Monday, 13 February 2017

हम भी साहिब-ए-जाइदाद हो गए / शफ़ीक़ा फ़रहत

क़र्ज़ की मय तो नहीं अलबत्ता चाय ज़रूर पीते थे(क्यूँ कि ग़ालिब से अज़ली और अबदी रिश्ता है।!)और जानते थे कि एक दिन ये फ़ाक़ा मस्ती,जिसमें से अब मस्ती भी ग़ायब होती जा रही है,ज़रूर रंग लाएगी।!

तो साहब वो रंग लाई और ऐसा चोखा कि हमारी ऐनक ज़दा आँखें भी चकाचोनद हो गईं।!वाक़िया किसी साल के किसी महीने की किसी तारीख़ का है कि हमारी एक दोस्त ने शैतान-ए-आज़म का रोल अदा किया।यानी हमें वरग़ला कर अपने घर ले गईं।अभी तसव्वुराती इतमिनान का रिवायती सांस भी नहीं लिया था कि इत्तिला मिली हमारे कबूतर ख़ाने का,जिसे उर्फ़-ए-ख़ास में दौलत ख़ाना (अगरचे दौलत सिरे से मफ़क़ूद है) कहा जाता है,ताला तोड़ दिया गया है।

घर पहुंचते-पहुंचते पूरी एक क़ौम ताज़ियत करने और पसमांदगान को सब्र की तलक़ीन करने जमा हो गई।इन सब को हमने इतमिनान दिलाया कि अव्वल तो हमारे ताला अज़ल से ही से टूटा हुआ था।ये हमारे हाथ की सफ़ाई थी जिस से इसका भ्रम क़ायम था।यानी उसे हम इस फ़नकाराना ख़ूबी से चिपका देते थे कि वो बंद मालूम होने लगता था! इसलिए इस वारदात को “ताला तोड़ने” का नाम नहीं दिया जा सकता।

और दूसरे ये कि दिन को इस तरह लुटने से रात को चोरी का ख़दशा न रहा।!!

और फिर घर की ये हालत कि जब-जब कोई आता हमें निहायत ही फ़लसफ़ियाना और राहिबाना अंदाज़ में पोज़ बना कर कहना पड़ता।

“आज ही घर में बोरिया न हुआ!”

ले दे के जूते के पुराने डिब्बे से मुशाबेह एक रेडियो था जिसमें हर वो स्टेशन लग जाता जिसे आप ना लगाना चाहते हों।!और जिस में बयैक-वक़्त आधे पौन दर्जन स्टेशन सुने जा सकते थे।रेडियो सीलोन के व्यपार विभाग से फ़िल्म“प्रेम की बुलबुल”की कहानी,आकाशवाणी के पंच रंगी प्रोग्राम विविध भारती से फ़िल्मी गाने,रेडियो पाकिस्तान से अरबी फ़ारसी में ख़बरें,बंबई से ड्रामा,मद्रास से तमील में आ।और जालंधर से बल्ले-बल्ले।और जब ये नुक़्ता-ए-उरूज पर होते तो ऐसा मालूम होता किसी मैदान-ए-जंग से बमबारी का आँखों देखा और कानों सुनाया जा रहा हो।

और एक घड़ी थी जो मुम्किन है किसी ज़माने में घड़ी रही हो।लेकिन अब उसमें इस क़िस्म के कोई जरासीम नहीं पाए जाते थे।

तो साहब जब मनक़ूला और ग़ैर-मनक़ूला जाइदाद की ज़ुबूँहाली का ये आलम हो तो चोरी का क्या ग़म!ग़म था तो सिर्फ़ इस बात का कि ग़रीब ने घर की एक-एक चीज़ उलटने पलटने में कितनी मेहनत की और उसे वापसी के लिए बस का किराया तक न मिल सका।!भला वो अपने दिल में क्या सोचता होगा।इस से ज़्यादा बे-इज़्ज़ती की बात और क्या हो सकती है---?कहीं कुल कलाँ को वो उल्टा हमें ही मनी आर्डर न भेज दे! या अखिल भारतीय चोर सभा बना कर हम जैसे लोगों की फ़लाह-व-बहबूद के ज़राए न सोचने लगे।

ख़ैर जो हुआ सो हुआ। मगर अब ऐसे आड़े वक़्तों के लिए कि जब घर की इज़्ज़त पर बन जाए हमें कुछ न कुछ बचाए रखना चाहिए।हमारी आमदनी और ख़र्च का हिसाब कुछ ऐसा तरक़्क़ी पसंदाना था कि हज़ार एकाउंटेंट रक्खे जाने और सैकड़ों कमीशन बिठाए जाते तब भी उनकी एक दूसरे से दोस्ती न होती।इसलिए हिसाब किताब करना या बजट बनाना ऐसा ही था जैसे यू.एन.ओ.में कश्मीर का मसला उठाना। इस झंझट में पड़ने के बजाए हमने अपने VETO पावर से काम लेते हुए न आओ,न आगा न पीछा झट सौ रुपये उठा के ऐसी जगह रखवा दिए जहाँ वो हमारे लिए भी अजनबी बन गए।!

चार,पाँच रोज़ बख़ैर ख़ूबी गुज़र गए और हमें अपने सौ रूपों की जुदाई का क़तई एहसास न हुआ।बल्कि हम ख़ासा फ़ख़्र महसूस कर रहे थे कि हम भी साहिब-ए-जाइदाद हो गए! अगर दिन में एक ख़ास तनाव और चाल में राऊनत पैदा हो गई--- और रावी तो यहाँ तक कहता है कि लब-व-लहजे में भी इन्क़िलाब आ गया--!हम जो पहले हर वक़्त अपने जैसे फक्कड़ लोगों के साथ गप्पें हाँका करते थे और वो क़हक़हे लगाते थे जो गज़ों और मीलों तक सुने जा सकते थे।अब सिर्फ़ ज़ेर-ए-लब तबस्सुम (कि जिस में तबस्सुम कम और मितानत ज़्यादा होती है) से काम चलाया करते। और इस फक्कड़ क़ौम के साथ बैठना और गप्पें हाँकना तो अब अहद-ए-पारीना की दास्तान बन चुका था।गो इस तबदीली का हम पर ये असर हुआ कि कई दिनों तक गर्दन,ज़बान,जबड़े,होंट और पेट में शिद्दत का दर्द होता रहा।तबीयत गिरी-गिरी रही।किसी काम में दिल न लगता था क्या करते मजबूर थे कि साहिब-ए-जाइदाद तबक़े का शेवा यही है!

छट्टे रोज़ नागहानी तौर पर बाज़ार से गुज़र हुआ। एक हसीन साड़ी दुकान में लहरा रही थी।हमने पहले उसे देखा फिर अपनी ढाई जगह से सिली साड़ी को।और एक आशिक़ाना सी आह भर के आगे बढ़ गए।क्यूँकि सौ रुपये बचाने के लिए लाज़िमी था कि हम ढाई नहीं बल्कि सवा तीन और साढे़ चार जगह से फटी साड़ी पहने घूमें।!!

दो क़दम चलने के बाद साल भर पुरानी चप्पल भी टा-टा---बाय-बाय कहने लगी।फिर दिल पर सौ का नोट कि जो पत्थर से भी भारी था रखा और चप्पल में पिन अटका ली---!

रफ़्ता-रफ़्ता हम बिखरे सूखे बाल,सूनी आँखें,फीके होंट और रूखा वीरान चेहरा लिए कॉलेज पहुंचने लगे।अवाम और ख़वास ने सोचा कि शायद हमारे किसी अज़ीज़ का इंतिक़ाल हो गया है।इसलिए हम अपने सोगवार हैं।या शायद हमने फिर एक नया इश्क़ शुरू कर दिया है और जो शद-व-मद के लिहाज़ से पिछले तमाम रिकार्ड तोड़ देगा।इसलिए एक तरफ़ तो ताज़ियती जलसे का इंतिज़ाम होने लगा तो दूसरी तरफ़ बड़े राज़दाराना अंदाज़ में मशवरे दिए जाने लगे।और तब हमने एलान किया कि इस सोगवारी में न किसी मौत का हाथ है न रोमान का--- सब माया का जाल और हमारी चाल है।यानी हमने मुबल्लिग़ सौ रुपये बचाए हैं।नतीजे के तौर पर हम इस क़ाबिल नहीं रहे कि लिप-स्टिक पॉवडर काजल क्रीम तेल की LUXURIES को बर्दाश्त कर सकें।अगर आप लोगों को ये ख़ौफ़ है कि आप की तबा-ए-नाज़ुक हमारी इस वीरान सूरत को बर्दाश्त न कर सकेगी और ऐन मुम्किन है कि इसी सदमे से एक आध का हार्ट फ़ेल हो जाए तो बखु़शी (या बह रंज)हमारे सोला न सही आठ सिंघार का इंतिज़ाम कर दीजिए हमें क़तई एतराज़ न होगा!!

ख़ैर साहब सूरत पर डालिए ख़ाक,कि ये ख़ाक से बनी है और ख़ाक में मिलेगी।और सीरत पर नज़र डालिए कि ये न किसी से बनी है न किसी में मिलेगी।!मगर वा-ए-तक़दीर कि ये सीरत भी सौ रुपये यानी दस हज़ार नए पैसों की चमकती दीवार में।ज़िंदा चुनी जा रही है और किसी माई के लाल (अफ़सोस कि लाली यानी बेटी को काबिल-ए-इल्तिफ़ात ही नहीं समझा गया।!)में हिम्मत नहीं कि इसे खींच के निकाल सके!

हाँ वो क़िस्सा-ए-हातिमताई यूँ है कि हसब-ए-मामूल चंद ऐसी लड़कियों ने जिनके चेहरे ग़रीब-व-इफ़्लास की धूल से अटे रहते हैं।जिनकी आँखें हसरत-व-मायूसी के बोझ से झुकी रहती हैं।जो अपने आप को इस दर्जा मुजरिम समझती हैं कि न कभी हंसती हैं,न मुस्कुराती हैं, न उछलती कूदती हैं।बल्कि हमेशा झुकी-झुकी रहती हैं और उनका बस चले तो शायद ज़मीन में ज़िंदा दफ़न हो जाएँ---तो ऐसी ही दो लड़कियों ने दाख़िले की फ़ीस के लिए रुपये मांगे।क्यूँकि उन्होंने सुन रक्खा था कि हातिम की क़ब्र पर लात मारने वाली (धीरे से ही सही।!) हस्ती मौजूद है।

लेकिन हुज़ूर!वो ज़माने तो हवा हो गए---सौ रुपये ने उस हातिम की टांगें यूँ कस के पकड़ रक्खी थीं कि हल्की सी जुंबिश भी मुम्किन न थी।हाथ भी जकड़े हुए थे।पता नहीं कैसे सौ रूपों की ये दीवार इतनी ऊंची न हो पाई थी कि आँखों को ढक लेती।तो आप की ये हातिम ताई सौ रुपये की इस झिलमिलाती दीवार की आड़ में खड़ी बेबसी से अन झुके हुए सरों झुकी हुई आँखों और गढ़े हुए क़दमों को देखती रही।

ज़ाहिर है जाइदाद यूँ लुटाई नहीं जाती---!!

महीने के पंद्रह दिन गुज़र गए।पिक्चर हमने देखी नहीं।कैंटीन में चाय पीनी (अपने पैसे से) छोड़ दी।लोगों के घर आना जाना बंद कर दिया कि बस और टैक्सी पर पैसे न उठें।लेकिन पैसे हैं कि जो उठते हैं तो बस उठते ही चले जाते हैं।बड़े और छोटे ग़ुलाम अली की तानों की तरह और अब तो तान इस नुक़्ते पर पहुंच गई है कि चाय की पत्ती रुख़्सती की तैय्यारी कर रही है तो शक्क्र अलविदाई गीत गा रही है।और आटा दाल चावल तेल थी वो ज़ोर-व-शोर से कूच के नक़्क़ारे बजा रहे हैं कि हमारे होश-व-हवास तो ख़ैर गुम हो ही रहे हैं मगर वो सौ का नोट उसी माडर्न मजनूँ की तरह जान बचाता फिर रहा है जिसके पीछे लैला बेगम के डैडी अपनी कश्मीरी छड़ी लिए फिर रहे हों---!

मगर जनाब ये जान और आन की फ़्री स्टाइल कुश्ती है।और आप जानते ही हैं कि जीत उसी की होती है जिसे रैफ़री जीताना चाहे सो आपका ये रैफ़री हालात की नज़ाकत को देखते हुए“आन”के हक़ में है(कि इस तरकीब से“जान” भी महफ़ूज़ रहेगी!)तो चाहे जान चली जाए(ज़रा देर के लिए फ़र्ज़ कर ही लीजिए)मगर सौ रुपये ख़र्च न किए जाएँगे।और जान को बचाना भी उन सौ रूपों की हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी है इसलिए हम पंद्रह दिन तक रोज़ चाय नाश्ता और खाना बारी बारी से दोस्तों के यहाँ खाते रहेंगे।और हालात साज़गार हुए तो कपड़े भी दूसरों ही के इस्तेमाल किए जाएँगे।बल्कि कोशिश तो ये होगी कि किसी तरह मकान का किराया,बिजली का बिल वग़ैरा भी चंदा कर के अदा कर दिया जाए कि सौ रुपये जमा करने और साहब-ए-जाइदाद कहलाने का यही वहदहू लाशरीक नुस्ख़ा है।!!

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