गीदड़ की मौत आती है तो शहर की तरफ़ दौड़ता है, हमारी जो शामत आई तो एक दिन अपने पड़ोसी लाला कृपा शंकर जी ब्रहम्चारी से बर-सबील-ए-तज़किरा कह बैठे कि “ लाला जी इम्तिहान के दिन क़रीब आते जाते हैं । आप सहर ख़ेज़ हैं । ज़रा हमें भी सुबह जगा दिया कीजिए । ”
वो हज़रत भी मालूम होता है कि नफ़िलों के भूके बैठे थे । दूसरे दिन उठते ही उन्होने ईश्वर का नाम लेकर हमारे दरवाज़े पर मुक्का बाज़ी शुरू कर दी । कुछ देर तक तो हम समझे कि आलम-ए-ख़्वाब है । अभी से क्या फ़िक्र, जागेंगे तो लाहौल पढ़ लेंगे लेकिन यह गोला बारी लमहा-लमहा तेज़ होती गई और साहब जब कमरे की चौबी दीवारें लरज़ने लगीं, सुराही पर रखा हुआ गिलास जल तरंग की तरह बजने लगा और दीवार पर लटका हुआ कैलेन्डर पिंडोलम की तरह हिलने लगा तो बेदारी का क़ायल होना ही पड़ा । मगर अब दरवाज़ा है कि लगातार खटखटाया जा रहा है । मैं क्या मेरे आबा-व-अजदाद की रूहें और मेरी क़िस्मत-ए-ख़्वाबीदा तक जाग उठी होगी । बहुतेरा आवाज़ें देता हूँ ।
“ अच्छा....अच्छा ! ..... थैंक यू !......जाग गया हूँ....... बहुत अच्छा ! नवाज़िश है । ” आँ-जनाब हैं कि सुनते ही नहीं । ख़ुदाया ! किस आफ़त का सामना है ? ये सोते को जगा रहे हैं या मुर्दे को जिला रहे हैं ? और हज़रत-ए-ईसा भी तो बस वाजिबी तौर पर हलकी सी आवाज़ में “क़ुम” कह दिया करते थे । ज़िंदा हो गया तो हो गया नहीं तो छोड़ दिया । कोई मुर्दे के पीछे लठ ले के पड़ जाया करते थे ? तोपें थोड़ी दाग़ा करते थे ? पेश्तर इसके कि बिस्तर से बाहर निकलें दिल को जिस क़दर समझाना बुझाना पड़ता है, उस का अंदाज़ा कुछ अहल-ए-ज़ौक़ ही लगा सकते हैं । आख़िर-कार जब लैम्प जलाया और उनको बाहर से रौशनी नज़र आई तो तूफ़ान थमा ।
अब जो हम खिड़की में से आसमान को देखते हैं तो जनाब सितारे हैं कि जगमगा रहे हैं । सोचा कि आज पता चलाएँगे कि ये सूरज आख़िर किस तरह से निकलता है लेकिन जब घूम घूम कर खिड़की मे से और रौशन-दान में से चारों तरफ़ देखा और बुज़ुर्गों से सुबह-ए-काज़िब की जितनी निशानियाँ सुनी थीं उन में से एक भी कहीं नज़र न आई तो फ़िक्र सा लग गया कि आज कहीं सूरज ग्रहन न हो ? कुछ समझ में न आया तो पड़ोसी को आवाज़ दी :
“ लाला जी !.....लाला जी ! ”
जवाब आया “हूँ । ”
मैं ने कहा “ आज ये क्या बात है । कुछ अंधेरा अंधेरा सा है ? ”
कहने लगे “ तो और क्या तीन बजे ही सूरज निकल आए ? ”
तीन बजे का नाम सुन कर होश गुम हो गए । चौंक कर पूछा “ क्या कहा तुम ने ? तीन बजे हैं ? ”
कहने लगे “ तीन…..तो नहीं…..कुछ सात…….साढ़े सात….. मिनट ऊपर हैं । ”
मैंने कहा “ अरे कम्बख़्त ! ख़ुदाई फ़ौजदार,बद-तमीज़ कहीं के । मैंने तुझ से ये कहा था कि सुबह जगा देना या ये कहा था कि सिरे से सोने ही न देना । तीन बजे जागना भी कोई शराफ़त है ? हमें तूने कोई रेलवे गॉर्ड समझ रखा है ? तीन बजे हम उठ सका करते तो इस वक़्त हम दादा जान के मंज़ूर-ए-नज़र न होते ? अबे अहमक़ कहीं के, तीन बजे उठ कर हम ज़िंदा रह सकते हैं ? अमीर-ज़ादे हैं कोई मज़ाक़ है । लाहौल वला क़ुव्वत । ”
दिल तो चाहता था कि अद्म तशद्दुद-वशद्दुद को ख़ैरा-बाद कह दूँ लेकिन फिर ख़्याल आया कि बनी-नौ-इन्सान की इसलाह का ठेका कोई हमीं ने ले रखा है ? हमें अपने काम से ग़र्ज़ । लैम्प बुझाया और बड़-बड़ाते हुए फिर सो गए ।
और फिर हसब-ए-मामूल निहायत इत्मिनान के साथ भले आदमियों की तरह अपने दस बजे उठे । बारह बजे तक मुँह हाथ धोया और चार बजे चाय पी कर ठन्डी सड़क की सैर को निकल गए ।
शाम को वापस हॉस्टल में वारिद हुए । जोश-ए-शबाब तो है ही इस पर शाम का अरमान अंगेज़ वक़्त । हवा भी निहायत लतीफ़ थी । तबीयत भी ज़रा मचली हुई थी । हम ज़रा तरंग में गाते हुए कमरे में दाख़िल हुए कि
बलाएँ ज़ुल्फ-ए-जानाँ की अगर लेते तो हम लेते
कि इतने में पड़ोसी की आवाज़ आई “ मिस्टर ! ”
हम उस वक़्त ज़रा चुटकी बजाने लगे थे । बस उंगलियाँ वहीं पर रुक गईं और कान आवाज़ की तरफ़ लग गए । इरशाद हुआ “ ये आप गा रहे हैं ? ” (ज़ोर “ आप ” पर)
मैं ने कहा “ अजी मैं किस लायक़ हूँ लेकिन ख़ैर फ़रमाइए । ”
बोले “ ज़रा…..वो मैं….. मैं डिस्टर्ब होता हूँ । ”
बस साहब । हम में जो मौसीक़ियत की रूह पैदी हुई थी फ़ौरन मर गई । दिल ने कहा “ ओ ना-बकार इंसान । देख ! पढ़ने वाले यूँ पढ़ते हैं ।” साहब ख़ुदा के हुज़ूर में गिड़-गिड़ा कर दुआ मांगी कि “ ख़ुदाया हम भी अब बाक़ायदा मुताला शुरू करने वाले हैं । हमारी मदद कर और हमें हिम्मत दे । ”
आँसू पोंछ कर और दिल को मज़बूत कर के मेज़ के सामने आ बैठे । दाँत भेंच लिए, नकटाई खोल दी, आसतीनें चढ़ा लीं लेकिन कुछ समझ में न आया कि करें क्या ? सामने सुर्ख़, सब्ज़, ज़र्द सभी क़िस्म की किताबों का अंबार लगा हुआ था । अब उन में से कौन सी पढ़ें ? फ़ैसला ये हुआ कि पहले किताबों को तरतीब से मेज़ पर लगा दें कि बाक़ायदा मुताले की पहली मंज़िल यही है।
बड़ी तक़तीअ की किताबों को अलाहयदा रख दिया । छोटी तक़तीअ की किताबों को साईज़ के मुताबिक़ अलग क़तार में खड़ा कर दिया । एक नोट पेपर पर हर एक किताब के सफहों की तादाद लिख कर सब को जमा किया । फिर 15 अप्रैल तक के दिन गिने । सफहों की तादाद को दिनों की तादाद पर तक़सीम किया । साढ़े पाँच सौ जवाब आया लेकिन इज़तराब की क्या मजाल जो चेहरे पर ज़ाहिर होने पाए । दिल में कुछ थोड़ा सा पछताए कि सुबह तीन ही बजे क्यूँ न उठ बैठे, लेकिन कम-ख़्वाबी के तिब्बी पहलू पर ग़ौर किया तो फ़ौरन अपने आप को मलामत की । आख़िर कार इस नतीजे पर पहुँचे कि तीन बजे उठना तो ल्ग्व बात है । अलबत्ता पाँच, छे, सात बजे के क़रीब उठना निहायत माक़ूल होगा। सेहत भी क़ायम रहेगी। और इम्तिहान की तैयारी भी बाक़ायदा होगी । हम-खुरमा-व-हम-सवाब।
ये तो हम जानते हैं कि सवेरे उठना हो तो जल्दी ही सो जाना चाहिए खाना बाहर ही से खा आए थे । बिस्तर में दाखिल हो गए ।
चलते चलते ख़्याल आया कि लाला जी से जगाने के लिए कह ही न दें ? यूँ हमारी अपनी क़ुव्वत-ए-इरादी काफ़ी ज़बरदस्त है । जब चाहें उठ सकते हैं लेकिन फिर भी क्या हर्ज़ है । डरते डरते आवाज़ दी । “ लाला जी ! ”
उन्हों ने पत्थर खींच मारा “ यस !”
हम और भी सहम गए कि लाला जी कुछ नाराज़ मालूम होते हैं । तोतला के दरख़्वास्त की कि “ लाला जी ! सुबह आप को बड़ी तकलीफ़ हुई । मैं आप का बहुत ममनून हूँ । कल अगर ज़रा मुझे छे बजे यानी जिस वक़्क़त छे बजें.....”
जवाब नदारद।
मैं ने फिर कहा “जब छे बज चुकें तो.... सुना आप ने?”
चुप
“ लाला जी ”
कड़क्ती हुई आवाज़ ने जवाब दिया सुन लिया “ सुन लिया । छे बजे जगा दूँ गा । थ्री गामा प्लस फोर अलफा प्लस....”
हम ने कहा “ ब ब ब बहुत अच्छा । ये बात है । ”
तौबा । ख़ुदा किसी का मोहताज न करे ।
लाला जी आदमी बहुत शरीफ हैं । अपने वादे के मुताबिक़ दूसरे दिन छे बजे उन्होंने दरवाज़े पर घूसों की बारिश शुरू कर दी । उन का जगाना तो महज़ एक सहारा था । हम खुद ही इंतिज़ार में थे कि ये ख़्वाब ख़त्म हो ले तो बस जागते हैं । वो न जगाते तो मैं ख़ुद ही एक दो मिनट बाद आँखें खोल देता । बहर-सूरत जैसा कि मेरा फ़र्ज़ था मैं ने उन का शुक्रिया अदा किया । उन्होंने इस शक्ल में क़ुबूल किया कि गोला बारी बंद कर दी ।
इस के बाद के वाक़यात ज़रा बहस तलब से हैं और उन के मुताल्लिक़ रिवायात में किसी क़द्र इख़्तिलाफ़ है । बहर हाल इस बात का मुझे यक़ीन है और मैं क़सम भी खा सकता हूँ कि आँखें मैं ने खोल दी थीं । फिर ये भी याद है कि एक नेक और सच्चे मुसलमान की तरह कलमा-ए-शहादत भी पढ़ा । फिर ये भी याद है कि उठने से पेश्तर दिबाचे के तौर पर एक आध करवट भी ली । फिर का नहीं पता । शायद लिहाफ़ ऊपर से उतार दिया । शायद सर उस में लपेट दिया या शायद खाँसा कि ख़ुदा जाने ख़र्राटा लिया । ख़ैर ये तो यक़ीनी अम्र है कि दस बजे हम बिल्कुल जाग रहे थे , लेकिन लाला जी के जगाने के बाद और दस बजे से पेश्तर ख़ुदा जाने हम पढ़ रहे थे या शायद सो रहे थे । नहीं हमारा ख़्याल है पढ़ रहे थे या शायद सो रहे हों । बहर सूरत ये नफ़्सियात का मसला है जिस में न आप माहिर हैं न मैं । क्या पता लाला जी ने जगाया ही दस बजे हो या उस दिन छे देर में बजे हों । ख़ुदा के कामों में हम आप क्या दख़ल दे सकते हैं लेकिन हमारे दिल में दिन भर ये शुबा रहा कि क़ुसूर कुछ अपना ही मालूम होता है । जनाब शराफ़त मुलाहज़ा हो कि महज़ इस शुबे कि बिना पर सुबह से शाम तक ज़मीर की मलामत सुनता रहा और अपने आप को कोसता रहा । मगर लाला जी से हंस-हंस कर बातें कीं । उनका शुक्रिया अदा किया और इस ख़्याल से कि उन की दिल-शिकनी न हो । हद-दर्जे की तमानियत ज़ाहिर की कि आप की नवाज़िश से मैंने सुबह का सुहाना और रूह अफ्ज़ा वक़्त बहुत अच्छी तरह सर्फ़ किया, वरना और दिनों की तरह आज भी दस बजे उठता । “ लाला जी ! सुबह के वक़्त दिमाग़ क्या साफ़ होता है । जो पढ़ो ख़ुदा की क़सम फ़ौरन याद हो जाता है । भई ख़ुदा ने सुबह भी क्या अजीब चीज़ पैदा की है । यानी अगर सुबह के बजाए सुबह सुबह शाम हुआ करती तो दिन क्या बुरी तरह कटा करता। ”
लाला जी ने हमारी इस जादू बयानी की दाद यूँ दी कि पूछने लगे “ तो मैं आप को छे बजे जगा दिया करूँ ना ?”
मैं ने कहा “ हाँ हाँ । वाह ! ये भी कोई पूछने की बात है ? बे-शक। ”
शाम के वक़्त आने वाली सुबह के मुताले के लिए दो किताबें छाँट कर मेज़ पर अलाहदा जोड़ दीं, कुर्सी को चारपाई के क़रीब सरका लिया, ओवर-कोट और गुलू-बंद को कुर्सी की पुश्त पर आवेज़ाँ कर दिया, कंटोप और दस्ताने पास ही रख लिए, दिया सलाई को तकिए के नीचे टटोला, तीन दफ़ा आयतल-कुर्सी पढ़ी और दिल में निहायत ही नेक मंसूबे बांध कर सो गया ।
सुबह लाला जी की पहली दस्तक के साथ ही झट आँख खुल गई । निहायत ख़न्दा पेशानी के साथ लिहाफ़ की एक खिड़की में से उनको “ गुड मॉर्निंग किया ” और निहायत बे-दाराना लहजे में खाँसा । लाला जी मुतमईन हो कर वापस चले गए ।
हम ने अपनी हिम्मत और उलुल-अज़्मी को बहुत सराहा । आज हम फ़ौरन ही जाग उठे । दिल से कहा कि “ दिल भैया ! सुबह उठना तो महज़ ज़रा सी बात है हम यूँ ही इस से डरा करते थे । दिल ने कहा “ और क्या । तुम्हारे तो यूँ ही औसान ख़ता हो जाया करते हैं । ” हम ने कहा “ सच कहते हो यार । यानी अगर हम सुस्ती और कसालत को ख़ुद अपने क़रीब न आने दें तो उनकी क्या मजाल है कि हमारी बाक़ायदगी में ख़लल अंदाज़ हों । इस वक़्त इस लाहौर शहर में हज़ारों ऐसे काहिल लोग होंगे जो दुनिया-व-माफ़ीहा से बेख़बर नींद के मज़े उड़ाते होंगे और एक हम हैं कि अदा-ए-फ़र्ज़ की ख़ातिर निहायत शगुफ़्ता तबई और ग़ुंचा-ज़हनी से जाग रहे हैं । भई क्या बरख़ुरदार सआदत आसार वाक़े हुए हैं । ” नाक को सर्दी सी महसूस होने लगी तो उसे ज़रा यूँ ही सा लिहाफ़ की ओट में कर लिया और फिर सोचने लगे......“ ख़ूब ! तो हम आज क्या वक़्त पर जागे हैं । बस ज़रा इस की आदत हो जाए तो बाक़ायदा क़ुरआन-मजीद की तिलावत और फ़ज्र की नमाज़ भी शुरू कर दें । आख़िर मज़हब सब से मुक़द्दम है । हम भी क्या रोज़-ब-रोज़ इलहाद की तरफ माएल होते जाते हैं । न ख़ुदा का डर, न रसूल का ख़ौफ़ । समझते हैं कि बस अपनी मेहनत से इम्तिहान पास कर लेंगे । अकबर बेचारा यही कहता-कहता मर गया, लेकिन हमारे कान पर जूँ तक न चली.....” (लिहाफ़ कानो पर सरक आया) “….. तो गोया आज हम और लोगों से पहले जागे हैं....” बहुत ही पहले.....यानी कॉलेज शुरू होने से भी चार घंटे पहले.... क्या बात है ! ख़ुदावंद, कॉलेज वाले भी किस क़द्र सुस्त हैं । हर एक मुसतईद इंसान को छे बजे तक कतई जाग उठना चाहिए । समझ में नहीं आता कि कॉलेज सात बजे क्यूँ न शुरू हुआ करे......” (लिहाफ सर पर) “…..बात ये है कि तहज़ीब-ए-जदीद हमारी तमाम आला क़ुव्वतों की बेख़-कुनी कर रही है । ऐश-पसंदी रोज़-ब-रोज़ बढ़ती जाती है....” (आँखें बंद) “तो अब छे बजे हैं । तो गोया तीन घंटे तो मुतवातिर मुताला किया जा सकता है । सवाल सिर्फ़ ये है कि पहले कौन सी किताब पढ़ें शेक्सपियर या वर्ड्सवर्थ ? मैं जानूँ शेक्सपियर बेहतर होगा । उसकी अज़ीमुश्शान तसानीफ़ में ख़ुदा की अज़मत के आसार दिखाई देते हैं और सुबह के वक़्त अल्लाह मियाँ की याद से बेहतर और क्या चीज़ हो सकती है ? ” फिर ख़्याल आया कि दिन को जज़्बात के महशरिस्तान से शुरू करना ठीक फ़लसफ़ा नहीं । वर्ड्सवर्थ पढ़ें । इस के औराक़ में फ़ितरत को सुकून-व-इत्मिनान मयस्सर होगा और दिल-व-दिमाग़ नेचर की ख़ामोश दिल-आवेज़ियों से हलके-हलके लुत्फ़ अंदोज़ होंगे.....लेकिन शेक्सपियर.....नहीं वर्ड्सवर्थ ही ठीक रहेगा....शेक्सपियर......हेमलेट.....लेकिन वर्ड्सवर्थ.... लेडी मैकबेथ..... दीवानगी.....सब्ज़ा-ज़ार.....संजर-संजर.....बाद-ए-बहारी....सैद-ए-हवस.....कश्मीर..... मैं आफ़त का पुरकाला हूँ.....।
ये मुअम्मा अब फ़लसफ़ा माबादूत-तबियात ही से तअल्लुक़ रखता है कि फिर जो हम ने लिहाफ़ से सर बाहर निकला और वर्ड्सवर्थ पढ़ने का इरादा किया तो वही दस बज रहे थे । इस में न मालूम क्या भेद है !
कॉलेज हॉल में लाला जी मिले । कहने लगे “मिस्टर ! सुबह मैं ने फिर आप को आवाज़ दी थी । आप ने जवाब न दिया । ”
मैं ने ज़ोर का क़हक़हा लगा कर कहा । “ ओ हो ! लाला जी याद नहीं । मैं ने आप को गुड-मॉर्निंग कहा था । मैं तो पहले ही से जाग रहा था । ”
बोले “ वो तो ठीक है लेकिन बाद में.....उस के बाद.....कोई सात बजे के क़रीब मैं ने आप से तारीख़ पूछी थी । आप बोले ही नहीं । ”
हमने निहायत ताज्जुब की नज़रों से उनको देखा । गोया वो पागल हो गए हैं और फिर ज़रा मतीन चेहरा बना कर माथे पर तेवरी चढ़ाए गौर-व-फ़िक्र में मसरूफ़ हो गए । एक आध मिनट तक हम इस तअम्मुक़ मे रहे । फिर यकायक एक महजूबाना और माशूक़ाना अंदाज़ से मुसकुरा के कहा “ हाँ ठीक है । ठीक है । मैं इस वक़्त……ए…..ए……नमाज़ पढ़ रहा था ।
लाला जी मर-ऊब हो कर चल दिए और हम ने ज़हद-व-तक़वा की तसकीनी में सर नीचा किए कमरे की तरफ चले आए ।
अब यही हमारा रोज़-मर्रा का मामूल हो गया है । जागना नम्बर एक छे बजे, जागना नम्बर दो दस बजे । इस दौरान लाला जी आवाज़े दें तो नमाज़ !
जब दिल-ए-मरहूम एक जहान-ए-आरज़ू था तो यूँ जागने की तमन्ना किया करते थे कि “ हमारा फ़र्क़-ए-नाज़ मह-वे-बालिश –ए-कमख़्वाब ” हो और सूरज की पहली किरनें हमारे स्याह पुर-पेच बालों पर पड़ रही हों । कमरे में फूलों की बू-ए-सहरी की रूह अफ़जाईयाँ कर रही हो । नाज़ुक और हसीन हाथ अपनी उंगलियों से बरब् के तारों को हल्के-हल्के छेड़ रहे हों और इश्क़ में डूबी हुई सुरीली और नाज़ुक आवाज़ मुस्कुराती हुई गा रही हो ।
“ तुम जागो मोहन प्यारे ”
ख़्वाब की सुनहरी धुंध आहिस्ता-आहिस्ता मौसीक़ी की लहरों में तहलील हो जाए और बेदारी एक ख़ुश-गवार तिलिस्म की तरह तारीकी के बारीक नक़ाब को ख़ामोशी से पारा-पारा कर दे । चेहरा किसी की निगाह-ए-इश्तियाक़ की गर्मी महसूस कर रहा हो । आँखें मसहूर हो कर खुलें और चार हो जाएँ । दिल-आवेज़ तबस्सुम सुबह को और भी दरख़्शिंदा कर दे और गीत “ सांवरी सूरत तोरी मन को भायी ” के साथ ही शर्म-व-हिजाब में डूब जाए ।
नसीब ये है कि पहले “ मिस्टर ! मिस्टर ” की आवाज़ और दरवाज़े की दनादन सामे-नवाज़ी करती है और फिर चार घंटे बाद कॉलेज का घड़ियाल दिमाग़ के रेशे-रेशे में दस बजाना शुरू कर देता है और उस चार घंटे के अरसे मे गुड़वयों के गिड़ पड़ने, देगचियों के उलट जाने, दरवाज़ो के बंद होने, किताबो के झाड़ने, कुर्सियों के घसीटने, कुल्लीयां और ग़ुर ग़ुर करने, खँखारने और खाँसने की आवाज़ें तो गोया फ़िल-बदीह ठुमरियाँ हैं । अंदाज़ा कर लीजिए कि उन साज़ों में सुर-ताल की किस क़द्र गुंजाईश है ।
मौत मुझ को दिखाई देती है
जब तबीयत को देखता हूँ मै
वो हज़रत भी मालूम होता है कि नफ़िलों के भूके बैठे थे । दूसरे दिन उठते ही उन्होने ईश्वर का नाम लेकर हमारे दरवाज़े पर मुक्का बाज़ी शुरू कर दी । कुछ देर तक तो हम समझे कि आलम-ए-ख़्वाब है । अभी से क्या फ़िक्र, जागेंगे तो लाहौल पढ़ लेंगे लेकिन यह गोला बारी लमहा-लमहा तेज़ होती गई और साहब जब कमरे की चौबी दीवारें लरज़ने लगीं, सुराही पर रखा हुआ गिलास जल तरंग की तरह बजने लगा और दीवार पर लटका हुआ कैलेन्डर पिंडोलम की तरह हिलने लगा तो बेदारी का क़ायल होना ही पड़ा । मगर अब दरवाज़ा है कि लगातार खटखटाया जा रहा है । मैं क्या मेरे आबा-व-अजदाद की रूहें और मेरी क़िस्मत-ए-ख़्वाबीदा तक जाग उठी होगी । बहुतेरा आवाज़ें देता हूँ ।
“ अच्छा....अच्छा ! ..... थैंक यू !......जाग गया हूँ....... बहुत अच्छा ! नवाज़िश है । ” आँ-जनाब हैं कि सुनते ही नहीं । ख़ुदाया ! किस आफ़त का सामना है ? ये सोते को जगा रहे हैं या मुर्दे को जिला रहे हैं ? और हज़रत-ए-ईसा भी तो बस वाजिबी तौर पर हलकी सी आवाज़ में “क़ुम” कह दिया करते थे । ज़िंदा हो गया तो हो गया नहीं तो छोड़ दिया । कोई मुर्दे के पीछे लठ ले के पड़ जाया करते थे ? तोपें थोड़ी दाग़ा करते थे ? पेश्तर इसके कि बिस्तर से बाहर निकलें दिल को जिस क़दर समझाना बुझाना पड़ता है, उस का अंदाज़ा कुछ अहल-ए-ज़ौक़ ही लगा सकते हैं । आख़िर-कार जब लैम्प जलाया और उनको बाहर से रौशनी नज़र आई तो तूफ़ान थमा ।
अब जो हम खिड़की में से आसमान को देखते हैं तो जनाब सितारे हैं कि जगमगा रहे हैं । सोचा कि आज पता चलाएँगे कि ये सूरज आख़िर किस तरह से निकलता है लेकिन जब घूम घूम कर खिड़की मे से और रौशन-दान में से चारों तरफ़ देखा और बुज़ुर्गों से सुबह-ए-काज़िब की जितनी निशानियाँ सुनी थीं उन में से एक भी कहीं नज़र न आई तो फ़िक्र सा लग गया कि आज कहीं सूरज ग्रहन न हो ? कुछ समझ में न आया तो पड़ोसी को आवाज़ दी :
“ लाला जी !.....लाला जी ! ”
जवाब आया “हूँ । ”
मैं ने कहा “ आज ये क्या बात है । कुछ अंधेरा अंधेरा सा है ? ”
कहने लगे “ तो और क्या तीन बजे ही सूरज निकल आए ? ”
तीन बजे का नाम सुन कर होश गुम हो गए । चौंक कर पूछा “ क्या कहा तुम ने ? तीन बजे हैं ? ”
कहने लगे “ तीन…..तो नहीं…..कुछ सात…….साढ़े सात….. मिनट ऊपर हैं । ”
मैंने कहा “ अरे कम्बख़्त ! ख़ुदाई फ़ौजदार,बद-तमीज़ कहीं के । मैंने तुझ से ये कहा था कि सुबह जगा देना या ये कहा था कि सिरे से सोने ही न देना । तीन बजे जागना भी कोई शराफ़त है ? हमें तूने कोई रेलवे गॉर्ड समझ रखा है ? तीन बजे हम उठ सका करते तो इस वक़्त हम दादा जान के मंज़ूर-ए-नज़र न होते ? अबे अहमक़ कहीं के, तीन बजे उठ कर हम ज़िंदा रह सकते हैं ? अमीर-ज़ादे हैं कोई मज़ाक़ है । लाहौल वला क़ुव्वत । ”
दिल तो चाहता था कि अद्म तशद्दुद-वशद्दुद को ख़ैरा-बाद कह दूँ लेकिन फिर ख़्याल आया कि बनी-नौ-इन्सान की इसलाह का ठेका कोई हमीं ने ले रखा है ? हमें अपने काम से ग़र्ज़ । लैम्प बुझाया और बड़-बड़ाते हुए फिर सो गए ।
और फिर हसब-ए-मामूल निहायत इत्मिनान के साथ भले आदमियों की तरह अपने दस बजे उठे । बारह बजे तक मुँह हाथ धोया और चार बजे चाय पी कर ठन्डी सड़क की सैर को निकल गए ।
शाम को वापस हॉस्टल में वारिद हुए । जोश-ए-शबाब तो है ही इस पर शाम का अरमान अंगेज़ वक़्त । हवा भी निहायत लतीफ़ थी । तबीयत भी ज़रा मचली हुई थी । हम ज़रा तरंग में गाते हुए कमरे में दाख़िल हुए कि
बलाएँ ज़ुल्फ-ए-जानाँ की अगर लेते तो हम लेते
कि इतने में पड़ोसी की आवाज़ आई “ मिस्टर ! ”
हम उस वक़्त ज़रा चुटकी बजाने लगे थे । बस उंगलियाँ वहीं पर रुक गईं और कान आवाज़ की तरफ़ लग गए । इरशाद हुआ “ ये आप गा रहे हैं ? ” (ज़ोर “ आप ” पर)
मैं ने कहा “ अजी मैं किस लायक़ हूँ लेकिन ख़ैर फ़रमाइए । ”
बोले “ ज़रा…..वो मैं….. मैं डिस्टर्ब होता हूँ । ”
बस साहब । हम में जो मौसीक़ियत की रूह पैदी हुई थी फ़ौरन मर गई । दिल ने कहा “ ओ ना-बकार इंसान । देख ! पढ़ने वाले यूँ पढ़ते हैं ।” साहब ख़ुदा के हुज़ूर में गिड़-गिड़ा कर दुआ मांगी कि “ ख़ुदाया हम भी अब बाक़ायदा मुताला शुरू करने वाले हैं । हमारी मदद कर और हमें हिम्मत दे । ”
आँसू पोंछ कर और दिल को मज़बूत कर के मेज़ के सामने आ बैठे । दाँत भेंच लिए, नकटाई खोल दी, आसतीनें चढ़ा लीं लेकिन कुछ समझ में न आया कि करें क्या ? सामने सुर्ख़, सब्ज़, ज़र्द सभी क़िस्म की किताबों का अंबार लगा हुआ था । अब उन में से कौन सी पढ़ें ? फ़ैसला ये हुआ कि पहले किताबों को तरतीब से मेज़ पर लगा दें कि बाक़ायदा मुताले की पहली मंज़िल यही है।
बड़ी तक़तीअ की किताबों को अलाहयदा रख दिया । छोटी तक़तीअ की किताबों को साईज़ के मुताबिक़ अलग क़तार में खड़ा कर दिया । एक नोट पेपर पर हर एक किताब के सफहों की तादाद लिख कर सब को जमा किया । फिर 15 अप्रैल तक के दिन गिने । सफहों की तादाद को दिनों की तादाद पर तक़सीम किया । साढ़े पाँच सौ जवाब आया लेकिन इज़तराब की क्या मजाल जो चेहरे पर ज़ाहिर होने पाए । दिल में कुछ थोड़ा सा पछताए कि सुबह तीन ही बजे क्यूँ न उठ बैठे, लेकिन कम-ख़्वाबी के तिब्बी पहलू पर ग़ौर किया तो फ़ौरन अपने आप को मलामत की । आख़िर कार इस नतीजे पर पहुँचे कि तीन बजे उठना तो ल्ग्व बात है । अलबत्ता पाँच, छे, सात बजे के क़रीब उठना निहायत माक़ूल होगा। सेहत भी क़ायम रहेगी। और इम्तिहान की तैयारी भी बाक़ायदा होगी । हम-खुरमा-व-हम-सवाब।
ये तो हम जानते हैं कि सवेरे उठना हो तो जल्दी ही सो जाना चाहिए खाना बाहर ही से खा आए थे । बिस्तर में दाखिल हो गए ।
चलते चलते ख़्याल आया कि लाला जी से जगाने के लिए कह ही न दें ? यूँ हमारी अपनी क़ुव्वत-ए-इरादी काफ़ी ज़बरदस्त है । जब चाहें उठ सकते हैं लेकिन फिर भी क्या हर्ज़ है । डरते डरते आवाज़ दी । “ लाला जी ! ”
उन्हों ने पत्थर खींच मारा “ यस !”
हम और भी सहम गए कि लाला जी कुछ नाराज़ मालूम होते हैं । तोतला के दरख़्वास्त की कि “ लाला जी ! सुबह आप को बड़ी तकलीफ़ हुई । मैं आप का बहुत ममनून हूँ । कल अगर ज़रा मुझे छे बजे यानी जिस वक़्क़त छे बजें.....”
जवाब नदारद।
मैं ने फिर कहा “जब छे बज चुकें तो.... सुना आप ने?”
चुप
“ लाला जी ”
कड़क्ती हुई आवाज़ ने जवाब दिया सुन लिया “ सुन लिया । छे बजे जगा दूँ गा । थ्री गामा प्लस फोर अलफा प्लस....”
हम ने कहा “ ब ब ब बहुत अच्छा । ये बात है । ”
तौबा । ख़ुदा किसी का मोहताज न करे ।
लाला जी आदमी बहुत शरीफ हैं । अपने वादे के मुताबिक़ दूसरे दिन छे बजे उन्होंने दरवाज़े पर घूसों की बारिश शुरू कर दी । उन का जगाना तो महज़ एक सहारा था । हम खुद ही इंतिज़ार में थे कि ये ख़्वाब ख़त्म हो ले तो बस जागते हैं । वो न जगाते तो मैं ख़ुद ही एक दो मिनट बाद आँखें खोल देता । बहर-सूरत जैसा कि मेरा फ़र्ज़ था मैं ने उन का शुक्रिया अदा किया । उन्होंने इस शक्ल में क़ुबूल किया कि गोला बारी बंद कर दी ।
इस के बाद के वाक़यात ज़रा बहस तलब से हैं और उन के मुताल्लिक़ रिवायात में किसी क़द्र इख़्तिलाफ़ है । बहर हाल इस बात का मुझे यक़ीन है और मैं क़सम भी खा सकता हूँ कि आँखें मैं ने खोल दी थीं । फिर ये भी याद है कि एक नेक और सच्चे मुसलमान की तरह कलमा-ए-शहादत भी पढ़ा । फिर ये भी याद है कि उठने से पेश्तर दिबाचे के तौर पर एक आध करवट भी ली । फिर का नहीं पता । शायद लिहाफ़ ऊपर से उतार दिया । शायद सर उस में लपेट दिया या शायद खाँसा कि ख़ुदा जाने ख़र्राटा लिया । ख़ैर ये तो यक़ीनी अम्र है कि दस बजे हम बिल्कुल जाग रहे थे , लेकिन लाला जी के जगाने के बाद और दस बजे से पेश्तर ख़ुदा जाने हम पढ़ रहे थे या शायद सो रहे थे । नहीं हमारा ख़्याल है पढ़ रहे थे या शायद सो रहे हों । बहर सूरत ये नफ़्सियात का मसला है जिस में न आप माहिर हैं न मैं । क्या पता लाला जी ने जगाया ही दस बजे हो या उस दिन छे देर में बजे हों । ख़ुदा के कामों में हम आप क्या दख़ल दे सकते हैं लेकिन हमारे दिल में दिन भर ये शुबा रहा कि क़ुसूर कुछ अपना ही मालूम होता है । जनाब शराफ़त मुलाहज़ा हो कि महज़ इस शुबे कि बिना पर सुबह से शाम तक ज़मीर की मलामत सुनता रहा और अपने आप को कोसता रहा । मगर लाला जी से हंस-हंस कर बातें कीं । उनका शुक्रिया अदा किया और इस ख़्याल से कि उन की दिल-शिकनी न हो । हद-दर्जे की तमानियत ज़ाहिर की कि आप की नवाज़िश से मैंने सुबह का सुहाना और रूह अफ्ज़ा वक़्त बहुत अच्छी तरह सर्फ़ किया, वरना और दिनों की तरह आज भी दस बजे उठता । “ लाला जी ! सुबह के वक़्त दिमाग़ क्या साफ़ होता है । जो पढ़ो ख़ुदा की क़सम फ़ौरन याद हो जाता है । भई ख़ुदा ने सुबह भी क्या अजीब चीज़ पैदा की है । यानी अगर सुबह के बजाए सुबह सुबह शाम हुआ करती तो दिन क्या बुरी तरह कटा करता। ”
लाला जी ने हमारी इस जादू बयानी की दाद यूँ दी कि पूछने लगे “ तो मैं आप को छे बजे जगा दिया करूँ ना ?”
मैं ने कहा “ हाँ हाँ । वाह ! ये भी कोई पूछने की बात है ? बे-शक। ”
शाम के वक़्त आने वाली सुबह के मुताले के लिए दो किताबें छाँट कर मेज़ पर अलाहदा जोड़ दीं, कुर्सी को चारपाई के क़रीब सरका लिया, ओवर-कोट और गुलू-बंद को कुर्सी की पुश्त पर आवेज़ाँ कर दिया, कंटोप और दस्ताने पास ही रख लिए, दिया सलाई को तकिए के नीचे टटोला, तीन दफ़ा आयतल-कुर्सी पढ़ी और दिल में निहायत ही नेक मंसूबे बांध कर सो गया ।
सुबह लाला जी की पहली दस्तक के साथ ही झट आँख खुल गई । निहायत ख़न्दा पेशानी के साथ लिहाफ़ की एक खिड़की में से उनको “ गुड मॉर्निंग किया ” और निहायत बे-दाराना लहजे में खाँसा । लाला जी मुतमईन हो कर वापस चले गए ।
हम ने अपनी हिम्मत और उलुल-अज़्मी को बहुत सराहा । आज हम फ़ौरन ही जाग उठे । दिल से कहा कि “ दिल भैया ! सुबह उठना तो महज़ ज़रा सी बात है हम यूँ ही इस से डरा करते थे । दिल ने कहा “ और क्या । तुम्हारे तो यूँ ही औसान ख़ता हो जाया करते हैं । ” हम ने कहा “ सच कहते हो यार । यानी अगर हम सुस्ती और कसालत को ख़ुद अपने क़रीब न आने दें तो उनकी क्या मजाल है कि हमारी बाक़ायदगी में ख़लल अंदाज़ हों । इस वक़्त इस लाहौर शहर में हज़ारों ऐसे काहिल लोग होंगे जो दुनिया-व-माफ़ीहा से बेख़बर नींद के मज़े उड़ाते होंगे और एक हम हैं कि अदा-ए-फ़र्ज़ की ख़ातिर निहायत शगुफ़्ता तबई और ग़ुंचा-ज़हनी से जाग रहे हैं । भई क्या बरख़ुरदार सआदत आसार वाक़े हुए हैं । ” नाक को सर्दी सी महसूस होने लगी तो उसे ज़रा यूँ ही सा लिहाफ़ की ओट में कर लिया और फिर सोचने लगे......“ ख़ूब ! तो हम आज क्या वक़्त पर जागे हैं । बस ज़रा इस की आदत हो जाए तो बाक़ायदा क़ुरआन-मजीद की तिलावत और फ़ज्र की नमाज़ भी शुरू कर दें । आख़िर मज़हब सब से मुक़द्दम है । हम भी क्या रोज़-ब-रोज़ इलहाद की तरफ माएल होते जाते हैं । न ख़ुदा का डर, न रसूल का ख़ौफ़ । समझते हैं कि बस अपनी मेहनत से इम्तिहान पास कर लेंगे । अकबर बेचारा यही कहता-कहता मर गया, लेकिन हमारे कान पर जूँ तक न चली.....” (लिहाफ़ कानो पर सरक आया) “….. तो गोया आज हम और लोगों से पहले जागे हैं....” बहुत ही पहले.....यानी कॉलेज शुरू होने से भी चार घंटे पहले.... क्या बात है ! ख़ुदावंद, कॉलेज वाले भी किस क़द्र सुस्त हैं । हर एक मुसतईद इंसान को छे बजे तक कतई जाग उठना चाहिए । समझ में नहीं आता कि कॉलेज सात बजे क्यूँ न शुरू हुआ करे......” (लिहाफ सर पर) “…..बात ये है कि तहज़ीब-ए-जदीद हमारी तमाम आला क़ुव्वतों की बेख़-कुनी कर रही है । ऐश-पसंदी रोज़-ब-रोज़ बढ़ती जाती है....” (आँखें बंद) “तो अब छे बजे हैं । तो गोया तीन घंटे तो मुतवातिर मुताला किया जा सकता है । सवाल सिर्फ़ ये है कि पहले कौन सी किताब पढ़ें शेक्सपियर या वर्ड्सवर्थ ? मैं जानूँ शेक्सपियर बेहतर होगा । उसकी अज़ीमुश्शान तसानीफ़ में ख़ुदा की अज़मत के आसार दिखाई देते हैं और सुबह के वक़्त अल्लाह मियाँ की याद से बेहतर और क्या चीज़ हो सकती है ? ” फिर ख़्याल आया कि दिन को जज़्बात के महशरिस्तान से शुरू करना ठीक फ़लसफ़ा नहीं । वर्ड्सवर्थ पढ़ें । इस के औराक़ में फ़ितरत को सुकून-व-इत्मिनान मयस्सर होगा और दिल-व-दिमाग़ नेचर की ख़ामोश दिल-आवेज़ियों से हलके-हलके लुत्फ़ अंदोज़ होंगे.....लेकिन शेक्सपियर.....नहीं वर्ड्सवर्थ ही ठीक रहेगा....शेक्सपियर......हेमलेट.....लेकिन वर्ड्सवर्थ.... लेडी मैकबेथ..... दीवानगी.....सब्ज़ा-ज़ार.....संजर-संजर.....बाद-ए-बहारी....सैद-ए-हवस.....कश्मीर..... मैं आफ़त का पुरकाला हूँ.....।
ये मुअम्मा अब फ़लसफ़ा माबादूत-तबियात ही से तअल्लुक़ रखता है कि फिर जो हम ने लिहाफ़ से सर बाहर निकला और वर्ड्सवर्थ पढ़ने का इरादा किया तो वही दस बज रहे थे । इस में न मालूम क्या भेद है !
कॉलेज हॉल में लाला जी मिले । कहने लगे “मिस्टर ! सुबह मैं ने फिर आप को आवाज़ दी थी । आप ने जवाब न दिया । ”
मैं ने ज़ोर का क़हक़हा लगा कर कहा । “ ओ हो ! लाला जी याद नहीं । मैं ने आप को गुड-मॉर्निंग कहा था । मैं तो पहले ही से जाग रहा था । ”
बोले “ वो तो ठीक है लेकिन बाद में.....उस के बाद.....कोई सात बजे के क़रीब मैं ने आप से तारीख़ पूछी थी । आप बोले ही नहीं । ”
हमने निहायत ताज्जुब की नज़रों से उनको देखा । गोया वो पागल हो गए हैं और फिर ज़रा मतीन चेहरा बना कर माथे पर तेवरी चढ़ाए गौर-व-फ़िक्र में मसरूफ़ हो गए । एक आध मिनट तक हम इस तअम्मुक़ मे रहे । फिर यकायक एक महजूबाना और माशूक़ाना अंदाज़ से मुसकुरा के कहा “ हाँ ठीक है । ठीक है । मैं इस वक़्त……ए…..ए……नमाज़ पढ़ रहा था ।
लाला जी मर-ऊब हो कर चल दिए और हम ने ज़हद-व-तक़वा की तसकीनी में सर नीचा किए कमरे की तरफ चले आए ।
अब यही हमारा रोज़-मर्रा का मामूल हो गया है । जागना नम्बर एक छे बजे, जागना नम्बर दो दस बजे । इस दौरान लाला जी आवाज़े दें तो नमाज़ !
जब दिल-ए-मरहूम एक जहान-ए-आरज़ू था तो यूँ जागने की तमन्ना किया करते थे कि “ हमारा फ़र्क़-ए-नाज़ मह-वे-बालिश –ए-कमख़्वाब ” हो और सूरज की पहली किरनें हमारे स्याह पुर-पेच बालों पर पड़ रही हों । कमरे में फूलों की बू-ए-सहरी की रूह अफ़जाईयाँ कर रही हो । नाज़ुक और हसीन हाथ अपनी उंगलियों से बरब् के तारों को हल्के-हल्के छेड़ रहे हों और इश्क़ में डूबी हुई सुरीली और नाज़ुक आवाज़ मुस्कुराती हुई गा रही हो ।
“ तुम जागो मोहन प्यारे ”
ख़्वाब की सुनहरी धुंध आहिस्ता-आहिस्ता मौसीक़ी की लहरों में तहलील हो जाए और बेदारी एक ख़ुश-गवार तिलिस्म की तरह तारीकी के बारीक नक़ाब को ख़ामोशी से पारा-पारा कर दे । चेहरा किसी की निगाह-ए-इश्तियाक़ की गर्मी महसूस कर रहा हो । आँखें मसहूर हो कर खुलें और चार हो जाएँ । दिल-आवेज़ तबस्सुम सुबह को और भी दरख़्शिंदा कर दे और गीत “ सांवरी सूरत तोरी मन को भायी ” के साथ ही शर्म-व-हिजाब में डूब जाए ।
नसीब ये है कि पहले “ मिस्टर ! मिस्टर ” की आवाज़ और दरवाज़े की दनादन सामे-नवाज़ी करती है और फिर चार घंटे बाद कॉलेज का घड़ियाल दिमाग़ के रेशे-रेशे में दस बजाना शुरू कर देता है और उस चार घंटे के अरसे मे गुड़वयों के गिड़ पड़ने, देगचियों के उलट जाने, दरवाज़ो के बंद होने, किताबो के झाड़ने, कुर्सियों के घसीटने, कुल्लीयां और ग़ुर ग़ुर करने, खँखारने और खाँसने की आवाज़ें तो गोया फ़िल-बदीह ठुमरियाँ हैं । अंदाज़ा कर लीजिए कि उन साज़ों में सुर-ताल की किस क़द्र गुंजाईश है ।
मौत मुझ को दिखाई देती है
जब तबीयत को देखता हूँ मै
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