Monday, 13 February 2017

बाई फोकल क्लब / मुशताक़ अहमद यूसुफ़ी

चार महीने होने आए थे।शहर का कोई लाएक़ डाक्टर बचा होगा जिसने हमारी माली तकालीफ़ में हस्ब-ए-लियाक़त इज़ाफ़ा न किया हो।लेकिन बाईं कोहनी का दर्द किसी तरह कम होने का नाम न लेता था।इलाज ने जब शिद्दत पकड़ी और मर्ज़ ने पेचीदा होकर मुफ़्लिसी की सूरत इख़्तियार कर ली तो लखनऊ के एक हाज़िक़ तबीब से रूजू किया जो सिर्फ़ मायूस और लब-ए-गोर मरीज़ो पर अम्ल-ए-मसीहाई करते थे।मरीज़ के जांबर होने का ज़रा भी इम्कान नज़र आए तो बिगड़ जाते और उसे धुत्कार कर निकलवा देते कि जाओ,अभी कुछ दिन और डाक्टर से ईलाज कराओ।अल्लाह ने उनके हाथ में कुछ ऐसा ऐजाज़ दिया था कि एक दफ़ा उनसे रुजू करने के बाद कोई बीमार ख़्वाह वह बिस्तर-ए-मर्ग पर ही क्यूँ न हो,मर्ज़ से नहीं मर सकता था।दवा से मरता था।मर्ज़ के जरासीम के हक़ में तो उनकी दवा गोया आब-ए-हयात का हुक्म रखती थी।ग़रीबों का ईलाज मुफ़्त करते,मगर रुऊसा को फ़ीस लिए बग़ैर नहीं मारते थे।हकीम साहब ऊंचा सुनते ही नहीं,ऊंचा समझ्ते भी थे।यानी सिर्फ़ मतलब की बात।शायरी भी करते थे।हम इस पर एतराज़ करने वाले कौन? लेकिन मुसीबत यह थी कि तिबाबत में शायरी और शायरी में तिबाबत के हाथ दिखा जाते थे।मतलब यह कि दोनों में वज़न के पाबंद न थे। हकीमों में अपने इलावा,उस्ताद इब्राहीम ज़ौक़ के क़ाएल थे।वह भी सिर्फ़ इस बिना पर कि ब-क़ौल आज़ाद,उस्ताद ने मौसीक़ी और नुजूम सीखने की सई ना-मश्कूर के बाद, तिब को चंद रोज़ किया।मगर उसमें ख़ून-ए-नाहक़ नज़र आने लगे।चुनांचा इन्हीं सलाहियतों का रुख़ उर्दू शायरी की तरफ़ मोड़ दिया।हकीम साहब मौसूफ़ अपनी ज़ात व बयाज़ पर कामिल एतिमाद रखते थे।हाँ कभी अपनी ही एजाद कर्दा मअजून-ए-फ़लक-सैर के ज़ेर-ए-असर तबिअत फ़राख़-दिली व फ़रौतनी पर माइल हो जाए तो सुख़न-फ़हम मरीज़ के सामने यहाँ तक इतराफ़ कर लेते कि एक लिहाज़ से ग़ालिब उनसे बेहतर था।ख़त अच्छे ख़ासे लिख लेता था।मगर अब वह मक्तूब-ए-अलिया कहाँ,जिन्हें कोई ऐसे ख़त लिखे।

ख़ानदानी हकीम थे।और ख़ानदान भी ऐसा वैसा!उनके पर-दादा क़स्बा-ए-संदीला के जालीनवस थे।बल्कि उससे भी बढ़कर।हकीम जालीनवस नाबीना-व-कसीर-उल-इज़वाज न था।यह थे।नब्बाज़ी में चार दांग-ए-संदीला में उनका कोई सानी न था।रावियान-ए-रंगीं बयाँ गुज़ारिश करते हैं कि आबाई हवेली में चार बेगमात(जिनमें हर एक चौथी थी)और दर्जनों हरमें और लौंडियाँ रुली फिर्ती थीं।तहज्जुद के वक़्त वज़ू कराने की हर एक की बारी मुक़र्रर थी,मगर आधी रात गए आवाज़ देकर सबकी नींद ख़राब नहीं करते थे।होले से नब्ज़ छूकर बारी वाली को जगा देते थे।और ऐसा कभी नहीं हुआ कि ग़लत नब्ज़ पर हाथ डाला हो।

नबीरा-ए-जालीनिवस ने हमारी नब्ज़,ज़बान,जिगर,पेट,नाख़ुन,क़ारूरा,प्पोटे---- मुख़्तसर यह कि सिवाए कोहनी के हर चीज़ का मुआइना फ़र्माया।फ़ीस का तअय्युन करने से पहले हमारी कार का इंजन भी स्टार्ट करवा के ब-चश्म-ए-ख़ुद मुलाहिज़ा फ़रमाया और फ़ीस माफ़ करदी।फिर भी एहतियातन पूछ लिया कि महीने की आख़िरी तारीख़ों में आंखों के सामने तिरमिरे नाचते हैं?हमने सर हिलाकर इक़रार किया तो मर्ज़ और उर्दू ज़बान के मज़े लूटते हुए फ़रमाया कि दस्त बख़ैर! मक़ाम-ए-माऊफ़ पर जो दर्द है,दर्द में जो चिपक है,चिपक में जो टीस है, और टीस में जो कसक रह-रह कर महसूस होती है,वह रियाही है!ब-क़ौल मिर्ज़ा,यह तश्ख़ीस न थी,हमारे मर्ज़ की तौहीन थी।हमारे अपने जरासीम के मुंह पर तमांचा था।चुनांचे यूनानी तिब से रहा सहा ऐतक़ाद चौबीस घंटों के लिए बिल्कुल ऊठ गया।इन चौबीस घंटो में हमने कोहनी का हर ज़ाविए से एक्स्रे कराया।लेकिन ऊस से मायूसी और बढ़ी। इसलिए कि कोहनी में कोई ख़राबी नहीं निकली!

पूरे दो महीने मर्ज़ में हिन्दू-योग-आसन और मेथी के साग का इज़ाफा करने के बाद हमने मिर्ज़ा से जाकर कैफ़ियत बेयान की।इस्तेमा-ए-हाल के बाद हमारी दाई चिपनी पर दो उंगलिया रखकर उन्होंने नब्ज़ देखी।हमने हैरत से उन की तरफ़ देखा तो बोले,चालिस साल बाद मर्द का दिल नीचे उतर आता है! फिर फ़रमाया,तुम्हारा ईलाज यह है कि फ़ौरन बाई फ़ोकल बनवालो।हमने कहा मिर्ज़ा!तुम तो शराब भी नहीं पीते।कोहनी का आंख से क्या तआल्लुक़? बोले,चार पाँच महीने से देख रहा हूँ कि तुम्हारी पासकी नज़र भी ख़राब होगई है।किताब नज़्दीक हो तो तुम पढ़ नहीं सकते।तक़ाज़ा-ए-सिन ही कहना चाहिए।तुम अख़्बार और किताब को आंख से तीन फ़ुट दूर बाएँ हाथ में पकड़ के पढ़ते हो।इसीलिए हाथ के पुट्ठे अकड़ गए हैं।चुनानचे कोहनी में जो दर्द है,दर्द में जो-----अल्ख़।

माना कि मिर्ज़ा हमारे मोनिस-व-ग़म ख़्वार हैं,लेकिन उनके सामने अफ़्शा-ए-मर्ज़ करते हुए हमें हौल आता है।इसलिए कि वह अपने फ़क़ीरी चुटकुलों से असल मर्ज़ को तो जड़ बुनियाद से उखेड़ कर फेंक देते हैं,लेकिन तीन चार नए मर्ज़ गले पड़ जाते हैं,जिनके लिए फिर उन्हीं से रुजू करना पड़ता है।और वह हर दफ़ा अपने इलाज से हर मर्ज़ को चार से ज़र्ब देते चले जाते हैं।फ़ाईदा इस तरीक़-ए-इलाज का यह है कि शफ़ाए जुज़्वी के बाद जी फिर अलालत-ए-असली के रात दिन ढूंडता है।और मरीज़ को अपने मफ़रूद-ए-मर्ज़ के मरहूम जरासीम बे-तरह याद आते हैं और वह उनकी शफ़क़तों को याद कर-कर के रोता है।कुछ दिनों की बात है।हमने कहा,मिर्ज़ा!तीन चार महीने से हमें तकिए पर सुबह दर्जनों सफ़ेद बाल पड़े मिलते हैं।फ़रमाया,अपने तकिए पर? अर्ज़ किया हाँ!शरलिक होम्ज़ के मख़्सूस जासूसी अंदाज़ में चंद मिनट गहरे ग़ौर-व-ख़ौज के बाद फ़रमाया,ग़ालिबन तुम्हारे होंगे।हमने कहा,हमें भी यही शुबहा हुआ था।बोले,भाई मेरे!तुमने तमाम उम्र ज़ब्त-व-एहतियात से काम लिया है।अपने निजी जज़्बात को हमेशा शरअई हुदूद में रखा है।इसीलिए तुम 38 साल की उम्र में गंजे हो गए हो!इस तश्ख़ीस के बाद उन्होंने एक रौग़नी ख़िज़ाब का नाम बताया,जिस से बाल काले और मज़्बूत हो जाते हैं।चलते वक़्त उन्होंने हमें सख़ती से ख़बर-दार किया कि तेल ब्रश से लगाया जाए वर्ना हथेली पर भी बाल निकल आएंगे,जिसके वह और दवा साज़ कम्पनी हरगिज़-हरगिज़ ज़िम्मेदार न होगे।वापसी में हमने इन्ताहाई बेसब्री के आलम में सबसे बड़े साइज़ की शीशी ख़रीदी और दुकानदार से रेज़गारी भी वापिस न ली कि इस में सरासर वक़्त का जायाँ था।चालिस दिन के मूसल्स्ल इस्तेमाल से यह असर हुआ कि सर पर जितने भी काले बाल थे,वह तो एक-एक करके झड़ गए।अल्बत्ता जितने सुफ़ेद बाल थे,वह बिल्कुल मज़बूत हो गए।चुनांचे आज तक एक सुफ़ेद बाल नहीं गिरा,ब्ल्की जहाँ पहले एक सफ़ेद बाल था,वहाँ अब तीन निकल आए हैं।

बाई फ़ोकल का नाम आते ही हम संभल के बैठ गए।हमने कहा,मिर्ज़ा!मगर हम तो अभी चालिस सालके नहीं हुए।बोले, मर्ज़ के जरासीम पढ़े लिखे नहीं होते कि कैलेंडर देखकर हमला करे।ज़रा हाल तो देखो अपना।सेहत ऐसी कि बीमा कम्पनियों के एजेंट नाम से भागते हैं।सूरत ऐसी जैसे,मुआफ़ करना,रेडियो फ़ोटो।और रंग भी अब गुंदमी नहीं रहा।ख़ौफ़-ए-इलाही व अहिलिया से ज़र्द होगया है।अगर कभी यारों की बात मान लेते तो ज़िंदगी संवर जाती।हम ने कहा,हमारा जो हाल है वह तन्हा एक आदमी के ग़लत फ़ैसलों से हरगिज़ नहीं हो सकता।हमें तो इस में पूरी क़ौम का हाथ नज़र आता है!फरमाया,जापान में फन्न-ए-बाग़बानी के एक मख़सूस शोबे बोनसाई को बडी क़द्र की निगाह से देखा जाता है।ऊसके माहिर पुश्त-दर-पुश्त दरख़्तों को इस चाव चोंचले से उगाते और सींचते हैं और उनकी उठान को इस तरह क़ाबू में रखते हैं कि तीन तीन सौ साल पराने दरख़्त में फल फूल भी आते हैं,पतझड़ भी होता है,मगर एक बालिश्त से ऊंचा नहीं होने पाता।तुमने अपनी शख़्सियत को इसी तरह पाला पोसा है।

हमने आंखों में आंसू भरके कहा,मिर्ज़ा!हम ऐसे न होते तो तुम किसे नसीहत करते?कुछ नर्म पड़े।फ़रमाया,नसीहत से ग़र्ज़ ईस्लाह किस मस्ख़रे को है।मगर तुमने दिमाग़ से कभी काम नहीं लिया।ख़ाली चाल चलन के बिरते पर सारी ज़िंदगी गुज़ार दी।हमने कहा,मिर्ज़ा!तुम तो यह न कहो।हम तमाम उम्र अपनी ख़्वाहिशात से गौरीला जंग करते रहे हैं।तुम हमारे दिल के खोट से वाक़िफ़ हो।ये आतिश-ए-शौक़:

पूरी बुझी नहीं,ये बुझाई हुई सी है

जहाँ तक अम-आल का तआल्लुक़ है,ख़ुदा शाहिद है कि हमारा कोई काम,कोई अमल ख़िलाफ़-ए-शरअ नहीं।लेकिन अगर जन्नत-दोज़ख़ का फ़ैसला फ़कत नियत की बिनी पर हुआ तो हमारे दोज़ख़ में जाने में ख़ुद हमें कोई शुबा नज़र नहीं आत। मुस्कुरा दिए।फ़रमाया जिन ख्वातीन ने अपनी खुबसूरती से तुम्हारे ध्यान ग्यान में खलल डाला,उनकी तादाद कुछ नहीं तो,कराची की निस्फ़ आबादी के बराबर होगी?

हमने मिर्ज़ा को याद दिलाया कि लड़कपन ही से हम पुरअमन ज़िंदगी बसर करने के सख़्त ख़िलाफ़ रहे हैं।मार धाड़ से भरपूर जेम्स बॉंड जैसी जिंदगी गुज़ारने की ख़ातिर कैसे कैसे जतन किए।उन्हें तो क्या याद होगा,क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस उन दिनों हमें BULL FIGHTING की ट्रेनिंग दिया करते थे।और एक दाढ़ी वार बोक बकरे को सुर्ख़ तुर्की टोपी पहना कर,हमें उसके ख़िलाफ़ इश्तिआल दिलाया करते थे।मिडिल में 33 नम्बर हिसाब में फ़ेल होने के बाद हमने ज़रियए माआश के बारे में यह फैसला किया कि वालिदा इजाज़त दे दें तो PIRATE (बहरीक़ज़्ज़ाक)बन जाएँ।लेकिन जब सिन-ए-शऊर को पहुंचे और अंग्रेज़ हुकमरानों से नफ्रत के साथ-साथ नेक व बद की तमीज़ भी पैदा हुई तो ज़िंदगी के नस्ब-उल-ऐन मे,मिर्ज़ा ही के मशवरे से, इतनी इस्लाह करनी पड़ी कि सिर्फ़ अंग्रेज़ों के जहाज़ो को लूटेंगे।मगर उनकी मेंमों के साथ बद-सुलूकी नहीं करेंगे।निकाह करेंगे।

फ़रमाया“ये सब अलामतें“मिडिल एज”की हैं,जो तुम्हारे केस में ज़रा सवेरे ही आगई है।एक रूसी अनारकिस्ट ने एक दफ़ा क्या अच्छी तजवीज़ पेश की थी कि 25 साल से ज़ाइद उम्र वालों को फ़ांसी दे दी जाए।लेकिन फ़ांसी से ज़्यादा इबरत-नाक सज़ा तुम जैसों के लिए यह होगी कि तुम्हें ज़िंदा रहने दिया जाए।“मिडिलएज”का बजुज़ पीरी कोई इलाज नहीं।हाँ तंग-दस्ती और तसव्वुफ़ से थोड़ा बहुत आराम आ जाता है।हमारे यहाँ सिन-ए-यास के,लेदेके,दो ही मशग़ले हैं।अय्याशी.....और अगर उसकी इस्तिताअत न हो तो.......तसव्वुफ़!और क़व्वाली इन दोनों का इत्र-ए-फितना है!

“और तुम्हारा इलाज है,एक अदद बाई फ़ोकल और जुमेरात की जुमेरात क़व्वाली!दो दिन से साईं गुलम्बर शाह का ऊर्स हो रहा है।आज रात भी हमारे पीर साहब क़िबला ने महफिल-ए-समा का एहतिमाम फ़रमाया है! मटके वाले क़व्वालों की चौकी के इलावा हैदराबाद की एक तवाईफ़ भी हदिया-ए-नियाज़ पेश करेगी।”हमने पूछा“ज़िंदा तवाईफ़?”बोले,‘हाँ!सच मुच की!मरे क्यूँ जा रहे हो? शीन क़ाफ़ के अलावा निक सिक से भी दुरुस्त।हज़रत से बैअत होने के बाद उस ने शादी ब्याह के मुजरों से तौबा कर ली है अब सिर्फ़ मज़ारों पर गाती है या रेडियो पाकिस्तान से!और साहब!ऐसा गाती है,ऐसा गाती है कि घंटों देखते रहो!हंसते क्या हो।एक नुक्ता आज बताऐ देते हैं...........गाने वाली की सूरत अच्छी हो,तो मोहमल शेर का मतलब भी समझ में आ जाता है।”

ऐशा के बाद हमने क़व्वालि की तैयारीया शुरू कीं।ईद का कढ़ा हुआ कुर्ता पहना।जुमा की नमाज़ वाले ख़ास जूते निकाले।(मस्जिद में हम कभी आम जूते पहन कर नहीं जाते।इसलिए कि जूते अगर साबुत हों तो सजदे में भी दिल उन्हीं में पड़ा रहता है।)मिर्ज़ा हमें लेने आए तो नथुने फड़काते हुए दरयाफ़्त किया कि आज तुममें से जनाज़े की सी बू क्यूँ आ रही है?हमने घबराकर अपनी नब्ज़ देखी।दिल तो अभी धड़क रहा था।कुछ देर बाद बात समझ में आई तो हमने इक़रार किया कि गरम शेरवानी दो साल बाद निकाली है।काफ़ूरी गोलियों की बू बुरी तरह बस गई थी।उसे दबाने के लिए थोड़ा सा हिना का इत्र लगाया है।कहने लगे,जहाँ आदाब-ए-महफ़िल का इतना लिहाज़ रखा है,वहाँ इतना और करो कि एक रूपये के नोट अंदर की जेब में डाल लो।हमने पूछा क्यूँ?फ़रमाया,जो शेर तुम्हारी या मेरी समझ में आ जाए,उस पर एक नोट अदब के साथ नज़र करना।चुनांचा तमाम रात हमारी यह दोहरी डियूटी रही कि दाम-ए-शुनीदन बिछाए बैठे रहें और इस शुग़्ल-ए-शबीना के दौरान मिर्ज़ा के चेहरे पर भी मुस्तक़िल नज़र जमाए रहें कि जूँ ही उनके नथुनों से हुवीदा हो कि शेर समझ में आ गया है,अपनी हथेली पे नोट रखकर पीर-व-मुरशिद को नज़्रगुज़रानी और वह उसे छूकर क़व्वालों को बख़्श दें।

अपनी ज़ात से मायूस लोंगों का इससे ज़्यादा नुमाइंदा इजतमा हमने अपने चालीस साला तजर्बे में नहीं देखा।शहर के चोटी के अधेड़ यहाँ मौजूद थे।ज़रा देर बाद पीरसाहब तशरीफ लाए।भारी बदन।नीन्द में भरी हुई आँखें।छाज सी दाढ़ी।कतरवाँ लबैं।टख़्नों तक गेरवा कुर्ता।सरपर सियाह मख़मल की चौगोशिया टोपी,जिसके नीचे रुपहली बालों की कगर।हाथ में सब्ज़ जरीब।साज़ मिलाए गए।यानी हरमोनियम को तालियों से और तालियों को मटके से मिलाया गया।और जब कलाम-ए-शायर को इन तीनो के ताबऐ करलिया गया तो क़व्वाली का रंग जमा।हमारा खेंयाल है कि इस पाए के मुग़न्नियों को तो मुग़्लों के ज़माने में पैदा होना चाहिए था,ताकि कोई बादशाह उन्हें हाथी के पाँव तले रौंदवा डालता।उन्होंने मौलाना जामी के कलाम में मीराबाई के दोहों को इस तरह शीर-व-शकर किया कि फारसी ज़बान सरासर मारवाड़ी बोली ही की बिग्रि हुई शक्ल मालूम होने लगी।और हम जैसे बे-इल्मे को तो अस्ल पर नक़्ल का धोका होने लगा।

क़व्वाली शुरू हुई है तो हम पांचवीं सफ़ में दो ज़ानू बैठे थे।नहीं,महज़ दो ज़ानू नहीं,।इस तरह बैठे थे जैसे अत्तैहिय्यात पढ़ते वक़्त बैठते हैं।लेकिन जैसे ही महफ़िल रंग पर आई,हम हाल खेलने वालों के धक्के खाते-खाते इतने आगे निकल गए कि रात भर टांगें ग़ुलैल की तरह फैलाए एक हारमोनियम को गोद में लिए बैठे रहे।एक नौवारिद ने हमें एक रूपया भी दिया।हमारा हश्र यानी चाय पानी भी क़व्वालों के साथ हुआ।धक्कों के रैले में हम क़व्वालों की टोली को चीरते हुए दुसरे दरवाज़े से कभी के बाहर निकल पड़े होते,मगर बड़ी ख़ैरियत गुज़री कि एक कलारेंट ने हमें बड़ी मज़बूती से रोके रखा।यह कलारेंट कोई सवा गज़ लम्बा होगा।उसका बे-ज़र्र सिरा तो साज़िंदे के मुंह में था,लेकिन फन हमारे कान में ऐसा फ़िट हो गया था कि ज़ोर के धक्कों के बावजूद हम एक इंच आगे नहीं बढ़ सकते थे।

आख़िर-ए-शब हज़रत ने बतौर-ए-ख़ास फरमाइश करके तवाईफ़ से अपनी एक बहर से ख़ारिज ग़ज़ल गवाई,जिसे इस ग़ैरत-ए-नाहीद ने सुरताल से भी ख़ारिज करके सेह-आतेशुद कर दिया।हज़रत अपना कलाम सुनकर इस क़दर आबदीदा हुए कि छुपा हुआ रुमाल(जिस के हाशिए पर चंद अशआर खाने की फ़ज़ीलत में रक़्म थे)तर हो गया।मक़ता जी तोड़कर गाया और ज़बाँ पे बार-ए-ख़दाया शायर का नाम आया तो नाचते हुए जाकर सर सामने कर दिया।हज़रत ने अज़राह-ए-परवरिश असली छुहारे की गुठलियों की हज़ार दाना तसबीह अपने दस्त-ए-ग़िना आलूद से उसके गले में डाल दी।और अपनी ख़ाक-ए-पा और हुजरा-ए-ख़ास की जारूब भी मरहमत फ़रमाई।चार बजे जब सबकी जेबैं ख़ाली हो गईं तो बेशतर को हाल आगया। और ऐसी धमाल मची कि तकिए की गुंबद की सारी चमगादड़ें उड़ गईं।किसी के पांव की ज़रब-ए-मस्ताना से हज़्र्त के ख़लीफ़ा की घड़ी का शीशा चूर-चूर हो गया और अब वह भी अपनी दस्तार-ए-ख़िलाफ़त,हूब्बा,बाई फ़ोकल और चाँदी के बटन उतार कर मैदान में कूद पड़े।सिर्फ़ अंगूठी और मोज़े नहीं उतारे।सो वह भी ब-हालत-ए-मस्ती किसी ने उतार लिए।नोटों की बौछार बंद हुई और अब हर बैत पर जज़ाक-अल्लाह,जज़ाक-अल्लाह का ग़ल्बा बंद होने लगा।इस भाग भरी ने जो देखा कि बंदों ने अपना हाथ खींच कर अब मुआमला अल्लाह के सुपुर्द कर दिया है तो झट आख़िरी ग्लोरी कल्ले में दबाके कोहरे पर महफ़्हिल ख़त्म कर दी।

पांच बजे सुब्ह हम कान सहलाते महफ़िल-ए-समा ख़राशी से लौटे।कुछ महमल कलाम का,कुछ ख़ुद रफ़्तगी-ए-शब का ख़ुमार,हम ऐसे ग़ाफ़िल सोए कि सुब्ह दस बजे तक सुनाते रहे।और बेगम हमारे पलंग के गिर्द मंडलाते हुए बच्चों को समझाती रहीं “कमबख़्तो!आहिस्ता-आहिस्ता शोर मचाओ।अब्बा सो रहे हैं।रातभर उस मनहूस मिर्ज़ा की मसाहबी की है।आज दफ़्तर नहीं जाएँगे।अरी उंबीला की बच्ची!घड़ी-घड़ी दरवाज़ा मत खोल।मख्खियों के साथ इनके मुलाक़ाती भी घुस आएँगे।”शाम को मिर्ज़ा चलते फिरते इधर आ निकले और(और वह रूहानी तमानिय्यत और रौनक़ देख कर जो हमारे मुंह पर दफ़तरी फ़राएज़ अदा ना करने से आ जाती है।)कहने लगे,“देखा!हम न कहते थे,एक ही सोहबत में रंग निखर आया।रात हज़रत ने तवज्जा फरमाई?क़ल्ब पर कोई असर मुरत्तिब हुआ?रोया हुआ?”हमने कहा,“रोया वेया तो हम जानते नहीं।अल्बत्ता सुब्ह एक अजीब-व-ग़रीब ख़्वाब देखा कि बग़दाद में सफेद संग-ए-मर-मर की एक आलीशान महल-सरा है,जिसके सद्र दरवाज़े पर क़ौमी परचम की जगह एक“बिकनी”लहरा रही है।छत वीनस-डी-मिल्लो के मुजस्समों पर ठहरी हुई है।हम्माम की दीवारें शफ़्फ़ाफ बिल्लोर की हैं।मरकज़ी क़ालीन के गिर्दा-गिर्द ग़ैर महफ़ूज़ फ़सल से मख़मली गाव तकियों की जगह तूनुक लिबास कनीज़ें आड़ी लेटी हैं शुयूख़ उनकी गुदाज़ टेक लगाए एक दूसरे के गाव तकिए को आँख मार रहे हैं।सामने एक ज़ीन-पुरफ़न नक़्क़ारों पर,अपनी आँखें इंजीर के पत्ते से ढ़ांपे बरहना रक़्स कर रही है और पावं से उन्ही नक़्क़ारों पर ताल देती जाती है।दिल भी उसी ताल के मुताबिक़ धड़क रहे हैं।ग़र्ज़ कि एक आलम है।उमरा के आज़ू-बाज़ू कनीज़ो और पेश ख़िदमतों के परे के परे मुंतज़िर हैं कि अबरू-ए-तलब की जुंबिश-ए-नीम शबी पर अपनी लज़्ज़तें उस पर तमाम कर दीं।यह वक़्फ़ा-वक़्फा से शराब,कबाब और अपने आप को पेश करती हैं।इसी क़ालीन के सियाह हाशिए पर चालीस ग़ुलाम हाथ बांधे,नज़रें झुकाए खड़े हैं।और मैं उनमें से एक हूँ!’

“इतने में क्या देखता हूँ कि एक बुज़ुर्ग,भारी बदन,नींद में भरी हुई आँखें।दाढ़ी इतनी लंबी कि टाई लगाए तो नज़र न आए।सब्ज़ जरीब टेकते आरहे हैं।हमने अपनी हथेली पर सौ रूपये का नोट रख कर पेश किया।हज़रत ने नोट उठा कर वह जगह चूमी,जहाँ नोट रखा था और बशारत दी कि बारह बरस बाद तेरे भी दिन फिर जाएंगे।तो बावन साल की उमर में एक भरे पुरे हरम का मालिक..............”

मिर्ज़ा का चेहरा लाल अंगारा हो गया।क़तआ कलाम करते हुए फ़रमाया

“ तुम जिस्म शायर का,मगर ज़ज़्बात घोड़े के रखते हो!”

फिर उन्होंने लाअन-ताअन के वह दफ़्तर खोले कि आजज़ ने खड़े-खड़े तमाम मकीनों को मअ लिबास-ए-मुख़्तसर हरम से निकाल बाहर किया।

तीन नौवारिद गीशाएँ थीं कि जिनके वीज़ा की अभी आधी मुद्दत भी ख़तम नहीं हुई थी।कैसे कहूँ कि उन्हें भी इस हड़बोंग में ज़ाद-ए-राह दिए बग़ैर निकाल दिया!

और इनके साथ-साथ तसव्वुफ़ का ख़याल भी हमेशा-हमेश के लिए दिल से निकाल दिया।क़ल्ब-ए-सियाह पर क़व्वालों के तस्सूरूफात-ए-बातनी आप मुलाहिज़ा फ़रमा चुके।अब बाई फ़ोकल का हाल सुनिऐ।ऐनक हमारे लिए नई चीज नही।इसलिए के पाँचवी जमात में क़दम रखने से पहले हमारी ऐनक का नंबर 7- होगया था।जो क़ारईन नंगी आँख(अंग्रेज़ी तरकीब है,मगर ख़ूब है)से देखने के आदी हैं उन्हें शायद अंदाज़ा ना होकि 7- नंबर ऐनक क्या माअनि रखती है।उनकी ख़िदमत में अर्ज़ हैकि अंधा भैंसा खेलते वक़त बच्चे हमारी आँखों पर पट्टी नहीं बांधते थे।हमारा अक़ीदा था कि अल्लाह-ताला ने नाक सिर्फ़ इसलिए बनाई है कि ऐनक टिक सके।और जो बेचारे ऐनक से महरूम हैं,उनकी नाक महज़ ज़ुकाम के लिए है..........दादा-जान क़िब्ला का अक़ीदा था कि अरबी न पढ़ने के सबब से हम निस्फ़ नाबीना हो गए हैं।वर्ना इस मोअज़्ज़ज़ ख़ान-दान की तारीख़ में डेढ़ सौ साल से किसी बुज़ुर्ग ने ऐनक नहीं लगाई।अल्लाह-अल्लाह! कैसा सस्ता समाँ और कैसे सादा-दिल बुज़ुर्ग थे कि गर्ल्ज़ प्राइमरी स्कूल कि बस का रास्ता काटने को तमाश बीनी गरदांते थे!आज हमें इसका मलाल नहीं कि वह ऐसा क्यूँ समझते थे,बल्कि उसका हैकि हम ख़ुद यही कुछ समझकर जाया करते थे!और जब हम चोरी की चवन्नी से बाइस्कोप देखकर रात के दस बजे पंजों के बल घर में दाखिल होते तो डेवढ़ी में हमें ख़ानदान के तमाम बुज़ुर्ग न सिर्फ ख़ुद गार्ड आफ़ आनर देते,बल्कि अपनी कुमक पर बेरूनी बूढ़ों को भी बुला लेते थे कि मुक़ाबला हमारे फ़िस्क-व-फ़ुजूर से था।

ऐनक पर भबतियाँ सुनते-सुनते हमारा कमसिन कलेजा छलनी हो गया था।लिहाज़ा दो साल बाद जब दादा जान का मोतिया बिंद का आपरेशन हुआ तो हमने इस ख़ुशी में बच्चों को लेमन ड्राप तक़सीम कीं।दरअस्ल हम सब बच्चे उन्हें “प्राब्ल्म” बुज़ुर्ग समझा करते थे।वहम के मरीज़ थे।आपरेशन से पहले मस्नूई बत्तीसी के एक अगले दांत में दर्द महसूस कर रहे थे,जिसका इलाज एक हेम्योपैथिक डाक्टर से कराने के बाद, उन्होंने वह दांत ही उखड़वा दिया था।और अब उसकी खुड्डी में हुक़्क़े की नुक़रई मिहनाल फ़िट करके घंटो हमारे तारीक मुस्तक़बिल के बारे में सोचा करते थे।हाँ तो हम कह यह रहे थे कि आप्रेशन के बाद वो आध इंच मोटे शीशे की ऐनक लगाने लगे थे,जिस से उनकी ग़ुस्सैली आँखें हम बच्चों को तिगनी बड़ी दिखाई देती थीं।अल्लाह जाने खुद उन्हें भी उससे कुछ दिखाई देता था या नहीं।इसका कुछ अंदाज़ा इस से होता था कि इसी ज़माने में अब्बा जान चौकीदार के लिए एक सुनहरी रंग का बूढ़ा कुत्ता ले आए थे,जिसे कम नज़र आता था,बल्कि यूँ कहना चाहिए कि दादा जान को कुत्ता और कुत्ते को वह नज़र नहीं आते थे। हमारी यह डियूटी लगी हुई थी कि हर दो फ़रीक़ैन को एक दूसरे के हल्क़-ए-गुजिन्द से दूर रख्खें।बिलख़ुसूस मग़्रिब के वक़्त।कभी-कभार ऐसा भी होता कि हमारी ग़फ़लत से वह वज़ू करके हिरन की खाल के बजाए कुत्ते पर बैठ जाते और मुअख़्ख़र-उज़-ज़िक्र,अव्वल-उज़-ज़िक्र पर भौकने लगता तो वह राक़िम-उल-हुरूफ़ पर चीख़ते कि अंधा हो गया है क्या? ऐनक लगा के भी इतना बड़ा कुत्ता नज़र नहीं आता!

दावा तो मिर्ज़ा और ऐनक साज़ ने यही किया था कि बालाई ग़ुर्फे से दर की और ज़ेरीं ग़ुर्फ़े से पास की चीज़ें साफ़ नज़र आएंगी।प्रोफ़ेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस ने तो यहाँ तक उम्मीद बंधाई थी कि दूर के शीशे से अपनी बिवी और पास के शीशे से दूसरे की बीवी का चेहरा निहायत भला मालूम होगा।

ग़ाफ़िल ने इधर देखा, आक़िल ने उधर देखा

लेकिन क़दम-क़दम पर ठोकरें खाने के बाद खुला कि बाईफ़ोकल से न दूर का जलवा नज़र आता है न पास का।अल्बत्ता सब्र आ जाता है।यहाँ तक तो बसा-ग़नीमत है कि हम बंदूक़ की ब्लबी निचले शीशे और मक्खी ऊपर वाले शीशे से मुलाहिज़ा फ़रमाएं।और अगर तीतर बंदूक़ की नाल मे चोंच डाले कारतूस का मुआइना कर रहा है तो फ़िर बच के नहीं जा सकता।ख़ैर,शिकार को जाने दीजिए कि यूँ भी हम जीव हत्या के ख़िलाफ़ हो गए हैं।(ज़ैन बुद्धिज़्म और अहिंसा की तालीमात से क़ल्ब ऐसा रक़ीक़ हुआ है कि अब दिली ख़्वाहिश यही है कि ख़ूबसूरत परिंद को जान से मारे बग़ैर उसका गोश्त खा सकें।) लेकिन ज़ीना से उतरते वक़्त

आँख पड़ती है कहीं,पावं कहीं पड़ता है

और जहाँ पावं पड़ता है,वहाँ सीढ़ी नहीं होती।मिर्ज़ा से इस सूरत-ए-ख़ास का ज़िक्र किया तो कहने लगे कि ऐनक हर वक़्त लगाए रखो।लेकिन जहाँ नज़र का काम हो,वहाँ एक ख़ूब-सूरत सी छड़ी हाथ में रखा करो।लाहौर में आम मिलती हैं।हमने कहा,लाहौर में जो ख़ूब-सूरत छड़ियाँ आम मिलती हैं,वह हमारे शाने तक आती हैं।हम उन्हें हाथ में नहीं रख सकते।बग़ल में बैसाखी की तरह दबाए फिर सकते हैं।मगर लालाहे-रुख़सारान-ए-लाहौर अपने दिल में क्या कहेंगे? बोले,तो फिर एक कुत्ता साथ रखा करो।तुम्हारी तरह वफ़ादार न हो तो मज़ाइक़ा नहीं,लेकिन नाबीना न हो।

हम तो अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि शाहान-ए-सल्फ़,बिलख़ुसूस बअज़ मुग़ल फरमाँरवा,अपने सरकश सूबेदारों,शोरा पुश्त शहज़ादों और तख़्त-व-ताज के दावेदार भाइयों की जल्लाद से आंखें निकलवा कर ख़ुद को तारीख़-ए-हिंद मुअल्लिफ़ा ईशवरी प्रशाद में ख़्वाह-मख़्वाह रुसवा कर गए।इन सब को (बिशमूल ईशवरी प्रशाद)बाई फोकल लगवा देते तो औरों को कान हो जाते और यह दुखियारे भीक मांगने के लाएक़ भी न रहते।हमारा ख़याल है कि न देखने का इससे ज़्यादा साइंटिफ़िक आला आज तक एजाद नहीं हुआ।ज़रा खुलकर बात करने की इजाज़त हो तो हम यहाँ तक कह गुज़रेंगें कि बाईफ़ोकल इफ़्फ़त निगाह का ज़ामिन है।मसलन ऐनक के बालाई हिस्से से मुक़ाबिल बैठे हुए बुत-ए-सीम तनके सरताज की जब्र जंग मूंछ का एक-एक बाल गिना जा सकता है,लेकिन जब रेशमी सारी हमारे ही रुख़ सिरक कर पिंडली से ऊपर यूँ चढ़ जाए कि

न देखे अब तो न देखे, कभी तो देखे गा

तो साहब! इस बे-हयाई का मुताला यकसूई से न ऊपर के शीशे से किया जा सकता है,न नीचे के शीशे से।और यूँ गिरहस्ती आदमी एक गुनाह से बच जाता है

वह इक गुनहा जो बज़ाहिर गुनाह से कम है

इतना ज़रूर है कि इसे लगाने के बाद मज़ीद तीन ऐनकों का एहतमाम लाज़िम आता है।एक दूर की।दूसरी पास की और तीसरी बग़ैर शीशों वाली.....दिखने के लिए।यह आलात-ए-तअय्युश इसलिए भी ज़रूरी हैं कि यूँ दिखाने को अधेड़ आदमी के मुंह पर आँख,आँख में पुतली,पुतली में तिल और तिल में गालिबन बीनाई भी होती है,लेकिन तीन से पांच फिट दूर की चीज़ किसी तौर पर बाई-फ़ोकल के फ़ोकस में नहीं आती।एक सानिहा हो तो बयान करें।परसों रात दावत-ए-वलीमा में जिस चीज़ को डोंगा समझकर झपा-झप इसमें से पुलाव की सारी बोटियाँ गिरालीं,वह एक मोलवी साहब की प्लेट निकली जो ख़ुद उस वक़्त ज़रदे की कश्ती पर बुरी नज़र डाल रहे थे।या कल रात घुप अंधेरे सेनेमा हाल में इंटरवल (जिसे मिर्ज़ा वक़्फ़ा-ए-ताक झांक कहते हैं) के बाद शाने पर हाथ रक्खे, जिस सीट तक पहुँचने की कोशिश की,वह सीट हमारी नहीं निकली। और न वह शाना हमारी अहलिय्या का!

इंसान की कोई महरूमी ख़ाली-अज़-हिकमत नहीं।जैसे-जैसे कुछ दूर ब-क़द्र हमारी ताब-व-तहम्मुल के हमें अता होता है,क़ल्ब बसीरतों से गुदाज़ होते चले जाते हैं।इंसान जब चश्म-व-गोश का मोहताज न रहे और उसे अटकल से जिंदगी गुज़ारने का हुनर आ जाए तो सही माअनों में नज़्म-व-ज़ब्त का आग़ाज़ होता है।मिर्ज़ा के अलावा भला यह और किसका क़ौल हो सकता है कि काया का सुख चाहो तो जवानी में बहरे बन जाओ और बुढ़ापे में अंधे।हवस-ए-सैर-व-तमाशा तो ख़ैर पुरानी बात हुई,हम तो अब बीनाई का भी हुड़का नहीं करते।हो हो न हो न हो।अब तो हर चीज़ को अपनी जगह रखने की आदत पड़ गई है।अलमारी में दाईं तरफ पतलून,बाईं तरफ पुरानी क़मीज़े जिन्हें अब हम सिर्फ़ बंद गले के सुइटर के नीचे पहन सकते हैं। दूसरे ख़ाने में सलीक़े से तह किया हुआ बंद गले का सुइटर जो अब सिर्फ़ बंद गले के कोट के नीचे पहना जा सकता है।आँख बंद कर के जो चाहो,निकाल लो।ग़र्ज़ कि हर चीज़ का अपना मक़ाम बन जाता है जा-नमाज़ की जगह जा-नमाज़।रिक़्क़त अंगेज़ नाविल की जगह आँसुओं से भीगी हुई चेक बुक।महबूबा की जगह मनकूहा......तकिया की जगह गाव-तकिया!

ज़रा तरतीब बिगड़ी और आबरूए शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई।लेकिन जिस घर में ब-फज़ल-ए-ताला बच्चे हों वहाँ यह रख रखाव मुमकिन नहीं।और रख-रखाव तो हमने त्क्ल्लुफ़्न कह दिया वर्ना सच पूछिए तो कुछ भी म्मकिन नही।

दिल साहब-ए-औलाद से इंसाफ तलब है

एक दिन हमने झुंझला कर बेगम से कहा,यह क्या अंधेर है।तुम्हारे लाडले हर चीज़ जगह से बे जगह करदेते हैं। कलसे चाक़ू ग़ाइब था।अभी उक़्दा खुला कि इससे गुड़िया का अपेंडिक्स निकाला गया था!तुनक कर बोलें,और क्या कुल्हाड़ी से गुड़िया का पेट चीरा जाता?हमने झट उनकी राय से इत्तेफ़ाक़ करते हुए कहा,हाँ! यह कैसे मुमकिन है।इसलिए कि कुल्हाड़ी के डण्डे से तो इस घर में कपड़े धोए जाते हैं! तुम ही बताओ,सुब्हा ताज़ा मज़मून की नाव बल्कि पूरा बेड़ाटीब में सफ़ा वार नहीं चल रहा था? तुम्हारे घर में हर चीज़ का नया तरीक़-ए-इस्तेमाल,एक नया फ़ाईदा दरयाफ़्त होता है........सिवाए मेरे! तुम्हारे सामने की बात है।कह दो,यह भी झूट है।परसों दोपहर अख़बार पढ़ते-पढ़ते ज़रा देर को आँख लग गई। खुली तो ऐनक गाईब। तुमसे पूछा तो उल्टी डांट पड़ी“ अभी से काहे को उठ बैठे।कुछ देर और सो लो।अभी तो गुड्डू मियाँ तुम्हारा बाईफ़ोकल लगाए अंधा भैंसा खेल रहे हैं!बिलकुल अपने बाप पर पड़े हैं।”बच्चे सभी के होते हैं।मगर घर का घर वाया कहीं नहीं होता।सुब्हा देखो तो सिग्रेट लाइटर की लौ पर हिन्ड-कुलिया पकाई जा रही है।शाम को ख़ुद बेगम साहब गीले बाल बिखेरे, पंद्रह गज़ घेर की शलवार में हमारी पेंसिल से सट-सट कमर बंद डाल रही है।

सुर्ख़ चूड़िया छनकाकर सुहाग रात छेड़ते हुए बोलीं, हाय अल्लाह! दफ़्तर का ग़ुस्सा घर वालों पर क्यूँ उतार रहे हो? किसी ने तुम्हारी पेंसिल से कमर बंद डाला हो तो उसके हाथ टूटें। मैं ने तो तुम्हारे“पारकर”से डाला था!चाहे जिसकी क़सम ले लो।रहे बच्चे तो उनके नसीब में तुम्हारी इस्तेमाली चीज़े ही लिखी हैं।फिर भी आज तक ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने चीज़ वापिस वहीं न रखी हो।हमने कहा,यक़ीन न हो तो ख़ुद जाकर अपनी बड़ी बड़ी आंखों से देख लो।सेफ़्टी रेज़र का ब्लेड ग़ाएब है।बोलीं कम-अज़-कम ख़ुदा से तो डरो।अभी-अभी मेरे सामने नबीला ने पेंसिल छील कर वापिस रेज़र में लगाया है।वह बेचारी ख़ुद-एहतियात करती है!

मिर्ज़ा ने मौज़े चाकसू (ख़ुर्द-व-कलाँ) के नीम बुज़ुर्गों की अंजुमन की दाग़ बैल डाली तो हफ़्तों इस तज़ब्ज़ुब में रहे कि क्या रक्खा जाए।प्रोफ़ेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस एम.ए(गोल्ड मेडिलिस्ट)ने“अंजुमन-ए-अफ़सुर्दा दलान-ए-चाकसू,रजिस्टर्ड”तजवीज़ किया जो इस बिना पर मुस्तर्द कर दिया गया कि मिम्बरी का दार-व-मदार महज़ अफ़्सुर्दा दिली पर रखा गया तो चाकसू के तमाम शायर माअ ग़ैर-मतबूआ दीवान घुस आएँगे।ख़ासी बहस-व-तमहीस के बाद तय पाया कि इस ग़ौल-ए-कहूलाँ का नाम“बाई फ़ोकल कलब”निहायत मौज़ू रहेगा कि बाई फ़ोकल एक लिहाज़ से तमाम दुनिया के अधेड़ो का क़ौमी निशान है।

इंसान की फ़ितरत भी एक तुर्फा तमाशा है।बूढ़ा हो या बच्चा,नौजवान हो या अधेड़,आदमी हर मंजिल पर अपनी उम्र के बाब में झूट ही को तरजीह देता है।लड़के अपनी उम्र दो-चार साल ज़्यादा बता कर रोअब जमाते हैं। यही लड़के जब नाम-ए-ख़ुदा जवान हो जाते हैं तो नौजवान कहलाना पसंद करते है। जो अधेड़ मर्द निस्बतन रास्त-गो वाक़े हुए हैं,वह अपनी उम्र दस बरस कम बताते हैं। औरतें अल्ब्त्ता हमेशा सच बोलती हैं...........वह एक दूसरे की उम्र हमेशा सही बताती हैं।हक़ीक़त यह है कि ख़ून,मुश्क,इश्क और नाजाईज़ दौलत की तरह उम्र भी छुपाए नहीं छुपती।बाई-फ़ोकल,अल्सर,बद-नज़री,गाफ़,नई नस्ल से बे-ज़ारी,रक़ीक़-उल-क़्लबी और आसूदा हाली......यह उम्र-ए-वस्ता की जानी पहचानी निशानियाँ हैं।इन सात सिफ़ात में से छः की बिना पर(यानी आसूदा हाली को छोड़ कर)जो हमारी ज़ात के कूज़े में बंद हो गई थीं,हमें बिला मुक़ाबिला बाई-फ़ोकल कलब का सेक्रेटरी जनरल मुंतख़िब किया गया।

कलब की रुकनियत की बुनियादी शर्त यह है कि आदमी चालीस साल का हो।और अगर ख़ुद को इससे भी ज़्यादा महसूस करता हो तो कहना ही क्या।हज़रत हफ़ीज़ जालंधरी के अल्फ़ाज़ में यह वह अजब मरहल-ए-उमर है कि आदमी को

हर बुरी बात, बुरी बात नज़र आती है!

यह वह दौर-ए-आफ़ीयत है जब आदमी चाहे भी तो नेकी के अलावा और कुछ नहीं कर सकता।इंडोनेशिया के साबिक़ सद्र सुईकारनो का क़ौल है कि तीस बहारों के बाद रबर का दरख़्त और बिंत-ए-हव्वा किसी मसरफ़ के नहीं रहते,जब कि मर्द किसी उम्र में हुस्न से मामून नहीं।ऐसे मक़ूले की तरदीद या ताईद हमारे बस का काम नहीं।सुईकारनो तो बुज़ुर्ग-ए-मरदुम दीदा-व-ज़नगुज़ीदा होने के अलावा सदारत के सदमें भी उठाए हुए हैं।हम तो उनसे भी महरूम हैं।फिर यह कि छोटे मुंह को बुरी बात ज़ेब भी नहीं देती।रबर के बारे में हम अभी सिर्फ़ इतना दर्याफ़्त कर पाए हैं कि ग़लतियों को मिटाने के लिए ख़ासी कार आमद चीज़ है।रही सिन्फ़-ए-नाज़ुक,सो अपने मोहतात-व-महदूद मुशाहदे की बिना पर हम कोई ख़ूब-सूरत झूट नहीं बोल सकते।शैरनी को कछार में कुलीलैं करते देखना और बात है और सर्क्स के पिंजरे में बैंड की धुन पर लौटें लगाते हुए देखना और बात।

अलबत्ता अपने हम जिंसों के बारे में बहुत से बहुत कह सकते हैं तो यह कह सकते हैं कि सायं-सायं करता रेगिस्तान जो रातों-रात जितती-जितती ज़मीन को निगलता चला जाता है,वह लक़-व-दिक़ सेहरा-ए-आज़म जो सिन-ए-रसीदा सीनों में दमा-दम फैलता रहता है,वह किसी भी लम्हे नुमूदार हो सकता है कि दिल आँख से पहले भी बूढ़े हो जाया करते हैं।इस हूके सेहरा में गूंज के सिवा कोई सदा,कोई निदा सुनाई नहीं देती और कैक्टस के सिवा कुछ नहीं उगता।मिर्ज़ा इस बंजर,बे-रस,बे-रंग,बे-उमंग धरती को NO WOMAN’S LAND कहते हैं।जिसकी मिली जुली सरहदें सिर्फ बाई-फ़ोकल से देखी जा सकती हैं।ये बढ़ते हुए सायों और भीनी भीनी यादों की सर-ज़मीन है जिसके बासी प्यास को तरस्ते हैं और बे-प्यास पीते हैं कि उन्हें

इसका भी मज़ा याद है,उसका भी मज़ा याद

एक दिन हमें ऊपर के शीशे से सफा-नंबर और निचले से फुट-नोट पढ़ता देखकर मिर्ज़ा मुंह ऊपर नीचे करके हमारी नक़्ल उतारने लगे।हाज़िरीन को हमारे हाल पर ख़ूब हंसा चुके,तो हमने जलकर कहा,अच्छा,हम तो महज़ नेक चलनी की वजह से क़ब्ल अज़-वक़्त अंधे हो गए,लेकिन तुम किस ख़ुशी में ये बोतल के पेंदे जितनी मोटी ऐनक चढ़ाऐ फिरते हो?फ़रमाया,मगर यह बाई-फोकल नहीं है।हमने कहा,तो क्या हुआ?जिस ऐनक से तुम मुंह अंधेरे तफसीर-ए-माजिदी की हिल-हिल के तिलावत करते हो,उसी से रात ढले आँखें फ़ाड़-फ़ाड़ के सतर कुशा कबीरे देखते हो! फ़र्माया,बरख़ुरदार! इसीलिए हमारा दिल आज तक सालिम है!

और यह बड़ी बात है।इसलिए कि मिर्ज़ा(जो बीस साल से ख़ुद को मरहूम कहते और लिखते आए हैं)अब तक छोटे बड़े मिलाकर 37 मुआशक़े कर चुके हैं।हर महबूबा की याद को ‘लेबल’ लगा कर इस तरह रख छोड़ा है जैसे फ़ुटपाथ पर मजमा लगा के दवाएँ बेचने वाले ज़हरीले सांपों और बिछ्छुओं को स्प्रिट की बोतलों में लिए फिरते हैं।इन मआशक़ो का अंजाम वही हुआ जो होना चाहिए,यानी नाकामी।और यह अल्लाह ने बड़ा फ़ज़ल किया,क्योंकि ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वह कामियाब हो जाते तो आज मिर्ज़ा के फ़्लेट में 37 निफ़र दुल्हनें बैठी बल्कि खड़ी होतीं।लेकिन पे-दर-पे नाकामियों से मिर्ज़ा के पाए-ए- हिमाक़त में ज़रा लग़ज़िश न आई।दो चार टांगें टूटने से ख्ंकहुजरा कहीं लंगड़ा होता है? 32वीं नाकामी का अल्बत्ता क़ल्ब ने बड़ा असर लिया।और उन्होंने फैसला किया कि रावी के रेलवे पुल से छलाँग लगा कर ख़ुद-कशी कर लें।लेकिन इसमें यह अंदेशा था कि कहीं पहले ही ट्रेन से कट न जाएँ।मुतवातिर तीन-चार शब दूसरा सिनेमा शो भी इस सोचे समझे मंसूबे के तहत देखने गए कि वापसी में माल पर कोई उन्हें बे-दर्दी से क़त्ल कर दे।लेकिन किसी ग़ुंडे ने जागती जगमगाती सड़क पर उनके फ़ासिद ख़ून से अपने हाथ नहीं रंगे।सितम यह कि किसी ने वह जेब तक न काटी,जिसमें वह हिफ़ाज़ती पिस्तौल भी छुपा कर ले जाते थे।सब तरफ़ से मायूस होकर उन्होंने हज़रत दाता गंज बख़्श की दरगाह का रुख़ किया कि इसी का मीनार सबसे बुलंद और क़रीब पड़ता था।मगर वहाँ देखा कि उर्स हो रहा है।आदिमियों पर आदमी टूटे पड़ते हैं।मौसम भी कुछ मुनासिब सा है।चुनांचा फ़िलहाल इरादा मुलतवी कर दिया और बानो बाज़ार से चाट खाकर वापिस आ गए।

ज़रा इत्तिफ़ाक़ तो देखिए कि दो दिन बाद ये मीनार ही गिर गया।मिर्ज़ा ने अख़बार में ख़बर देखी तो सर पकड़ कर बैठ गए।बड़ी हसरत से कहने लगे, साहब!अजीब इत्तफ़ाक़ है कि मै उस वक़्त मीनार पर नहीं था।बरसों इसका क़लक़ रहा।

अपनी-अपनी फ़िक्र और अपनी-अपनी हिम्मत की बात है।एक हम हैं कि जो रातें गुनाहों से तौबा व इसतग़फार में गुज़रनी चाहिएं,वह अब उलटी उनकी हसरत में तरसते फिड़कते बीत रही हैं। नैन कंवल खिले भी तो पिछले पहर की चांदनी में।और एक मिर्ज़ा हैं कि नज़र हमेशा नीची रखते हैं, लेकिन हसीनान-ए-शहर में से आज भी कोई सुलूक करे उससे इंकार नहीं।उन्हीं का क़ौल है कि आदमी बुलहवसी में कमज़ोरी या काहिली दिखाए तो निरी आशक़ी रह जाती है।हमने देखा कि हालात कैसै ही ना-मुसाइद हों,बल्कि अगर बिलकुल नहवत है,लेकिन तबीयत हाज़िर है तो मिर्ज़ा संगलाख़ चट्टानों से जू-ए-शीर ही नहीं,ख़ुद शीरीं को बर-आमद करने का सलीक़ा रखते हैं।बलकि एक आध दफ़ा तो यह चोट भी हुई कि कोहे-कुंदन,कोहन बर-आवरदन! 1958 का वाक़िआ है।हमारे इसरार पर एक बेबी शो (शेर ख्वार बच्चो की नुमाइश) में जज बनना मंज़ूर किया और वहाँ एक वालिदा पर आशिक़ हो गए।पहला इनाम उसी को दिया।

4 अगस्त 66- दोपहर का वक़्त।दिन पहले प्यार की मानिंद गरम। बदन कोरी सुराही की तरह रिस रहा था।हम गर्द उड़ाते,ख़ाक फांकते मिर्ज़ा को इकतालिसवीं साल गिरह की मुबारक-बाद देने गुलबर्ग पहुँचे।मिर्ज़ा कराची से नए नए लाहौर आए थे और मक़ामी ‘कलर स्कीम’ से इस दर्जा इख़्तिलाफ़ था कि सफेदे के तनो को नीला पेंट करवा दिया था।इनके बैरे ने बर-आमदे से ही हांक लगाई कि साहिब जी!वह जो मोटर साईकिल रिश्का के आगे एक चीज़ लगी होती है,सिर्फ उस पर बैठ के एक साहब मिलने आए हैं!लेकिन मिर्ज़ा ने न यह ऐलान सुना और न हमारी मोटर साइकिल की फ़ट-फ़ट,इसलिए कि उस वक़्त वो साल गिरह के मुरग़्गन लंच के बाद आराम कुर्सी पर आँखें बंद किए ‘केस नंबर 29’ को आग़ौश-ए-तवज्जो में लिए बैठे थे।हमने शाना झिझोंड़ कर मदाख़लत बजा करते हुए कहा,मिर्ज़ा!अजीब बात है।हर सालगिरह हमारी ऐनक के नंबर और बे-दिली में इज़ाफ़ा कर जाती है और हमें हर शैय में एक ताज़ा दरार पड़ी नज़र आती है।मगर तुम हो कि आज भी सितारों पर कुमंद डालने का हौसला रखते हो।बोले,शुक्रिया!नितशे का फ़ैज़ान है।हमने कहा कि मगर हमारा मतलब फ़िलमी सितारों से था!फ़ौरन शुक्रिया वापिस लेते हुए फरमाया “…..ET TU BRUTUS?”

दो चार बरस की बात नहीं, हम ने मिर्ज़ा का वह ज़माना भी देखा है जब

घंघोर घटा तुली ख़ड़ी थी

पर बूंद अभी नहीं पड़ी थी

अभी वह इस लाईक़ भी नहीं थे कि अपने टुवय्याँ तोते की कफ़ालत कर सकें,लेकिन दिल-ए-नासबूर का यह रंग था कि अलजेब्रा के घंटे में बड़ी महविय्यत से अपने हाथ की रेखाओं का मुताला करते रहते।उम्र की लकीर उनकी ज़ाती ज़रूरत से कुछ लंबी ही थी।मगर शादी की फ़क़त एक ही लाइन थी,जिसे रगड़-रगड़ के देखते थे कि शायद पिछले चौबीस घंटों में कोई शाख़ फूटी हो।मुद्दत-उल-उम्र मूत्तादीद ख़ानदानी बुज़ुर्ग उनकी जवानी पर साया फ़गन रहे।बारे उनके घने-घने साए सर से उठे तो पता चला कि दुनिया इतनी बुरी जगह नही!लेकिन एक मुदत तक माली हालात ने रुख्स्त-ए-आवारगी न दी औरजी मार-मार के रह गऐ!वर्ना उनका बस चलता तो बची खुची मता-ए-उम्र को इस तरह ठिकाने लगा देते,जैसे दिल्ली के बादशाह लदे-फंदे बाग़ लौंडियों से लुटवा दिया करते थे। मिर्ज़ा 1948 तक मिर्ज़ा याना बसर करते रहे।यानी मिजाज़ रईसाना और आमदनी फ़क़ीराना रखते थे।शादी की हिम्मत नहीं पड़ती थी।ख़ुदा भला करे प्रोफेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस का,जिन्हों ने ऐक दिन अपनी हथेली पर क़लम से ज़रब-ए-तक़्सीम करके मिर्ज़ा को एदाद-व-शुमार से क़ाईल कर दिया कि जितनी रक़म वह सिग्रेटों पर फूंक चुके हैं,उससे सुघड़ शौहर चार दफ़ा महर बेबाक़ कर सकता था।आख़िर हम सबने लग लिपट कर उनकी शादी करवा दी।दो चार दिन तो महर-ए- मुआजिल कि दहशत से सहमे-सहमे फिरे और जैसे-तैसे अपने आपको सँभाले रखा,लेकिन हनीमून का हफ़ता ख़त्म होन से पहले इस हद तक नारमल हो गए कि बे तकल्लुफ़ दोस्तों को छोरीये,ख़ुद नई नवेली दुल्हन की ज़बान पर भी यूँही कोई ज़नाना नाम आ गया तो मिर्ज़ा तड़प कर मुजस्सम सवाल नामा बन गएः

कहाँ है? किस तरह की है? किधर है?

उन्हीं के एक ब्रादर-ए-निस्बती से रिवायत है कि ऐन आरसी मुसहिफ़ के वक़्त भी आइने में अपनी दुल्हन का मुंह देखने के बजाए मिर्ज़ा की निगाहें उसकी एक सहेली के चेहरे पर जमी हुई थीं।दुनिया गवाह है (दुनिया से यहाँ हमारी मुराद वही है,जो मिर्ज़ा की,यानी आलम-ए-निसवाँ) कि मिर्ज़ा ने जिस पे डाली,बुरी नज़र डाली,सिवाए अपनी बीवी के।मौसूफ़ का अपना बयान है कि बंदा शीर-ख़्वारगी के आलम में भी बीस साल से ज़्यादा उम्र की आया की गोद में नहीं जाता था।कभी-कभी अपनी ना-दीदी आँखों से ख़ुद पनाह मांगने लगते है।ज़ुकाम के सह-माही हमले के दौरान हमारा हाथ अपने हाथ में लेकर कई बार वसिय्यत कर चुके हैं कि मैं मरने लगूँ,तो लिल्लाह एक घंटा पहले मेरी ऐनक उतार देना, वर्ना मेरा दम नहीं निकलेगा।हमने एक दफ़ा पूछा मिर्ज़ा! हमें यह कैसे पता चलेगा कि तुम्हारे दुश्मनों के मरने में अब एक घंटा रह गया है? बोले, जब मैं नर्स से डियूटी के बाद का फ़ोन नंबर पूछने के बजाए अपना टेम्प्रेचर पूछने लगूँ, तो समझ लेना कि तुम्हारे यार-जानी का वक़्त आन लगा है!

मगर मिर्ज़ा की बातें ही बातें हैं।वर्ना कौन नहीं जानता कि उनके सीने में जो बांका-सजीला डॉन-वान धूमें मचाया करता था,वह अब पिछले पहर दोहरा हो-होकर खांसने लगा है।अब वो आतिश-ए-दान के सामने कंबल का घूँघट निकाले,कपकपाती आवाज़ में अपने नियाज़-मंदों को इस अहद-ए-रंगीं की दासतानें सुनाते हैं जब वो अलस्सूबह FRIDGE के पानी से नहाया करते थे।वह तो यहाँ तक शेख़ी मारते हैं कि आज कल के मुक़ाबले में उस ज़माने की तवाइफैं कहीं ज़्यादा बद-चलन हुआ करती थीं।

मिर्ज़ा का ज़िक्र,और फिर बयाँ अपना! समझ में नहीं आता किस दिल से ख़त्म करें।लेकिन कलब के सरपरस्त-ए-आला फहीमुल्ला ख़ान का तआरुफ रहा जाता है।यह उन्हीं के दम क़दम बल्कि दाम-व-दरम का ज़हूरा है जिसने चाक-सू ख़ुर्द-व-कलाँ के तमाम अधेड़ो को बग़ैर किसी मक़्सद के एक प्लेट फार्म पर जमा कर दिया।ख़ान साहब हर नस्ल की अमेरिकी कार और घोड़ों के दिल-दादा हैं।आख़िर-उज़-ज़िक्र की रफ़तार-व-किरदार से इतने मुताअस्सिर होते हैं कि किसी हसीन ख़ातून की इंतिहाई तारीफ़ करनी मक़सूद हो तो उसे घोरी से त्शबीह देते है!अवौरो पर बहुत हुआ तो रिज़्क़ का ऐक द्रवज़ा खूल जाता है!उनपर पूरी बारह दरी खुली हुई है।और वह भी रोज़-ए-अव्वल से वर्ना होने को तो फ़ारिग़-उल-बाली हमें भी नसीब हुई,मगर बक़ौल-ए-शायर

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो

हम जब चौथी जमाअत में पहुंचे तो उनके बड़े साहब-ज़ादे मैट्रिक में दूसरी दफ़ा फेल हो चुके थे।लेकिन पीरी का एहसास तो कुजा,जबसे हमने बाई फ़ोकल लगाया है,हमें अपनी ताज़ा तरीन यानी माह-ए-रवाँ की मंज़ूर-ए-नज़र से “अंकल” कहलवा कर हसीनों की निगाह में हमारी इज़्ज़त और उम्र बढ़ाते हैं। जिस मुक़ाम पर हम अब लाहौल पढ़ने लग गए हैं,वहाँ उनकी ज़बान अभी तक सुबहान-अल्लाह सुबहान-अल्लाह कहते सूखी जाती है।हमने उनकी जवानी की गर्मियाँ नहीं देखीं। हाँ,बड़े बूढ़ों से सुना है कि जब मौसूफ की जवानी मोहल्ले की दोशेज़ाओं के वालिदैन पर गिराँ गुज़रने लगी तो उन्होंने हम-सायों के दर-व-दीवार पे हसरत से नज़र करके चाक-सू ख़ुर्द को ख़ैर-बाद कहा और मुम्बई का रुख़ किया,जहाँ उनकी आढ़त के साथ-साथ 1947 तक कई ऊंचे घरानों की रोशन ख़याली पर मुतासरूफ़ रहे।मिर्ज़ा का कहना है कि उनका दिल शुरू ही से बहुत बड़ा था।उनका मतलब है कि ईसमें बैक-वक़्त कई मस्तूरात की समाई हो सकती थी।ख़ूबसे-ख़ूबतर की जुस्तजू उन्हें कई बार क़ाज़ी के सामने भी ले गई। और हर निकाह पे फिर-फिर के जवानी आई कि यह

असा है पीर को और सैफ़ है जवाँ के लिए

उनके क़हक़हे में जो गूंज और गुमक है,वह सिंध कलब के अंग्रेज़ों की सोहबत और वहीं की विहिस्की से कशीद हुई है।ख़ुश-बाश,ख़ुश-लिबास, शाह-ए-ख़र्च।नाजाएज़ आमदनी को उन्होने हमेशा नाजाएज़ में ख़र्च किया।तबीयत धूप घड़ी की मानिंद जो सिर्फ़ रोशन साअतों का शुमार रखती है।क़ौमी हैकल, चौड़ी छाती,खड़ी कमर,कंधे जैसे ख़रबूज़े की फांक,खुलती बरसती जवानी।और आँखें?इधर दो तीन साल से ऐनक लगाने लगे हैं,मगर धूप की वह भी उस वक़्त जब सेंड्ज़पिट के लिबास दुश्मन-ऐ-साहिल पर ग़ुस्ल-ए-आफ़ताबी के नज़्ज़ारे से उनकी गदली-गदली आंखों में एक हज़ार “स्कैंडल पावर” की चमक पैदा हो जाती है और वह घंटों किसी को नज़रों से ग़ुस्ल देते रहते हैं।पास की नज़र ऐसी कि अब तक अपनी जवान जहान पोतियों के नाम के ख़त खोल कर बग़ैर ऐनक के पढ़ लेते हैं। रही दूर की नज़र,सो जितनी दूर नारमल आदमी की नज़र जा सकती है,उतनी दूर बुरी नज़र से देखते हैं।

1965-1968 ई.

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