Monday, 13 February 2017

यहाँ कुछ फूल रक्खे हैं / मुशताक़ अहमद यूसुफ़ी

इस तक़रीब में शिर्कत के दअवत नामे के साथ जब मुझे मुत्तला किया गया कि मेरे तक़रीबाती फ़राएज़ ख़ालिसतन रसमी और हाशियाई होगें तो मुझे एक गूना इत्मिनान हुआ। एक गूना मैं रावा-रवी में लिख गया, वर्ना सच पूछिए तो दो गूना इत्मिनान हुआ। इस लिए कि मुझे इत्मिनान दिलाया गया कि रस्म-ए-इज्रा निहायत मुख़्तसर-व-सादा हो गई। इस में वही हो गा जो इस तरह के शामों में शायान-ए-शान होता है यानी कुछ नहीं होगा। बस साहिब-ए-शाम (मैं जान बूझ कर साहिबा शाम नहीं कहा) शाहिदा हसन की ताज पोशी नहीं होगी। मेरे तरद्दुद-ओ-तअम्मुल और इस वज़ाहत का सबब ये था कि एक हफ़्ते क़ब्ल मैं शाहिदा का एक ख़याल-अंगेज तआरुफ़ी मज़मून मख़दूमी-व-मुकर्रमी जनाब जाज़िब क़ुरैशी की ताज पोशी की तक़रीब-ए-सईद में सुन चुका था। जाज़िब साहब की शायरी और तनक़ीद का दिल-पज़ीर सिलसिला, निस्फ़ सदी का क़िस्सा है, दो चार बरस की बात नहीं। एक उम्र के रियाज़, महारत-ए-तअम्मा, ज़र्फ़ निगाही, वज़ादारी और अदबी सैर चश्मी की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। तअज्जुब इस पर हुआ कि जैसा ताज पीर-ओ-मुरशिद को अक़ीदतमंदों ने पहनाया, वैसा ताज अमरीका में हसीनान-ए-आलम को और पंजाब में सिर्फ़ दुलहन को पहनाया जाता है। दूल्हा के सर पर तो सह ग़ज़्ले की लम्बाई के बराबर ऊँची तुर्रे-दार कुलाह होती है। पंजाब में अगर दूल्हा ऐसा ज़नाना ताज पहन कर आ जाए तो क़ाज़ी निकाह पढ़ाने से इनकार कर दे गा। अगर निकाह एक दिन क़ब्ल हो चुका है तो दुलहन वाले निकाह टूटने का एलान कर देंगे। दुलहन अपने बाएँ दस्त-ए-हिनाई से दाएँ हाथ की हरी हरी चूड़ियाँ तोड़ दे गी और दाएँ हाथ से बाएँ की। फ़िर उन ही सोंटा से हाथों से धक्के दे कर हरयाले बंड़े को अक़्द-गाह से ये कह कर बाहर निकाल देगी कि

अक़्द अक़्द समझ मश्ग़ला-ए-दिल न बना

बरात को रात के साढ़े ग्यारह बजे, कोका कोला की बोतल पिलाए बग़ैर खड़े खड़े वापस कर दिया जाएगा। ताज अधूरे वीडियो समेत!

ताज-पोशी की तस्वीरैं किलिक किलिक कर खिंचने लगीं तो मुझे ये फिक्र लाहिक़ हुई कि अगर ख़ुदा न-ख़्वास्ता ये पंजाब के अख़बारों में छप गई तो लोग कहेंगे कि कराची के अहल-ए-ज़बान हज़्रात बुज़ुर्गों के साथ दुलहनों का सुलूक करते हैं और अरूसी ज़ेवरात के इस्तेमाल में तज़कीर-ओ-तानीस का ज़रा ख़याल नहीँ रखते! जब के अल्फ़ाज़ के नर-व-मादा न पहचानने पर अब भी ले दे होती है।

हम ने देखा कि हज़्रत जाज़िब बरात-ए-दिलदागाँ में घिरे, तस्वारें खिंचवा रहे थे तो हमोरे दोस्त प्रोफ़ेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस एम.ए बी टी के सीने पर साँप लोटने लगे वह घर में होते हैं तो उसी हिस्सा-ए-जिस्म पर मासूम बच्चे लोटते हैं। मिर्ज़ा ने हमारे कान को हाथ से अपने मुह के क़रीब खींच कर उन शोरा के नाम गिनवाए जो हसद से जले मर रहे थे। कहने लगे कि हासिदैन की फ़ेहरिस्त में एक नस्र-निगार का नाम भी है। पूछा भला कौन? बोले मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी। फिर अकबर इलाहाबादी के अशआर अपनी तहरीफ़-व-सकते के साथ सुनाए:

ऊज-ए-बख़्त-ए-मुलाक़ी उन का

चर्ख़-ए-हफ़्त-ए-तबाक़ी उन का

महफ़िल-व-ताज तिलाई उन का

आखें मेरी बाक़ी उन का

ये मारूज़ात अज़-राह-ए-तफ़फ़्फ़ुन नहीं हैं। अगर सिन-व-साल का बय्यन तफ़ाउत राह-ए-हुस्न-ए-अक़ीदत-व-इरादत-मंदी में हायल न होता तो मैं मोहतरम-उल-मक़ाम जनाब जाज़िब क़ुरैशी और उन के उस्ताद-ए-मुकर्रम, बल्कि उस्ताज़-उल-असातिज़ा हज़्रत फ़रमान फ़तेह पूरी को अपना पीर-व-मुर्शिद कहने में फ़ख़्र महसूस करता। और वाक़या ये है कि इस रिश्त-ए-इदारत-व-नियाज़-मंदी के बाइस रस्म-ए-ताज पोशी कुछ अजाब सी लगी। यादश बख़ैर, तीस पैंतीस बरस उधर की बात है। ऐसी ही ताज पोशी एक शायरा मिस बुलबुल की हुई थी जो अपने वालिद के हम-राह अंदरून-ए-सिंध से तशरीफ़ लाई थी। उन के सर पर इब्न-ए-इंशा ने दस्त-ए-ख़ास से ताज रक्खा और मल्का-ए-तग़ज़्ज़ुल के लक़ब से नवाज़ा। अपने तीखे अंदाज़ में एक मज़मून भी पढ़ा जिसे मदहिया-हज्व या हज्विया क़सीदा कहा जाए तो दोनों तारीफ़े दुरुस्त होंगी। बअद को इब्न-ए-इंशा ने मिस बुलबुल पर चार पांच मज़े-दार कालम भी लिखे। उस ज़माने में मिस बुलबुल और हेयर डिरेसर्ज़ अंजुमन के सद्र सलमान, उन के कालमों के दिल-पसंद मौज़ू थे। हॉल का किराया, बासी समोसों और ख़ालिस टीन के ताज की क़ीमत ख़ुद मलका-ए-आलिया ने जेब-ए-ख़ालिस से अदा की। रही उन की शायरी तो इतना इशारह काफी है मल्का-ए-इक़लीम-ए-सुख़न की तबअ-ए-आज़ाद, उरूज़ की ग़ुलाम न थी। गज़ल में दो रंगी नहीं पाई जाती थी। मतलब ये कि मतला से मक़ता तक हर शेअर वज़न और बहर से यकसाँ ख़ारिज होता था। पढ़ते वक़्त हाथ, आँख और दीगर अअज़ा से ऐसे इशारे करतीं कि शेअर तहज़ीब से भी ख़ारिज हो जाता! उन इशारों से शेअर का मतलब तो ख़ास समझ में नहीं आता, शायरा का मतलब तो हम जैसे कुंद-ज़हनों की समझ में आ जाता था। बे-पनाह दाद मिलती जिसे वह हुस्न-ए-समात समझ कर आदाब बजा लाती थीं। वह दर्अस्ल उन के हुस्न-ओ-जमाल पर वाह वाह हो जाती थी। बक़ौल-ए-मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग, सामईन-ए-बे-तमकीन के मर्दाना ज़ज़्बात के फिल-बदीह अख़्राज को ख़फ़ीफा ख़राज-ए-अक़ीदत समझती थी! लोग उन्हें मिस्र-ए-तरह की तरह उठाए उठाए फिरते थे।

तक़रीब-ए-इज्रा का माजरा क़द्र-ए-तफ़्सील से बयान करने की दो वजहें हैं। अव्वल, ये कि मेरे ख़ुश्गवार फ़राएज़ रस्म-ए-इज्रा ही से मुतअल्लिक़ हैं। दोम, क़वी अंदेशा है कि अगर ताज-ए-शही के उसूल कुनुन्दगान और ताज-ए-दहिन्द-गान की बर वक़्त हौसला शिक्नी न की गई तो ये बिदअत-ए-फाख़्रा यानी रस्म-ए-ताज पोशी अब हर तक़रीब रोनुमाई-ओ-इज्रा का लाज़्मी हिस्सा बन जाएगी, जिस से सिर्फ़ हर दो क़िस्म के उन कारीगरान-ए-बा-कमाल को फ़ाएदा हो जो चाँदी पर सोने का ऐसा मलम्मा करते हैं कि

नसीम-ए-सुब्ह जो छू जाए, रंग हो मैला

(दस्त-ए-नक़्क़ाद जो छू जाए रंग हो मैला)?

जो अहल-ए-क़लम अब तक कमाल-ए-फ़न, तम्ग़ा-ए-हुस्न कार-कर्दगी, हिलाल-ए-इम्तियाज़ और अकेडमी आफ़ लेटर्स के इनआमात के लिए तग-ओ-दौ करते और आपस में लड़ते भिड़ते रहते हैं वह अब ताज और मनसब-ए-ताजौरी के लिए एक दूसरे से बरसर-ए-पैकार-व-पैज़ार होंगें। एक दूसरे के काम और कलाम-उल-मलूक मुलूक-उल-कलाम में पूरे मिस्रे के बराबर लम्बे कीड़े निकालेंगें। मुझ जैसा हर गया गुज़ार अदीब और शायर ख़ुद को ARY के बाइस कैरेट गोल्ड के ताज का इकलौता हक़-दार क़रार देगा।

अनोखा लाडला खेलन को मांगे ताज!

कैसी ये अनोखी बात!

मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग कहते हैं कि छोटे बड़े और अच्छे बुरे की क़ैद नहीं, genuine शायर की पहचान ही ये है कि वह अपने इलावा सिर्फ़ मीर और ग़ालिब को ऊपरी दिल से शायर तस्लीम कर लेता है। वह भी महज़ इस लिए कि वह बर वक़्त वफ़ात पा चुके हैं। बर वक़्त से मुराद इन की पैदाइश से पहले।

साहिबो ग़जल की ज़मीन की हमेशा ये ख़ासियत रही है कि

ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी

ख़द्शा है कि ताज पोशी की रस्म इस ज़रदोज़ ज़मीन में जड़ पकड़ गई तो सिर्फ़ कराची में ही इक़्लीम-ए-सुख़न के पाँच छ: सौ ताजदार नज़र आएँ गे। बे-तख़्त-व-सल्तनत! झूट क्यूँ बोलें। हम ख़ुद भी 22 कैरेट गोल्ड से इलरजिक नहीं है। ताज को पिघला कर रूठी मलिका के पाज़ेब भी तो बनवाई जा सकती है।

जहाँ इतने ताज दारों की घमसान की रेल पेल हो, वहाँ ख़ून ख़राबा लाज़मी है। बादशाह लोग नेशनल स्टेडियम में एक दूसरे के ताज से फ़ुटबाल खेलेंगे। और एक दूसरे के दीवान और नावल उन के सरचश्मे यानी मुतअल्लिक़ा सर पे दे मारेंगें। तवाइफुल मुलूकी का ये आलम होगा कि वह मख़्लूक़ भी जिस का नाम उस बदनाम मुहावरे में आता है, अपने कानों पे हाथ रक्खेगी। दुल्हने ताज पहना छोड़ देंगीं। महज़ इस डर से कि ताज देखते ही लोग उन से ताज़ा ग़ज़ल या नया मज़ाहिया मज़मून सुनाने की फ़रमाइश कर देंगे।

नाँ, बाबा नाँ, हमें ताज से ज़्यादा अपना सर अज़ीज़ है।

साहिबो, अस्ल बात ये है कि हमारे बादशाह और शहनशाह तो मुद्दतें हुईं एक बग़ल में ताज शही और दूसरी में नअलैन दबाए रुख़्सत हुए मगर हमारा जज़्बा-ए-इताअत-व-बैअत सुल्तान-ए-वक़्त और मिट्टी के पैर वालों की क़द बोसी की सदियों पुरानी आदत बर-क़रार है। रोअब और दबदबा शाही दिल की पाताल गहराइयों में जा गुज़ीं है। तजरबा कार साइंस और सलोत्री कहते हैं कि बअज़ घोड़े सवारी देने के इतने आदी हो जाते हैं कि अगर उन पर कोई सवार न हो तो दो क़दम नही चल सकते। अपनी चाल भूल जाते हैं। विरासत में मिला जज़्बा महकूमियत इतना रासिख़ है कि बादशाह ही हमारे नज़्दीक इंसानी कमाल-ओ-फ़ज़ीलत और बरतरी की मेअराज है। और इस का इतलाक़ आलिमों, कामिलों और फ़न-कारों पर भी होता है। चुनांचे जब तक हम अपने महबूब फन-कार को शहनशाह-ए-ग़ज़ल, मलिका-ए-तरुन्नुम और मलिका-ए-ग़ज़ल के लक़ब से न नवाज़ें और ताज-शही उन के सर पर न रक्खें, हमारी तस्कीन नहीं होती। अगले वक़्तों में औरतें अगर शौहरों को ख़त में सर ताज-ए-मन सलामत कह कर मुख़ातब करती थीं तो बिल्कुल बजा था। इस लिए कि ताज ख़ास ख़ास मौक़ों पर पहनने के बअद उतार कर रख दिया जाता है। बद-बख़्त होता भी इसी लाएक़ है।

हमारे सन्त्री बादशाह से ले कर रईस-उल-मुतग़ज़्ज़िलीन, बादशाह-ए-हुस्न, शाह-ए-ख़ूबाँ और शाह-ए-शमशाद-ए-क़दाँ तक इसी काम्पलैक्स की कार फ़रमाई बल्कि शाह फ़रमाई नज़र आती है। और तो एक साहब शहनशाह-ए-ज़राफ़त कहलाते हैं। मेरा इशारा अपनी तरफ़ नहीं है। ज़रीफ़ आदमी court jester और फ़ालिस्टाफ तो हो सकता है, तख़्त पर नहीं बैठ सकता। हाँ ताज-व-तख़्त या हमारी तरह मुलाज़िमत छिनने, छूटने या छोड़ने के बअद ज़राफ़त पर उतर आए तो बात न सिर्फ़ समझ में आती है बल्कि दिल को भी लगती है।

बात पुरानी हुई, इस लिए कि आतिश उस ज़माने में भी जवान नहीं था। एक नाज़्रीन के दिल से और सिन से उतरी ऐक्ट्रेस मलिका-ए-ज़ज़्बात कहलाती थीं वह इस मरहले से गुज़र रहीं थीं जब, मर्द हो या औरत, सिर्फ़ जज़्बात पर ही गुज़ारा करना पड़ता है। मैं ये तो नहीं बता सकता कि किसी ख़ातून को उम्र के किस मरहले मे मलिका-ए-जज़्बात कहा जा सकता है। इतना ज़रूर अर्ज़ कर सकता हूँ कि कम-व-बेश 70 बरस के बअद निन्नानवे फ़ी-सद मर्द ग़ालिब की तरह उस उम्र-ए-यास को पहुँच जाते हैं जिस की तरफ़ उस ने अपने शेर में (हमारी तहरीफ़ के साथ) इशारा किया है।

मुनफ़इल हो गए क़वा ग़ालिब

अब अनासिर में इब्तिज़ाल कहाँ

जब आख़िर-ए-शब के हम-सफ़र उस मंज़िल-ए-ना-मक़सूद पर पहुँचते हैं तो हर मर्द निरा-शहनशाह-ए-जज़्बात हो के रह जाता है। निगह-बुलंद, सुख़न-दिल-नवाज़, जाँ पुर-सोज़ और जज़्बात के घोड़े के से और ये जो निन्नानवे फ़ी-सद की क़ैद हमने लगाई है तो दानिस्ता है। एक फ़ी-सद की गुंजाइश-व-इसतशना ब-पास ख़ातिर-ए-नाज़ुक ख़यालाँ रक्खा है। आख़िर अपना भी तो ख़याल रखना पड़ता है।

“इक तारा है सिर-हाने मेरे” से “यहाँ कुछ फूल रक्खे हैं” मैं सात बरस का वक़्फ़ा और सात हज़ार मील का फ़ास्ला है। सफ़र और हिज्रत उस का ख़ास मौज़ू भी है जिस के अत्राफ़ वह रह रह कर लौटती हैं। शेर के मौज़ू की हैसियत से सफ़र और हिज्रत मे कोई मज़ाइक़ा नहीं, मगर शर्त ये है कि मसाफ़त तय करते वक़्त क़दम क़दम पर एसास-ए-मुसाफ़िरत डंक न मारे। बअद कहीं ऐसा न हो कि इस तरह हिज्रत-ए-बाइस ‘सद’ ख़ैर-व-बरकत है बशर्त-ये-कि हिज्रत के बाद एसास-व-अज़ाब-ए-मुहाजिरत में इस हद तक न मुब्तिला हो जाए कि हाज़िर-व-मौजूद से आखें फेर ले। शाहिदा का सफ़र कैसा गुज़रा, उन्हीं से सुनिएः

अगरचे ज़अम मुझे भी बहुत सफ़र का है

कमाल सारा मगर उस की रह गुज़र का है

हाथ आंखों पे धरे चलना था

रास्ता देख्ती जाती कैसे

“सात समुंदर की दूरी से एक नज़्म” उदास कर देने वाली नज़्म है “दौर-ए-उफ़्तादा ज़मीनो में उन्हें अपने शहर की याद” सताती है।

अश्कों की रवानी में डूबा उभरा वह शहर

चेहरा चेहरा मुझ में तस्वीर हुआ वह शहर

कराची शहर बड़ा अलबेला, अनोखा और ऊखा शहर है। बहुत ज़ालिम शहर है। इंसान जब तक इस शहर में रहता है शाकी-ओ-नालाँ ही रहता है। जब वह उसे छोड़ देता है उस पर खुलता है कि अब वह किसी और शहर में रहने के लाएक़ नहीं रहा। फिर ये शहर कोह-ए-निदा की मानिंद उसे बुलाता है या अख़ी, या अख़ी या अख़ी! और वह खिंचा चला जाता है।

जब बीसवीं सदी का भूला इक्कीसवीं सदी में घर लौटता है तो एक साल में पूरी एक सदी अपना वरक़ बदल चुकी होती है।

मैं जब घर आई एक साल के बअद

सांसें लीं कमरों ने, बिस्तर जाग गए

ये किताब ज़्यादा आटो-बायोग्राफ़िकल इन मानों में भी है कि शाहिदा की maturity और इख़्तियारी जला-वतनी की रूदाद है।

मग़्रिब में फेमी-निज़्म दर हक़ीक़त एक समाजी, सियासी और मआशी तहरीक थी जिस की बानी-व-मोहर्रिक व हर अव्वल अहल-ए-क़लम ख़वातीन बहने थीं। मेरे नज़्दीक feminism निसाइयत का मुतबादिल नहीं। निसाइयत और निसवानियत feminity का मुतरादिफ़-व-मुतबादिल हो सकती है, feminism का हरगिज़ नहीं। female feminine शायरी और अदब का अपना मक़ाम है। feminist बिल्कुल अलाहदा सिन्फ़ है लेकिन एक दूसरे पर बरतरी-व-फ़ौक़ियत का सवाल पैदा ही नहीं होता। फेमी-निज़्म के साथ आम तौर से strident aggressive/ abrasive यानी मुतशद्दिद और जारिहाना और मर्द आज़ार की सिफ़ात इस्तेमाल की जाती है। हमारे शाएरात अदा जाफ़री, ज़हरा निगाह, परवीन शाकिर, शाहिदा और फ़ातमा हसन की शायरी को feminist poetry नहीं कहा जा सकता। इन की सक़ाफ्ती रिवायत या परम्परा मुहज़्जब-व-शाहिस्ता लहजा उन्हें वह उस्लूब डिक्शन और अंदाज़-ए-बयान इख़्तियार करने में माने होता है। मिसाल के तौर पर जो फेमिनिज़्म की सब से नामवर अदीबा मुसन्निफ़ा Germen Greer मुसन्निफ़ा The Female Eunuch की छाप बन चुका है ज़हरा निगाह औरत के दुख-दर्द का पूरा एहसास-व-इद्राक औप उस के मसाएब-व-मसाएल से माहिराना वाक़्फ़िय्यत रख्ती हैं, लेकिन साथ ही वह समझौते की चादर बुनना और उसे सलीक़े से बिछाना, ओढ़ना और इस्तेमाल करना जानती हैं:

उसी से मैं भी तन ढक लूँगी अपना

उसी को तान कर बन जाएगा घर

बिछा लेंगे तो खिल उठेगा आंगन

उठा लें गे तो गिर जाएगी चिलमन

ये फेमिनिज़्म नहीं, इस से बहुत आगे की चीज़ है। इस के ताने बाने में सदियों की सहार क़िर्नों की बसीरतों और एक बा-वक़ार शेवा तस्लीम-ओ-रिज़ा के तार झिलमिलाते हैं।

शाहिदा के हाँ वह वस्फ़ तो है अब निसाई हिस्सियत से ताबीर किया जाता है लेकिन जारिहाना feminism का शाएबा नहीं। निसाई हिस्सियत और feminism को इस मंज़िल तक आने में कई सब्र व मर्द-आज़मा मरहलों से गुज़रना पड़ा। अदा जाफ़री की दिल-आवेज़ हस्रत देखिए।

होंटों पे कभी उन के मिरा नाम ही आए

आए तो सही बर-सर-ए-इल्ज़ाम ही आए

फ़िर उस का मवाज़ना फैहमीदा रियाज़ के बोसे से कीजिए जिस के दौरान यूँ महसूस होता है जैसे “तुम.... पाताल से मेरी जान खींचते हो।” होटों पर नाम आए से प्यार की पाताल गहराइयों तक उतरने में दो नस्लों और न जाने कितनी ज़हनी सदियों और मौरूसी inhabitation का फ़ास्ला है। ये जोग बैराग और जन्म जन्म की प्यास से भोग बिलास तक का सफ़र है। इसी सफर-ए-पुर-ख़तर में एक और जुरअत-मंद शायरा महव-ए-ख़िराम नज़र आती है जो सब कुछ छुपा कर सब कुछ दिखा देने का हुनर सीख रही है।

मैं ये भी चाहती हूँ तिरा घर बसा रहे

और ये भी चाहती हूँ कि तू अपने घर न जाए

मिर्ज़ा कब चूकते हैं। कहते हैं कि ये ख़्वाहिश तो तुम्हारे रोमांटिक vegetarianism की मानिंद है। तुम दरअस्ल ये चाहते हो कि जिस मुर्ग़े का रोस्ट तुम शाम को खाओ, वही मुर्ग़ा सुब्ह उठ कर अज़ान भी दे! मतलब ये कि ज़बा किए बग़ैर उस का गोश्त खाना चाहते हो।

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