़ूज़ रहे तो किसी ऐसी तरकीब का सूझ जाना क्या मुश्किल था। ज़रूरत ईजाद की माँ है। चुनांचे अज़-ह़द गौर-व-खौज़ के बाद लाहौर में हमारे एक मामूँ दरयाफ़्त किए गए और उनको हमारा सर-परस्त बना दिया गया। मेरे दिल में उनकी इज़्ज़त पैदा करने के लिए बहुत से शजरों की वरक़ गर्दानी से मुझ पर ये साबित किया गया कि वो वाक़ई मेरे मामूँ हैं। मुझे बताया गया कि जब मैं शीर-ख़्वार बच्चा था तो वो मुझ से बेइंतहा मुहब्बत किया करते थे, चुनांचे फैसला यह हुआ कि हम पढ़ें कॉलेज में और रहें मामूँ के घर ।
उस से तहसील-ए-इल्म का जो एक वलवला सा हमारे दिल में उठ रहा था, वो कुछ बैठ सा गया। हम ने सोचा यह मामूँ लोग अपनी सर-परस्ती के ज़ोम में वालदैन से भी ज़्यादा एहतियात बरतेंगें, जिस का नतीजा यह होगा कि हमारे दिमाग़ी और रूहानी क़वा को फ़लने फ़ूलने का मौक़ा न मिलेगा और तालीम का अस्ली मक़्सद फ़ौत हो जाएगा, चुनांचे वही हुआ जिस का हमें ख़ौफ़ था। हम रोज़-ब-रोज़ मुरझाते चले गए और हमारे दिमाग़ पर फफूँदी सी जमने लगी। सिनेमा जाने कि इजाज़त कभी कभार मिल जाती थी लेकिन इस शर्त पर कि बच्चों को भी साथ लेता जाऊँ। इस सोहबत में भला मैं सिनेमा से क्या अख़्ज़ कर सकता था। थिएटर के मामले में हमारी मालूमात इंद्र सभा से आगे बढ़ने न पाईं । तैरना हमें न आया क्युँकि हमारे मामूँ का एक मशहूर क़ौल है कि “डूबता वही है जो तैराक हो” जिसे तैरना न आता हो वो पानी में घुसता ही नहीं। घर पर आने जाने वाले दोस्तों का इन्तिख़ाब मामूँ के हाथ में था। कोट कितना लम्बा पहना जाए और बाल कितने लम्बे रखे जाएँ, इनके मुताल्लिक़ हिदायात बहुत कड़ी थीं। हफ़्ते में दो बार घर ख़त लिखना ज़रूरी था। सिगरेट ग़ुस्ल-ख़ाने में छुप कर पीते थे। गाने बजाने की सख़्त ममानियत थी।
ये सिपाहियाना ज़िंदगी हमें रास न आई । यूँ तो दोस्तों से मुलाक़ात भी हो जाती थी। सैर को भी चले जाते थे। हंस बोल भी लेते थे लेकिन वो जो ज़िंदगी में एक आज़ादी, एक फ़र्राख़ी, एक वाबस्तगी होनी चाहिए वो हमें नसीब न हुई। रफ़्ता रफ़्ता हमने अपने माहौल पर ग़ौर करना शुरू किया कि मामूँ जान अमूमन किस वक़्त घर में होते हैं, किस वक़्त बाहर जाते हैं, किस कमरे में से किस कमरे तक गाने की आवाज़ नहीं पहुँच सकती, किस दरवाज़े से कमरे के किस कोने में झांकना नामुमकिन है, घर का कौन सा दरवाज़ा रात के वक़्त बाहर से खोला जा सकता है, कौन सा मुलाज़िम मवाफ़िक़ है, कौन सा नमक हलाल है। जब तजरेबे और मुताले से इन बातों का अच्छी तरह अन्दाज़ा हो गया तो हमने इस ज़िंदगी में भी नशो-व-नुमा के लिए चंद गुंजाइशें पैदा कर लीं लेकिन फिर भी हम रोज़ देखते थे कि हॉस्टल में रहने वाले तलबा किस तरह अपने पाँव पर खड़े हो कर ज़िंदगी की शाहराह पर चल रहे हैं । हम उनकी ज़िंदगी पर रश्क करने लगे। अपनी ज़िंदगी को सुधारने की ख़्वाहिश हमारे दिल में रोज़-ब-रोज़ बढ़ती गई । हम ने दिल से कहा, वालदैन की नाफ़रमानी किसी मज़हब में जायज़ नहीं लेकिन उन की ख़िदमत में दरख़्वास्त करना, उन के सामने अपनी नाक़िस राय का इज़हार करना, उनको सही वाक़यात से आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है और दुनिया की कोई ताक़त मुझे अपने फर्ज़ की अदायगी से बाज़ नहीं रख सकती।
चुनांचे जब गर्मियों की तातीलात में, मैं वतन को वापस गया तो चंद मुख़्तसर मगर जामे और मुअस्सिर तक़रीरें अपने दिमाग़ में तैयार रखीं । घर वालों को हॉस्टल पर सब से बड़ा एतराज़ ये था कि वहाँ की आज़ादी नौ-जवानों के लिए अज़-हद मुज़िर होती है । इस ग़लत-फ़हमी को दूर करने के लिए हज़ार हा वाक़यात ऐसे तसनीफ़ किए जिन से हॉस्टल के क़वायद की सख़्ती उन पर अच्छी तरह रौशन हो जाए । सुपेरिटेंडेंट साहब के ज़ुल्म-व-त्शदुद् की चंद मिसालें रिक्क़्त अंगेज़ और हैबत ख़ेज़ पैराएमें सुनाईं । आँखें बंद कर के एक आह भरी और बेचारे अश्फ़ाक़ का वाक़या बयान किया कि एक दिन शाम के वक़्त बेचारा हॉस्टल को वापस आ रहा था। चलते चलते पाँव में मोच आ गई । दो मिनट देर से पहुँचा। सिर्फ़ दो मिनट। बस साहब उस पर सुपेरिटेंडेंट साहब ने फ़ौरन तार दे कर उस के वालिद को बुलवा लिया। पुलिस से तहक़ीक़ात करने को कहा और महीने भर के लिए उस का जेब ख़र्च बंद करवा दिया। तौबा है इलाही !
लेकिन ये वाक़या सुन कर घर के लोग सुपेरिटेंडेंट साहब के मुखालिफ़ हो गए । हॉस्टल की ख़ूबी उन पर वाज़ह न हुई। फिर एक दिन मौक़ा पा कर बेचारे महमूद का वाक़या बयान किया कि एक दफा शामत-ए-आमाल बेचारा सिनेमा देखने चला गया। क़ुसूर उस से यह हुआ कि एक रुपये वाले दर्जे में जाने के बजाय वो दो रूपये वाले दर्जे में चला गया। बस इतनी सी फ़ुज़ूल खर्ची पर उसे उम्र भर सिनेमा जाने की मोमाने-अत हो गई है ।
लेकिन इस से भी घर वाले मुतास्सिर न हुए । उन के रवैये से मुझे फ़ौरन एहसास हुआ कि एक रूपये और दो रुपये के बजाय आठ आने और एक रूपया कहना चाहिए था ।
इन्हीं नाकाम कोशिशों में तातीलात गुज़र गईं और हमने फिर मामूँ की चौखट पर आकर सजदा किया ।
अगली गर्मियों की छुट्टियों में जब हम फिर घर गए तो हम ने एक नया ढंग इख़्तियार किया । दो साल तालीम पाने के बाद हमारे ख़्यालात में पुख़्तगी सी आ गई थी ।
पिछ्ले साल हॉस्टल की हिमायत में जो दलायल हमने पेश की थीं वो अब हमें निहायत बोदी मालूम होने लगी थीं । अब के हमने इस मौज़ू पर एक लेक्चर दिया कि जो शख़्स हॉस्टल की ज़िंदगी से महरूम हो,उस की शख़्सियत नामुकम्मल रह जाती है । हॉस्टल से बाहर शख़्सियत पनपने नहीं पाती । चंद दिन तो हम इस पर फ़लसफ़याना गुफ़्तगू करते रहे और नफ़्सियात के नुक्ता-ए-नज़र से इस पर बहुत कुछ रौशनी डाली लेकिन हमें महसूस हुआ कि बग़ैर मिसालों के काम न चलेगा और जब मिसालें देने की नौबत आई तो ज़रा दिक़्क़त महसूस हुई । कॉलेज के जिन तलबा के मुताल्लिक़ मेरा ईमान था कि वो ज़बरदस्त शख़्सियतों के मालिक हैं, उनकी ज़िंदगी कुछ ऐसी न थी कि वालदैन के सामने बतौर नमूने के पेश की जा सके। हर वो शख़्स जिसे कॉलेज में तालीम हासिल करने का मौक़ा मिला है जानता है कि “वालदैनी अग़राज़” के लिए वाक़यात को एक नए और अछुते पैराए में बयान करने की ज़रूरत पेश आती है, लेकिन इस नए पैराए का सूझ जाना इलहाम और इत्तेफ़ाक़ पर मुनहसिर है । बाज़ रौशन ख़्याल बेटे वालदैन को अपने हैरत-अंगेज़ औसाफ़ का क़ायल नहीं कर सकते और बाज़ नालायक़ से नालायक़ तालिब-ए-इल्म वालदैन को कुछ इस तरह मुतमईन कर देते हैं कि हर हफ़्ते उन के नाम मनी-आर्डर पे मनी-आर्डर चला आता है।
बना-दाँ आँ चुनाँ रोज़ी रसांद
कि दाना अन्दराँ हैराँ बमांद
जब हम डेढ़ महीने तक शख़्सियत और ‘हॉस्टल की ज़िंदगी पर इस का इनहसार’ उन दोनों मज़मूनों पर वक़्तन-फ़ौक़्तन अपने ख़्यालात का इज़हार करते रहे, तो एक दिन वालिद ने पूछा :
“ तुम्हारा शख़्सियत से आख़िर मतलब क्या है ? ”
मैं तो ख़ुदा से यही चाहता था कि वो मुझे अर्ज़-व-मारूज़ का मौक़ा दें । मैं ने कहा “ देखिए ना ! मसलन एक तालिब-ए-इल्म है । वो कॉलेज में पढ़ता है। अब एक तो उसका दिमाग़ है । एक उसका जिस्म है । जिस्म की सेहत भी ज़रूरी है और दिमाग़ की सेहत तो जरूरी है ही, लेकिन इनके अलावा एक और बात भी होती है जिस से आदमी गोया पहचाना जाता है । मैं उसको शख़्सियत कहता हूँ। उसका तअल्लुक़ न जिस्म से होता है न दिमाग़ से । हो सकता है कि एक आदमी की जिस्मानी सेहत बिल्कुल ख़राब हो और उसका दिमाग़ भी बिल्कुल बेकार हो लेकिन फिर भी उसकी शख़्सियत .......न ख़ैर दिमाग़ तो बेकार नहीं होना चाहिए , वरना इंसान ख़ब्ती होता है । लेकिन फिर भी अगर हो भी, तो भी..... गोया शख़्सियत एक ऐसी चीज़ है..... ठहरिये, मैं अभी एक मिनट में आप को बताता हूँ । ”
एक मिनट के बजाय वालिद ने मुझे आधे घंटे की मोहलत दी जिस के दौरान वो ख़ामोशी के साथ मेरे जवाब का इंतिज़ार करते रहे । इस के बाद वहाँ से उठ कर चला आया ।
तीन चार दिन बाद मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ । मुझे शख़्सियत नहीं सीरत कहना चाहिए । शख़्सियत एक बेरंग सा लफ़्ज़ है । सीरत के लफ़्ज़ से नेकी टपकती है । चुनांचे मैंने सीरत को अपना तकिया-कलाम बना लिया लेकिन यह भी मुफ़ीद साबित न हुआ। वालिद कहने लगे: “ क्या सीरत से तुम्हारा मतलब चाल चलन है या कुछ और ? ”
मै ने कहा : “ चाल चलन ही कह लीजिए ”
“ तो गोया दिमाग़ी और जिस्मानी सेहत के अलावा चाल चलन भी अच्छा होना चाहिए ? ”
मैं ने कहा “ बस यही तो मेरा मतलब है । ”
“ और यह चाल-चलन हॉस्टल में रहने से बहुत अच्छा हो जाता है ? । ”
मैं ने निस्बतन नहीफ़ आवाज़ से कहा “ जी हाँ । ”
यानी हॉस्टल में रहने वाले तालिब-ए-इल्म नमाज़-रोज़े के ज़्यादा पाबंद होते हैं । मुल्क की ज़्यादा ख़िदमत करते हैं । सच ज़्यादा बोलते हैं । नेक ज़्यादा होते हैं । ”
मैं ने कहा : “ जी हाँ । ”
कहने लगे : “ वो क्यूँ ? ”
इस सवाल का जवाब एक बार प्रिंसिपल साहब ने तक़सीम-ए-इनआमात के जलसे में निहायत वज़ाहत के साथ बयान किया था । ऐ काश मैं ने उस वक़्त तवज्जो से सुना होता ।
इस के बाद फिर साल भर मैं मामूँ के घर में “ ज़िंदगी है तो ख़ज़ाँ के भी गुज़र जाएंगे दिन ” गाता रहा ।
हर साल मेरी दरख़्वास्त का यही हश्र होता रहा । लेकिन मैं ने हिम्मत न हारी । हर साल नाकामी का मुंह देखना पड़ता लेकिन अगले साल गर्मियों की छुट्टी में पहले से भी ज़्यादा शद-व-मद के साथ तबलीग़ का काम जारी रखता । हर दफ़ा नई-नई दलीलें पेश करता, नई-नई मिसालें काम में लाता । जब शख़्सियत और सीरत वाले मज़मून से काम न चला तो अगले साल हॉस्टल की ज़िंदगी के इनज़बात और बाक़ायदगी पर तब्सिरा किया । इस से अगले साल यह दलील पेश की कि हॉस्टल में रहने से प्रोफ़ेसरों के साथ मिलने जुलने के मौक़े ज़्यादा मिलते रहते हैं और इन “ बेरून-अज़-कॉलेज ” मुलाक़तों से इंसान पारस हो जाता है । इस से अगले साल ये मतलब यूँ अदा किया कि हॉस्टल की आब-व-हवा बड़ी अच्छी होती है, सफ़ाई का ख़ास तौर से ख़्याल रखा जाता है । मख्खियाँ और मच्छर मारने के लिए कई-कई अफ़्सर मुक़र्रर हैं । इस से अगले साल यूँ सुखन-पैरा हुआ कि जब बड़े-बड़े हुक्काम कॉलेज का मुआईना करने आते हैं तो हॉस्टल में रहने वाले तलबा से फ़रदन फ़रदन हाथ मिलाते हैं । इस से रुसूख़ बढ़ता है, लेकिन जूँ जूँ ज़माना गुज़रता गया मेरी तक़रीरों में जोश बढ़ता गया लेकिन माक़ूलियत कम होती गई । शुरू शुरू में हॉस्टल के मसले पर वालिद मुझ से बाक़ायदा बहस किया करते थे । कुछ अरसे बाद उन्होंने यक-लफ़ज़ी इनकार का रवैया इख़्तियार किया । फिर एक आध साल मुझे हंस के टालते रहे और आख़िर में यह नौबत आन पहुँची कि वो हॉस्टल का नाम सुनते ही एक तन्ज़-आमेज़ क़हक़हे के साथ मुझे तशरीफ ले जाने का हुक्म दे दिया करते थे ।
उन के इस सुलूक से आप यह अंदाज़ा न लगाइए कि उन की शफ़्क़त कुछ कम हो गई थी । हरगिज़ नहीं । हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है कि बाज़ ना-गवार हादसात की वजह से घर में मेरा इक़तदार कुछ कम हो गया था ।
इत्तेफ़ाक़ यह हुआ कि मैं ने जब पहली मर्तबा बी,ए का इम्तिहान दिया तो फ़ेल हो गया । अगले साल एक मर्तबा फिर यही वाक़या पेश आया । इस के बाद भी जब तीन चार दफ़ा यही क़िस्सा हुआ तो घर वालों ने मेरी उमंगों में दिल्चस्पी लेनी छोड़ दी । बी,ए में पै दर पै फ़ेल होने की वजह से मेरी गुफ़्तगू में एक सोज़ तो ज़रूर आ गया था लेकिन कलाम में वो पहले जैसी शौकत और मेरी राय की वो पहले जैसी वक़अत अब न रही थी।
मैं ज़मान-ए-तालिब-इलमी के उस दौर का हाल ज़रा तफ़सील से बयान करना चाहता हूँ क्यूँकि इस से एक तो आप मेरी ज़िंदगी के नशीब-व-फ़राज़ से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो जाएंगे और इस के अलावा इस से यूनीवर्सिटी की बाज़ बे-क़ायदगीयों का राज़ भी आप पर आशकार हो जाएगा । मैं पहले साल बी,ए में क्यूँ फ़ेल हुआ, इस का समझना बहुत आसान है । बात ये हुई कि जब हम ने एफ़,ए का इम्तिहान दिया तो चूँकि हमने काम ख़ूब दिल लगा कर किया था इस लिए इस में “कुछ” पास ही हो गए । बहर-हाल फ़ेल न हुए । यूनीवर्सिटी ने यूँ तो हमारा ज़िक्र बड़े अच्छे अलफ़ाज़ में किया लेकिन रियाज़ी के मुताल्लिक़ ये इरशाद हुआ कि सिर्फ़ इस मज़मून का इम्तिहान एक आध दफ़ा फिर दे डालो । (ऐसे इम्तिहान को इस्तलाहन कम्पार्टमेंट का इम्तिहान कहा जाता है । शायद इसलिए कि बग़ैर रज़ा-मंदी अपने हमराही मुसाफ़िरों के अगर कोई इस में सफ़र कर रहे हों मगर नक़ल नवेसी की सख़्त मुमानियत है । )
अब जब हम बी,ए में दाख़िल होने लगे तो हमने यह सोचा कि बी,ए में रियाज़ी लेंगे । इस तरह से कम्पार्टमेंट के इम्तिहान के लिए फ़ालतू काम न करना पड़े गा । लेकिन हमें सब लोगों ने यही मश्वरा दिया कि तुम रियाज़ी मत लो । जब हम ने इस की वजह पूछी तो किसी ने हमें कोई माक़ूल जवाब न दिया लेकिन जब प्रिंसिपल साहब ने भी यही मश्वरा दिया तो हम रज़ा-मंद हो गए, चुनांचे बी,ए में हमारे मज़ामीन अंग्रेज़ी, तारीख़ और फ़ारसी क़रार पाए । साथ साथ हम रियाज़ी के इम्तिहान की भी तैयारी करते रहे । गोया हम तीन की बजाए चार मज़मून पढ़ रहे थे । इस तरह से जो सूरत-ए-हालात पैदा हुई उसका अंदाज़ा वही लोग लगा सकते थे जिन्हें यूनीवर्सिटी के इम्तिहानात का काफ़ी तजर्बा है । हमारी क़ुव्वत-ए-मुताला मुंतशिर हो गई और ख़्यालात में परागंदगी पैदा हुई । अगर मुझे चार की बजाए सिर्फ़ तीन मज़ामीन पढ़ने होते तो जो वक़्त मैं फ़िलहाल चौथे मज़मून को दे रहा था वो बांट कर मैं उन तीन मज़ामीन को देता, आप यक़ीन मानिए इस से बड़ा फर्क़ पड़ जाता और फर्ज़ किया अगर मैं वो वक़्त तीनों को बांट कर न देता बल्कि सब का सब उन तीनों में से किसी एक मज़मून के लिए वक़्फ कर देता तो कम-अज़-कम उस मज़मून में ज़रूर पास हो जाता, लेकिन मौजूदा हालात में तो वही होना लाज़िम था जो हुआ, यानी ये कि मैं किसी मज़मून पर कमाहक़्हू तवज्जो न कर सका । कम्पार्टमेंट के इम्तिहान में तो पास हो गया, लेकिन बी,ए में एक तो अंग्रेज़ी में फ़ेल हुआ । वो तो होना ही था, क्यूँकि अंग्रेज़ी हमारी मादरी ज़बान नहीं । इसके अलावा तारीख और फ़ारसी में भी फ़ेल हो गया । अब आप सोचिए ना कि जो वक़्त मुझे कम्पार्टमेंट के इम्तिहान पर सर्फ़ करना पड़ा वो अगर मैं वहाँ सर्फ़ न करता बल्कि उसकी बजाए ........ मगर ख़ैर यह बात मैं पहले अर्ज़ कर चुका हूँ ।
फ़ारसी में किसी ऐसे शख़्स का फ़ेल होना जो एक इल्म दोस्त ख़ानदान से तअल्लुक़ रखता हो लोगों के लिए अज़-हद हैरत का मोजिब हुआ और सच पूछिये तो हमें भी इस पर सख़्त नदामत हुई, लेकिन ख़ैर अगले साल ये नदामत धुल गई और हम फ़ारसी में पास हो गए । इस से अगले साल तारीख़ में पास हो गए और उस से अगले साल अंग्रेज़ी में ।
अब क़ायदे की रो से हमें बी,ए का सर्टिफिकेट मिल जाना चाहिए था, लेकिन यूनीवर्सिटी की इस तिफ़लाना ज़िद का क्या इलाज कि तीनों मज़मूनों में बयक-वक़्त पास होना ज़रूरी है । बाज़ तबाए ऐसे हैं कि जब तक यकसूई न हो, मुताला नहीं कर सकतीं । क्या ज़रूरी है कि उन के दिमाग़ को ज़बरदस्ती एक खिचड़ी सा बना दिया जाए । हम ने हर साल सिर्फ़ एक मज़मून पर अपनी तमाम तर तवज्जो दी और इस में वो कामियाबी हासिल की कि बायद-व-शायद । बाक़ी दो मज़मून हमने नहीं देखे लेकिन हम ने यह तो साबित कर दिया कि जिस मज़मून में चाहें पास हो सकते हैं ।
अब तक दो मज़मूनों में फ़ेल होते रहे थे, लेकिन इस के बाद हमने तहय्या कर लिया कि जहाँ तक हो सकेगा अपने मुताले को वसी करेंगे। यूनीवर्सिटी के बे-हूदा और बे-माना क़वायद को हम अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ नहीं बना सकते तो अपनी तबीयत पर ही कुछ ज़ोर डालें लेकिन जितना ग़ौर किया इसी नतीजे पर पहुँचे कि तीन मज़मूनों में बयक-वक़्त पास होना फ़िलहाल मुश्किल है । पहले दो में पास होने की कोशिश करनी चाहिए । चुनांचे हम पहले साल अंग्रेज़ी और फ़ारसी में पास हो गए और दूसरे साल फ़ारसी और तारीख़ में ।
जिन जिन मज़ामीन में हम जैसे जैसे फ़ेल हुए वो इस नक़्शे से ज़ाहिर हैं :
1- अंग्रेज़ी- तारीख़- फ़ारसी
2- अंग्रेज़ी- तारीख़
3- अंग्रेज़ी- फ़ारसी
4- तारीख़- फ़ारसी
गोया जिन जिन तरीक़ों से हम दो-दो मज़ामीन में फ़ेल हो सकते थे वो हम ने पूरे कर दिए । इस के बाद हमारे लिए दो मज़ामीन में फ़ेल होना नामुमकिन हो गया और एक एक मज़मून में फ़ेल होने की बारी आई । चुनांचे अब हमने मन्द्र्जह ज़ैल नक़्शे के मुताबिक़ फ़ेल होना शुरू कर दिया:
5- तारीख़ में फ़ेल
6- अंग्रेज़ी में फ़ेल
इतनी दफ़ा इम्तिहान दे चुकने के बाद जब हम ने अपने नतीजों को यूँ अपने सामने रख कर ग़ौर किया तो साबित हुआ कि ग़म की रात ख़त्म होने वाली है । हम ने देखा कि अब हमारे फ़ेल होने का सिर्फ़ एक ही तरीक़ा बाक़ी रह गया है वो ये कि फ़ारसी में फ़ेल हो जाएँ लेकिन इस के बाद तो पास होना लाज़िम है । हर चंद कि यह सानहा अज़-हद जानकाह होगा। लेकिन इस में ये मसलेहत तो ज़रूर मुजमर है कि इस से हमें एक क़िस्म का टीका लग जाएगा । बस यही एक कसर बाक़ी रह गई है । इस साल फ़ारसी में फ़ेल होंगे और फ़िर अगले साल क़तई पास जाएँगे । चुनांचे सातवीं दफा इम्तिहान देने के बाद हम बे-ताबी से फ़ेल होने का इन्तज़ार करने लगे । ये इन्तज़ार दरअस्ल फ़ेल होने का न था बल्कि इस बात का इन्तज़ार था कि इस फ़ेल होने के बाद अगले साल हमेशा के लिए बी,ए हो जाएँगे ।
हर साल इम्तिहान के बाद घर आता तो वालदैन को नतीजे के लिए पहले ही से तैयार कर देता । रफ़्ता रफ़्ता नहीं बल्कि यक-लख़्त और फ़ौरन । रफ़्ता रफ़्ता तैयार करने से ख़्वाह-मख़्वाह वक़्त ज़ाया होता है और परेशानी मुफ़्त में तूल खींचती है । हमारा क़ायदा ये था कि जाते ही कह दिया करते थे कि इस साल तो कम-अज़-कम पास नहीं हो सकते । वालदैन को अक्सर यक़ीन न आता । ऐसे मौक़ों पर तबीयत को बड़ी उलझन होती है । मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मैं परचों में क्या लिख कर आया हूँ । अच्छी तरह जानता हूँ कि मुमतहिन लोग अक्सर नशे की हालत में परचे न देखें तो मेरा पास होना कतअन नामुमकिन है । चाहता हूँ कि मेरे तमाम बही ख्वाहों को भी इस बात का यक़ीन हो जाए ताकि वक़्त पर उन्हें सदमा न हो । लेकिन बही-ख़्वाह हैं कि मेरी तमाम तशरीहात को महज़ कसर-ए-नफ़सी समझते हैं । आख़री सालों में वालिद को फ़ौरन यक़ीन आ जाया करता था क्यूँकि तजर्बे से उन पर साबित हो चुका था कि मेरा अंदाज़ा ग़लत नहीं होता लेकिन इधर उधर के लोग “ अजी नहीं साहब ”, “ अजी क्या कह रहे हो ” ?, “ अजी ये भी कोई बात है ? ” ऐसे फ़िकरों से नाक में दम कर देते। बहर-हाल अब के फिर घर पहुँचते ही हम ने हसब-ए-दस्तूर अपने फ़ेल होने की पेशन-गोई कर दी। दिल को ये तसल्ली थी कि बस ये आख़री दफ़ा है। अगले साल ऐसी पेशन-गोई करने की कोई ज़रूरत न होगी ।
साथ ही ख़्याल आया कि वो हॉस्टल का क़िस्सा फिर शुरू करना चाहिए । अब तो कॉलेज में सिर्फ़ एक ही साल बाक़ी रह गया है । अब भी हॉस्टल में रहना नसीब न हुआ तो उम्र भर गोया आज़ादी से महरूम रहे । घर से निकले तो मामूँ के दड़बे में और जब मामूँ के दड़बे से निकले तो शायद अपना एक दड़बा बनाना पड़ेगा । आज़ादी का एक साल । सिर्फ़ एक साल । और ये आख़री मौक़ा है ।
आख़री दरख़्वास्त करने से पहले मैं ने तमाम ज़रूरी मसालहा बड़ी एहतियात से जमा किया । जिन प्रोफ़ेसरों से मुझे अब हम-उम्री का फ़ख़्र हासिल था उन के सामने नेहायत बे-तकल्लुफ़ी से अपनी आरज़ुओं का इज़हार किया और उन से वालिद को ख़तूत लिखवाए कि अगले साल लड़के को ज़रूर आप हॉस्टल में भेज दें । बाज़ कामयाब तलबा के वालदैन से भी इसी मज़मून की अर्ज़दाश्तें भेजवाईं । ख़ुद एदाद-व-शुमार से साबित किया कि यूनीवर्सिटी से जितने लड़के पास होते हैं उन में से अक्सर हॉस्टल में रहते हैं और यूनीवर्सिटी का कोई वज़ीफ़ा या तमग़ा या इनाम तो कभी हॉसटल से बाहर गया ही नहीं । मैं हैरान हूँ कि यह दलील मुझे इस से पेश्तर कभी क्यूँ न सूझी थी, क्यूँकि यह बहुत ही कारगर साबित हुई । वालिद का इनकार नरम होते होते ग़ौर-व-ख़ौज में तबदील हो गया । लेकिन फिर भी उनके दिल से शक रफ़ा न हुआ । कहने लगे “ मेरी समझ में नहीं आता कि जिस लड़के को पढ़ने का शौक हो वो हॉस्टल के बजाए घर पर क्यूँ नहीं पढ़ सकता । ”
मैं ने जवाब दिया “ हॉस्टल में एक इल्मी फ़ज़ा होती है जो अरस्तू और अफ़लातून के घर के सिवा और किसी घर में दस्तियाब नहीं हो सकती । हॉस्टल में जिसे देखो बहर-ए-उलूम में ग़ोता-ज़न नज़र आता है, बावजूद इस के हर हॉस्टल में दो-दो सौ तीन-तीन सौ लड़के रहते हैं । फिर भी वो ख़ामोशी तारी रहती है कि क़ब्रिस्तान मालूम होता है ।
वजह यह कि हर एक अपने अपने काम में लगा रहता है । शाम के वक़्त हॉस्टल के सहन में जा-बजा तलबा इल्मी मोबाहिसों में मशग़ूल नज़र आते हैं । अलस्सबाह हर एक तालिब-ए-इल्म किताब हाथ में लिए हॉस्टल के चमन में टहलता नज़र आता है । खाने के कमरे में, कॉमन रूम में, ग़ुस्ल ख़ानों में, बरामदों में, हर जगह लोग फ़लसफ़े और रियाज़ी और तारीख़ की बातें करते हैं । जिन को अदब-ए-अंग्रेज़ी का शौक है वो दिन रात आपस में शेक्सपियर की तरह गुफ़्तगू करने की मश्क़ करते हैं । रियाज़ी के तलबा अपने हर एक ख़्याल को अलजेब्रा में अदा करने की आदत डाल लेते हैं । फ़ारसी के तलबा रुबाइयों में तबादला-ए-ख़्याल करते हैं । तारीख़ के दिलदादा........” वालिद ने इजाज़त दे दी ।
अब हमें यह इन्तज़ार कि कब फ़ेल हों और कब अगले साल के लिए अर्ज़ी भेजें । इस दौरान हमने उन तमाम दोस्तों से ख़त-व-किताबत की जिन के मुताल्लिक़ यक़ीन था कि अगले साल फिर उन की रफ़ाक़त नसीब होगी और उन्हें यह मज़दा सुनाया कि आईंदा साल हमेशा के लिए कॉलेज की तारीख़ में यादगार रहेगा, क्यूँकि हम तालीमी ज़िंदगी का एक वसी तजर्बा अपने साथ लिए हॉस्टल में आ रहे हैं जिस से हम तलबा की नई पौद को मुफ़्त मुस्तफ़ीद फ़रमाएँगें । अपने ज़हन में हमने हॉस्टल में अपनी हैसियत एक मादर-ए-महरबान की सी सोच ली, जिस के इर्द-गिर्द तजर्बा-कार तलबा मुर्ग़ी के बच्चों की तरह भागते फिरेंगें । सुपेरिटेंडेंट साहब को जो किसी ज़माने में हमारे हम-जमात रह चुके थे लिख भेजा कि जब हम हॉस्टल में आएँगे तो फ़लाँ फ़लाँ मराआत की तवक़्क़ो आप से रखेंगे और फ़लाँ फ़लाँ क़वायद से अपने आप को मुस्तश्ना समझेंगें। इत्तलाअन अर्ज़ है ।
और यह सब कुछ कर चुकने के बाद हमारी बदनसीबी देखिए कि जब नतीजा निकला तो हम पास हो गए ।
हम पे तो जो ज़ुल्म हुआ सो हुआ, यूनीवर्सिटी वालों की हिमाक़त मुलाहज़ा फ़रमाए कि हमें पास करके अपनी आमदनी का एक मुस्तक़िल ज़रिया हाथ से गंवा बैठे।
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