Monday, 13 February 2017

ग़ज़ल सपलाइंग एंड मैनूफैक्चरिंग कंपनी (पराइवेट इन लिमटेड) / मुजतबा हुसैन

इधर जब से दुनिया तिजारत के चंगुल में फंस गई है। उस वक़्त से हर शय तराज़ू में तुलने और तिजारत के सांचे में ढलने लगी है।हमें उस नौजवान की बात अब भी याद है जिसने एक कुतुब-फ़रोश की दुकान पर खड़े हो कर कुतुब-फ़रोश से कहा था:“जनाब-ए-वाला! मुझे कृष्ण चन्द्र के दो किलो अफ़साने,राजिंदर सिंह बेदी के डेढ़ किलो कहानियाँ और फ़ैज़ की चार किलो ग़ज़लें दीजिए।”

इस पर कुतुब-फ़रोश ने हमारी आँखों के सामने कृष्ण चन्द्र और बेदी की कहानियों के मजमूए तराज़ू में तौल कर दिए और फ़ैज़ की ग़ज़लों के बारे में फ़रमाया: “हुज़ूर-ए-वाला! मैं आप को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़लें देने के मुअक़्क़िफ़ में नहीं हूँ क्यूँकि फ़ैज़ का सारा अदबी सरमाया दो किलो ग़ज़लों पर मुश्तमिल है। यक़ीन न आए तो ‘दस्त-ए-सबा’,‘नक़्श-ए-फ़र्यादी’ और ‘ज़िन्दां नामा’ को तौल कर देख लीजिए।”

उस दिन से हमें ये यक़ीन हो चला है कि वो दिन दूर नहीं जब तिजारत, अदब पर इस क़दर ग़ालिब आ जाएगी कि लोग शायरी की ब्लैक मार्केटिंग और अफ़्सानों की ज़ख़ीरा अंदोजी करने लगेंगे (वैसे बैरूनी अदब की स्मगलिंग तो हमारे हाँ अब भी जारी है) मगर हमारा यक़ीन उस वक़्त पुख़्ता हुआ जब हमें पता चला कि एक साहब ने ग़ज़ल सपलाइंग एंड मैनुफैक्चरिंग कंपनी प्राइवेट इन लिमिटेड क़ायम कर रक्खी है और उस कंपनी का कारोबार ज़ोरों पर जारी है। चुनांचे हम उस कंपनी का मुआइना करने की ग़रज़ से इस मुक़ाम पर पहुंचे तो देखा कि लोग क़तार बांधे खड़े हैं और उनके हाथों में कोरे काग़ज़ात हैं। हम ने उन लोगों से पूछा:“साहिबो! आप लोग कौन हैं,यहाँ क्यूँ खड़े हैं और आप ने हाथों में कोरे काग़ज़ात क्यूँ पकड़ रखे हैं?”

इस पर एक नाज़ुक इंदाम नौजवान, जिस के बाल बढ़े हुए थे,आगे बढ़ा और बोला:“जनाब-ए-वाला! हम माडर्न शायर हैं और फ़िक्र-ए-शेर में वक़्त बर्बाद नहीं करते, इसलिए रेडीमेड ग़ज़लें ख़रीदने आए हैं और हमारे हाथों में कोरे काग़ज़ात इस लिए हैं कि हम उन पर ग़ज़लें लिखवा कर ले जाऐंगे।”

नौजवान का ये जवाब सुन कर हम आगे बढ़ने लगे तो क़तार में एक शोर बुलंद हुआ: “साहब! क़तार में ठहरिए हम तो सुबह से यहाँ खड़े हैं। आप देर से आए हैं इस लिए आप को क़तार में सब से पीछे ठहरना चाहिए।”

हमने शोरा की हूटिंग का कोई नोटिस न लिया और कंपनी का दरवाज़ा खोल कर अंदर दाख़िल हो गए।एक कमरे में हमें उस कंपनी के प्रोप्राइटर मिस्टर अबदुर्रहीम वफ़ा नज़र आए जो हाथ में क़ैंची पकड़े एक ग़ज़ल को काट रहे थे।हमने अपना तआरुफ़ कराया तो बोले: “मुक़र्रर मुक़र्रर।”हमने अपना दोबारा तआरुफ़ कराया तो वो बे-हद ख़ुश हुए और बोले:“माफ़ कीजिए, मैं ज़रा ऊंचा सुनता हूँ,इसीलिए आप को अपना तआरुफ़ मुकर्रर करवाना पड़ा।” फिर बोले:“मैं आप को अपनी कंपनी का मुआइना ज़रूर कराऊंगा।मगर आप को पाँच मिनट तक इंतिज़ार की ज़हमत बर्दाश्त करनी होगी क्यूँकि इस वक़्त मैं एक ग़ज़ल को काट रहा हूँ।”फिर जब वो क़ैंची लेकर दोबारा ग़ज़ल को काटने में मसरूफ़ हो गए तो हम ने अज़राह-ए-तजस्सुस उन से पूछा:

‘‘क़िबला! आप क़ैंची से इस ग़ज़ल को क्यूँ काट रहे हैं?’’

वो मुस्कुराते हुए बोले:“भई! बात दर-अस्ल ये है कि ये ग़ज़ल बड़ी बहर में लिखी गई है और अब मैं इसे काट कर इसमें से छोटी बहर की दो ग़ज़लें बरामद करूंगा क्यूँकि मेरे पास वक़्त बहुत कम है और शोअरा के ढेरों आरडर्ज़ मेरे पास पड़े हुए हैं।”

ये कह कर उन्होंने ग़ज़ल काटी और नौकर को बुला कर कहा:“मियाँ! ये ग़ज़लें इसी वक़्त म्यूज़िक डायरैक्टर के पास ले जाओ और कहो कि शाम तक इन दोनों ग़ज़लों का तरन्नुम फ़िट हो जाए क्यूँकि आज रात में मुशायरा है और जनाब तरन्नुम रुहानी इस मुशायरे में ये ग़ज़लें पढ़ेंगे।”

हमने पूछा:“ये तरन्नुम रुहानी कौन हैं?”

बोले:“हमारे बहुत पुराने गाहक हैं, आप उन्हें नहीं जानते? ये तो हमारे मुल्क के मुमताज़ शोरा में शुमार किए जाते हैं और हमें फ़ख़्र है कि वो गुज़श्ता बीस बरसों से हमारी कंपनी से ग़ज़लें और उनका तरन्नुम ख़रीद रहे हैं।”

फिर जनाब अबदुर्रहीम वफ़ा ने अपनी दास्तान-ए-अलम अंगेज़ यूँ बयान करनी शुरू कर दी:

जनाब-ए-वाला! “मैं बचपन ही से इस नज़रिये का क़ाएल हूँ कि शोरा तीन क़िस्म के होते हैं:एक पैदाइशी शायर, दूसरा मौरूसी शायर और तीसरा नुमाइशी शायर। पैदाइशी शायर तो वो होता है जो पैदा होते ही मतला अर्ज़ करता है यानी रोता भी है तो इल्म-ए-अरूज़ के उसूलों को पेशे-ए-नज़र रखता है।उसके रोने में भी एक तरन्नुम पोशीदा होता है और अभी दस बारह साल का भी होने नहीं पाता कि “साहिब-ए-दीवान” बन जाता है।मौरूसी शायर वो होता है जिसे शायरी वर्से में मिलती है यानी असल में उसका बाप शायर होता है और जब वो मरता है तो अपने पीछे क़र्ज़ ख्वाहों के अलावा ग़ैर मतबूआ ग़ज़लें और नज़्में छोड़ जाता है।पस उसका बेटा उन ग़ज़लों और नज़मों को वक़्फ़े-वक़्फ़े से रसाएल में छपवाता है और मौरूसी शायर होने का शरफ़ हासिल करता है।लेकिन शायरों की एक तीसरी क़िस्म भी होती है जो नुमाइशी शायर कहलाती है।सच्च पूछिए तो इन दिनों हर तरफ़ नुमाइशी शोरा की भरमार है जो कहीं से ग़ज़लें लिखवा कर लाते हैं उन्हें मुशाएरों में पढ़ कर नाम कमाते हैं।चूँकि मैं इब्तिदा ही से पैदाइशी शायर रहा हूँ इसलिए मैं ने ये फ़ैसला कर लिया था कि बड़ा होकर एक ऐसी कंपनी क़ायम करूँगा जहाँ से नुमाइशी शोरा को सस्ते दामों पर ग़ज़लें और नज़्में फ़राहम की जाएं।चुनांचे मैं ने निहायत क़लील सरमाए से कंपनी का आग़ाज़ किया।मैं ने एक सेकंड हैंड क़लम और एक सेकंड हैंड दवात ख़रीदी और मुस्तक़बिल की तरफ़ रवाना हो गया।इब्तिदा में मेरा तरीका-ए-कार ये था कि मैं अपने हाथ में क़लम पकड़ कर गली-गली आवाज़ें लगाता फिरता कि ग़ज़ल लिखवाइए, नज़म की इस्लाह करवाइए।वो दिन मेरे लिए सख़्त आज़माइश के थे।जब हर तरफ़ “पैदाइशी शायर” नज़र आया करते थे लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता नुमाइशी शोरा भी नुमूदार होने लगे और मेरा कारोबार चल पड़ा।जब मेरी हालत ज़रा सँभली तो मैं ने एक ठेला ख़रीदा और उस ठेले में ग़ज़लें, नज़्में, सेहरे और रुबाइयाँ रख कर फ़रोख़्त करने लगा।रफ़्ता-रफ़्ता मेरी गुमनामी दूर-दूर तक जा पहुंची और लोग दूर-दूर से ग़ज़लें लिखवाने के लिए आने लगे।मेरा नसीब जाग उठा और मैं इतना माल-दार हो गया कि आज “ग़ज़ल सपलाइंग एंड मैनूफैक्चरिंग कंपनी”का परोप्राइटर हूँ।अब मै चार पैदाइशी शोरा की ख़िदमात भी हासिल करली हैं जो दिन रात ग़ज़लें,नज़्में,रुबाइयाँ और क़तआत लिखते हैं।इस के अलावा मैं ने एक म्यूज़िक डायरैक्टर की ख़िदमात भी हासिल कर ली हैं जो मुख़्तलिफ़ ग़ज़लों का तरन्नुम फ़िट करता है।फिर मैं ने अपनी कंपनी में एक नया शोबा भी क़ायम किया है जिसे“शोबा-ए-सामेईन” का नाम दिया गया है।इस शोबे के ज़िम्मा ये काम है कि वो मुशायरों में सामेईन को रवाना करे और कंपनी की फ़राहम कर्दा ग़ज़लों पर कुछ ऐसी दाद दे कि अच्छे ख़ासे नुमाइशी शायर पर“पैदाइशी शायर”का गुमान होने लग जाए।चुनांचे मैं फ़ी सआमे सवारी ख़र्च के अलावा दो रुपए चार्ज करता हूँ।मेरा ये शोबा भी दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी कर रहा है क्यूँकि मुशायरे ज़्यादा तर रातों ही में मुनअक़िद होते हैं।हमारे सामेईन किसी शायर के कलाम पर इस ज़ोर-व-शोर से दाद देते हैं कि ख़ुद बे-चारे शायर का कलाम कोई सुनने नहीं पाता।अब मैं ने एक “शोबा-ए-हूटिंग” भी क़ायम करने का फ़ैसला किया है ताकि कंपनी के मुख़ालेफ़ीन के दाँत खट्टे किए जाएँ।”

मिस्टर अबदुर्रहीम वफ़ा अभी अपनी दास्तान बयान ही कर रहे थे कि टेलीफ़ोन की घंटी बजने लगी और वो रिसीवर उठा कर कहने लगे:“हैलो! कौन?.........अच्छा! शादानी साहब बात कर रहे हैं।?”

“जी हाँ.......! मुझे मालूम है कि मुशायरा आज रात में है लेकिन मैं मजबूर हूँ क्यूँकि आप ने अभी तक दो पुरानी ग़ज़लों की क़ीमत अदा नहीं की।जब तक पिछला हिसाब साफ़ न हो जाए मैं आप के लिए एक शेर भी नहीं कह सकता।”

“क्या कहा! मुशायरा में आप को मुआवज़ा मिलने वाला है,ये तो मुझे भी मालूम है कि आप को मुशायरे में मुआवज़ा मिलता है,गुज़श्ता बार भी आप को मुआवज़ा मिला था,लेकिन आप ने मेरी ग़ज़लों की उजरत अदा करने की ज़हमत गवारा नहीं की। भला ये भी कोई बात है कि आप मुझ से पाँच रुपे में एक ग़ज़ल ले जाते हैं और उसे मुशायरे में पढ़ कर पच्चीस तीस रुपे मुआवज़ा हासिल कर लेते हैं।मैं कभी ये बर्दाश्त नहीं करूँगा कि आप मेरी शायरी के अलावा मेरी मेहनत का भी इस्तेहसाल करें।”

इस के बाद टेलीफ़ोन पर तवील वक़फ़ा रहा और शादानी साहब दूसरी तरफ़ से मुसलसल बोलते रहे। और आख़िर में वफ़ा साहब झुँझलाते हुए बोले: “देखिए, शादानी साहिब, मैं आप को ग़ज़ल ज़रूर लिख देता, लेकिन मेरे पास वक़्त बिलकुल नहीं है क्यूँकि मुझे ख़ुद सदर-ए-मुशायरा की ग़ज़लें कहनी हैं। बेहतर है कि आज आप मुशायरे में न जाएँ।” इस के बाद वफ़ा साहब ने बड़े ज़ोर से रिसीवर रख दिया और बोले:“बदतमीज़ कहीं के,जब ग़ज़ल लिखवानी होती है तो यूँ मिन्नत समाजत करते हैं जैसे कोई फ़क़ीर भीक मांग रहा हो लेकिन जब मुशायरे में मेरी ही ग़ज़ल मेरे सामने पढ़ते हैं तो मेरी तरफ़ यूँ देखते हैं जैसे अपनी ज़ाती ग़ज़ल सुना रहे हों।”

फिर वफ़ा साहब ने अपने हवास दरुस्त किए और कहा:“मैं आप को अपनी कंपनी की दास्तान तो सुना चुका हूँ,अब आप मेरे प्रास्पैक्टस का मुताला फ़रमाइए जिस से आप को मेरी कंपनी की जुमला तफ़सीलात का इल्म हो जाएगा।ये कहते हुए उन्होंने प्रास्पैक्टस हमारे सामने फेंक दिया।हम ने मौक़े को ग़नीमत जाना और एक प्रास्पैक्टस अपने साथ ले आए जिसे मिन-व-अन हम यहाँ नक़्ल कर रहे हैं:

ग़ज़ल सपलाइंग एंड मैनुफैक्चरिंग कंपनी पराइवेट लिमिटेड प्रास्पैक्टस

ग्राहकों के लिए ज़रूरी है कि वो अपने तख़ल्लुस का ख़ुद इंतिख़ाब करें।एक बार आप ने तख़ल्लुस रख लिया तो आप को मुकम्मल शायर बनाने की ज़िम्मेदारी कंपनी पर आइद होगी।

ब-यैकवक़्त चार ग़ज़लों का आर्डर देने पर एक क़ता मुफ़्त फ़राहम किया जाएगा।

अगर कंपनी की फ़राहम कर्दा किसी ग़ज़ल पर मुशायरा में हूटिंग हो तो उसकी ज़िम्मेदारी कंपनी पर आइद नहीं होगी। हम ग़ज़ल को हूटिंग से महफ़ूज़ रखने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उसी सूरत में क़बूल कर सकते हैं जब आप हमारे “शोबा-ए-सामेईन” की ख़िदमात से इस्तिफ़ादा करें।

ग़ज़लों को सही तलफ़्फ़ुज़ के साथ पढ़ने की ज़िम्मेदारी भी मुतअल्लिक़ा शोरा पर आइद होगी।क्यूँकि कंपनी सिर्फ़ शेर कहती है,शोरा को ‘क़ाइदा’ नहीं पढ़ा सकती।

बड़ी बहर की ग़ज़ल के पाँच अशआर की क़ीमत दस रुपये और छोटी बहर की ग़ज़ल की पाँच रुपये होगी।अगर कोई साहब सिर्फ़ एक मिस्रा ख़रीदना चाहते हों तो उन से पूरे शेर की उजरत वसूल की जाएगी।

अगर कोई साहब कंपनी हज़ा से आज़ाद नज़्में लिखवाना चाहते हों तो उन्हें अपनी दिमाग़ी सेहत के बारे में सब से पहले तिब्बी सदाक़त-नामा पेश करना होगा।

अगर कोई साहब “सेहरा” लिखवाना चाहते हों तो वाज़ेह हो कि कंपनी सेहरा निगारी की भारी उजरत वसूल करती है क्यूँकि दूसरों की शादी पर ख़ुशी का इज़हार करना एक बहुत बड़ी आज़माइश है।

कंपनी हज़ा ने ग्राहकों के लिए ग़ज़लें किराये पर देने का भी फ़ैसला किया है। लेकिन कोई ग़ज़ल चौबीस घंटों से ज़्यादा अर्से के लिए अपने पास न रक्खी जाए क्यूँकि जब साइकिलें किराये पर दी जाती हैं तो उन्हें भी इसी शर्त के साथ किराये पर दिया जाता है।

ग्राहकों को ग़ज़लों की क़ीमत नक़द अदा करनी होगी क्यूँकि शोरा को उधार ग़ज़लें देना, दुनिया की सबसे बड़ी ग़लती है।

हम ने ग्राहकों की सहूलत की ख़ातिर पुरानी ग़ज़लों की रिपेरिंग का भी बंद-व-बस्त किया है लेकिन ये ग़ज़लें इतनी पुरानी,बोसीदा और शिकस्ता भी नहीं होनी चाहिएँ कि उनकी रिपेरिंग पर नई ग़ज़ल की लागत आ जाए।

एक बार फ़रोख़्त की हुई ग़ज़लें वापिस नहीं ली जाएंगी।अलबत्ता मुस्तअमील ग़ज़लें निस्फ़ क़ीमत पर ख़रीदी जाएंगी।

हम ने कंपनी के प्रास्पैक्टस को बग़ौर पढ़ा और मिस्टर अबदुर्रहीम वफ़ा से इजाज़त लेकर वापिस आ गए। अब हम अवाम की इत्तिला के लिए उसे शाए कर रहे हैं ताकि जो कोई भी साहब ख़्वाह मख़्वाह शायर बनने की तमन्ना रखते हों वो शायरी की इस बहती गंगा में हाथ धोलें और यूँ सारे पानी को गंदा कर दें।

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