Monday, 13 February 2017

दस्त-ए-ज़ुलेखा / मुशताक़ अहमद यूसुफ़ी

बाबा-ए-अग्रेज़ी डाक्टर स्मवैल जानसन का यह क़ौल दिल कि सियाही से लिखने कि लाइक़ है कि जो शख़्स रुपे के लालच के इलवा किसी और जज़्बे के तहत किताब लिखता है,उससे बरा अहमक़ रु-ए-ज़मीन पर कोई नही! हमें भी इस कुल्लीए से हर्फ़-ब-हर्फ़ इत्तिफाक़ है, बशर्तेकि किताब से मुराद वही है जो हम समझे है,यानि चेक-बुक या रोकर-बही! दिबाचे में यह अज़बस ज़रूरी है कि यह किताब किस माली या आल्हामी दबाव से नीढाल होकर लिखी गयी! चूनांचे जो अहल-ए-क़लम ज़हीन हें,वह मुश्क़ की तरह खुद बोलते हें! जो ज़रा ज़ियादा ज़हीन हें,वह अपने कंधो पर दूसरों से बंदूक चलवाते हें! ख़ुद दीबाचा लिखने में वही सहूलत और फ़ाईदे मुज़मीर है,जो ख़ुद-कशी में होते है! यानी तारीख़-ए-वफ़ात,आला-ए-क़त्ल और मौक़ा व इराद्त का इंतिख़ाब साहिब-ए-मुआमला ख़ुद करता है! और ताअज़ीरात-ए-पाकिस्तान में यह वाहिद जुर्म है,जिसकी सज़ा सिर्फ़ उस सूरत में मिलती है कि मुल्ज़िम इर्तकाब-ए-जुर्म में कामियाब ना हो!1961 में पहली नाकाम कोशिश के बाद बहमद-उल-लिल्हा हमे एक बार फिर यह साआदत ब्क़्ल्म-ए-ख़ुद नसीब हो रही है1 तीशे बगेंर मर न सका कोहक्न असद!

इंसान को हैवान-ए-ज़रीफ़ कहा गया है! लेकिन यह हैवानों के साथ बड़ी ज़ियादती है,इसलिए कि देखा जाए तो इंसान वाहिद हैवान है जो मुसीबत पड़ने से पहले मायूस होजता है! इंसान वाहिद जानदार है ,जिसे ख्लाक़-ए-आलम ने अपने हाल पर रोने के लिए गूदूद-ए-गिरियाँ बख़्शे है! क्स्र्त-ए-इस्तिमल से यह बढ़ जाएं तो हस्सास तंज़-निगार दुनिया से यू ख़फ़ा होजते है जैसे अगले वक़्तों में आक़ा नमक-हराम लौंडीयो से रुठ जाया करते थे!ल्ग्ज़ीश-ए-गैर पर उन्हें हंसी के बजाए तैश आजाता है!ज़्हीन लोगों कि एक क़िस्म वह भी है जो अहमक़ों का वजूद सिरे से बर्दाश्त ही नहिं करसकती!लेकिन जैसाकी मारकोइस दी सीड ने कहा था, वह यह भूल जाते है कि सभी इंसान अहमक़ होते है! मौसुफ़ ने तो यह मशवीरा भी दिया है कि अगर तुम वाक़ई किसी अहमक़ कि सूरत नही देखना चाहते तो ख़ुद को अपने कमरे में मुक़फ़िल करलो और आईना तोड़-कर फ़ैक दो!

लेकिन मज़ाह निगार के लिए नसीहत, फ़्ज़ीहत और फैहमाइश हराम है! वह अपने और तल्ख़-हकाईक़ के दरमियान एक क़द-ए-आदम दीवार-ए-क़हक़हा खड़ी करलेता है! वह अपना रों-ए-खुन्दा,सूरज-मुखी फूल कि मानीन्न्द, हमेशा सरचश्मा-ए-नूर कि जानिब रखता है और जब उसका सूरज डूब जाता है तो अपना रुख उस सम्त कर-लेता है, जिधर से वह फिर तुलू होगा!

ह्म-ए-आफताब बीनम, ह्म-ए-आफताब गोयम

ना शूबम, ना शब-पर सितम कि हदीस-ए-ख़्वाब गोयम

हीस्स-ए-मज़ाह ही दरअसल इंसान कि छटी हीस है! यह हो तो इंसान हर मुक़ाम से आसान गुज़र जाता है!

बे नशा किसको ताक़त-ए-आशूब-ए-आगही

यू तो मज़ाह, मज़हब और अलकहल हर चीज़ में ब-आसानी हल होजाते है, बिलखुसूस उर्दू अदब में! लेकिन मज़ाह के अपने तक़ाज़े, अपने अदब आदाब है! शर्त-ए-अवौल यह कि ब्र्ह्मि, बेज़ारी और कुदूरत दिल में राह न पाए! वर्ना यह बूमरिंग पलट-कर ख़ुद शिकारी का काम तमाम कर-देता है! मज़ा तो जब है कि आग भी लगे और कोई उंगली ना उठा सके कि ‘यह घूआ सा कहा से उठता है?’ मज़ाह निगार उस वक़्त तक तबस्सुम ज़ेरे-लब का सज़ा-वार नही, जब तक उसने दुनिया और अहल-ए-दुनिया से रज-के (जी भर-के) प्यार न किया हो! उनसे ! उनकी बे-मेहरी व कम-निगही से! उनकी तर-दामनी और त्क़्द्दूस से! एक पैम्बर के दामन पर पड़ने वाला हाथ गुस्ताख़ ज़रूर है, मगर मुश्ताक़ व आरज़ूमंद भी है ! यह ज़ुलेखा का हाथ है ! ख़्वाब को छोड़कर दिखने वाला हाथ!

सबा के हाथ में नर्मी है अनके हाथों की

एक साहिब-ए-तर्ज़ अदीब ने , जो सुख़न फ़्हम होने के इलवा हमारे तरफ़दार भी है (तुझे हम वली समझते जो न सूद ख़्वार होता.....की हद-तक) एक रिसाले में दबी ज़बान से यह शिकवा किया कि हमारी शोखी-ए-तहरीर मसईल-ए-हाज़रा के अक्स और सियासी सोज़-व-गुदाज़ से आरी है! अपनी सफ़ाई में हम मुख्त्सरन इतना ही अर्ज़ करेंगे कि तआन-व-तशनी से अगर दूसरों कि इसलाह हो जाती तो बारूद ऐजाद करने कि ज़रुरत पेश ना आती!

लोग क्यो ,कब और कैसे हँसते है?जिस दिन इन सवालों का सही-सही जवाब मालूम होजाएगा,इंसान हँसना छोड़ देगा! रहा यह सवाल कि किस पर हँसते हें? तो इसका इन्हेसार हुकूमत कि ताब व रवादारी पर है!अंग्रेज़ सिर्फ़ उन चीजों पर हँसते है,जो उनकी समझ में नही आती.....प्ंच्तंत्र के लतीफे, मौसम, औरत, तजरीदी आर्ट! इसके बर-अक्स, हमलोग उन चीजों पर हँसते है,जो अब हमारी समझ में आगयी हें!मसलन्न अंग्रेज, इश्क़िया शाइरी,रूपिया कमाने कि तरकीबे, बुनियादी जम्हूरियत!

फ़कीर की गाली, अवौरत के थप्पड़ और मस्ख्रे की बात से आज़ूर्दा नहीं होना चाहिए!यह क़ौल-ए-फ़ैसल हमारा नही,मवौलाना ऊबैद ज़ाकानी का है!मज़ाह निगार इस लिहाज़ से भी फ़ाईदे में रहता है कि उसकी फ़ाश से फ़ाश गल्ती के बारे में भी पढ़ने वाले को यह अंदेशा लगा रहता है कि मम्किन है,इसमें भी तफ़ानून का कोई लतीफ़ पहलू पोशीदा हो,जो गालेबन्न मौसम कि ख़राबी के सबब उसकी समझ में नही आरहा!इस बुनियादी हक़ से दस्तबरदार हुए बगैर,यह तस्लीम कर-लेने में चुन्दा मज़ाईक़ा नही कि हम ज़ुबान और क़वाईद कि पाबंदी को तकालूफ़-ए-ज़ाईद तसवौर नही करते!यह इतरफ़-ए-अज्ज़ इसलिए और भी ज़रूरी है कि आज-कल बआज़ अहले-क़लम बड़ी कोशिश और काविश से गलत ज़ुबान लिख रहे है!हाँ,कभी-कभार बे-धियानि या महज़ आल्क्स में सही ज़ुबान लिख जाएं तो और बात है!भूल-चूक किस-से नही होती?

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